मंगलवार, 29 जनवरी 2019

एक 'अनथक विद्रोही' का अवसान

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
आंख हैरान है क्या शख्स जमाने से उठा

हालांकि उनकी शख्सियत को शख्स तक समेटना शायद शाब्दिक कंजूसी होगी, क्योंकि भारतीय राजनीति को अगर ईमानदार शब्दों में संजोया जाय, तो कलम को सर्वाधिक बार इसी नेता के नाम से होकर गुजरना होगा... अब यह सिर्फ इतिहास की बात है कि सिक्कों की खनक पर थिरककर लोहिया के विचारों को तिलांजलि देने वाले समाजवादियों के देश में एक ऐसा नेता भी हुआ, जिसने आईबीएम और कोकाकोला जैसी कम्पनियों को भारत से खदेड़कर उनका स्वदेशी विकल्प जनता के सामने परोसा... यह भी अब सिर्फ इतिहास है कि लटियन दिल्ली वाले आलीशान बंगले के शानदार एसी कमरे से एसी गाड़ी में निकलते हुए रायसीना की पहाड़ियों पर बनी अद्भुत इमारत के वैभवपूर्ण ऑफिस तक जाकर कागजों पर दस्तखत कर देने भर को एक मंत्री के कार्यों का निर्वहन समझने वाले नेताओं के देश में एक ऐसा मंत्री भी हुआ, जिसने रक्षा मंत्री के रूप में सेना के जवानों लिए सर्वाधिक दुर्गम माने जाने वाले सियाचिन का 24 बार दौरा किया और इतिहास यह भी याद रखेगा कि इसी सेनापति के नेतृत्व में कारगिल की चोटियों पर भारतीय जवानों ने पाकिस्तान पर फतह पाई... एसी कमरों की ऐश-ओ-आराम वाली जिंदगी के चंद पलों में दलितों-शोषितों के साथ खड़े होने को कम्युनिज्म बताने वालों के देश में इतिहास ने शायद ही दोबारा ऐसा 'कम्युनिस्ट' देखा, जिसने मजदूरों के लिए सड़कों पर नारे भी लगाए, जिसका अभिवादन लाल सलाम से होता था, जिसके घर की दीवार पर हिरोशिमा में परमाणु बम की विभीषिका की तस्वीरें टंगी थीं, लेकिन बावजूद इसके, देशहित में किए गए परमाणु परीक्षण स्थल पर वो सिर पर लाल साफा बांधे खड़ा था... हालांकि उनके इस कदम को कई बार सियासी नजरिए से गलत करार दिया जाता है, लेकिन सियासी स्वार्थसिद्धि के आगे दोस्ती और रिश्तों को तिलांजलि देने वालों की राजनीतिक जमात में कितने ऐसे नेता हुए जो दोस्ती की लाज रखने के लिए उस सरकार को ही समर्थन ना करने पर मजबूर हुए, जिसे बनाए रखने के लिए एक दिन पहले ही उन्होंने सदन में ऐतिहासिक भाषण दिया था... कहते हैं कि 'काजल की कोठरी में कैसे भी सयाने जाए, एक लीक काजल की लागि है पै लागि है', तो उनपर भी लगी, लेकिन सूचित वाली सियासत की इस शिखर शख्सियत पर कोई आरोप टिक नहीं पाए... सियासी सफर के अंतिम दिनों में इन्हें इन पंक्तियों के दुर्भाग्य से रूबरू होना पड़ा कि 'जो घर मैंने बनाकर दिया था, उस घर से निकाला गया हूं', लेकिन जिसके रग-रग, नस-नस में देश रचा-बसा हो, उसे निकाल कौन सकता है, वो चाहे सियासत हो या जम्हूरियत का जहन... जॉर्ज फर्नांडिस दैहिक रूप से भले ही अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन वे अपने सद्कर्मों में सदा अमर रहेंगे...

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सम्बन्धों के लिए खतरा न बन जाए प्राइवेसी

शायद उनकी नई-नई शादी हुई थी, मैं जैसे ही उनके सामने के अपने बर्थ पर बैठा, दोनों के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए। पता नहीं, वे निश्चिंतता के भाव थे या प्राइवेसी में खनन की खीज! वो मेरी पहली 2nd एसी की यात्रा थी, इसलिए फूल पैसा वसूल मूड में मैं तुरन्त ही पैर फैलाते हुए पर्दा खींचकर पसर गया। मगर उनकी प्राइवेसी में खलन डालने की मेरी स्वचिन्ता तुरन्त ही काफूर हो गई, जब उनके बीच ही प्राइवेसी दीवार बनकर खड़ी हो गई। दरअसल, कुछ देर बाद सामने पर्दे के पार से मोबाइल छीना-झपटी की आवाज आने लगी, शायद पत्नी, पति को अपना मोबाइल नहीं दिखाना चाहती थी। उसके बाद पति उठकर अपने ऊपर के बर्थ पर चला गया, फिर कुछ देर बाद नीचे आया और मानमनौव्वल हुई। उस पूरी यात्रा में जो मैं सुन सका था और जो लाइन मुझे याद रह गई, वो ये थी कि 'दो प्यार करने वालों के बीच प्राइवेसी जैसा कुछ नहीं होता और अगर होता है तो फिर वो प्यार नहीं होता...' मेरी एक दोस्त की प्रेम कहानी का भी इसीलिए जल्द अंत हो गया, क्योंकि उसका ब्वॉयफ्रेंड उसके सामने बैठकर भी कई बार किसी और से चैट करता रहता और उसका हाथ अपने मोबाइल तक पहुंचने भी नहीं देता। एकबार इसे लेकर ही झगड़ा हुआ और उसने अपनी प्राइवेसी की कीमत पर प्यार को ठोकर मार दी।
इस यात्रा वृतांत और इस अधूरी प्रेम कहानी की जरूरत इसलिए महसूस हुई, क्योंकि आज एकबार फिर एक ऐसी ही घटना से सामना हुआ। प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के बीच प्राइवेसी एक मुद्दा हो सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि अभिभावक और बच्चों के बीच ऐसा कुछ होना चाहिए। वो बच्चा जो अभी कॉलेज का मुंह नहीं देखा, उसकी जिंदगी में भी प्राइवेसी जैसे शब्द की अहमियत हो सकती है, यह आज पता चला। अव्वल तो यह कि किशोरावस्था की दहलीज को मोबाइली दानव से दूर, बहुत दूर होना चाहिए लेकिन अगर इसकी दस्तक हो भी गई, तो फिर अभिभावकों का मित्रवत पहरा जरूरी है। पढ़ाई के नाम पर अभिभावक से 10 हजार का मोबाइल खरीदवाने वाला बच्चा उस मोबाइल से पढ़ाई के अलावा हर काम कर रहा है और शायद इसीलिए उसके अभिभावक को उस मोबाइल का पैटर्न लॉक भी नहीं पता। बच्चों के लिहाज से यह समस्या विकराल है, लेकिन आम बात करें तो भी मोबाइल प्राइवेसी सम्बन्धों में दरार का एक बड़ा कारण बनती है। आज स्थिति यह है कि आप किसी का बैंक एकाउंट चेक कर सकते हैं, लेकिन उसके मोबाइल को हाथ नहीं लगा सकते।  
गौर करने वाली बात यह है कि इस प्राइवेसी युद्ध में दोनों तरफ ऐसे लोग हैं, जिनका दरअसल कोई भी काम पर्दे में है ही नहीं। इनमें वे सभी शामिल हैं, जिनका फेसबुक डेटा लीक हो चुका है। इनमें से ज्यादातर वे हैं, जो चाइनीज मोबाइल इस्तेमाल करते हैं और उनके फोन की हर गतिविधि पर कोई तीसरी आंख पहरा दे रही है। इनमें से लगभग सभी लोग, कोई भी एप्लिकेशन इंस्टॉल करते समय बिना जाने-पढ़े उसके हर टर्म-कंडीशन को एसेप्ट करते जाते हैं और उस एप्लिकेशन वालों को अपने कॉन्टैक्ट से लेकर, व्हाट्सएप और कैमरा तक का कमांड दे देते हैं। इनमें से ज्यादातर वे हैं, जिनके मोबाइल में शेयर इट और ट्रू कॉलर जैसे एप्लीकेशन्स हैं, जो डाटा ट्रांसफर के लिए बदनाम हैं। ऐसे अनेकों माध्यम हैं, जिनके सहारे लोगों के मोबाइल की हर वो जानकारी दूसरे के पास जा रही है, जिसे वे अपने किसी खास से भी नहीं बांटना चाहते। 

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

सियासत सिनेमा नहीं है साहेब

लोगों की नज़र में सिनेमा की दुनिया हीरो से शुरू होकर हीरो पर ही खत्म हो जाती है। लोग जानते हुए भी नहीं समझना चाहते कि हीरो का हर अगला शब्द और एक्शन निर्देशक के आदेश पर निर्भर करता है। ठीक उसी तरह से, पत्रकारिता और खासकर टीवी पत्रकारिता का दायरा लोगों की नज़र में एंकरों की दुनिया से आगे नहीं बढ़ पाता। दुनिया नहीं जानती कि जिस एंकर को वह सर्वज्ञाता समझ रही है, उसका पूरा ज्ञान सामने के टेलीप्रॉम्प्टर पर होता है और उसका हर अगला वाक्य कान में लगे इयरफोन से आ रही आवाज़ पर निर्भर करता है। वह चाहे हीरो के लिए निर्देशक का आदेश हो, या एंकर के कान में लगे इयरफोन में चैनल के प्रोड्यूशर की आवाज़, दोनों का मूल उद्देश्य दर्शकों की पसंद पर निर्भर करता है। सियासत में ऐसा नहीं होता, लेकिन सिनेमाई अवतार के दीवाने भारतीय समाज को 2014 में एक ऐसा नेता मिला, जो हीरो भी था, एंकर भी और नेता तो था ही, जिसके सिनामाई डायलॉग सदृश सियासी नारों ने गत 10 साल तक मौन रही कांग्रेस का धमाकेदार विकल्प पेश किया। खुद को विकल्प से विजेता बनते देख इस नेता में सर्वशक्तिशाली बनने की चेष्टा हिलोरे लेने लगी और बस यही से सियासी नेता पर सिनेमाई हीरो और पत्रकारीय एंकर की छवि हावी होनी शुरू हुई। फिर तो दर्शकों की तालियों और वाहवाही के लिए कुछ भी बोलने को तैयार इस नेता ने वो भी बोला, जो उसके पद की गरिमा के गर्त से भी नीचे था। इस हीरोइक छवि में देश का पर्याय ढूंढ चुकी जनता ने बाकी उन सभी नेताओं को कूप मंडुप समझ लिया जो न हीरो थे न ही एंकर। इस देश को ऐसा नेता स्वीकार ही नहीं था, जो सोच-सोचकर बोले, जिसके पास लच्छेदार भाषा का अभाव हो, जो वाकपटु न हो। लेकिन कहते हैं न कि 'अति का भला न बरसना', हीरोइक छवि बनाए रखने की कोशिशें जब लक्ष्मण रेखा पार कीं और विरोधी को नीचा दिखाने के शाब्दिक वाण विधवा का मजाक बनाने से भी पीछे नहीं हटे, फिर जनता ने विकल्प तलाशना शुरू किया, जिसकी परिणति आज का परिणाम है। हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस का वनवास खत्म करने के बाद, आज प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी ने खुलकर कहा कि 'इस चुनाव में हमारी लड़ाई भले इनके साथ रही, लेकिन इन तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जनता के लिए जो काम किया, उसे हमारी सरकार आगे बढ़ाएगी।' आजादी के 7 दशक की प्रगति को ज़ीरो बताकर खुद को भाग्यविधाता साबित करने की हीरोगिरी वाली सियासत के इस दौर में पप्पू सिद्ध किए जा चुके नेता का यह ईमानदार बयान काबिल-ए-तारीफ तो है ही। काश साहेब यह समझ पाते कि सियासत सिनेमा नहीं है...

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

यह पराश्रित होने की पीड़ा है

'अंगना में माई रोए ली,
दुअरा पर लोग बिटोराइल बा,
मेहरी बेहोश भइली गिर के धड़ाम से,
भूअरा के डेड बॉडी आइल बा आसाम से...'

...तब तक मेरे मन में यही धारणा थी कि ताबूत में बंद होकर बाहर से आना वाला हर शव दुश्मन के हाथों 'शहीद' हुए जवानों का होता है, तब नहीं पता था कि जवान सिर्फ देश की सीमा पर नहीं मरते, राज्यों के भीतर की सीमारेखा भी उन्हें काल का ग्रास बना सकती है... राजनीति के निठल्लेपन से उपजी बेरोजगारी और पलायन के पीड़ा बन जाने की दारुण दशा से अपना पहला साक्षात्कार उपर्युक्त भोजपुरी गीत के माध्यम से ही हुआ था। तब असम में बिहारियों को पीटा जा रहा था। अपनों की खुशी के लिए घर छोड़ पराया हुए लोग ताबूत या बोरे में बंद होकर आ रहे थे या फिर घायल अवस्था में। कुछ दिनों तक सब ठीक रहा, हम बाल्यकाल से किशोरावस्था में प्रवेश किए और बिहारियों पर होने वाले जुल्म ने भी प्रदेश बदल लिया, यह दौर था मराठी अस्मिता की आग में बिहारियों के हवन का। हमारे रहनुमाओं और हमने तब आवाज बुलंद की होती, तो फिर किसी ठाकरे के बाद किसी ठाकौर की मजाल नहीं होती ऐसा करने की। हमने समझा ही नहीं कि जो बिहारी बाहुबल गुजरात और महाराष्ट्र की तरक्की को धक्का दे सकता है, वो बिहारियों पर उठने वाले हाथों को भी मरोड़ने की कूवत रखता है। न हमने यह समझा और न सियासत ने हमें यह समझने दिया। वैसे यह समस्या सियासी और बेरोजगारी से ज्यादा पराश्रित होने की है, हम दूसरों के भरोसे खुद को सौंपकर निश्चिंत हो जाते हैं। 
याद कीजिए, जब नरेंद्र मोदी ने कहा था कि 'जब एक बिहारी गुजरात जाता है, तो तब तक उसकी माँ चिंतित रहती है, जब तक वो गुजरात की सीमा पर प्रवेश नहीं कर जाता...' क्या उस समय किसी ने आवाज़ उठाई कि हम बिहारी गुजरात जाएं ही क्यों, आप हमें हमारे घर में ही कमाई के साधन क्यों नहीं मुहैया करा सकते...? ये पूछने की बात छोड़िए, जहां पर मोदी ने यह बात कही थी वहीं पर बंद चीनी मिल को लेकर भी यह कहा था कि अगली बार आऊंगा तो इस चीनी मिल की चीनी की चाय पीकर जाऊंगा। मोदी उस जगह दोबारा गए, लेकिन वो चीनी मिल आज भी बंद है। मोदी के उस दोबारा हुए दौरे पर बंद चीनी मिल को लेकर चूं तक नहीं करने वाले लोगों ने ही गुजरातियों को हौसला दिया कि वे हम बिहारियों को पीट सकें, क्योंकि उन्हें समझ आ गया है कि जो अपने घर में अपने हक के लिए आवाज़ नहीं उठा सकते, वो लौटकर तो यही आएंगे। यह बात गुजराती भली भांति जानते हैं, वो चाहे बिहारियों को पीटने का खुला एलान करने वाला गुजरात में बैठा बिहार कांग्रेस का प्रभारी हो, या बिहार के भरोसे अगली बार फिर प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब पाले देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति। मतलब हद है कि विरोधी पार्टी के शासन वाले राज्य में हुई एक बस दुर्घटना पर भी कई ट्वीट करने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने 50 लाख बिहारियों के अपने गृह राज्य से मारपीटकर खदेड़े जाने पर एक ट्वीट तक नहीं किया...

'NRC से पहले कर दिया SRC बहाल
वडनगर के संत तूने कर दिया कमाल...'

*SRC- State Register of Citizens

रविवार, 30 सितंबर 2018

अगला नंबर आपका है...!

अभिज्ञान शाकुन्तलम में एक दृष्टांत आता है कि जंगल में शिकार करने गए राजा दुष्यंत शकुंतला से मिले और उनके साथ सहवास किया, ये खबर जब माता गौतमी को लगी तो वे शकुंतला के साथ रात्रि के तीसरे पहर में राजा दुष्यंत के यहां पहुंचीं। उन्होंने द्वारपाल से पूछा कि क्या हम राजा से मिल सकते हैं, तो उसका जवाब था- 'अवश्यमेवं, लोकतंत्रस्य सर्वाधिकारः'... अंधेरगर्दी वाली सियासत से निकली बेलगाम सरकार की बर्बर पुलिस के हाथों मारे गए एक आम आदमी की विधवा सत्ता के शीर्ष पर विराजमान 'व्यक्ति' से मिलने की गुहार लगाती रह जाती है, लेकिन चंद किलोमीटर दूर उस पीड़िता के दर पर पहुंचकर अपनी पुलिस की गुंडागर्दी के कबूलनामे के साथ उसके आंसू पोछने के बजाए प्रदेश के मुख्यमंत्री आलाकमान के आदेश का पालन करने सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली पहुंच जाते हैं... किसे लोकतंत्र कहें...? आज की सरकारों को, जिनके लिए उनकी प्रजा वोटिंग मशीन का बटन दबाने वाली उंगली भर है, या हजार साल पहले के उस समय को, जब रात्रि के तीसरे पहर में भी प्रजा द्वारा अपने राजा से मिलने के लिए उनके दरवाजे पर दी गई दस्तक का जवाब होता था, 'अवश्य, आप मिल सकते हैं अपने राजा से, यह लोकतंत्र में आपका अधिकार है...' जैसा कि सियासत चाहती है और जैसा कि हर बार होता है, इस बार भी सत्ता की कारगुजारियों पर यह चर्चा हावी हो गई कि मरने वाला हिन्दू था या मुसलमान, सवर्ण या दलित... किसी ने इस मामले को दिल्ली के मुख्यमंत्री के हिन्दू-मुस्लिम एंगल वाले ट्वीट की तरफ मोड़ दिया, तो किसी ने अखिलेश और मायावती की चुप्पी की तरफ... हे भारतवासियों, इन सियासतदानों की चुप्पी या सवाल इनके हर बिरादर भाई के लिए कवच-कुंडल का काम करती है, भुगतने के लिए रह जाते हैं हम और आप... अगर अपने जैसे किसी निर्दोष इंसान की बेहरमी से हुई हत्या भी आपको नहीं झकझोरती तो, नवाज़ देवबंदी की इन पंक्तियों का सुबह-शाम पाठ कीजिए, हो सकता है कि सियासी समर्थन और विरोध के बोझ से दबा जमीर जाग जाए-
'जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है,
आपके पीछे तेज़ हवा है आगे मुकद्दर आपका है
उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था मेरा नम्बर अब आया,
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं अगला नंबर आपका है...'

शनिवार, 1 सितंबर 2018

हिंदी साहित्य के 'दुष्यंत'

मैं जब भी दिल्ली की दौलत द्वारा दुत्कारे गए दबे कुचलों को चकाचौंध से दूर फुटपाथ के अंधेरों में अपनी बदरंग दुनिया को दुरुस्त करने की असफल कोशिश करते देखता हूं तो अनायास ही ये पंक्तियां याद आ जाती हैं- 

'...न हो क़मीज़ तो पांव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए.'

आधुनिकता के साथ कदमताल करते अलग-अलग सफ़र के दो राही के हमसफ़र बनने की जद्दोजहद जब भी विरासत के आडंबरों वाली थोथी आना के आगे दम तोड़ देती है, तो जी करता है कि जोर से चिल्लाऊं- 

'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं...'

शाइनिंग इंडिया के सपनों के महज नारों तक सिमटने की बात हो, भारत निर्माण के दावों के बस फाइलों में दफन होने की, या फिर अच्छे दिनों के वादों के जुमला बन जाने की... वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे हर पांच साल बाद इस दुआ को मजबूर कर देते हैं- 

'...हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.'

बॉलीवुड यानि मायानगरी मुम्बई को पहला ऑस्कर देने वाला धारावी हो या फिर अपने पसीने के ईंधन से दिल्ली की चकाचौंध बढ़ाने वालों को अपने अंधेरे कबूतरखानों में छुपाए राजधानी का कापसहेड़ा... इनकी दयनीय दशा अपनी अभिव्यक्ति के लिए खुद-ब-खुद इन पंक्तियों का गंतव्य तय कर लेती हैं- 

'कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए...'

शायद ही कोई हो, जिसने किसी अपने को, उसकी असफ़लता के बाद उपजी हताशा और निराशा को दूर करने और मार्गदर्शित करने के लिए इन पंक्तियों का सहारा न लिया हो-

'कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.'

1977 में हुए आज़ादी के बाद के दूसरे सबसे बड़े जनांदोलन के बाद 2011 में जिस राजनीतिक बदलाव की बयार बही और जिसका असर दिल्ली से होते हुए कोहिमा से कांडला और कश्मीर से कन्याकुमारी तक महसूस किया गया, उसका सूत्र वाक्य यही था और आज भी हर सियासी वायदों का सारथी यही पंक्तियां हैं- 

'सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए'

सत्ता के मनमाफ़िक इतिहास न लिखने वाले लेखकों की तौहीन हो, सरकार के कसीदे न पढ़ने वाले कवियों की बेइज्जती, या फिर चाटुकारिता को तैयार न होने वाले पत्रकारों के पर कतरने की बात... हर ऐसी घटना इस शेर की याद दिलाती है-

'तेरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए...'

वो चाहे एक गूंगी गुड़िया द्वारा अपने को सत्ता की महारानी समझने की गफ़लत हो, या फिर वर्तमान समय के साहेब द्वारा खुद को खुदा समझने की भूल... एक आम जनता के एक छोटे शरीर की एक छोटी उंगली के एक छोटे हिस्से भर की हैसियत वाले सेवक जब भी खुद को देश से ऊपर समझने लगते हैं, ये पंक्तियां उन्हें औकात दिखाती हैं- 

'...तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं.'

'मैं यहां से 1 रुपए भेजता हूं तो गांव तक 15 पैसे ही पहुंचते हैं' 3 दशक बीत गए, जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर द्वारा यह दुर्भाग्यपूर्ण स्वीकारोक्ति हुई थी, पर अफ़सोस आज भी हकीकत ने वहां से कुछ ज्यादा दूरी तय नहीं की, हालांकि अवाम अब खुलकर कहती है-

'यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा...'

हमारी रोजमर्रा की अभिव्यक्ति को स्वर दे रही इन जैसी अनगिनत पंक्तियों के लेखक की आज जयंती है। मसान फ़िल्म में प्रेमिका के रेल सी गुजरने पर प्रेमी के थरथराने की प्रेमाभिव्यक्ति भले आपको फिल्मी लगे लेकिन यह उस मूल गजल लेखक के जीवन में प्रेम की पटरियों के उखड़ने का दर्द है, जो अपने पिता की अना के आगे अपनी मुहब्बत को हार गया और फिर लिखा- 
'मैं तुझे भूलने की कोशिश में, आज कितने क़रीब पाता हूं,
कौन ये फ़ासला निभाएगा, मैं फ़रिश्ता हूं सच बताता हूं'
करीब साढ़े चार दशक की उम्र बहुत बड़ी नहीं होती, कई शख्सियतों को तो दुनिया इस उम्र के बाद ही जानती है, लेकिन इतिहास के रंगमंच पर कुछ ऐसे किरदार भी आए जिनकी अदाकारी का पटाक्षेप बहुत जल्द हो गया, लेकिन उनके कौशल पर आज भी तालियां बज रही हैं और उनके शब्द आज भी असंख्य लोगों की अभिव्यक्ति के काम आ रहे हैं। हिंदी साहित्य और इस समाज को यह दुर्भाग्य सालता रहेगा कि इसे दुष्यंत कुमार के साथ का सौभाग्य बहुत कम समय तक ही मिला...

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

एक अजातशत्रु का अवसान...

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा 
आंख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा...

यह शेर उस देश की शायरा परवीन शाकिर का है, जिसके लिए अटल जी ने कहा था- 'दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं...' आज अटल जी पंचतत्व में विलीन हो गए, लेकिन पाकिस्तान से जुड़ी कश्मीर समस्या के समाधान को लेकर जब भी ईमानदार प्रयासों का जिक्र होगा अटल जी का नाम पहले आएगा। कश्मीर से जुड़े हर स्थानीय नेता कश्मीर समस्या के लिए हिंदुस्तानी नेता और नीति को जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन समाधान के लिए ईमानदार प्रयास का जब भी जिक्र आता है, तो उनके होठों पर सिर्फ एक नाम होता है और वह है, 'अटल बिहारी वाजपेयी।' मैं ऐसे बहुत से 'हार्डकोर' भाजपाइयों को जानता हूं, जो एक प्रधानमंत्री के रूप से अटल जी को पसंद नहीं करते और ऐसे कई बड़े नेताओं को भी जानता हूं, जो धुर विरोधी हो कर भी अटल जी की सियासी सोच के कायल हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि अटल जी ने कभी विचारधारा को थोपने वाली सियासत नहीं की, हां वे एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। वे चाहते थे कि अयोध्या में राम मंदिर बने लेकिन वह ये भी चाहते थे कि कश्मीर सुलझाने के लिए कश्मीरियों से बात की जाय। भारत ही नहीं दुनिया की सियासत ने दुबारा किसी 'अटल' शख्सियत को नहीं देखा क्योंकि कोई और नेता इन पंक्तियों को जी ही नहीं पाया कि

'टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते,
सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है,
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते,
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते...।'

आज भारतीय सियासत के इस अजातशत्रु का अवसान हो गया, लेकिन अपने सुकर्मों द्वारा इन्होंने राजनीति को जो दिशा दिखाई वह युग-युगांतर तक इस महान नेता की गाथा गाते रहेंगे। आज जब सियासी सफर के हर कदम में करोड़ों-अरबो लुटाए जा रहे हैं इस समय सियासत के इस पितामह की याद आती है, जब इन्होंने भरी संसद में कहा था- 
'ऐसी सरकार जो सांसदों के खरीदने से बनती हो मैं इसे चिमटे से छूने से अस्वीकार करता हूं।' वर्तमान सियासत में जबकि विरोध का स्तर ज़ुबानी नीचता की परकाष्ठा पार कर रहा है, हमारे नेताओं को अटल जी के उस व्यक्तित्व से सीख लेने की जरूरत है जिसके कारण विपक्षी दल के प्रधानमंत्री 'नरसिम्हा राव' ने इन्हें सरकार का नुमाइंदा बना कर पाकिस्तान भेजा था। आज के नेताओं को, विरोधी की नजर में भी अपनत्व की उस अटल छवि से सीखने की जरूरत है, जिसके कारण निवर्तमान प्रधानमंत्री 'राजीव गांधी' ने अटल जी के मना करने के बावजूद उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल के साथ जाने के बहाने इसलिए अमेरिका भेजा था ताकि वे वहां अपने घुटने का इलाज करा सकें क्योंकि अटल जी की खुद की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं थी कि वे अपने खर्च से अमेरिका जाकर इलाज कराएं। आज के दौर में बनने से पहले टूटने वाले गठबंधन के सूत्रधार नेताओं को तो यह पता ही होगा कि वह 'अटल क्षमता' ही थी जिसकी बदौलत भारतीय राजनीति ने 24 दलों के गठबंधन की सफल सरकार देखी थी। कितना अच्छा होता कि आज अटल जी के लिए श्रद्धांजलि के लिए उमड़े हुजूम में से हर नेता उनकी स्वच्छ छवि वाली विरासत को आगे बढ़ाते और उनकी इन पंक्तियों को सार्थक करते कि,

'आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दिया जलाएं...।'

वे अटल जी ही थे जिन्होंने संसद के भीतर विदेश निति पर हो रही चर्चा में अपनी बात से तत्कालीन प्रधानमंत्री 'नेहरू' जी को प्रभावित कर दिया था और नेहरू जी ने अटल जी की प्रशंसा करते हुए कहा था, 'आप एक दिन जरूर देश का प्रतिनिधित्व करेंगे।' वे अटल जी ही थे जिन्होंने पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब दिया और समय पर समझाया भी कि,

'ओ नादान पड़ोसी अपनी आंखें खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।'

वर्तमान राजनीति के खराब चरित्र का एक कारण यह भी है कि अब इसके पास कोई 'अटल शख्सियत की छवि' नहीं रही... हिन्दू धर्म की मेरी मान्यता यह उम्मीद जगाती है कि मौत से ठनी रार में अवसान को प्राप्त हुआ यह अजातशत्रु पुनर्जन्म लेकर दोबारा इस देश की सियासत और सामाजिकता को पटरी पर लाने के लिए आएगा, क्योंकि वे न सिर्फ इस देश की जरूरत हैं, बल्कि चाहत भी हैं। आज उनकी अंतिम यात्रा में प्रधानमंत्री, दर्जन भर से ज्यादा मुख्यमंत्री, सैकड़ों सांसद-विधायक, लाखों पार्टी कार्यकर्ता और असंख्य लोग जरूर दिखे होंगे, लेकिन मैंने जो देखा उससे ऑफिस में बैठे हुए आंखें डबडबा गईं। दीनदयाल उपाध्याय से होकर आईटीओ चौराहे पर आने के क्रम में एक चैनल का कैमरा कुछ समय के लिए एक बुजुर्ग पर फोकस हुआ, जो एक हाथ से आंसू पूछते हुए दूसरे हाथ से 'अटल बिहारी जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे... इस दृश्य से एक शेर याद आ गया कि
'कहानी खत्म हुई और ऐसे खत्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियां बजाते हुए...