बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

दिल्ली सरकार की नजर में ‘आदमी’ नहीं गेस्ट टीचर



पैसा कमाना हर आदमी की ख्वाहिस ही नहीं मज़बूरी भी होती है लेकिन क्या वह पैसा कभी सुख-सुकून दे पाएगा जो खुद के अंदर के इंसान को मार कर कमाया जा रहा हो वह भी उस पेशे में जिससे देश और समाज का भविष्य जुड़ा हो। जी हाँ, बिना छुट्टी के लगातार काम करते रहना, खुद के अंदर के इंसान को मारना ही होता है। बीमारी में जब कि शरीर को आराम की जरुरत होती है उस समय भी नौकरी हाथ से निकलने के डर से सेहत को नजरअंदाज कर देना इंसानी जरूरतों के साथ खिलवाड़ ही है। पर्व-त्यौहार, शादी की बात दो दूर, किसी औरत के पाँव में फ्रैक्चर आ गया हो तो भी उसे काम से छुट्टी ना दी जाय और छुट्टी लेने की हालत में नौकरी छूटने का डर दिखाया जाय तो आप इसे क्या कहेंगे? माँ बनने के दो दिन बाद भी अगर किसी औरत को काम पर आना पड़े और कमजोरी की अवस्था में वह बेहोस होकर गिर पड़े तो क्या हम इसे उस व्यक्ति, उस संगठन से मानवता का लोप नहीं कहेंगे जो अपने कर्मचारियों से ऐसे काम लेता है। 
 
पर अफ़सोस कि इंसानियत को ताक पर रखकर काम लेने का यह कृत्य किसी व्यक्ति या निजी संगठन का नहीं है, और ना ये किसी कॉर्पोरेट सेक्टर के कर्मचारियों की दर्द भरी दास्ताँ है। यह कहानी है दिल्ली सरकार के अधीन काम कर रहे गेस्ट और कॉन्ट्रेक्ट शिक्षकों का और इनका बेदर्द हाकिम है उस दिल्ली सरकार का शिक्षा विभाग जिसने अपनी सियासी पहचान को ही आम आदमियों से जोड़ा था। लेकिन आज शिक्षक रूप में ये आम आदमी हलकान हैं लेकिन सरकार की तरफ से सिर्फ सब्जबाग ही दिखाए जा रहे हैं। 25 जनवरी को मुख्यमंत्री केजरीवाल जी ने कहा, ‘हम सरकारी स्कूलों को प्राइवेट से बेहतर बनाएंगे।’ लेकिन सीएम साहब अब तक उन सवालों का जवाब नहीं दे पाए हैं जो कई बार गेस्ट और कॉन्ट्रेक्ट शिक्षकों ने उनके दफ्तर, आवास, जंतर मंतर या सड़कों पर उतर कर उनसे पूछा था। हालाँकि दिल्ली में ठेके पर नियुक्त दिहाड़ी मजदूरों की तरह काम कर रहे इन शिक्षकों की दुर्दशा की जिम्मेदार दिल्ली की वर्तमान सरकार नहीं है, शीला दीक्षित शासन में भी इन शिक्षकों का यही हाल था। लेकिन आन्दोलन के बाद जिन मुद्दों पर केजरीवाल कुनबे का सियासी प्रवेश हुआ उसमे ठेके पर बहाल इन गेस्ट/कॉन्ट्रेक्ट शिक्षकों को नियमित करना भी प्रमुख था। लेकिन लोकपाल के नाम पर कुर्बान हो चुकी पहली सरकार के बाद दूसरी सरकार के भी एक साल बीत गए लेकिन बच्चों के भविष्य की बुनियाद रखने वाले ये शिक्षक आज भी दिहाड़ी मजदूर के जैसी जिन्दगी जी रहे हैं। और दिल्ली सरकार में नियमित होने सदृश्य सपनों के महल के भरभराकर गिरने की दशा में आस का एक सहारा लिए ये हमेशा मुख्यमंत्री या शिक्षा मंत्री के दरवाजे पर दस्तक देते हैं लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगती है।

‘जिस दिन जन्तर मंतर पर आम आदमी पार्टी की सभा में एक किसान गजेन्द्र ने आत्महत्या की उसी दिन और उसी समय जन्तर मन्त्र पर ही सैकड़ों की संख्या में गेस्ट टीचर्स भी आए थे दिल्ली सरकार को अपनी मांग बताने के लिए लेकिन सियासी आग का रूप ले चुकी उस किसान की आत्महत्या में हमारी वाजिब मांगें झुलस कर रह गई। उसके बाद भी हमने कई बार मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री सह शिक्षा मंत्री सिसोदिया जी का घेराव किया है उनसे भी अपनी समस्याएं बताई लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती। छुट्टी तो छोड़ दीजिए, हमारा वेतन भी पिछले 2 महीने से बाकी है, कब मिलेगा यह भी पता नहीं।’ यह कहते-कहते ‘बबलू’ मायूस हो गए। बबलू दिल्ली सरकार में पिछले एक साल से कॉन्ट्रेक्ट टीचर हैं। न्यू कोंडली स्कूल में पढ़ाने वाली एक मैम की शादी सिर्फ इसलिए टालनी पड़ गई क्योंकि उन्हें शादी के लिए छुट्टी नहीं मिल पा रही थी। हैरान करने वाली बात यह है जब दिल्ली सरकार के अधीन गेस्ट टीचर के रूप में काम कर रही एक महिला कहती हैं कि, ‘एक स्त्री खुद में पूर्ण तभी होती है जब उसमें मातृत्व भाव आता है, जब वह माँ बनती है लेकिन क्या सितम है कि हमें मैटरनिटी लिव तक नहीं दिया जा रहा। आज जब कि सभी सरकारी महकमों में मैटरनिटी लिव में इजाफा किया जा रहा है, हमें एक अदद छुट्टी के लिए तरसना पड़ रहा है। गेस्ट टीचर्स की इन सस्मास्याओं पर ‘गेस्ट टीचर्स एसोसिएसन’ के अध्यक्ष प्रवीन तोगड़िया कहते हैं, ‘शिक्षक समाज का पथ प्रदर्शक होता है लेकिन जब उसे ही सरकार सुविधाहीन बना देगी तो फिर वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन कैसे कर पाएगा? वर्तमान में दिल्ली के स्कूलों में गेस्ट और कॉन्ट्रेक्ट टीचर्स के जो हालात है उसे देखकर साफ़ कहा जा सकता है कि सरकार इनका शोषण कर रही है।’

यह सच है कि आज के बच्चों से बना कल का समाज और सामाजिक व्यवस्था कैसी होगी इसके निर्धारण में शिक्षक महती भूमिका अदा करता है और यह भी सच है कि वेतन और सुविधा की संतुष्टि के बिना कोई भी अपना काम पूरे मनोयोग से नहीं कर सकता है। तो क्या गेस्ट और कॉन्ट्रेक्ट टीचर्स के सहारे चलने वाले दिल्ली के स्कूल पढ़ाई की गुणवत्ता में प्राइवेट स्कूलों को पीछे छोड़ सकते हैं, जैसा कि मुख्यमंत्री केजरीवाल जी कह रहे हैं? क्या इसके लिए जरुरी नहीं है कि सीएल (कैजुअल लीव) और अन्य सुविधाओं के साथ साथ करीब आधा लाख वेतन उठाने वाले शिक्षकों के जैसा ही बर्ताव उनके साथ भी हो जो 800 रुपए हर दिन के हिसाब से स्कूलों में पढ़ाने आते हैं और जिनके वेतन वाले दिनों में रविवार और सरकारी छुट्टियों की गिनती नहीं होती, छुट्टी तो खैर ले ही नहीं सकते हैं... ।