रविवार, 11 दिसंबर 2016

जनता फिर भी 'लाइन' में है...

'एक चुटकी भर चांदनी, एक चुटकी भर शाम,
वर्षों से सपने यही देखे यहां अवाम...।'

वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे देखना शायद भारतीय जनता की बदकिस्मती ही है और उसी बदकिस्मती को बयां करती है 'दिनेश शक्ल' की ये पंक्तियां। संसद का पूरा शीत सत्र हो-हल्ले की भेंट चढ़ गया। दोनों मुख्य राजनीतिक दल इसके लिए बराबर के जिम्मदार हैं। लेकिन उधर राहुल कहते हैं कि मुझे नहीं बोलने दिया जा रहा और इधर मोदी कहते हैं कि मुझे नहीं बोलने दिया जा रहा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि राहुल की बात यूपीए का कोई नेता नहीं माने या मोदी का आदेश मानने से एनडीए का कोई नेता मुकर जाए। लेकिन दोनों जनता के सामने घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। अब होगा यही कि संसद सत्र के अंतिम दिनों में मोदी 'लाजवाब' भाषण देंगे और सत्ता पक्ष के साथ-साथ जनता भी झूम उठेगी। सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक सदन में पीएम का भाषण चर्चा का विषय बन जाएगा। सब यही कहेंगे, वाह क्या बोला है, धो डाला... पर विपक्ष फिर भी सवालों के जवाब के लिए हो हल्ला मचाएगा लेकिन जनता को यह जवाब कोई नहीं देगा कि आखिर क्यों संसद सत्र में लगने वाली जनता के खून पसीने की कमाई शोर-शराबे और आरोपों-प्रत्यारोपों की भेंट चढ़ गई। अफ़सोस कि जनता आज नागरिक से ज्यादा समर्थक और विरोधी की भूमिका में आ गई है। तमाम असुविधाओं के बावजूद उसे अपने 'प्रिय' नेता के दर्शन और समर्थन के लिए 'लाइन' लगना मंजूर है... 


'भोर था प्यार अब दोपहर हो गया,
स्वप्न का हर भंवर खंडहर हो गया,
तुम संवरती-संवरती हुईं सैफई,
मैं उजड़ कर मुजफ्फरनगर हो गया।'

हर बार दिखाए जाने वाले सियासी सपने कुछ समय बाद किस तरह से केवल सपने भर बन कर रह जाते हैं और सैफई का विकास मॉडल किस तरह से पूरे सूबे की दुर्दशा के लिए एक मजाक है, इसे कवि 'प्रियांशु गजेंद्र' की इन पंक्तियों से भी समझा जा सकता है। लोहिया और चरण सिंह के बाद जब मुलायम सिंह समाजवादी खेमे के अगुआ के रूप से आगे आए, तो जनता में एक आस जगी कि अखाड़े का यह पहलवान जनता के हक़ के लिए लड़ेगा। यह 'नेता' लोहिया और चौधरी जी के समाजवाद के सपने को जिवंत करेगा। पर अफ़सोस कि समाजवाद परिवारवाद का रास्ता और विलासिता का साधन बन गया। हाल में जब समाजवादी पार्ट के नए खेवैया ने समाजवाद की जातिगत राजनीति और गुंडागर्दी वाली सियासी पहचान को सार्वजनिक रूप से ललकारा और विकास के समाजवादी मॉडल के सहारे आगे बढ़ने की बात कही, तब लगा कि 'नेता का बेटा' हाशिए पर पड़े लोगों के हौसलों को उड़ान देगा। लेकिन आज जब पता चला कि समाजवाद के सियासी सूरमाओं ने फिर से मुख्तार अंसारी जैसे गुंडे के आगे घुटने टेक दिए और उसके हत्यारे भाई को बांदा से टिकट दे दिया गया तो यह सपना फिर से भरभरा गया कि देश को दिशा देने वाली यूपी की सियासत में सूचिता लौटेगी। जनता तब भी समाजवाद की हकीकत से रूबरू हुई थी, जब मुजफ्फरनगर में सैकड़ों लोग खुले आसमान के नीचे ठंढ में ठिठुरते रहे थे और समाजवाद के पहरुआ सैफई में हीटर के बीच बॉलीवुड की बालाओं के साथ झूम रहे थे और जनता आज भी इनकी असलियत देख रही है, लेकिन इन सब के बावजूद आज भी अपने समाजवादी नेताओं के एक दीदार के लिए यूपी की बड़ी आबादी 'लाइन' लगने को तैयार है...

'जिसे मैंने सुबह समझ लिया,
कहीं वो भी शाम-ए-अलम ना हो।'

मुमताज नसीम के इस शेर को आज बिहार सरकार के प्रति पिछड़ों और वंचितों के विचार से जोड़कर देखा जा सकता है। 2005 में जब लालू के जंगल राज को जड़ से खत्म करने के मंसूबे के साथ नीतीश कुमार ने ऐलान किया कि 'वही पुलिस गोली चलाएगी' तो जनता को भयाक्रान्त माहौल से छुटकारा मिला। बिहार की जनता को लगभग एक दशक तक सुशासन की जो सौगात मिली उसी का प्रतिफल था कि बिहार की बिगड़ी पहचान के सर्जग और जंगल राज के प्रतीक लालू यादव के साथ नीतीश के  हाथ मिलाने को भी जनता ने कबूल किया और कभी चिर विरोधी रहे लालू-नीतीश को सर आंखों पर बिठाया। इस जीत से सबसे ज्यादा जो समुदाय या वर्ग खुश हुआ वह था हाशिए पर पड़ा पिछड़ा वर्ग। क्योंकि लालू किसी समय उनकी आवाज हुआ करते थे और नीतीश ने उन्हें 'गर्त' से उबारा था। अब उन्हें सपना दिखाया गया था समाज की पहली पंक्ति में कदमताल करते हुए चलने का। लेकिन दो दिन पहले भागलपुर में जो हुआ उसने ना सिर्फ उन सपनों का गला घोंटा बल्कि सरकार के इकबाल पर भी सवालिया निशान लगा दिया।  अपने आशियाने के सपने को पूरा होते देखने की आस में डीएम ऑफिस के सामने आवाज उठा रही औरतों को जिस बेरहमी और बेशर्मी से मारा गया वह निहायत ही कायरता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि ऐसी घटना नीतीश सरकार में पहली बार हुई है, पहले भी दलितों-औरतों पर लाठियां बरसाई जाती रही है। लेकिन जनता सब भूलकर फिर नीतीश को अपना 'नेता' मान लेती है। अब भी वही होगा, निश्चय यात्रा और नीतीश की अन्य यात्राओं में भी वही जनता फिर से भीड़ जुटाने के लिए 'लाइन' में लगेगी... लब्बोलुबाव यह कि हर बार की सियासी बेवफाई भी जनता को वफ़ा से नाउम्मीद नहीं करती और चोट खाने के बाद भी लोग फिर से उसी आशा, आकांक्षा और उत्साह से 'लाइन' में खड़े हो जाते हैं...

मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

6 दिसम्बर: स्तंभों के ढहने और जनता के बिलखने का दिन...

वह 6 दिसम्बर ही था जब नियति ने उन लाखों लोगों को स्तंभहिन कर दिया जिनको आम्बेडकर ने सर उठा कर जीने की ताकत दी... वह 6 दिसम्बर ही था जब एक स्तंभ का गुंबज गिरते ही धर्मनिरपेक्ष भारत की बंधुता धाराशायी हो गई थी... वह 6 दिसम्बर का सूर्य ही था जिसने विश्व जगत को यह मनहूस खबर दी कि लाखों लोगों के लिए स्तंभ, वह मंडेला नहीं रहे जिनके शब्दों ने ना सिर्फ अफ़्रीका बल्कि पूरे विश्व को अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाया... और आज भी 6 दिसम्बर ही है जब तमिलनाडु के लाखों लोग अपने सियासी व सामाजिक स्तंभ 'अम्मा'  के लिए बिलख रहे हैं... उस अम्मा के लिए आज देश आंसुओं में डूबा है, जिन्होंने जनता को अपना समझकर जननेता  की एक नई परिभाषा गढ़ी... अभी 'आज तक' पर जयललिता के साथ प्रभु चावला के पुराने 'सीधी बात' कार्यक्रम का प्रसारण हो रहा है... जयललिता बोल रही हैं, 'राजनीति नहीं प्रजा मेरा परिवार है, एआईडीएमके के लाखों कार्यकर्ता मेरा परिवार हैं'... आज यह बात सच साबित हो रही है... खैर, एक बहुत पुराना टीवी विज्ञापन याद आ रहा है-
'जाने वाले तो एक दिन चले जाते हैं,
सिर्फ यादें ही अपनी वो दे जाते हैं,
नाम उनके स्मारक बनाते रहें,
उनकी यादों को यूं ही सजाते रहें...'