शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

मनसा वाचा कर्मणा से दूर मोदी



‘बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ़सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में’
याद नहीं ‘अकबर इलाहाबादी’ का यह शेर कब और कहाँ से पढ़ा था लेकिन जब प्रधानमंत्री जी लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के उपर बोल रहे थे तो अनायास ही यह शेर याद आ गया. हो सकता है यह हमारे संसद की कोलाहल पर पूर्णतः सटीक ना बैठे क्योंकि यहाँ कुछ ढंग के काम भी होते हैं लेकिन लोकतंत्र के मंदिर से ‘मनसा वाचा कर्मणा’ की अनुपस्थिति इस शेर को सार्थक करती है. मन गदगद हो गया प्रधानमंत्री जी का आज का भाषण सुनकर. सवा करोड़ जनता के सपनो का भारत आज प्रधानमंत्री जी के शब्दों से प्रतिबिंबित हो रहा था. पर चुनावी रैलियों से लेकर इस देश के वजीरे आला की कुर्सी पर विराजमान होने तक अपने हर वक्तव्य में आम आदमी का मसीहा नजर आने वाला प्रधानमंत्री 10 महीने गुजर जाने के बाद भी क्या अपने शब्दों को जमीनी हकीकत में ढाल पाया, शायद नहीं. प्रधानमंत्री जन-जन तक विकास की रौशनी पहुंचाने का दावा कर रहे है इसके लिए किया जा रहा प्रयास भी नजर आ रहा है. लेकिन आज जिस तरह से वे साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी नजर आ रहे थे वह वास्तविकता की धरातल पर कहीं भी नजर नहीं आता. अपनी बदजुबानी से धर्मनिरपेक्षता को तार-तार करने वाले लोगो की जबान बंद कराने को समय की बर्बादी कहने वाले मोदी जी यह क्यों भूल जाते हैं कि यह धर्मनिरपेक्षता भी उसी संविधान में अंकित है जिसे वे अपना धर्मग्रन्थ कहते हैं. दो दिन ही बीते हैं जब यूपी के कुशीनगर जिले के माधोपुर गाँव से यह खबर आई थी कि एक जमीन के विवाद में बीजेपी सांसद आदित्यनाथ के संगठन हिंदू युवा वाहिनी द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने की आशंका की वजह से 150 मुस्लिम परिवारों गाँव छोड़ने को मजबूर हो गए थे. भारतीय क्रिकेट टीम की जीत पर ट्विट कर बधाई देने वाले प्रधानमंत्री एक ट्विट के जरिए ही सही नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताए जाने वाले बयान की निंदा कर सकते थे.     
गड्ढे खोदने वाली योजना ही सही लेकिन मनरेगा किस तरह से देश की सूरत बदली है यह भारत के गाँवों में देखा जा सकता है. मनरेगा में तमाम गलतियाँ हो लेकिन आज जब मैं अपने गाँव जाता हूँ और सड़क के दोनों ओर खड़े पेंड़ पौधे और वर्षों से परती पड़े जमीनों पर छायादार वृक्षों के रूप में विकसित हो रहे पेंड़ो को देखता हूँ तो मन प्रसन्न हो जाता है. ये तमाम पेंड मनरेगा योजना के अंतर्गत ही लगाए गए हैं. ‘इंडिया फर्स्ट’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री जी मनरेगा को मजाक का विषय बनाने की जगह अपने 10 महीनो के कार्यकाल में इसकी गलतियों को दुरुस्त भी कर सकते थे. लेकिन क्या करें राष्ट्रनिति तो ‘जुमला’ है रगों में तो राजनीति ही दौड़ती है.

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

असुरक्षित यात्री ‘प्रभु जी’ के सुरक्षा बलों से



पिछले अक्टूबर की बात है छठ में घर जा रहा था. रात के लगभग 3 बज रहे थे अभी कुछ देर पहले ही ट्रेन शाहजहांपुर जंक्सन से खुली थी. छठ के समय वैसे भी बिहार-यूपी की ओर जाने वाली ट्रेनों ट्रेनों में बहुत भीड़ होती है इसलिए बहुत से लोग इतनी देर रात भी जगे थे और लाईट भी जल रही थी. मैं ‘अहा जिन्दगी’ के पन्नो में मगन था कि पैरो पर एक सिपाही जी के डंडे का स्पर्श हुआ, भाई साहब ये टीवी आपकी है ? मेरे साथ एक भैया की एलईडी टीवी भी थी जिसे मैं अपने साईड अपर वाले सीट की दीवाल से सटा कर रखा था. उस वर्दीधारी की ओर मुखातिब होते हुए मैं कहा, जी हाँ मेरी ही है कहिए ? इसका रसीद दिखाईए, रसीद, कैसा रसीद, 2 स्टार वाले उस सब इन्स्पेक्टर साहब के सवालों पर मैं चौंकते हुए बोला. ये टीवी आप ऐसे नहीं ले जा सकते ये ज्वलनशील होता है इसके गिर कर टूटने से आग लग सकती है, इसके लिए आपको रसीद कटाना पड़ेगा. एक ही सांस मे कहे गए उस पुलिस अधिकारी की इस अजीब बात से मैं ज्यादा अचंम्भित नहीं हुआ क्योंकि 10वी तक केमिस्ट्री मैंने भी पढी थी साथ ही ‘क्या रसीद है और रसीद कटाना पड़ेगा’ तक के उनके सफ़र का औचित्य भी मैं समझ चुका था.
मेरे पास तो रसीद है नहीं, और कटाऊंगा भी नहीं क्योंकि मैं जानता हूँ किसी रसीद की जरुरत नाहीं है. अब बोलिए ? पता नहीं मेरी दृढनिश्चयता या ऐसे ही उस पुलिस अधिकारी ने पूछा करते क्या हैं आप ? जी पढाई, पत्रकारिता की. अच्छा आप इस सिपीही जी से बात कर लीजिए, इतना कह कर वह पुलिस अधिकारी आगे बढ़ गए. अब आई उनके सिपाही जी से निबटने की बारी. सर आप रसीद कटाएँगे तो पैसे ज्यादा लग जाएंगे एक काम कीजिए कुछ ले-देकर मामले को रफा-दफा कीजिए. सिपाही जी के इतना कहते ही मैं भी उनके ही मोड में आ गया, ‘देखिए रेल के कायदे कानून मैं भी अच्छी तरह से जानता हूँ और लेना-देना आता नहीं इसलिए जाईए और अपने साहब से कह दीजिए जो करना है कर लें,,,,अच्छा, आते हैं इतना कह कर सिपाही जी जो निकले अकेले तो दूर अपने साहब के साथ भी दर्शन नहीं दिए. इन सब के बीच कम्पार्टमेंट के बाकी लोग भी जग गए थे, सबने यही कहा आप डरे नहीं इसीलिए बच गए वरना ये ऐसे ही डरा धमका कर हजारो वसूल लेते हैं. पूछने पर इन तथाकथित सुरक्षा कर्मियों ने अपना नाम बताया नहीं था और चूकी वे जैकेट पहने थे इसलिए उनका नाम भी मैं नहीं पढ़ सका था. हाँ इस घटना का उल्लेख करते हुए मैं ‘आईआरसीटीसी’ को एक मेल किया था जिसका उत्तर तो दूर उसके प्राप्ति की सुचना भी आज तक मुझे नहीं मिली.
कल ‘प्रभु’ जी आगामी 5 साल से जुड़ी रेलवे की कुण्डली बांचंगे. पूंजीपतियों के लिए हर विभाग का दरवाजा खोल देने वाली सरकार रेलवे की रफ़्तार को भी पीपीपी के हवाले करने की दिशा में कदम उठाएगी इसमें तो कोइ संदेह नहीं है लेकिन यात्रियों को सुरक्षा बलो के भरोसे छोड़ कर सुकून की सांस लेने वाली हमारी सरकार को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि क्या ये सुरक्षा बल सच में सुरक्षा ही कर रहे हैं ?    

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

ए ‘मांझी’ बिहार वाला,,,,,,,

‘’इस तरह अगर हम मिलजुलकर आपस में प्यार बढ़ाएंगे,
तो एक रोज तेरे डैडी अमरीश पुरी बन जाएंगे,
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल प्रिय,
मुस्किल है अपना मेल प्रिय ये प्यार नहीं है खेल प्रिय.’’
किसी कवि का यह डर भले ही मांझी-मोदी मुहब्बत पर शब्दशः सटीक ना बैठे लेकिन भावार्थ को मझधार में फंसी मांझी की राजनीतिक नैया से जोड़कर देखा जा सकता है. ऐसा थोड़े ही होता है की प्रोपोज डे के दिन सबका प्रोपोजल स्वीकार ही हो जाय और अगर हो भी जाय तो उस पर घर वालो की स्वीकृति का मुहर लग भी जाय. दुश्मन घरानों के लड़के-लड़कियों से प्यार करने की गुस्ताखी वाली हिन्दी फिल्मों की कहानियों का एक बदला रूप भारतीय राजनीति में भी नजर आता है. जी हाँ बदला रूप, क्योंकि यहाँ आकर्षण के मद में अंधे लड़के-लड़कियां नहीं बल्कि राजनीति में अपने स्थायित्व के लिए ठिकाना तलाश रहे नेता होते हैं. मांझी जी की मोदी जी से अलग से मुलाक़ात नीतीश कुमार को नागवार गुजरी और ‘जीतन राम’ को जदयू से निकाल दिया गया. ठीक वैसे ही जैसे लाख मनाही के बाद भी मुलाक़ात करने वाले हिन्दी सिनेमा के प्रेमी-प्रेमिकाओं को अमरीश पुरी जैसे जुल्मी बाप का कोपभाजन बनना पड़ता था.  
लेकिन इश्क के लिए की गयी बगावत भी भला घुटने टेकती है ? इसे समर्थन मिल ही जाता है दोस्तों और प्यार को पाकीजगी के रूप में देखने वालो का. दलितों-पिछड़ों से अपने प्यार के लिए मुख्यमंत्री पद पर बने रहने को प्रयत्नशील मांझी जी को जदयू के कई विधायको का पहले से ही समर्थन प्राप्त है. और इधर आज ‘ना-ना करते प्यार तुम्ही से कर बैठे’ वाले अंदाज में ‘शाहनवाज जी’ ने भाजपा का मांझी प्रेम की मंशा जाहिर कर ही दी. वाल्मीकि की जन्मभूमि में अश्वमेघ का घोड़ा दौड़ाने की दूरदृष्टि से युक्त शहनवाज जी का मांझी को समर्थन देने वाला बयान राजनीति में भी इस शेर को चरितार्थ कर रहा है कि,
‘’मुहब्बत में बुरी नियत से कुछ सोचा नहीं जाता,
कहा जाता है उसको बेवफा समझा नहीं जाता’’
जी हाँ क्योंकि कुछ दिन पहले ही बिहार वाले मोदी जी को अपनी राजनीतिक नैया ही मझधार में नजर आने लगी थी तो उन्होंने झटाक से मांझी को भी नीतीश वाली कैटेगरी में ही डाल दिया था.
अपने बेबाक बयानों से पहले से ही सुर्ख़ियों में रहने वाले मांझी, मोदी से मुलाक़ात के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी बिना लाग लपेट के बात किए. बहुमत साबित करने के लिए महामहिम से 20 फरवरी तक का समय मांगना और अपने समर्थक विधायको की संख्या को अभी राज ही रहने देने की बात कहना मांझी की किसी गुप्त रणनीति की ओर इशारा करता है. हालाँकि आज एक जदयू विधायक द्वारा मांझी पर विधायको की खरीद फरोख्त का इल्जाम लगाने वाली घटना इस ‘गुप्त रणनीति’ और राजनीतिक उठापटक के बीच भी मांझी की मुस्कान पर सवाल खडा करता है. इन सब के बावजूद 117 विधायको का समर्थन पाना मांझी जी के लिए मुमकिन नजर नहीं आ रहा है. 1961 से अब तक बिहार की राजनीतिक बग्घी 33 मुख्यमंत्रियों के कंधे से होकर गुजरी है लेकिन अपने बहुत छोटे से कार्यकाल में ही खबरों में जो जगह मांझी ने बनाई वह किसी को नसीब नहीं हो पाया. भले ही मांझी मुख्यमंत्री ना रहें लेकिन यह तो वे शान से कह पाएंगे कि,
‘रहें ना रहें हम महका करेंगे,
बन के कली बन के सबा बागे वफा में...’