मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

बदरंग सियासी चेहरा और स्वतंत्रता की सार्थकता

श्री श्री 1008 श्री देशभक्त महोदय जी, व्यवस्था के विरोध को देशद्रोह नहीं कहते हैं और ना ही अभिव्यक्ति की आजादी को राष्ट्रवाद का हनन। सोशल मीडिया पर ज्ञान बघारने से पहले राष्ट्रवाद-राष्ट्रद्रोही और देशभक्त-देशविरोधी की असली परिभाषा पढ़ लीजिए। एक लड़की के उन्मुक्त विचारों से आपकी संप्रभुता हिल गई, लेकिन इस व्यवस्था की उस पुलिस पर प्रश्न आपको राष्ट्रद्रोह लगता है, जो बस्तर के जंगलों में आदिवासी महिलाओं के स्तन से दूध निकाल कर चाय पीती है। थोड़ा सोचिए उनके बारे में क्या वे आजाद हैं? छपरा में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ने के बाद एक घण्टे के लिए इंटरनेट बंद होता है, तो लोग जिला पदाधिकारी को घेर के गरियाने लगते हैं, लेकिन कश्मीर का युवा साल के 365 में से 300 दिन बिना इंटरनेट के संगीनों के साए में गुजारता है। हम फिर भी गर्व से इन दोनों को अखंड भारत का अभिन्न हिस्सा कहते हैं, लेकिन क्या हमारी सरकार और हमारी व्यवस्था ने इन्हें 'आजाद भारतीय' बनाने पर कभी ध्यान दिया है?
कल यूपी में रैली करते हुए मोदी जी ने भारत की उस दयनीय दशा की ओर ध्यान दिलाया, जहाँ लोग आज भी मवेशियों के गोबर को सुखाकर उसमें से अन्न का दाना निकालकर भोजन करते हैं। यह सच है कि भारत की ये दशा कांग्रेसियों के लिए शर्म से डूब मरने की स्थिति है, लेकिन प्रधानमंत्री जी जिस जमीन पर खड़े होकर कांग्रेस के कुकर्मों का पाठ कर रहे थे, उस जमीन पर दो दिन पहले तक गेंहू की हरी फसल लहलहा रही थी, जिसे रैली के लिए काट दिया गया और कई किसानों को पैसे भी नहीं मिले। शर्मिंदगी की हद देखिए कि एक तरफ जहां, किसान उन बर्बाद फसलों के लिए तो रहे थे वहीं स्थानीय भाजपा उम्मीदवार सीना तान के बोल रहे थे कि इस देश का किसान प्रधानमंत्री जी से बेहद मोहब्बत करता है और उनके लिए ख़ुशी ख़ुशी अपनी फसल कुर्बान का सकता है। वाह रे सियासत और वाह रे सियासतदां। बात भाजपा या मोदी विरोध की नहीं है, बात है उस व्यवस्था और उस सियासी मानसिकता के विरोध की जो लटीयन की दिल्ली को पूरे देश की हकीकत समझ लेता है और इस सोशल मीडिया के जमाने में जिसके भाड़े के टट्टू सवाल उठाने वाले को देशद्रोही करार देते हैं। मैं ना तो वामपंथ का पैरोकार हूँ और ना ही फर्जी राष्ट्रवादी गैंग का सदस्य, लेकिन मुद्दा आधारित राजनीति के सार्थक विरासत वाली भारतीय सियासत की धारणाओं में कैद होकर कठपुतली बनते देखना दुखद है। आजाद भारत में अभिव्यक्ति की आजादी और छात्र राजनीति का एक सार्थक इतिहास रहा है, लेकिन हाल के दिनों में इन दोनों की आड़ में जिस तरह से सियासी रोटियां सेंकी जा रही है, उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता।