गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

कुछ याद इन्हें भी कर लें...



‘जुबाने-हाल से अशफ़ाक़ की तुर्बत ये कहती है,
मुहिब्बाने-वतन ने क्यों हमें दिल से भुलाया है?
बहुत अफसोस होता है बडी़ तकलीफ होती है,
शहीद अशफ़ाक़ की तुर्बत है और धूपों का साया है।’

ऐसा होना नहीं चाहिए था लेकिन अफ़सोस कि आज ये पंक्तियाँ सार्थक हो रही है। जिनके सुकर्मों और सीखों के ऊपर हमारे आज के सुखमय जीवन की बुनियाद खड़ी है ऐसे दो महान लोगों का आज जन्मदिन है। लेकिन अपने और अपनों में ही मशगुल होकर हमने उन्हें भुला दिया। किसी शहीद और साहित्यकार की समाधी पर आवारा कुत्तों को भटकते देखते हैं तो उपर्युक्त पंक्तियों की सार्थकता हमें शर्म का अहसास कराती है।
अपने पिछले ही मन की बात में प्रधानमंत्री जी ने कहा था, ‘अगर इतिहास से नाता टूट जाता है तो इतिहास बनने की संभावनाओं पर भी पूर्ण विराम लग जाता है।’ जिस इतिहास और उसे बनाने वाले जिन लोगों पर हमारे वर्तमान की बुनियाद टिकी है उनके उल्लेख से दिन-ब-दिन दूर होता हमारा वर्तमान समाज उस इतिहास बनने के पूर्ण विराम की तरफ ही इशारा कर रहा है। आज माँ भारती के उस वीर सपूत का जन्मदिन है जिसने हमारे आज को खुशनुमा बनाने के लिए अपने वर्तमान के ऊपर दुखों का पहाड़ लाद लिया।

बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।’

खुद की और देशप्रेम के दीवाने अपने दोस्तों की टोली की कुर्बानी की बदौलत अपनी ही पंक्तियों को सार्थक करने वाले उस वीर योद्धा का नाम है, ‘असफाक उल्ला खान’ आज जब हर दिन धार्मिक भावनाएं देश, कानून और संविधान पर हावी हो रही हैं इस समय हमें असफाक उल्ला खान से प्रेरणा लेने की जरुरत है जिन्होंने फांसी पर चढ़ने से पहले भारत को आजाद ना देख पाने का दुःख और अपने धार्मिक बंधन की बेबसी का जिक्र करते हुए लिखा कि,

‘जाऊँगा खाली हाथ मगर, यह दर्द साथ ही जायेगा,
जाने किस दिन हिन्दोस्तान, आजाद वतन कहलायेगा।
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं, फिर आऊँगा-फिर आऊँगा,
 ले नया जन्म ऐ भारत माँ! तुझको आजाद कराऊँगा।
जी करता है मैं भी कह दूँ, पर मजहब से बँध जाता हूँ,
मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कह पाता हूँ।
हाँ, खुदा अगर मिल गया कहीं, अपनी झोली फैला दूँगा,
' जन्नत के बदले उससे, यक नया जन्म ही माँगूँगा।’

आज उस कलम कुल के पुरोधा का भी जन्मदिन है जिनकी लेखनी ने हमेशा समाज और सियासत को रास्ता दिखलाया। 

‘तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।’

विकास के झूठे आंकड़ों और जमीनी हकीकत में विभेद को दर्शाते हुए हुक्मरानों को ललकारने वाले इस कवि का नाम है, ‘अदम गोंडवी’ जी हाँ वही अदम गोंडवी जिन्होंने सियासत के चरित्र को हुबहू शब्दों में समेटते हुए लिखा,

‘जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे।’

आज जब वोट की राजनीति के लिए हिन्दू-मुसलमान भाईचारे के बीच दीवार खड़ीं की जा रही है इस समय इस कवि की कमी खल रही है जिन्होंने लिखा है,

‘हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये।’