मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

दिल्ली का गीत और गांवों का शोकगीत

कहीं पढ़ा था कि दिनकर जब राज्यसभा के सदस्य थे, उन्हीं दिनों एकबार वे और नेहरू साथ में संसद की सीढ़ियां उतर रहे थे। नेहरू के अचानक लड़खड़ाने पर दिनकर ने उन्हें सहारा दिया, उसके बाद नेहरू के धन्यवाद पर दिनकर की प्रतिक्रिया थी कि 'सियासत के कदम जब-जब लड़खड़ाएंगे, अदब उसे सहारा देगा...' अफ़सोस कि अब न नेहरू जैसे नेता रहे और न दिनकर जैसे अदब के स्तम्भ। इत्तेफाक की बात है कि आज दिनकर की पुण्यतिथि भी थी और पंचायती राज दिवस भी। उसी पंचायती राज का दिवस जिसके जरिए गांवों के इस देश में सुराज लाने का सपना देखा गया था। लेकिन कौन जानता था कि आजादी के दो दशक बाद दिल्ली और देश के गांवों की असमानता का दिनकर द्वारा किया गया यह चित्रण आज आजादी के 7 दशक बाद भी सार्थक होगा कि
'...भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में,
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर भटक रहा है सारा देश अंधेरे में...'
दुर्भाग्य तो यह भी है कि 'ज़िंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करती' का नारा देने वाले वो लोहिया भी देश का अंधेरा दूर नहीं कर सके, जिन्होंने 'तीन आना बनाम तीन रुपया' को संसदीय विमर्श बना दिया था। आना पूरी तरह से रुपए में बदला और साहित्य के सिद्धहस्त पुरोधा दिनकर जिस नेहरू के समय में आमलोगों की आवाज़ बनकर संसद में मौजूद रहे, उसी नेहरू के नाती ने यह कहकर दिनकर की पंक्तियों के अंधेरे भारत को सियासी रूप से सहमति दे दी कि मैं यहां से सौ रुपए भेजता हूं, तो गांवों में 20 पैसे पहुंचता है। ये तो आज भी दूर की कौड़ी है कि दिल्ली से पैसा पहुंचे तो पंचायतों के जरिए देश का विकास हो, लेकिन गांवों वाले भारत के जिन गांवों के जरिए बड़े-बड़े उद्योगपति मालामाल हो रहे हों, वहां के ग्रामीण तड़प-तड़प कर मरने को मजबूर हो जाएं, तो इसे क्या कहेंगे...? जी हां, यह इसी देश की हकीकत है और इसी पंचायती राज व्यवस्था के अधीन शाषित होने वाले गांवों के लोग दिनकर की इन पंक्तियों की सार्थकता।वाले शोषण की कहानी को जी रहे हैं कि
'स्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक-चिपक जाड़े की रात बिताते हैं,
युवती के गहने बेच-बेच यहां कर्ज चुकाए जाते हैं,
और मालिक तेल-फुलेलों पर पानी से द्रव्य बहाते हैं...'
क्या विडम्बना है कि नेहरू ने देश के जिन 100 पिछड़े जिलों को विकसित करने का बीड़ा उठाया था, वे आज़ादी के 7 दशक बाद भी विकास की सीढ़ी नहीं चढ़ सके और वे सभी वर्तमान प्रधानमंत्री के 150 उम्मीदों वाले जिलों की सूची में शामिल हैं। विडम्बना तो यह भी है नेहरू के लड़खड़ाते कदमों को सहारा देने वाले दिनकर ने ही, शासन और सरकार को पांव की जूती समझ लेने वाली नेहरू की बेटी को ललकारते हुए कहा था- 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...' अफ़सोस कि सिंहासन पर तब भी जनता विराजमान नहीं हो सकी और पंचायतों के जरिए देश के विकास का सपना, सपना ही रह गया। वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ने 2 साल पहले जब दिनकर की दो महत्वपूर्ण रचनाओं 'संस्कृति के चार अध्याय' और 'परशुराम की प्रतीक्षा' के 50 साल पूरे होने पर बिहार में एक वृहद आयोजन किया, तब भी लगा था कि शायद अब दिनकर से सत्ता का प्रेम सियासतदानों को उनके विचारों के करीब भी ले जाएगा और सुराज का सपना देख रहे ग्रामीणों के आंखों का इक्कीसवा ख्वाब पूरा होगा, पर अफ़सोस कि यह आत्मीयता जातिगत सियासत में बदल गई। दिल्ली से देखे और दिखाए जा रहे सपने अब भी धरातल पर नहीं उतर सके और दिनकर की रचना फिर से सजीव प्रतीत हुई कि
'...रेशम से कोमल तार, क्लांतियों के धागे, हैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के,
दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चिंत मगन रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के...'
यह दिल्ली की खुरदुरी खादी का गीत ही है कि कभी गांवों के देश के रूप में पहचान पाने वाले भारत से अब गांव ही गायब होते जा रहे हैं। ग्रामीणों और किसानों को मजबूर से मजदूर बना देने वाली सरकारें भले ही आंकड़ों में ग्रामीण भारत के विकास का राग अलापे लेकिन हक़ीक़त यही है कि ग्रामीण भारत बीमार होकर रह गया है। वहां रोगरहित है तो बस मुखिया-सरपंच जैसे सियासतदान, ठेकेदार और माफ़िया। देश को वैश्वीकृत करने वाली सरकारें ग्रामीणों को तो शहरों तक खींच लाई, पर अफसोस कि गांवों तक विकास नहीं पहुंचा पाई। लेकिन कहते हैं न कि आखिर वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे कब तक बुलन्द रह सकते हैं, कभी न कभी तो सियासी सपनों का बुलबुला फूटना ही था और फूट गया... इसे विडम्बना कहें या दुर्भाग्य लेकिन सच है कि आज जब हमारे प्रधानमंत्री करीब 15 सौ दिन तक शासन करने के बाद भी छत्तीसगढ़ में ग्रामीणों वाले भारत का पंचायतों के जरिए कायाकल्प करने का सपना ही दिखा रहे थे, उसी समय उसी राज्य के एक बड़े हिस्से में ग्रामीण, पंचायतों के जरिए ही अपनी सरकार चला रहे थे। जी हां, छत्तीसगढ़ के जशपुर और अंबिकापुर जिले के करीब 20 गांवों के ग्रामीण ग्राम सभा के माध्यम से अब अपना शासन और कानून चला रहे हैं। इन गांवाें में बिना ग्राम प्रधान की अनुमति किसी का भी प्रवेश वर्जित है, वो चाहे डीएम-एसपी हों, या प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री। इसे पत्थलगड़ी कहते हैं, जिसके एलान से यहां के ग्रामीणों ने यहां अपनी सरकार कायम कर ली है। ऐसा भी नहीं है कि ये केवल छत्तीसगढ़ में हुआ है, पिछले ही महीने झारखण्ड से भी ऐसी ही खबर आई थी कि वहां के आदिवासी भी पत्थलगड़ी करके अपने क्षेत्रों में ग्राम सभा की सरकार चला रहे हैं। इसे भी विडम्बना ही कहेंगे कि हमारे देश में ग्राम सभा की सरकार चल रही है, जो कभी गांधी-नेहरू-दिनकर का सपना हुआ करता था, पर अफसोस कि अपने रहनुमाओं की रहजन वाली छवि से आजिज आकर आदिवासियों द्वारा चलाई जा रही ग्राम सभा की यह सरकार हमारे संविधान के खिलाफ है। हालांकि कभी-कभी तो लगता है कि हमारे पंचायती राज की सार्थकता ग्रामीणों के इस बागी तेवर में ही है। जल-जंगल-ज़मीन से विस्थापित कर, रसायनयुक्त जहरीले पानी के सहारे जीने को मजबूर किए जाने वाले ये आदिवासी अगर अपने संसाधनों को बचाने के लिए तीर-कमान लेकर व्यवस्था से बगावत को तैयार हैं, तो इसमे गलती किसकी है...? आखिर दिनकर ने भी तो कहा ही था कि 
'...सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो,
एक पथ, बलि के लिए तैयार हो,
फूंक दे सोचे बिना संसार को,
तोड़ दे मंझदार जा पतवार को...'

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

सरकार ने अपना काम कर दिया अब समाज की बारी है

निर्भया कांड के बाद, बलात्कार और यौन शोषण से सम्बंधित कानून को कड़ा बनाने का सुझाव देने के लिए तत्कालीन सरकार द्वारा गठित कमिटी के अध्यक्ष जस्टिस जेएस वर्मा ने 23 जनवरी 2013 को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए कहा था कि 'ऐसे अपराध कानून की कमी की वजह से नहीं, बल्कि सुशासन की कमी के कारण होते हैं।' अगर हम 2013 तक और उसके बाद के वर्षों में हुए बलात्कार की घटनाओं की तुलना करें तो जस्टिस वर्मा की बात सही लगती है। 2013 के पहले पॉक्सो एक्ट नहीं था। 2012 में देशभर में 8886 और 2013 में 8511 बलात्कार की घटनाएं सामने आईं। लेकिन 2013 में पॉक्सो बनने के बाद से हम देखें तो 2014, 15 और 16 में क्रमशः 36735, 34651 और 38847 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं। बलात्कार के मामले में अंतिम फांसी 2004 में धनंजय चटर्जी को हुई थी, उस समय पॉक्सो नहीं था, लेकिन कानून ने अपना काम किया। कुछ सकारात्मक संशोधनों को छोड़ दें तो कई बार संविधान में बदलाव की जरूरत ही नहीं पड़ती। नए कानून या नियम की जरूरत इसलिए पड़ती है, क्योंकि पुराने वाले को कमजोर कर दिया जाता है, अगर पुराने कानूनों का सख्ती से पालन हो, तो नए की जरूरत ही न पड़े और ऐसा आज से नहीं हो रहा है, वर्षों से राजनीतिक दल और सियासदान अपने लिए और अपनों के लिए कानून को तोड़ते-मोड़ते रहे हैं। उन्नाव और कठुआ में क्या हुआ और हो रहा है, यह तो इसकी बानगी है ही इससे पहले भी ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं। 1996 के सूर्यनेल्ली बलात्कार मामले की पीड़िता आज भी उस दर्द और पीड़ा के साथ जी रही हैं। यह घटना थी, 16 बरस की स्कूली छात्रा को अगवा कर 40 दिनों तक 37 लोगों द्वारा बलात्कार करने की। इसमें कांग्रेस नेता पीजे कुरियन का नाम उछला और उसके बाद सिवाय राजनीति के कुछ नहीं हुआ। घटना के 9 साल बाद केरल हाईकोर्ट ने मुख्य आरोपी के अलावा सभी को बरी कर दिया। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट गया और कुछ को सजा हुई। 1996 में ही दिल्ली में लौ की पढ़ाई कर रही प्रियदर्शिनी मट्टू की उसके एक साथी ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी। लड़का जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन आईजी का बेटा था। बाप के पद और पैरवी की ताकत बेटे के अपराध पर भारी पड़ी और विडम्बना देखिए कि जब यह केस हाईकोर्ट पहुंचा, तब तक वो आरोपी लड़का उसी कोर्ट में वकालत कर रहा था। भंवरी देवी बलात्कार मामले के बारे में कौन नहीं जानता। उसके आरोपी तो न नेता थे और न ही पुलिस के बड़े अधिकारी लेकिन उनकी दबंगई ने इस मामले पर सुनवाई कर रहे ट्रायल कोर्ट के पांच जजों का तबादला करा दिया था।
ऐसे उदाहरण इतने हैं कि पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि यहां सुशासन का राज क्यों नहीं देखने को मिला? प्रधानमंत्री जी ने लंदन में इस मामले पर कहा कि 'बलात्कार तो बलात्कार होता है, और उसका राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए', एकदम सही बात है, नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन किया तो जा रहा है, ऐसा नहीं किया गया होता तो उन्नाव मामले में आरोपी की गिरफ्तारी में 7 महीने का समय नहीं लगता और ऐसा नहीं किया गया होता तो कठुआ मामले के आरोपियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा नहीं निकलती, वे दोषी सिद्ध होते हैं या बाइज्जत बरी ये अलग मुद्दा है, अभी बात सुशासन की है... और जब बात सुशासन की चलती है, तो चर्चा यह भी होती है कि कौन कितना पाक-साफ है। एडीआर का डाटा है कि वर्तमान में हमारे 48 सांसद-विधायक यौन उत्पीड़न के आरोपी हैं और अपने 12 सांसदों-विधायकों के साथ भाजपा इनमें शीर्ष पर है। वही भाजपा जिसके सियासी माई-बाप, हमारे प्रधानमंत्री जी ने लंदन में कहा कि 'जो व्यक्ति ये अपराध कर रहा है, वह भी किसी का बेटा है।' लेकिन अफ़सोस कि ऐसे बिगड़ैल बेटे हर दलों में हैं और इन्हें सुधारने के बजाय हमारी पार्टियां इन्हें चारित्रिक प्रमाण पत्र दे देती हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह सिलसिला थम गया, तमिलनाडु के महामहिम राज्यपाल ने सवाल पूछने वाली एक महिला पत्रकार का गाल छुआ, हालांकि उन्होंने बाद में स्पष्ट किया कि उन्होंने पोती समझकर ऐसा किया था, बात आई-गई हो गई, लेकिन राज्यपाल जी के बचाव में उतरे एक वरीय भाजपा नेता ने फेसबुक पोस्ट में यह लिख दिया कि 'बड़े लोगों के साथ सोए बिना कोई लड़की रिपोर्टर या न्यूज रीडर नहीं बन सकती।'
इन सवालों का तीर भाजपा पर ज्यादातर इसलिए है क्योंकि भाजपा के पास अभी सबसे ज्यादा सांसद-विधायक हैं और भाजपा वाले ही हमारे प्रधानमंत्री जी ने पिछले दिनों कहा कि इन मुद्दों पर सियासत नहीं होनी चाहिए। खैर, बड़ी बात यह है कि हमारी सरकार ने सराहनीय कदम उठाते हुए पॉक्सो में संशोधन कर दिया है और ऐसा समय की मांग थी। लेकिन मुझे कई बार यह बहुत छोटी बात लगती है, ऐसा क्यों है इसे मैंने ऊपर में उदाहरण देकर समझा दिया है। बड़ी बात यह है कि कानून तो बन गया लेकिन सुशासन की संभावना पहले जैसी ही मद्धम है। इसलिए अब समाज को अपना काम करना है। एक आदमी जो 8 महीने और एक साल की बच्ची की मासूमियत में भी हवस का सामान ढूंढ सकता है, उसे उस समय फांसी की सजा वाले अंजाम का ख्याल भी नहीं आएगा। जरूरत इस बात की है कि समाज में संवेदना और समझ का संचार किया जाय। इंसान को इंसान के दुख-दर्द को समझने की संस्कृति पैदा की जाय। पीढ़ी-दर-पीढ़ी रिश्तों की मर्यादा और आत्मीयता का स्थानांतरण हो, तभी ऐसी घटनाओं पर लगाम लग सकती है, वरना कड़े से कड़े कानून बनते रहेंगे और ऐसे अपराध किसी की जिंदगी बर्बाद कर उसे आंकड़ों में समेटते रहेंगे...