बुधवार, 1 मार्च 2017

मतलबी मुद्दों में बकरा बनते हम-आप

अगर आप भारत के हित में तटस्थ हो कर देखें, तो रोहित सरदाना जो प्रश्न उठाते हैं उसपर भी खून खौलता है और रवीश कुमार जो सवाल करते हैं, उसपर भी। शाजिया इल्मी को जामिया में न बोलने देना उतना ही निंदनीय है, जितना सिद्धार्थ वरदराजन को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भाषण न देने देना। वैसे जानना यह भी जरूरी है कि जामिया पिछले तीन साल से प्रधानमंत्री जी को अपने दीक्षांत समारोह में बुला रहा है, लेकिन वे नहीं जा रहे। हालांकि दिलचस्प ये है कि राष्ट्रवाद और देशद्रोह के नवसृजित बहस में कुछ ही मोहरे हैं, जो कभी सरदाना के स्टूडियो में होते हैं, तो कभी रवीश के। आमिर खान की पत्नी को जब देश की असहिष्णुता से डर लगा था, तब आमिर रवीश के प्राइम टाइम मैटेरियल थे और सरदाना अपने स्टूडियो से उन्हें पाकिस्तान का रास्ता दिखा रहे थे। लेकिन अपनी फिल्म के म्यूजिक राइट्स ज़ी को बेचने और फिल्म में भारत माता की जय के नारे लगवाने के बाद आमिर ज़ी के स्टूडियो में सुधीर चौधरी के साथ सेल्फी-सेल्फी खेल रहे थे। अवार्ड वापसी के समय जब मुनव्वर राणा ने कहा कि मेरी कलम की स्याही नहीं सूखी है, 'मैं अवार्ड वापस करूं, मैं लिख कर इंकलाब लाऊंगा' तो वे अवार्ड वापसी गैंग को आइना दिखाने हेतु सरदाना के लिए माध्यम थे लेकिन जब एक चैनल पर एंकर के तिलस्म में फंस कर उन्होंने अवार्ड वापसी की घोषणा कर दी, तब से वे विलेन बन गए और आज भी सरदाना उनसे सवाल कर रहे थे कि उन्होंने सोनिया गांधी पर कविता क्यों लिखी। जावेद अख्तर ने जब सदन में तीन बार भारत माता की जय के नारे लगाए, तब वे सरदाना के लिए सच्चे देशभक्त थे लेकिन आज जब एक पूर्व सफल खिलाड़ी के अमर्यादित व्यंग्य पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने ऐसे खिलाड़ियों को ज़ाहिल करार दिया तो वे उसी सरदाना के लिए देशद्रोही हो गए... मीडिया में काम करने वाले हज़ारों लोग आज नौकरी के नाम पर ग़ुलामी कर रहे हैं। बीते दिनों दिल्ली के एक चैनल ने ही अपने एक पत्रकार को इसलिए निकाल दिया क्योंकि वह एक दिन ऑफिस नहीं आया और इसलिए नहीं आया क्योंकि उसके पास किराया देने तक के पैसे नहीं थे। मीडिया के लिए यह मुद्दा नहीं है। देश के विश्वविद्यालयों में आज शिक्षा का स्तर और शैक्षिक माहौल एक बड़ी चुनौती है, लेकिन इसके लिए कोई छात्र संगठन या नेता आवाज़ नहीं उठाता। राजनीति करने वाले छात्र नेताओं में से अधिकतर किसान परिवारों से आते हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी अपने परिवार, अपने खेतों के लिए सियासत के दरवाजे पर उस धमक के साथ दस्तक नहीं दी, जैसा वे राष्ट्रवाद और देशद्रोह के नाम पर करते हैं। पिछले साल राष्ट्रीय स्तर पर उभरे एक छात्र नेता कन्हैया कुमार के पिता ने स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव और मुफलिसी के कारण दम तोड़ दिया, लेकिन इन आधारभूत जन जरूरतों के लिए कन्हैया के नेतृत्व में अब तक कोई आंदोलन नहीं हुआ। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में योगी आदित्यनाथ के प्रस्तावित कार्यक्रम का सफल विरोध कर चर्चा में आई वहां की छात्र संघ अध्यक्ष अभी कानपुर पश्चिम से सपा उम्मीदवार हैं... कहने का मतलब है कि सब अपना मतलब साध रहे हैं और इनके इन मतलबी मुद्दों में उलझ कर हम सब बकरा बन रहे हैं...