शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सम्बन्धों के लिए खतरा न बन जाए प्राइवेसी

शायद उनकी नई-नई शादी हुई थी, मैं जैसे ही उनके सामने के अपने बर्थ पर बैठा, दोनों के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए। पता नहीं, वे निश्चिंतता के भाव थे या प्राइवेसी में खनन की खीज! वो मेरी पहली 2nd एसी की यात्रा थी, इसलिए फूल पैसा वसूल मूड में मैं तुरन्त ही पैर फैलाते हुए पर्दा खींचकर पसर गया। मगर उनकी प्राइवेसी में खलन डालने की मेरी स्वचिन्ता तुरन्त ही काफूर हो गई, जब उनके बीच ही प्राइवेसी दीवार बनकर खड़ी हो गई। दरअसल, कुछ देर बाद सामने पर्दे के पार से मोबाइल छीना-झपटी की आवाज आने लगी, शायद पत्नी, पति को अपना मोबाइल नहीं दिखाना चाहती थी। उसके बाद पति उठकर अपने ऊपर के बर्थ पर चला गया, फिर कुछ देर बाद नीचे आया और मानमनौव्वल हुई। उस पूरी यात्रा में जो मैं सुन सका था और जो लाइन मुझे याद रह गई, वो ये थी कि 'दो प्यार करने वालों के बीच प्राइवेसी जैसा कुछ नहीं होता और अगर होता है तो फिर वो प्यार नहीं होता...' मेरी एक दोस्त की प्रेम कहानी का भी इसीलिए जल्द अंत हो गया, क्योंकि उसका ब्वॉयफ्रेंड उसके सामने बैठकर भी कई बार किसी और से चैट करता रहता और उसका हाथ अपने मोबाइल तक पहुंचने भी नहीं देता। एकबार इसे लेकर ही झगड़ा हुआ और उसने अपनी प्राइवेसी की कीमत पर प्यार को ठोकर मार दी।
इस यात्रा वृतांत और इस अधूरी प्रेम कहानी की जरूरत इसलिए महसूस हुई, क्योंकि आज एकबार फिर एक ऐसी ही घटना से सामना हुआ। प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के बीच प्राइवेसी एक मुद्दा हो सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि अभिभावक और बच्चों के बीच ऐसा कुछ होना चाहिए। वो बच्चा जो अभी कॉलेज का मुंह नहीं देखा, उसकी जिंदगी में भी प्राइवेसी जैसे शब्द की अहमियत हो सकती है, यह आज पता चला। अव्वल तो यह कि किशोरावस्था की दहलीज को मोबाइली दानव से दूर, बहुत दूर होना चाहिए लेकिन अगर इसकी दस्तक हो भी गई, तो फिर अभिभावकों का मित्रवत पहरा जरूरी है। पढ़ाई के नाम पर अभिभावक से 10 हजार का मोबाइल खरीदवाने वाला बच्चा उस मोबाइल से पढ़ाई के अलावा हर काम कर रहा है और शायद इसीलिए उसके अभिभावक को उस मोबाइल का पैटर्न लॉक भी नहीं पता। बच्चों के लिहाज से यह समस्या विकराल है, लेकिन आम बात करें तो भी मोबाइल प्राइवेसी सम्बन्धों में दरार का एक बड़ा कारण बनती है। आज स्थिति यह है कि आप किसी का बैंक एकाउंट चेक कर सकते हैं, लेकिन उसके मोबाइल को हाथ नहीं लगा सकते।  
गौर करने वाली बात यह है कि इस प्राइवेसी युद्ध में दोनों तरफ ऐसे लोग हैं, जिनका दरअसल कोई भी काम पर्दे में है ही नहीं। इनमें वे सभी शामिल हैं, जिनका फेसबुक डेटा लीक हो चुका है। इनमें से ज्यादातर वे हैं, जो चाइनीज मोबाइल इस्तेमाल करते हैं और उनके फोन की हर गतिविधि पर कोई तीसरी आंख पहरा दे रही है। इनमें से लगभग सभी लोग, कोई भी एप्लिकेशन इंस्टॉल करते समय बिना जाने-पढ़े उसके हर टर्म-कंडीशन को एसेप्ट करते जाते हैं और उस एप्लिकेशन वालों को अपने कॉन्टैक्ट से लेकर, व्हाट्सएप और कैमरा तक का कमांड दे देते हैं। इनमें से ज्यादातर वे हैं, जिनके मोबाइल में शेयर इट और ट्रू कॉलर जैसे एप्लीकेशन्स हैं, जो डाटा ट्रांसफर के लिए बदनाम हैं। ऐसे अनेकों माध्यम हैं, जिनके सहारे लोगों के मोबाइल की हर वो जानकारी दूसरे के पास जा रही है, जिसे वे अपने किसी खास से भी नहीं बांटना चाहते। 

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

सियासत सिनेमा नहीं है साहेब

लोगों की नज़र में सिनेमा की दुनिया हीरो से शुरू होकर हीरो पर ही खत्म हो जाती है। लोग जानते हुए भी नहीं समझना चाहते कि हीरो का हर अगला शब्द और एक्शन निर्देशक के आदेश पर निर्भर करता है। ठीक उसी तरह से, पत्रकारिता और खासकर टीवी पत्रकारिता का दायरा लोगों की नज़र में एंकरों की दुनिया से आगे नहीं बढ़ पाता। दुनिया नहीं जानती कि जिस एंकर को वह सर्वज्ञाता समझ रही है, उसका पूरा ज्ञान सामने के टेलीप्रॉम्प्टर पर होता है और उसका हर अगला वाक्य कान में लगे इयरफोन से आ रही आवाज़ पर निर्भर करता है। वह चाहे हीरो के लिए निर्देशक का आदेश हो, या एंकर के कान में लगे इयरफोन में चैनल के प्रोड्यूशर की आवाज़, दोनों का मूल उद्देश्य दर्शकों की पसंद पर निर्भर करता है। सियासत में ऐसा नहीं होता, लेकिन सिनेमाई अवतार के दीवाने भारतीय समाज को 2014 में एक ऐसा नेता मिला, जो हीरो भी था, एंकर भी और नेता तो था ही, जिसके सिनामाई डायलॉग सदृश सियासी नारों ने गत 10 साल तक मौन रही कांग्रेस का धमाकेदार विकल्प पेश किया। खुद को विकल्प से विजेता बनते देख इस नेता में सर्वशक्तिशाली बनने की चेष्टा हिलोरे लेने लगी और बस यही से सियासी नेता पर सिनेमाई हीरो और पत्रकारीय एंकर की छवि हावी होनी शुरू हुई। फिर तो दर्शकों की तालियों और वाहवाही के लिए कुछ भी बोलने को तैयार इस नेता ने वो भी बोला, जो उसके पद की गरिमा के गर्त से भी नीचे था। इस हीरोइक छवि में देश का पर्याय ढूंढ चुकी जनता ने बाकी उन सभी नेताओं को कूप मंडुप समझ लिया जो न हीरो थे न ही एंकर। इस देश को ऐसा नेता स्वीकार ही नहीं था, जो सोच-सोचकर बोले, जिसके पास लच्छेदार भाषा का अभाव हो, जो वाकपटु न हो। लेकिन कहते हैं न कि 'अति का भला न बरसना', हीरोइक छवि बनाए रखने की कोशिशें जब लक्ष्मण रेखा पार कीं और विरोधी को नीचा दिखाने के शाब्दिक वाण विधवा का मजाक बनाने से भी पीछे नहीं हटे, फिर जनता ने विकल्प तलाशना शुरू किया, जिसकी परिणति आज का परिणाम है। हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस का वनवास खत्म करने के बाद, आज प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी ने खुलकर कहा कि 'इस चुनाव में हमारी लड़ाई भले इनके साथ रही, लेकिन इन तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जनता के लिए जो काम किया, उसे हमारी सरकार आगे बढ़ाएगी।' आजादी के 7 दशक की प्रगति को ज़ीरो बताकर खुद को भाग्यविधाता साबित करने की हीरोगिरी वाली सियासत के इस दौर में पप्पू सिद्ध किए जा चुके नेता का यह ईमानदार बयान काबिल-ए-तारीफ तो है ही। काश साहेब यह समझ पाते कि सियासत सिनेमा नहीं है...

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

यह पराश्रित होने की पीड़ा है

'अंगना में माई रोए ली,
दुअरा पर लोग बिटोराइल बा,
मेहरी बेहोश भइली गिर के धड़ाम से,
भूअरा के डेड बॉडी आइल बा आसाम से...'

...तब तक मेरे मन में यही धारणा थी कि ताबूत में बंद होकर बाहर से आना वाला हर शव दुश्मन के हाथों 'शहीद' हुए जवानों का होता है, तब नहीं पता था कि जवान सिर्फ देश की सीमा पर नहीं मरते, राज्यों के भीतर की सीमारेखा भी उन्हें काल का ग्रास बना सकती है... राजनीति के निठल्लेपन से उपजी बेरोजगारी और पलायन के पीड़ा बन जाने की दारुण दशा से अपना पहला साक्षात्कार उपर्युक्त भोजपुरी गीत के माध्यम से ही हुआ था। तब असम में बिहारियों को पीटा जा रहा था। अपनों की खुशी के लिए घर छोड़ पराया हुए लोग ताबूत या बोरे में बंद होकर आ रहे थे या फिर घायल अवस्था में। कुछ दिनों तक सब ठीक रहा, हम बाल्यकाल से किशोरावस्था में प्रवेश किए और बिहारियों पर होने वाले जुल्म ने भी प्रदेश बदल लिया, यह दौर था मराठी अस्मिता की आग में बिहारियों के हवन का। हमारे रहनुमाओं और हमने तब आवाज बुलंद की होती, तो फिर किसी ठाकरे के बाद किसी ठाकौर की मजाल नहीं होती ऐसा करने की। हमने समझा ही नहीं कि जो बिहारी बाहुबल गुजरात और महाराष्ट्र की तरक्की को धक्का दे सकता है, वो बिहारियों पर उठने वाले हाथों को भी मरोड़ने की कूवत रखता है। न हमने यह समझा और न सियासत ने हमें यह समझने दिया। वैसे यह समस्या सियासी और बेरोजगारी से ज्यादा पराश्रित होने की है, हम दूसरों के भरोसे खुद को सौंपकर निश्चिंत हो जाते हैं। 
याद कीजिए, जब नरेंद्र मोदी ने कहा था कि 'जब एक बिहारी गुजरात जाता है, तो तब तक उसकी माँ चिंतित रहती है, जब तक वो गुजरात की सीमा पर प्रवेश नहीं कर जाता...' क्या उस समय किसी ने आवाज़ उठाई कि हम बिहारी गुजरात जाएं ही क्यों, आप हमें हमारे घर में ही कमाई के साधन क्यों नहीं मुहैया करा सकते...? ये पूछने की बात छोड़िए, जहां पर मोदी ने यह बात कही थी वहीं पर बंद चीनी मिल को लेकर भी यह कहा था कि अगली बार आऊंगा तो इस चीनी मिल की चीनी की चाय पीकर जाऊंगा। मोदी उस जगह दोबारा गए, लेकिन वो चीनी मिल आज भी बंद है। मोदी के उस दोबारा हुए दौरे पर बंद चीनी मिल को लेकर चूं तक नहीं करने वाले लोगों ने ही गुजरातियों को हौसला दिया कि वे हम बिहारियों को पीट सकें, क्योंकि उन्हें समझ आ गया है कि जो अपने घर में अपने हक के लिए आवाज़ नहीं उठा सकते, वो लौटकर तो यही आएंगे। यह बात गुजराती भली भांति जानते हैं, वो चाहे बिहारियों को पीटने का खुला एलान करने वाला गुजरात में बैठा बिहार कांग्रेस का प्रभारी हो, या बिहार के भरोसे अगली बार फिर प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब पाले देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति। मतलब हद है कि विरोधी पार्टी के शासन वाले राज्य में हुई एक बस दुर्घटना पर भी कई ट्वीट करने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने 50 लाख बिहारियों के अपने गृह राज्य से मारपीटकर खदेड़े जाने पर एक ट्वीट तक नहीं किया...

'NRC से पहले कर दिया SRC बहाल
वडनगर के संत तूने कर दिया कमाल...'

*SRC- State Register of Citizens

रविवार, 30 सितंबर 2018

अगला नंबर आपका है...!

अभिज्ञान शाकुन्तलम में एक दृष्टांत आता है कि जंगल में शिकार करने गए राजा दुष्यंत शकुंतला से मिले और उनके साथ सहवास किया, ये खबर जब माता गौतमी को लगी तो वे शकुंतला के साथ रात्रि के तीसरे पहर में राजा दुष्यंत के यहां पहुंचीं। उन्होंने द्वारपाल से पूछा कि क्या हम राजा से मिल सकते हैं, तो उसका जवाब था- 'अवश्यमेवं, लोकतंत्रस्य सर्वाधिकारः'... अंधेरगर्दी वाली सियासत से निकली बेलगाम सरकार की बर्बर पुलिस के हाथों मारे गए एक आम आदमी की विधवा सत्ता के शीर्ष पर विराजमान 'व्यक्ति' से मिलने की गुहार लगाती रह जाती है, लेकिन चंद किलोमीटर दूर उस पीड़िता के दर पर पहुंचकर अपनी पुलिस की गुंडागर्दी के कबूलनामे के साथ उसके आंसू पोछने के बजाए प्रदेश के मुख्यमंत्री आलाकमान के आदेश का पालन करने सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली पहुंच जाते हैं... किसे लोकतंत्र कहें...? आज की सरकारों को, जिनके लिए उनकी प्रजा वोटिंग मशीन का बटन दबाने वाली उंगली भर है, या हजार साल पहले के उस समय को, जब रात्रि के तीसरे पहर में भी प्रजा द्वारा अपने राजा से मिलने के लिए उनके दरवाजे पर दी गई दस्तक का जवाब होता था, 'अवश्य, आप मिल सकते हैं अपने राजा से, यह लोकतंत्र में आपका अधिकार है...' जैसा कि सियासत चाहती है और जैसा कि हर बार होता है, इस बार भी सत्ता की कारगुजारियों पर यह चर्चा हावी हो गई कि मरने वाला हिन्दू था या मुसलमान, सवर्ण या दलित... किसी ने इस मामले को दिल्ली के मुख्यमंत्री के हिन्दू-मुस्लिम एंगल वाले ट्वीट की तरफ मोड़ दिया, तो किसी ने अखिलेश और मायावती की चुप्पी की तरफ... हे भारतवासियों, इन सियासतदानों की चुप्पी या सवाल इनके हर बिरादर भाई के लिए कवच-कुंडल का काम करती है, भुगतने के लिए रह जाते हैं हम और आप... अगर अपने जैसे किसी निर्दोष इंसान की बेहरमी से हुई हत्या भी आपको नहीं झकझोरती तो, नवाज़ देवबंदी की इन पंक्तियों का सुबह-शाम पाठ कीजिए, हो सकता है कि सियासी समर्थन और विरोध के बोझ से दबा जमीर जाग जाए-
'जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है,
आपके पीछे तेज़ हवा है आगे मुकद्दर आपका है
उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था मेरा नम्बर अब आया,
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं अगला नंबर आपका है...'

शनिवार, 1 सितंबर 2018

हिंदी साहित्य के 'दुष्यंत'

मैं जब भी दिल्ली की दौलत द्वारा दुत्कारे गए दबे कुचलों को चकाचौंध से दूर फुटपाथ के अंधेरों में अपनी बदरंग दुनिया को दुरुस्त करने की असफल कोशिश करते देखता हूं तो अनायास ही ये पंक्तियां याद आ जाती हैं- 

'...न हो क़मीज़ तो पांव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए.'

आधुनिकता के साथ कदमताल करते अलग-अलग सफ़र के दो राही के हमसफ़र बनने की जद्दोजहद जब भी विरासत के आडंबरों वाली थोथी आना के आगे दम तोड़ देती है, तो जी करता है कि जोर से चिल्लाऊं- 

'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं...'

शाइनिंग इंडिया के सपनों के महज नारों तक सिमटने की बात हो, भारत निर्माण के दावों के बस फाइलों में दफन होने की, या फिर अच्छे दिनों के वादों के जुमला बन जाने की... वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे हर पांच साल बाद इस दुआ को मजबूर कर देते हैं- 

'...हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.'

बॉलीवुड यानि मायानगरी मुम्बई को पहला ऑस्कर देने वाला धारावी हो या फिर अपने पसीने के ईंधन से दिल्ली की चकाचौंध बढ़ाने वालों को अपने अंधेरे कबूतरखानों में छुपाए राजधानी का कापसहेड़ा... इनकी दयनीय दशा अपनी अभिव्यक्ति के लिए खुद-ब-खुद इन पंक्तियों का गंतव्य तय कर लेती हैं- 

'कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए...'

शायद ही कोई हो, जिसने किसी अपने को, उसकी असफ़लता के बाद उपजी हताशा और निराशा को दूर करने और मार्गदर्शित करने के लिए इन पंक्तियों का सहारा न लिया हो-

'कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो.'

1977 में हुए आज़ादी के बाद के दूसरे सबसे बड़े जनांदोलन के बाद 2011 में जिस राजनीतिक बदलाव की बयार बही और जिसका असर दिल्ली से होते हुए कोहिमा से कांडला और कश्मीर से कन्याकुमारी तक महसूस किया गया, उसका सूत्र वाक्य यही था और आज भी हर सियासी वायदों का सारथी यही पंक्तियां हैं- 

'सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए'

सत्ता के मनमाफ़िक इतिहास न लिखने वाले लेखकों की तौहीन हो, सरकार के कसीदे न पढ़ने वाले कवियों की बेइज्जती, या फिर चाटुकारिता को तैयार न होने वाले पत्रकारों के पर कतरने की बात... हर ऐसी घटना इस शेर की याद दिलाती है-

'तेरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए...'

वो चाहे एक गूंगी गुड़िया द्वारा अपने को सत्ता की महारानी समझने की गफ़लत हो, या फिर वर्तमान समय के साहेब द्वारा खुद को खुदा समझने की भूल... एक आम जनता के एक छोटे शरीर की एक छोटी उंगली के एक छोटे हिस्से भर की हैसियत वाले सेवक जब भी खुद को देश से ऊपर समझने लगते हैं, ये पंक्तियां उन्हें औकात दिखाती हैं- 

'...तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं.'

'मैं यहां से 1 रुपए भेजता हूं तो गांव तक 15 पैसे ही पहुंचते हैं' 3 दशक बीत गए, जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर द्वारा यह दुर्भाग्यपूर्ण स्वीकारोक्ति हुई थी, पर अफ़सोस आज भी हकीकत ने वहां से कुछ ज्यादा दूरी तय नहीं की, हालांकि अवाम अब खुलकर कहती है-

'यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा...'

हमारी रोजमर्रा की अभिव्यक्ति को स्वर दे रही इन जैसी अनगिनत पंक्तियों के लेखक की आज जयंती है। मसान फ़िल्म में प्रेमिका के रेल सी गुजरने पर प्रेमी के थरथराने की प्रेमाभिव्यक्ति भले आपको फिल्मी लगे लेकिन यह उस मूल गजल लेखक के जीवन में प्रेम की पटरियों के उखड़ने का दर्द है, जो अपने पिता की अना के आगे अपनी मुहब्बत को हार गया और फिर लिखा- 
'मैं तुझे भूलने की कोशिश में, आज कितने क़रीब पाता हूं,
कौन ये फ़ासला निभाएगा, मैं फ़रिश्ता हूं सच बताता हूं'
करीब साढ़े चार दशक की उम्र बहुत बड़ी नहीं होती, कई शख्सियतों को तो दुनिया इस उम्र के बाद ही जानती है, लेकिन इतिहास के रंगमंच पर कुछ ऐसे किरदार भी आए जिनकी अदाकारी का पटाक्षेप बहुत जल्द हो गया, लेकिन उनके कौशल पर आज भी तालियां बज रही हैं और उनके शब्द आज भी असंख्य लोगों की अभिव्यक्ति के काम आ रहे हैं। हिंदी साहित्य और इस समाज को यह दुर्भाग्य सालता रहेगा कि इसे दुष्यंत कुमार के साथ का सौभाग्य बहुत कम समय तक ही मिला...

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

एक अजातशत्रु का अवसान...

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा 
आंख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा...

यह शेर उस देश की शायरा परवीन शाकिर का है, जिसके लिए अटल जी ने कहा था- 'दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं...' आज अटल जी पंचतत्व में विलीन हो गए, लेकिन पाकिस्तान से जुड़ी कश्मीर समस्या के समाधान को लेकर जब भी ईमानदार प्रयासों का जिक्र होगा अटल जी का नाम पहले आएगा। कश्मीर से जुड़े हर स्थानीय नेता कश्मीर समस्या के लिए हिंदुस्तानी नेता और नीति को जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन समाधान के लिए ईमानदार प्रयास का जब भी जिक्र आता है, तो उनके होठों पर सिर्फ एक नाम होता है और वह है, 'अटल बिहारी वाजपेयी।' मैं ऐसे बहुत से 'हार्डकोर' भाजपाइयों को जानता हूं, जो एक प्रधानमंत्री के रूप से अटल जी को पसंद नहीं करते और ऐसे कई बड़े नेताओं को भी जानता हूं, जो धुर विरोधी हो कर भी अटल जी की सियासी सोच के कायल हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि अटल जी ने कभी विचारधारा को थोपने वाली सियासत नहीं की, हां वे एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। वे चाहते थे कि अयोध्या में राम मंदिर बने लेकिन वह ये भी चाहते थे कि कश्मीर सुलझाने के लिए कश्मीरियों से बात की जाय। भारत ही नहीं दुनिया की सियासत ने दुबारा किसी 'अटल' शख्सियत को नहीं देखा क्योंकि कोई और नेता इन पंक्तियों को जी ही नहीं पाया कि

'टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते,
सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है,
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते,
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते...।'

आज भारतीय सियासत के इस अजातशत्रु का अवसान हो गया, लेकिन अपने सुकर्मों द्वारा इन्होंने राजनीति को जो दिशा दिखाई वह युग-युगांतर तक इस महान नेता की गाथा गाते रहेंगे। आज जब सियासी सफर के हर कदम में करोड़ों-अरबो लुटाए जा रहे हैं इस समय सियासत के इस पितामह की याद आती है, जब इन्होंने भरी संसद में कहा था- 
'ऐसी सरकार जो सांसदों के खरीदने से बनती हो मैं इसे चिमटे से छूने से अस्वीकार करता हूं।' वर्तमान सियासत में जबकि विरोध का स्तर ज़ुबानी नीचता की परकाष्ठा पार कर रहा है, हमारे नेताओं को अटल जी के उस व्यक्तित्व से सीख लेने की जरूरत है जिसके कारण विपक्षी दल के प्रधानमंत्री 'नरसिम्हा राव' ने इन्हें सरकार का नुमाइंदा बना कर पाकिस्तान भेजा था। आज के नेताओं को, विरोधी की नजर में भी अपनत्व की उस अटल छवि से सीखने की जरूरत है, जिसके कारण निवर्तमान प्रधानमंत्री 'राजीव गांधी' ने अटल जी के मना करने के बावजूद उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल के साथ जाने के बहाने इसलिए अमेरिका भेजा था ताकि वे वहां अपने घुटने का इलाज करा सकें क्योंकि अटल जी की खुद की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं थी कि वे अपने खर्च से अमेरिका जाकर इलाज कराएं। आज के दौर में बनने से पहले टूटने वाले गठबंधन के सूत्रधार नेताओं को तो यह पता ही होगा कि वह 'अटल क्षमता' ही थी जिसकी बदौलत भारतीय राजनीति ने 24 दलों के गठबंधन की सफल सरकार देखी थी। कितना अच्छा होता कि आज अटल जी के लिए श्रद्धांजलि के लिए उमड़े हुजूम में से हर नेता उनकी स्वच्छ छवि वाली विरासत को आगे बढ़ाते और उनकी इन पंक्तियों को सार्थक करते कि,

'आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दिया जलाएं...।'

वे अटल जी ही थे जिन्होंने संसद के भीतर विदेश निति पर हो रही चर्चा में अपनी बात से तत्कालीन प्रधानमंत्री 'नेहरू' जी को प्रभावित कर दिया था और नेहरू जी ने अटल जी की प्रशंसा करते हुए कहा था, 'आप एक दिन जरूर देश का प्रतिनिधित्व करेंगे।' वे अटल जी ही थे जिन्होंने पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब दिया और समय पर समझाया भी कि,

'ओ नादान पड़ोसी अपनी आंखें खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।'

वर्तमान राजनीति के खराब चरित्र का एक कारण यह भी है कि अब इसके पास कोई 'अटल शख्सियत की छवि' नहीं रही... हिन्दू धर्म की मेरी मान्यता यह उम्मीद जगाती है कि मौत से ठनी रार में अवसान को प्राप्त हुआ यह अजातशत्रु पुनर्जन्म लेकर दोबारा इस देश की सियासत और सामाजिकता को पटरी पर लाने के लिए आएगा, क्योंकि वे न सिर्फ इस देश की जरूरत हैं, बल्कि चाहत भी हैं। आज उनकी अंतिम यात्रा में प्रधानमंत्री, दर्जन भर से ज्यादा मुख्यमंत्री, सैकड़ों सांसद-विधायक, लाखों पार्टी कार्यकर्ता और असंख्य लोग जरूर दिखे होंगे, लेकिन मैंने जो देखा उससे ऑफिस में बैठे हुए आंखें डबडबा गईं। दीनदयाल उपाध्याय से होकर आईटीओ चौराहे पर आने के क्रम में एक चैनल का कैमरा कुछ समय के लिए एक बुजुर्ग पर फोकस हुआ, जो एक हाथ से आंसू पूछते हुए दूसरे हाथ से 'अटल बिहारी जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे... इस दृश्य से एक शेर याद आ गया कि
'कहानी खत्म हुई और ऐसे खत्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियां बजाते हुए...

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

बेलगाम सत्ता और निरीह चौथा खम्भा

किसी स्वयंसेवी संस्था को चाहिए कि रवीश कुमार की इस सूक्ति का शिलापट्ट देशभर में लगा दे कि 'एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है...' सच में लग रहा है कि एक नागरिक के तौर पर इस देश की जनता विचार-शून्य स्थिति में पहुंच गई है और शायद सरकार भी यह समझ गई है कि अब इस देश में नागरिक नहीं समर्थक और विरोधी बसते हैं। आज का दिन वर्तमान दौर की भारतीय पत्रकारिता के लिए महत्वपूर्ण है। इस दिन को खासकर दो बातों के लिए याद रखा जाना चाहिए। पहली यह कि एक शख्स ने अपने पत्रकारीय धर्म के निर्वहन के लिए सत्ता के सान्निध्य को ठोकर मार दी और दूसरी यह कि वैश्विक स्तर पर महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर महान भारतीय लोकतंत्र की शानदार बहुमत वाली सरकार एक पत्रकार से डर गई। वैसे ये डर अचानक सामने नहीं आई। आलमपनाह की परेशानी तो उसी दिन से शुरू हो गई थी जब मास्टर स्ट्रोक की शुरुआत ही सत्ता और सत्ताधारी पार्टी की 'भागीदारी' से देशभर में हो रहे खनन की खबरों से हुई थी। सरकार को इस बात ने भी कचोटा कि आखिर इस पत्रकार को यह क्यों दिखा कि केवल बीते एक साल में हुए 12553 बैंक फ्रॉड में देश को 18 हजार करोड़ से ज्यादा का चूना लग गया... इस पत्रकार ने इस सच का ढोल क्यों पीटा कि 2009-13 के बीच 87 हजार करोड़ रहने वाला एनपीए 2014-18 में 4 लाख करोड़ के करीब पहुंच गया... इस पत्रकार को यह खबर कैसे मिली कि बीते 4 साल में सरकार 9 बार तेल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर 31 खरब रुपए कमा चुकी है... इस पत्रकार ने क्यों यह गणना की कि बीते चार साल में सरकार परस्त गुंडों की भीड़ ने 64 निर्दोषों को बेमौत मार दिया... इस पत्रकार ने क्यों यह सवाल उठाया कि जो देश केवल एक साल 2009-10 में अपने 18 हजार से ज्यादा गांवों को रौशन कर चुका है, उसी देश में 4 साल में विद्युतीकृत किए गए 18 हजार गांव कौन सी बड़ी उपलब्धि हैं... इस पत्रकार ने सेस के खेल को उजागर करते हुए क्यों यह सच देश के सामने रखा कि बीते चार साल में हुई सेस की कमाई में से खर्च के बाद भी सरकार के खाते में साढ़े 17 खरब रुपए बचे हुए हैं, जिनका कोई लेखा-जोखा नहीं है... इस पत्रकार ने सीएजी रिपोर्ट वाली उस ख़बर को क्यों तूल दी, जिसमें सरकार के 19 मंत्रालयों द्वारा देश को 1179 करोड़ रुपए का चूना लगाने की बात सामने आई थी... ऐसी अनेक खबरें हैं जिनके कारण सरकार को पुण्य प्रसून वाजपेयी खटकने लगे थे... हाल के दिनों की सबसे बड़ी खबर वो थी जब इन्होंने सरकार की आंख में आंख डालकर साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री के सामने मजमा सजाकर जबरदस्ती उगलवाया जाता है कि किसान की आमदनी 50 प्रतिशत बढ़ गई...
होना तो यह चाहिए था कि खुद के लिए प्रधानसेवक सुनने को लालायित रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी इन सभी खबरों से सीख लेकर देश को आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करते। नोटबंदी के कुछ दिन बाद आम लोगों के लिए भी बैंकिंग ट्रांजैक्शन को आसान बनाने से सम्बन्धित एक स्किम का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने मीडिया को इसलिए धन्यवाद दिया था, क्योंकि किसी टीवी चैनल पर उन्हें एक ऐसे आदमी की पीड़ा दिखी थी जिसके पास स्मार्टफोन नहीं था। मीडिया के साथ नरेंद्र मोदी के छत्तीस के आंकड़े वाले इतिहास के बावजूद उस समय मुझे लगा था कि तथाकथित छप्पन इंची सीने वाले इस शख्स में अपनी आलोचना सुनने और उससे सीख लेने की क्षमता है, लेकिन उसके बाद कई ऐसे उदाहरण दिखे, जिसने साबित किया कि वो मेरी गलत धारणा थी। वो चाहे सेल्फी के लिए लालायित रहने वाले चंद पत्रकारों को ही इंटरव्यू देने की बात हो या सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों और संस्थानों के पीछे हाथ धोकर पड़ने की, हर बार इस सरकार ने लोकतंत्र के चौथे खंभे की नींव कमज़ोर करने की कोशिश की। हमने यही पढ़ा है कि पत्रकारिता सत्ता के चरणवन्दन का नाम नहीं है और न ही पत्रकारिता केवल सूचना का माध्यम है। अफसोस कि सत्ता से सर्वार्थसिद्धि साधने वाले चंद पत्रकारों और अपने भविष्य के लिए राज्यसभा की चौखट ताकने वाले कुछ मालिकों ने पत्रकारिता को पीआईबी और सूचना प्रसारण मंत्रालय से भी गया-गुजरा बना दिया और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस देश की जनता उसे ही पत्रकारिता समझ बैठी। मोदी जी आज चाहें तो अपने चार साल के कामों के लेखा-जोखा वाला बैनर बीच समुंदर में लगवा सकते हैं, लेकिन सुदूर गांव का कोई वंचित-पीड़ित अपनी बात बगल के थानेदार और बीडीओ तक पहुंचाने में भी असमर्थ होता है। विडम्बना देखिए कि सरकार उन्हें ही पत्रकारिता का झंडाबरदार मान चुकी है, जो सरकार के कामों को विज्ञापन एजेंसी की तरह फैला रहे हैं और उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी है जो उस जनता की आवाज को सत्ता के कान तक पहुंचाने के लिए प्रयासरत हैं, जिनतक आज़ादी के 70 वर्ष में लोकतंत्र की रौशनी नहीं पहुंची। यही पत्रकारिता वे तीन लोग कर रहे थे, जिन्हें सत्ता की ताकत ने आज टीवी स्क्रीन से हटा दिया। 

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

आत्मस्वार्थसिद्धि के लिए पहचान की बलि

'अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्,
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्...'
अर्थात, यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह पूरी धरती ही एक परिवार जैसी है...' दुनिया की सभ्यताएं जब लड़खड़ा कर चलना सिख रही थीं, तब बुद्ध ने वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा प्रस्तुत कर भारत को जगत गुरु होने की संज्ञा दिलाई थी। आज भी संसार का मार्गदर्शन भारतीय दर्शन के बिना संभव नहीं है। हालांकि विडम्बना यह भी है कि यह देश अपनी अस्मिता बचाने वाली आज़ादी हासिल करने से पहले की विशेषताओं को ही आजतक ढो रहा है, अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद से आज तक इस देश ने अपनी पहचान का बंटाधार ही किया है, जो आजतक जारी है। क्या सितम है कि पूरी दुनिया हमारी जिन विशेषताओं के लिए हमें जानती है, हमारे तथाकथित भाग्यविधाता क्षणिक निजी स्वार्थसिद्धि के लिए उन्हीं विशेषताओं को तहस-नहस करने पर आमादा हैं। मुद्दा यह नहीं है कि एनआरसी की बुनियाद वर्षों पहले तत्कालीन 'कांग्रेसी' प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने डाली थी, मुद्दा यह भी नहीं है कि वर्तमान सत्ताधारी पार्टी का अध्यक्ष खुद को खुदा समझे जाने वाली अकड़ में खुला ऐलान कर देता है कि वो एक बड़ी आबादी इस देश की नागरिक नहीं है, जिसमें देश के पूर्व राष्ट्रपति का परिवार शामिल है, जिसमें सीमा पर जान की बाजी लगाने वाले सिपाही के परिजन शामिल हैं और जिसमें ऐसे हजारों लोग शामिल हैं, जो इस लोकतंत्र का महापर्व समझे जाने वाले चुनाव में अपनी भागीदारी देते आए हैं। मुद्दा यह है कि क्या हम अपनी उस पहचान से पीछा छुड़ा रहे हैं, जो मुश्किल घड़ी में दलाई लामा को शरण देती है, जो मुश्किल घड़ी में बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को हमारी तरफ देखने का मौका देती है और जिसके कारण एक पाकिस्तानी गायक भारतीय नागरिकता का सौभाग्य पाना चाहता है।
कहा जाता है कि हमारे संविधान का बड़ा उद्देश्य देश में कानून का राज कायम करना है और इसके लिए संविधान कानून-व्यवस्था की बात करता है। यही वही संविधान है, जिसकी शपथ लेकर हर दल और हर नेता सत्ताशीन होते हैं और यह वही कानून-व्यवस्था है, जिसका राज कायम करने की बात हर सरकार करती है, तो फिर यह कैसा कानून का राज है कि हर दिन अवैध रूप से इस देश में घुसपैठ हो रहा है। जो नेता आज संसद में छाती ठोककर कह रहे थे कि हममें वो हिम्मत है कि हमने एनआरसी को लागू किया, तो फिर उनकी हिम्मत अवैध घुसपैठ रोकने के समय कहां थी। आज जब वे संसद में अपनी हिम्मत का ढोल पिट रहे थे, तब भी अवैध रूप से बांग्लादेशी असम में घुस रहे होंगे। क्या हमारी कानून व्यवस्था के पास यह क्षमता नहीं है कि अवैध घुसपैठ रोकी जा सके या उनकी पहचान की जा सके, जो आश्रय की आड़ में हमारी जमीन को खोखला कर रहे हैं? क्या चंद आततायियों की करतूतों के लिए हम उन्हें भी दरबदर कर देंगे जिन्होंने दशकों पहले इस जमीन को अपना मादरे वतन मान लिया था...? क्या यह हमारे पहचान की हमारे मूल चरित्र की बलि नहीं होगी? हमारा देश तो इस सत्य को दशकों से जीता आ रहा है कि 'हैं गांधी भी मगर हम हाथ में लाठी भी रखते हैं', तो फिर हम गांधी की पहचान का ही बंटाधार क्यों कर रहे हैं, जबकि 'दिनकर' की इस सूक्ति हमारे पास है-
'छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप के काम ले यह पाप है,
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है...'

गुरुवार, 31 मई 2018

कौन जीता... किसकी हार...?

आज आए उपचुनाव परिणामों ने किसी को खुश होने का मौका दिया, तो किसी के चेहरे पर उदासी छा गई... एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर हमें हर उस शख्स या दल की हार सुकून देती है, जिसने खुद को देश से ऊपर समझने की गफ़लत पाल ली हो और जो सोचता हो कि उसे कोई हरा नहीं सकता... लेकिन व्यक्तिगत तौर पर देखें, तो हमारी खुशी या गम का कोई आधार नहीं है... जो आज जीते हैं वो तो आज से राजशाही सुख भोगेंगे ही और जो हार गए उनके भी ठाट-बाट में कोई कमी नहीं आएगी... यह मैं क्यों कह रहा हूं इसके लिए आज चर्चा में रही तीन सीटों और वहां के उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि पर गौर करें, तो हमें हमारे संविधान की वो बात थोथी लगती है, जिसमें जनता के पास लोकतंत्र की चाबी होने की बात कही गई है... सितंबर 2017 में अररिया से सांसद तस्लीमुद्दीन की मृत्यु हुई, उसके बाद उनके विधायक बेटे सरफ़राज़ आलम ने अपनी विधानसभा सीट जोकीहाट से इस्तीफा देकर पिता की खाली हुई अररिया लोकसभा से मार्च 2018 में उपचुनाव जीता... इसके बाद उनकी सीट खाली हो गई, जिसके लिए उन्हीं के सगे भाई यानि तस्लीमुद्दीन के छोटे बेटे शाहनवाज़ आलम ने चुनाव लड़ा, जिसका परिणाम आज आया है... शाहनवाज़ की जीत पर छाती ठोक रहे तेजस्वी राजनीति की किस बेल से निकले हैं ये तो सबको पता ही है... कुछ ऐसी ही कहानी उत्तरप्रदेश की महत्वपूर्ण सीट कैराना की भी है... जिस तरह तस्लीमुद्दीन 90 के दशक से ही सीमांचल में 'राज' करते रहे, कुछ वैसा ही प्रभुत्व मुनव्वर हसन का भी कैराना क्षेत्र में था, बाद के दिनों में हुकुम सिंह ने उन्हें चुनौती दी... 2014 के लोकसभा चुनाव में हुकुम सिंह ने मुनव्वर हसन के बेटे नाहिद हसन को कैराना में शिकस्त दी... उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में नाहिद हसन ने हुकुम सिंह की बेटी मृगांका को विधानसभा चुनाव में हराया... इसी साल फरवरी में हुकुम सिंह की मृत्यु हो गई, जिससे उनकी संसदीय सीट खाली हुई... उपचुनाव में भाजपा ने विधानसभा चुनाव हारी मृगांका को पिता की विरासत संभालने के लिए मैदान में उतारा तो दूसरी तरफ मृगांका को हराने वाले नाहिद हसन की मां तबस्सुम हसन पति की सियासी राह पर आगे बढ़ीं और आज के परिणाम में भारी मतों से विजयी हुईं... तबस्सुम की जीत के जरिए अपनी सियासी डूबती सियासी नैया को पार लगाने का सपना देखने वाले जयंत चौधरी भी इसी वंशवाद के बेल की बूटी हैं... परिवारों और घरानों में पीसते लोकतंत्र की यह दुर्दशा केवल उत्तर भारत में नहीं है, पूरा देश ऐसे 'सियासी आक्रांताओं' की जद में है, पूर्वोत्तर भी इससे अछूता नहीं... आज के चुनाव परिणामों में एक नाम मियानि डी शिरा का भी है, जिन्होंने मेघालय की अम्पति सीट से जीत दर्ज की है... मियानि मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा की बेटी हैं और मुकुल संगमा की ही एक खाली विधानसभा सीट से चुनाव लड़ी थीं... आपको लगेगा कि मुकुल संगमा तो अभी राजनीति में सक्रिय हैं, तो फिर यह सीट कैसे खाली हो गई, तो इसका जवाब यह है कि हमारे संविधान ने सियासी बिरादरी को यह हक दिया है कि वो एकसाथ जितनी थाली में चाहें, खा सकते हैं और पेट भरने पर थाली को फेंक सकते हैं... आप-हम भले एक साथ दो नौकरी नहीं कर सकें, लेकिन नेता दो जगह से चुनाव लड़ सकते हैं... इसी आधार पर मुकुल संगमा ने हाल के विधानसभा चुनाव में दो सीटों से चुनाव लड़ा और दोनों पर जीत दर्ज करने के बाद एक सीट खाली कर दिया, जिसपर हुए उपचुनाव में उनकी बेटी लड़ी और जीती भी... ये लोकतंत्र की अंतहीन मार्मिक दुर्दशा का एक अंश का अंश भर है... अगली बार किसी नेता की जीत पर ताली पीटने या किसी की हार पर आंसू बहाने से पहले सोचिएगा कि क्या इस तंत्र या इस व्यवस्था में आप वहां पहुंच सकते हैं...

गुरुवार, 10 मई 2018

समाज, सियासत और मोहब्बत को शब्द देने वाला शायर

'पेड़ को काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा।'

वर्तमान समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे को बहुत पहले शायरी में समेट कर जिस शायर ने समाज को सबक सिखाने का काम किया था उसकी मुहब्बत की पंक्तियां आज भी राह चलते लोगों को गुनगुनाते हुए सुनी जा सकती हैं। सामने वाले के चेहरे की बनावटी हंसी को देखकर आज भी अनायास ही यह गीत होठों पर आ जाता है कि
'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो 
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो...'

मिले या बिछड़े हुए, बिछड़ते-बिछड़ते मिले हुए या मिलते-मिलते बिछड़ चुके किसी हमसफ़र की याद इस 20वीं सदी में भी इसी शायर द्वारा लिखे गए 19वीं सदी के इस गीत को ही अपना अपना गंतव्य बनाती है कि,
'चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था, 
सरे राह चलते-चलते,
वहीं थम के रह गई है, मेरी रात ढलते-ढलते...'

आज आजादी की पहली जंग की सालगिरह है। जी हां, आज ही के दिन 1857 में फिरंगियों से भारत की आजादी की आवाज़ बुलंद हुई थी, जिसकी परिणति ने हमें स्वतंत्रता की आबो हवा में सांस लेने की सौगात दी। लेकिन जिन कुर्बानियों की बदौलत हमने स्वतंत्रता पाई उनके लिए नतमस्तक कर देता है, इसी गीतकार का यह गीत जिसकी मैं बात कर रहा हूं,
'कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...।'

जिस लिखनी से मातृभूमि के दीवानों का देशवासियों के लिए यह पैग़ाम निकला उसी लेखनी से उन दीवानों के दिल की आवाज भी निकली है, जिनकी सार्थकता को आज भी लोग जीते हैं...
'कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों हैं?
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं?
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं?
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं?'

शायरी को दीवानों के दिल से निकला प्रश्न बनाने वाले इस शायर की इन पंक्तियों से भी आप शायद ही अनभिज्ञ होंगे कि,
'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं 
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं...।'

प्रवास हर समय में समाज की एक पीड़ा रही है... और शायर, कवि, गीतकार की तत्कालीन समय में सार्थकता यही है कि वह उस समय के दुःखों, तकलीफों को आवाज दे... दूर रहकर अपनी जमीन को याद करने वालों की ख्वाहिस को इस शायर ने कुछ यूं शब्दों में पिरोया है कि
'वो कभी धूप कभी छांव लगे,
मुझे क्या-क्या न मेरा गांव लगे,
किसी पीपल के तले जा बैठे 
अब भी अपना जो कोई दांव लगे।'

वक्त के हंसी सितम से खुद को और 'उनको' बदलने के भाव को बयां करने वाले उस महान शायर को अब तक आप पहचान ही गए होंगे...फिर भी मैं बता देता हूं... समाज, सियासत और मुहब्बत तीनों को अपनी लेखनी से बयां करने वाले मशहूर शायर 'कैफ़ी आज़मी' की आज पुण्यतिथि है। उसी कैफ़ी आज़मी की जिन्होंने हिंदी सीने जगत को 'शबाना आज़मी' जैसी अदाकारा दी... और जो अपनी ही इन पंक्तियों को चरितार्थ कर गए कि 
'इंसां की ख्वाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद।'
आज ही के दिन यानी 10 मई को आज से 6 साल पहले यह मशहूर शायर, कवि, और गीतकार यह गुनगुनाते हुए हमसे रुखसत हो गया कि,
'ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं...'
लेकिन अब भी...
'जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं...।'

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

दिल्ली का गीत और गांवों का शोकगीत

कहीं पढ़ा था कि दिनकर जब राज्यसभा के सदस्य थे, उन्हीं दिनों एकबार वे और नेहरू साथ में संसद की सीढ़ियां उतर रहे थे। नेहरू के अचानक लड़खड़ाने पर दिनकर ने उन्हें सहारा दिया, उसके बाद नेहरू के धन्यवाद पर दिनकर की प्रतिक्रिया थी कि 'सियासत के कदम जब-जब लड़खड़ाएंगे, अदब उसे सहारा देगा...' अफ़सोस कि अब न नेहरू जैसे नेता रहे और न दिनकर जैसे अदब के स्तम्भ। इत्तेफाक की बात है कि आज दिनकर की पुण्यतिथि भी थी और पंचायती राज दिवस भी। उसी पंचायती राज का दिवस जिसके जरिए गांवों के इस देश में सुराज लाने का सपना देखा गया था। लेकिन कौन जानता था कि आजादी के दो दशक बाद दिल्ली और देश के गांवों की असमानता का दिनकर द्वारा किया गया यह चित्रण आज आजादी के 7 दशक बाद भी सार्थक होगा कि
'...भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में,
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर भटक रहा है सारा देश अंधेरे में...'
दुर्भाग्य तो यह भी है कि 'ज़िंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करती' का नारा देने वाले वो लोहिया भी देश का अंधेरा दूर नहीं कर सके, जिन्होंने 'तीन आना बनाम तीन रुपया' को संसदीय विमर्श बना दिया था। आना पूरी तरह से रुपए में बदला और साहित्य के सिद्धहस्त पुरोधा दिनकर जिस नेहरू के समय में आमलोगों की आवाज़ बनकर संसद में मौजूद रहे, उसी नेहरू के नाती ने यह कहकर दिनकर की पंक्तियों के अंधेरे भारत को सियासी रूप से सहमति दे दी कि मैं यहां से सौ रुपए भेजता हूं, तो गांवों में 20 पैसे पहुंचता है। ये तो आज भी दूर की कौड़ी है कि दिल्ली से पैसा पहुंचे तो पंचायतों के जरिए देश का विकास हो, लेकिन गांवों वाले भारत के जिन गांवों के जरिए बड़े-बड़े उद्योगपति मालामाल हो रहे हों, वहां के ग्रामीण तड़प-तड़प कर मरने को मजबूर हो जाएं, तो इसे क्या कहेंगे...? जी हां, यह इसी देश की हकीकत है और इसी पंचायती राज व्यवस्था के अधीन शाषित होने वाले गांवों के लोग दिनकर की इन पंक्तियों की सार्थकता।वाले शोषण की कहानी को जी रहे हैं कि
'स्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक-चिपक जाड़े की रात बिताते हैं,
युवती के गहने बेच-बेच यहां कर्ज चुकाए जाते हैं,
और मालिक तेल-फुलेलों पर पानी से द्रव्य बहाते हैं...'
क्या विडम्बना है कि नेहरू ने देश के जिन 100 पिछड़े जिलों को विकसित करने का बीड़ा उठाया था, वे आज़ादी के 7 दशक बाद भी विकास की सीढ़ी नहीं चढ़ सके और वे सभी वर्तमान प्रधानमंत्री के 150 उम्मीदों वाले जिलों की सूची में शामिल हैं। विडम्बना तो यह भी है नेहरू के लड़खड़ाते कदमों को सहारा देने वाले दिनकर ने ही, शासन और सरकार को पांव की जूती समझ लेने वाली नेहरू की बेटी को ललकारते हुए कहा था- 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...' अफ़सोस कि सिंहासन पर तब भी जनता विराजमान नहीं हो सकी और पंचायतों के जरिए देश के विकास का सपना, सपना ही रह गया। वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ने 2 साल पहले जब दिनकर की दो महत्वपूर्ण रचनाओं 'संस्कृति के चार अध्याय' और 'परशुराम की प्रतीक्षा' के 50 साल पूरे होने पर बिहार में एक वृहद आयोजन किया, तब भी लगा था कि शायद अब दिनकर से सत्ता का प्रेम सियासतदानों को उनके विचारों के करीब भी ले जाएगा और सुराज का सपना देख रहे ग्रामीणों के आंखों का इक्कीसवा ख्वाब पूरा होगा, पर अफ़सोस कि यह आत्मीयता जातिगत सियासत में बदल गई। दिल्ली से देखे और दिखाए जा रहे सपने अब भी धरातल पर नहीं उतर सके और दिनकर की रचना फिर से सजीव प्रतीत हुई कि
'...रेशम से कोमल तार, क्लांतियों के धागे, हैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के,
दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चिंत मगन रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के...'
यह दिल्ली की खुरदुरी खादी का गीत ही है कि कभी गांवों के देश के रूप में पहचान पाने वाले भारत से अब गांव ही गायब होते जा रहे हैं। ग्रामीणों और किसानों को मजबूर से मजदूर बना देने वाली सरकारें भले ही आंकड़ों में ग्रामीण भारत के विकास का राग अलापे लेकिन हक़ीक़त यही है कि ग्रामीण भारत बीमार होकर रह गया है। वहां रोगरहित है तो बस मुखिया-सरपंच जैसे सियासतदान, ठेकेदार और माफ़िया। देश को वैश्वीकृत करने वाली सरकारें ग्रामीणों को तो शहरों तक खींच लाई, पर अफसोस कि गांवों तक विकास नहीं पहुंचा पाई। लेकिन कहते हैं न कि आखिर वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे कब तक बुलन्द रह सकते हैं, कभी न कभी तो सियासी सपनों का बुलबुला फूटना ही था और फूट गया... इसे विडम्बना कहें या दुर्भाग्य लेकिन सच है कि आज जब हमारे प्रधानमंत्री करीब 15 सौ दिन तक शासन करने के बाद भी छत्तीसगढ़ में ग्रामीणों वाले भारत का पंचायतों के जरिए कायाकल्प करने का सपना ही दिखा रहे थे, उसी समय उसी राज्य के एक बड़े हिस्से में ग्रामीण, पंचायतों के जरिए ही अपनी सरकार चला रहे थे। जी हां, छत्तीसगढ़ के जशपुर और अंबिकापुर जिले के करीब 20 गांवों के ग्रामीण ग्राम सभा के माध्यम से अब अपना शासन और कानून चला रहे हैं। इन गांवाें में बिना ग्राम प्रधान की अनुमति किसी का भी प्रवेश वर्जित है, वो चाहे डीएम-एसपी हों, या प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री। इसे पत्थलगड़ी कहते हैं, जिसके एलान से यहां के ग्रामीणों ने यहां अपनी सरकार कायम कर ली है। ऐसा भी नहीं है कि ये केवल छत्तीसगढ़ में हुआ है, पिछले ही महीने झारखण्ड से भी ऐसी ही खबर आई थी कि वहां के आदिवासी भी पत्थलगड़ी करके अपने क्षेत्रों में ग्राम सभा की सरकार चला रहे हैं। इसे भी विडम्बना ही कहेंगे कि हमारे देश में ग्राम सभा की सरकार चल रही है, जो कभी गांधी-नेहरू-दिनकर का सपना हुआ करता था, पर अफसोस कि अपने रहनुमाओं की रहजन वाली छवि से आजिज आकर आदिवासियों द्वारा चलाई जा रही ग्राम सभा की यह सरकार हमारे संविधान के खिलाफ है। हालांकि कभी-कभी तो लगता है कि हमारे पंचायती राज की सार्थकता ग्रामीणों के इस बागी तेवर में ही है। जल-जंगल-ज़मीन से विस्थापित कर, रसायनयुक्त जहरीले पानी के सहारे जीने को मजबूर किए जाने वाले ये आदिवासी अगर अपने संसाधनों को बचाने के लिए तीर-कमान लेकर व्यवस्था से बगावत को तैयार हैं, तो इसमे गलती किसकी है...? आखिर दिनकर ने भी तो कहा ही था कि 
'...सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो,
एक पथ, बलि के लिए तैयार हो,
फूंक दे सोचे बिना संसार को,
तोड़ दे मंझदार जा पतवार को...'

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

सरकार ने अपना काम कर दिया अब समाज की बारी है

निर्भया कांड के बाद, बलात्कार और यौन शोषण से सम्बंधित कानून को कड़ा बनाने का सुझाव देने के लिए तत्कालीन सरकार द्वारा गठित कमिटी के अध्यक्ष जस्टिस जेएस वर्मा ने 23 जनवरी 2013 को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए कहा था कि 'ऐसे अपराध कानून की कमी की वजह से नहीं, बल्कि सुशासन की कमी के कारण होते हैं।' अगर हम 2013 तक और उसके बाद के वर्षों में हुए बलात्कार की घटनाओं की तुलना करें तो जस्टिस वर्मा की बात सही लगती है। 2013 के पहले पॉक्सो एक्ट नहीं था। 2012 में देशभर में 8886 और 2013 में 8511 बलात्कार की घटनाएं सामने आईं। लेकिन 2013 में पॉक्सो बनने के बाद से हम देखें तो 2014, 15 और 16 में क्रमशः 36735, 34651 और 38847 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं। बलात्कार के मामले में अंतिम फांसी 2004 में धनंजय चटर्जी को हुई थी, उस समय पॉक्सो नहीं था, लेकिन कानून ने अपना काम किया। कुछ सकारात्मक संशोधनों को छोड़ दें तो कई बार संविधान में बदलाव की जरूरत ही नहीं पड़ती। नए कानून या नियम की जरूरत इसलिए पड़ती है, क्योंकि पुराने वाले को कमजोर कर दिया जाता है, अगर पुराने कानूनों का सख्ती से पालन हो, तो नए की जरूरत ही न पड़े और ऐसा आज से नहीं हो रहा है, वर्षों से राजनीतिक दल और सियासदान अपने लिए और अपनों के लिए कानून को तोड़ते-मोड़ते रहे हैं। उन्नाव और कठुआ में क्या हुआ और हो रहा है, यह तो इसकी बानगी है ही इससे पहले भी ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं। 1996 के सूर्यनेल्ली बलात्कार मामले की पीड़िता आज भी उस दर्द और पीड़ा के साथ जी रही हैं। यह घटना थी, 16 बरस की स्कूली छात्रा को अगवा कर 40 दिनों तक 37 लोगों द्वारा बलात्कार करने की। इसमें कांग्रेस नेता पीजे कुरियन का नाम उछला और उसके बाद सिवाय राजनीति के कुछ नहीं हुआ। घटना के 9 साल बाद केरल हाईकोर्ट ने मुख्य आरोपी के अलावा सभी को बरी कर दिया। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट गया और कुछ को सजा हुई। 1996 में ही दिल्ली में लौ की पढ़ाई कर रही प्रियदर्शिनी मट्टू की उसके एक साथी ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी। लड़का जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन आईजी का बेटा था। बाप के पद और पैरवी की ताकत बेटे के अपराध पर भारी पड़ी और विडम्बना देखिए कि जब यह केस हाईकोर्ट पहुंचा, तब तक वो आरोपी लड़का उसी कोर्ट में वकालत कर रहा था। भंवरी देवी बलात्कार मामले के बारे में कौन नहीं जानता। उसके आरोपी तो न नेता थे और न ही पुलिस के बड़े अधिकारी लेकिन उनकी दबंगई ने इस मामले पर सुनवाई कर रहे ट्रायल कोर्ट के पांच जजों का तबादला करा दिया था।
ऐसे उदाहरण इतने हैं कि पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि यहां सुशासन का राज क्यों नहीं देखने को मिला? प्रधानमंत्री जी ने लंदन में इस मामले पर कहा कि 'बलात्कार तो बलात्कार होता है, और उसका राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए', एकदम सही बात है, नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन किया तो जा रहा है, ऐसा नहीं किया गया होता तो उन्नाव मामले में आरोपी की गिरफ्तारी में 7 महीने का समय नहीं लगता और ऐसा नहीं किया गया होता तो कठुआ मामले के आरोपियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा नहीं निकलती, वे दोषी सिद्ध होते हैं या बाइज्जत बरी ये अलग मुद्दा है, अभी बात सुशासन की है... और जब बात सुशासन की चलती है, तो चर्चा यह भी होती है कि कौन कितना पाक-साफ है। एडीआर का डाटा है कि वर्तमान में हमारे 48 सांसद-विधायक यौन उत्पीड़न के आरोपी हैं और अपने 12 सांसदों-विधायकों के साथ भाजपा इनमें शीर्ष पर है। वही भाजपा जिसके सियासी माई-बाप, हमारे प्रधानमंत्री जी ने लंदन में कहा कि 'जो व्यक्ति ये अपराध कर रहा है, वह भी किसी का बेटा है।' लेकिन अफ़सोस कि ऐसे बिगड़ैल बेटे हर दलों में हैं और इन्हें सुधारने के बजाय हमारी पार्टियां इन्हें चारित्रिक प्रमाण पत्र दे देती हैं। ऐसा भी नहीं है कि यह सिलसिला थम गया, तमिलनाडु के महामहिम राज्यपाल ने सवाल पूछने वाली एक महिला पत्रकार का गाल छुआ, हालांकि उन्होंने बाद में स्पष्ट किया कि उन्होंने पोती समझकर ऐसा किया था, बात आई-गई हो गई, लेकिन राज्यपाल जी के बचाव में उतरे एक वरीय भाजपा नेता ने फेसबुक पोस्ट में यह लिख दिया कि 'बड़े लोगों के साथ सोए बिना कोई लड़की रिपोर्टर या न्यूज रीडर नहीं बन सकती।'
इन सवालों का तीर भाजपा पर ज्यादातर इसलिए है क्योंकि भाजपा के पास अभी सबसे ज्यादा सांसद-विधायक हैं और भाजपा वाले ही हमारे प्रधानमंत्री जी ने पिछले दिनों कहा कि इन मुद्दों पर सियासत नहीं होनी चाहिए। खैर, बड़ी बात यह है कि हमारी सरकार ने सराहनीय कदम उठाते हुए पॉक्सो में संशोधन कर दिया है और ऐसा समय की मांग थी। लेकिन मुझे कई बार यह बहुत छोटी बात लगती है, ऐसा क्यों है इसे मैंने ऊपर में उदाहरण देकर समझा दिया है। बड़ी बात यह है कि कानून तो बन गया लेकिन सुशासन की संभावना पहले जैसी ही मद्धम है। इसलिए अब समाज को अपना काम करना है। एक आदमी जो 8 महीने और एक साल की बच्ची की मासूमियत में भी हवस का सामान ढूंढ सकता है, उसे उस समय फांसी की सजा वाले अंजाम का ख्याल भी नहीं आएगा। जरूरत इस बात की है कि समाज में संवेदना और समझ का संचार किया जाय। इंसान को इंसान के दुख-दर्द को समझने की संस्कृति पैदा की जाय। पीढ़ी-दर-पीढ़ी रिश्तों की मर्यादा और आत्मीयता का स्थानांतरण हो, तभी ऐसी घटनाओं पर लगाम लग सकती है, वरना कड़े से कड़े कानून बनते रहेंगे और ऐसे अपराध किसी की जिंदगी बर्बाद कर उसे आंकड़ों में समेटते रहेंगे...

गुरुवार, 15 मार्च 2018

तारीखों के 'राही'...

'हुआ उजाला तो हम उनके नाम भूल गए,
जो बुझ गए हैं चराग़ों के लौ बढ़ाते हुए...'

किसी कवि की ये पंक्तियां हमें इसे लेकर आगाह करती हैं कि हमारी इस अक्षुण संस्कृति के अथाह समंदर में एक बूंद का योगदान देने वालों को भी हम उसी शिद्दत से याद करें, जैसे बड़ी शख्सियतों या अपने स्वार्थ से जुड़े लोगों को याद करते हैं... और यह सिर्फ किसी शख्सियत की बात नहीं है, यह 'तारीख' की बात भी है, जो अपने आप में इतिहास का एक बड़ा कालखण्ड समेटे हुए हैं। यूं तो कहा जाता है कि इतिहास एक दिन से नहीं बनता, लेकिन इस इतिहास में कई ऐसे 'एक दिन' होते हैं, जो खुद में इतिहास होते हैं। आज की तारीख यानि 15 मार्च भी कुछ वैसी ही है। 
आज का दिन, वेदव्यास के महाकाव्य को हमारी समझ की भाषा में रूपांतरित कर महाभारत के रूप में चलचित्र के माध्यम से हम तक पहुंचाने वाले उस राही मासूम रज़ा से जुड़ा है, जिन्होंने 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' को हर गृहस्त आश्रम के लिए सूक्ति बना दिया और जिनकी कलम से निकले ये शब्द अपने घर, अपने देश के लिए तड़पते हर प्रवासी के पीड़ा की अभिव्यक्ति बन गए कि 'हम तो हैं परदेश में, देश में निकला होगा चांद...' राही मासूम रज़ा अदब की दुनिया के उन चंद हस्ताक्षरों में से एक थे, जिन्होंने साहित्य में भाषा की सीमारेखा को समाप्त किया। शेर-ओ-शायरी और ग़ज़लों की दुनिया के तो वे बेताज बादशाह हैं ही, हिंदी साहित्य को भी उन्होंने अनमोल कृतियां दी है। हिंदी सिनेमा को तो नाज़ होना चाहिए कि उसके साथ राही मासूम रजा का नाम जुड़ा। कई अनाड़ी हीरे को पत्थर समझ लेते हैं। मुहब्बत को बदकिरदारी का नाम देकर अलीगढ़ के उर्दू विभाग ने राही को निकाल दिया था। लेकिन कहते हैं न कि जो जगह दिल में बसी हो, उसकी यादें पीछा नहीं छोड़तीं, राही ने अलीगढ़ को याद करते हुए अपने एक दोस्त को एक नज्म लिखी थी, जिसके दो शेर हैं:
'...ऐ सबा तू तो उधर से गुजरती होगी
तू ही बता अब मेरे पैरों के निशां कैसे हैं,
मैं तो पत्थर था फेंक दिया, ठीक किया
अब उस शहर में लोगों के शीशे के मकां कैसे हैं...'
गौरतलब यह भी है कि महाभारत धारावाहिक से मिली प्रसिद्धि के बाद अलीगढ़ के उसी उर्दू विभाग ने राही को इज्जत के साथ आमंत्रित कर उनका सम्मान किया था। नाम और टाइटल में सियासत का सामान ढूंढने वाली वर्तमान राजनीति को उस राही मासूम रज़ा के बारे में पता होना चाहिए, जिसके पास वरिष्ठ भाजपा नेता आडवाणी जनसंघ के नेता दीन दयाल उपाध्याय के ऊपर बनने वाली डॉक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लिखवाने गए थे, और आडवाणी के यह पूछने पर कि मेहनताना क्या लेंगे? राही का जवाब था- 'दिल्ली में आपके साथ एक वक्त का खाना खा लूंगा...' 65 साल कोई बड़ी उम्र नहीं होती जाने की, लेकिन कहते हैं न कि ईश्वर को भी अच्छे लोगों की जरूरत होती है, आज ही के दिन 15 मार्च 1992 को जन्नत की सफ़र पर निकलते हुए राही अपनी पंक्तियों को सार्थक कर गए कि,
'इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई, 
हम न सोए रात थककर सो गई...'
और इत्तेफाक देखिए कि 'थककर सोने' के अहसास वाले अपने इस शेर को चरितार्थ कर जिस दिन राही इहलोक से रवाना हुए उसी दिन दुनिया #WorldSleepyDay मनाती है... 15 मार्च उस दीन दयाल उपाध्याय के सपनों से भी जुड़ा है, जिनपर बनने वाली डॉक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट राही मासूम रजा ने लिखी थी। 1996 में 14 दिन की सरकार गिरने के बाद अटल जी के नेतृत्व में आज ही के दिन 15 मार्च 1998 को केंद्र में दोबारा भाजपा की सरकार बनी थी। ये अलग बात है कि आज भारी बहुमत से केंद्र में बैठने के साथ-साथ 22 राज्यों तक पहुंचने वाली भारतीय जनता पार्टी अपनी विरासत को बिसारती जा रही है। खैर, सरकार या सियासत से इतनी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। शहादत को भी सियासत का समान बना लेनी वाली वर्तमान राजनीतिक बिरादरी में से कौन ऐसा है, जिसे याद हो कि कारगिल में तिरंगा फहराने के बाद 26/11 को मुम्बई बचाते हुए शहीद होने वाले मेजर संदीप उन्नीकृष्णन आज ही के दिन 15 मार्च 1977 को जन्मे थे। लेकिन देश की एक बड़ी राजनीतिक बिरादरी को यह तो याद ही होना चाहिए कि जिस दबे-कुचले और पीड़ित-शोषित के नाम पर उनकी सियासी दुकान चलती है, उन्हें वास्तव में सार्थक रूप से सियासत के लिए मुद्दा बनाने वाले कांशीराम भी आज ही के दिन 15 मार्च 1934 को जन्मे थे। बॉल और बल्ले में खेलों की दुनिया को समेटती जा रही वर्तमान पीढ़ी को यह तो जरूर पता होना चाहिए कि सबसे पहले आज ही के दिन 15 मार्च 1975 को हम अपने राष्ट्रीय खेल हॉकी में विश्व विजेता बने थे। आज़ादी के बाद अंग्रेज़ों द्वारा घायल छोड़ी गई इस सोने की चिड़िया को आज ही के दिन 15 मार्च 1950 को योजना आयोग के रूप में विकास की दवा का फॉर्मूला मिला था। तो मूल बात यह है कि हर दिन खास होता है, ये अलग बात है कि उनमें से कुछ उस अहसास से भी जुड़े होते हैं, जिनके लिए राही मासूम रजा ने लिखा कि
'हां उन्हीं लोगों से दुनिया में शिकायत है हमें
हां वही लोग जो अक्सर हमें याद आए हैं...'

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

गुंडातंत्र न बन जाए हमारा गणतंत्र

'भले ही हमारा देश 15 अगस्त को स्वतंत्र हुआ, लेकिन हमें असली आज़ादी मिली थी आज के दिन, यानि 26 जनवरी को। आज ही के दिन हमारा संविधान लागू हुआ और हमें भारतीय होने का दर्जा हासिल हुआ...' स्कूली दिनों में आज के दिन का हमारा भाषण ऐसा ही होता था। तब इस भाषण को रटना पड़ता था, तब भले ही समझ उतनी विकसित नहीं थी, लेकिन आस्ता भरपूर थी। दिल्ली आने के बाद याद नहीं कि कभी मैं बिना खाए या पूजा करके झंडा फहराने गया हूं, लेकिन स्कूली दिनों में यह हमारे लिए सामाजिक नहीं व्यक्तिगत उत्सव हुआ करता था, जिसमे भगवान भी शामिल थे, गांधी-नेहरू-भगत-सुभाष भी और सेना के वीर सिपाही भी। तब हम मन्दिर में जल चढ़ाने के बाद झंडा फहराने जाया करते थे वो भी बिना अन्न ग्रहण किए, क्योंकि वो भी एक तरह से पूजा के समान था। तब का बालमन भी उस दिन की पूजा में खुद की नहीं, देश की हिफाजत की दुआ करता था। 
आज ऐसे ही सोच रहा था कि क्या सभी का बचपन ऐसा ही बीता होगा, खासकर उनका जो आज थोथी इज्जत के नाम पर शासन की धज्जियां उड़ा रहे हैं और सियासी शह जिनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने 'स्व' से आगे पढ़कर 'पर' के बारे में कभी सोचा होगा, देश के लिए दुआ करना तो दूर की बात है। क्योंकि जो देश की संपदा को विनष्ट करना अपनी जीत समझे, जिसके लिए लोगों में भय का माहौल पैदा करना उद्देश्य की प्राप्ति हो, जो देश की सर्वोच्च संस्था न्यायपालिका को अपने जूते की नोक पर रखे और जो अपनी बात मनवाने के लिए बच्चों से भरी बस पर भी पत्थर फेंकने से गुरेज न करे, वो खुद के बारे में तो सोच सकता है, लेकिन देश के बारे में नहीं। देश एक व्यक्ति, एक संस्था या एक जातिगत समूह से नहीं बनता, खासकर भारत जैसे देश की पहचान तो वैसी नहीं है। विविधता में एकता हमारी पहचान रही है, पर अफसोस कि एकता के नाम पर एकरूपता लादी जा रही है। ऐसा तो गणतंत्र नहीं था हमारा। न सिर्फ शासन बल्कि सामाजिकता के स्तर पर भी हमें आत्ममंथन की जरूरत है। आज तो पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों को भी करणी सेना के करतूत वाजिब दिख रहे हैं। जिन्हें अपने दादा-दादी से बैठकर बात करने की फुर्सत नहीं, जो अपने परदादा-परदादी का नाम तक नहीं जानते, वे भी आज पद्मावती के बहाने विरासत बचाने की बात कर रहे हैं। आज जब हमारा गणतंत्र 69वे साल में प्रवेश कर गया, हमें सोचना चाहिए कि इतने सालों में हमने क्या पाया और जो पाया उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए क्या प्रयत्न कर रहे हैं। केवल राजस्थान की ही बात करें, तो किसी भी क्षेत्र के किसी अखबार का कोई संस्करण ऐसा नहीं होता है, जिसमे किसी भी दिन बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध की कोई घटना नहीं हो, लेकिन आजतक किसी भी संगठन ने उसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई। जिन राजूपत राजघरानों की राजकुमारियां आज विदेशों की पाश्चात्य संस्कृति में सराबोर हो रही हैं, उन्हें ये चिंता सताने लगी कि सिनेमा के पर्दे पर पद्मावती देवी का किरदार निभा रही अभिनेत्री का पेट क्यों दिख रहा है। दिक्कत यह है कि हम अपने बंधे-बंधाए दायरे से बाहर निकलना नहीं चाहते। 
हमने न सिर्फ बचपन से पढ़ा है, बल्कि देखा भी है कि हमारे आस-पास के लोगों का आचार-विचार, बोल-चाल, रहन-सहन सब भिन्न होता है। मेरे गांव से महज 2 किमी की दूरी पर एक मुस्लिम बहुल गांव है, उनकी भाषा हमारे गांव की भाषा से अलग है, उनका पहनावा और रहन-सहन भी हमसे अलग है। लेकिन न सिर्फ हम सद्भाव वाले पड़ोसी गांवों के हैं, बल्कि उस गांव के बच्चों के साथ मैं हॉस्टल में भी रहा हूं। यह है हमारा वास्तविक गणतंत्र, पर अफसोस कि यह 'है' अब धीरे-धीरे 'था' में बदलता जा रहा है। दुर्भाग्यवश ऐसा कहना पड़ रहा है कि वर्तमान का भारत हमें हमारे वास्तविक भारत से अलग छवि पेश कर रहा है। हम मानते हैं कि हर दौर में अभिव्यक्ति की आजादी का बेजा इस्तेमाल होता रहा है, हर दौर में लोगों की भावनाएं आहत होती रही हैं, हर दौर में गुंडे-मवाली सड़कों पर आते रहे हैं, लेकिन क्या हर दौर में सरकार के इक़बाल पर सवालिया निशान खड़ा होता रहा है? क्या हर दौर में सरकार ने निरीह-निस्पृह होने का दिखावा करते हुए हुड़दंगियों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है? हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने जब पहली बार कहा था कि 'संविधान हमारे लिए ग्रन्थ है' तब लगा था कि इस सरकार में वैसा कुछ नहीं होगा जैसा 1975 में देश के संविधान के साथ और 1984 में देश के भाईचारे के खिलाफ हुआ था। लेकिन इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देशभर से आने वाली खबरों ने हमारे उस विश्वास की चूलें हिला दी हैं कि अब वैसा कुछ नहीं होगा। सप्ताह भी पूरे नहीं हुए जब हमारे प्रधानमंत्री जी ने एक समाचार चैनल को दिए साक्षात्कार में कहा था कि 'मैं चुनावी फायदों को ध्यान में रखकर फैसला नहीं लेता', तो क्या आहत भावना के नाम पर गुंडागर्दी करने का खुला छूट दे देना चुनावी फायदे को ध्यान में रखकर लिया जाने वाला फैसला नहीं है? कौन नहीं जानता कि पद्मावती रिलीज नहीं करने वाले मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और गोवा में किसके आदेश से शासनात्मक पत्ता हिलता है? कांग्रेसी शासन के भ्रष्टाचार से त्रस्त भारतवासियों को सुकून मिलता था मोदी जी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से, लेकिन अगर कांग्रेस मुक्त भारत का असली ध्येय यही है कि सब जगह मनमाफिक हुक्म चलाया जाए, फिर क्या फायदा इस कांग्रेस मुक्त भारत का? इसी 26 जनवरी से कुछ दिन पहले 2015 में अपनी कुछ लोकतांत्रिक मांगों को लेकर धरने पर बैठे अरविंद केजरीवाल को अराजक की संज्ञा दी दी गई थी, वो भी इन्हीं भाजपाइयों द्वारा, लेकिन देशभर में शासन की छाती पर मूंग दलने वाले मुट्ठी भर हुड़दंगियों के खिलाफ निंदा के दो शब्द बोलना भी हमारी सरकार ने जरूरी नहीं समझा है। हम वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान बुलन्द करने की बात करते हैं, लेकिन उन 10 आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्षों को हम किस तरह के भारत से रूबरू कराया रहे हैं, जो अभी नई दिल्ली में हैं। क्या अभी उन तक सिर्फ भारत-आसियान बैठक की खबर ही पहुंचती होगी, क्या वे इंरनेट और टीवी के जरिए नहीं देख रहे होंगे कि मीटिंग हॉल और लाटीयन की दिल्ली के बाहर का भारत अभी किस माहौल में जी रहा है? हमने तो सिंघम फ़िल्म के इस डायलॉग को शासन का चरित्र समझ लिया था कि 'पुलिस चाह दे तो किसी मंदिर के आगे से कोई एक जूता भी नहीं चुरा सकता', तो क्या मैं गलत था...? क्या गुंडातंत्र बनना ही अब इस गणतंत्र की नियति है...?

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

बदलती सत्ता में न बदलने वाले सच

'शहर में करता था जो सांप के काटे का इलाज,
उसके तहखाने से सांपों के ठिकाने निकले...'

अभी 'शकील आजमी' को सुनते हुए, उनकी इन पंक्तियों पर मन ठहर सा गया। वर्तमान सियासी मौजूं पर इस शेर की सार्थकता यह सोचने पर विवश करती है कि जनता के भले के लिए बुरे को बुरा और खराब को खराब कहने वाले सुर अगर पूरी तरह से विपरीत रुख अख्तियार कर लें, तो जनता का क्या होगा?
'रिटेल में एफडीआई' से हमारा पहला परिचय एक ऐसे सांप के बिल के रूप में हुआ था, जिससे विदेशी कारोबारियों के रूप में निकले सांप हमारे खुदरा व्यापारियों को डंस लेते हैं, अफ़सोस कि इसके प्रति हमें आगाह करने वाले रहनुमाओं को आज उसी सांप के बिल में तरक्की का मणि दिख रहा है। रिटेल में एफडीआई के लिए पूरी तरह से भारत के दरवाजे खोलने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी, वही मोदी जी हैं, जिन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा रिटेल में एफडीआई के लिए हिंदुस्तान के दरवाजे आधे खोलने पर उन्हें कहा था कि मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार 'विदेशियों द्वारा, विदेशियों की और विदेशियों के लिए सरकार' है। उसी 'रिटेल में एफडीआई' वाले सांप से जनता को बचाने वाला रखवाला बनकर सामने आए हमारे वर्तमान वित्त मंत्री जेटली जी ने तब रामलीला मैदान की भरी सभा में खुदरा व्यापारियों की दारुण दशा का मार्मिक चित्रण करते हुए कहा था कि 'अंतिम सांस तक मैं भारत के खुदरा व्यापार को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से दूर रखने के लिए लड़ता रहूंगा।' अफ़सोस कि यहां भी वादों की बलि वेदी पर इरादे बदल गए...
2012-14 के बीच उजागर हुए घोटालों की फेहरिस्त पर फिर से नज़र डालें तो वो इसी रूप में सामने आए कि योजना में हुआ खर्च वाजिब खर्च से ज्यादा था या उसके नाम पर उगाही कर ली गई थी। तत्कालीन विपक्षी पार्टी द्वारा कांग्रेस के कुकृत्यों को उजागर करने की कोशिशों को जनता ने सराहा भी और उसके साथ खड़े भी हुए, नतीज़ा यह निकला कि कांग्रेस को उसके किए की सजा मिली और उन्हें इतिहास की सबसे बड़ी हार से रूबरू होना पड़ा, बदले में हमें ऐसी सरकार मिली, जो आर्थिक और सामाजिक विकास के साथ-साथ भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को जीवंत करने में पूर्णतः सक्षम थी। लेकिन तब पता नहीं था कि यह क्षमता यहां तक पहुंच जाएगी कि एक धार्मिक आयोजन के लिए गीता की एक प्रति की खरीददारी 37,950 रुपए में की जाएगी। जी हां, हरियाणा राज्य में भाजपा की सरकार है और जो मुख्यमंत्री हैं, उन्हें हमारे प्रधानमंत्री जी का वरदहस्त प्राप्त है और उसी मुख्यमंत्री जी वाली सरकार ने पिछले साल आयोजित गीता जयंती महोत्सव में गीता की 10 प्रतियां खरीदने के लिए 3,79,500 रुपए खर्च कर दिए...
हमारे वर्तमान सत्ताधारी तो उस समय सत्ता वाले रहनुमा ही थे, जब 3 साल पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर दिल्ली सरकार के एक कार्यक्रम में राजस्थान के एक किसान ने आत्महत्या कर ली थी। तब हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वहन करते हुए कई ट्वीट किए थे और किसानों को उनकी दुर्दशा से उबारने के वादे के साथ मरने वाले किसान के दुःख के लिए अंग्रेजी में 'Deeply Shattered' भी लिखा था। एक आत्महत्या कल भी हुई है और यह प्रधानमंत्री जी के लिए 3 साल पहले की दिल्ली वाली किसान आत्महत्या से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी बोध वाली घटना है, क्योंकि यह उसी पार्टी के शासन वाले राज्य की घटना है, जिसके आलाकमान हमारे प्रधानमंत्री जी हैं। 3 साल पहले दिल्ली में आत्महत्या करने वाला किसान तो राजस्थान का था लेकिन कल जिस कारोबारी ने आत्महत्या की वह उत्तराखंड का ही था और उसने उत्तराखंड में ही आत्महत्या की, वो भी सरकार के एक बड़े कैबिनेट मंत्री के सामने अपनी समस्याओं का रोना रोते हुए। अफ़सोस कि 3 साल पहले वाली दिल्ली की घटना को आम आदमी पार्टी की सियासी संवेदनहीनता बताने वाले दल ने अपनी नीतिगत विफलताओं के कारण अपने सामने एक कारोबारी को जहर खाते और उसे मौत के मुंह में जाता देखकर भी उसे 'नौटंकी' करार दिया...
एक बहुमत वाली सरकार के शासन में अराजक तत्वों का बेखौफ मन जब एक बड़े क्षेत्र को मुर्दाघाटी में बदल दे और पीड़ित लोगों की देखरेख करने के बजाय उन्हें कड़ाके की सर्द रात में तड़पता छोड़कर जिम्मेदार लोग हीटर की गर्मी में सुरा-सुन्दरियों के रास-रंग का आनंद लें, तो इसे 'निहायत ही घटिया और चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाला हरकत' कहा जाना सर्वथा उचित है, तब भी जब वो आयोजन निजी हो। समाजवादी पार्टी के सैफई महोत्सव की गोरखपुर के तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ जी द्वारा की गई भर्त्सना में हमने भी अपना सुर मिलाया था, लेकिन तब पता नहीं था कि सत्ता मिलने पर अपने शहर की चांदनी रात को गुलजार करने वाली परम्परा उत्तर प्रदेश में कायम रहेगी, भले ऐसे कृत्य की भर्त्सना करने वालों के हाथ में ही सत्ता क्यों न हो और भले वहां 30 निरीह बच्चों की मौत के जख्म अभी हरे क्यों न हों। आज से शुरू हुए गोरखपुर महोत्सव में जब बॉलीवुड गायक शान अपनी तान छेड़ेंगे, मुख्यमंत्री योगी के प्रमुख सचिव अवनीश अवस्थी की धर्मपत्नी मालिनी अवस्थी जब कजरी और ठुमरी का राग अलापेंगी और अभिनेता रवि किशन जब कमरिया लपालप करेंगे, तब वो मंजर सैफई से बस इसी मामले में अलग होगा कि लोग वहां यादव परिवार के धन को नहीं बल्कि अपने टैक्स के पैसे को पानी में बहता देख रहे होंगे और वहां नेता जी नहीं बल्कि 'नाथ योगी' के नारे लग रहे होंगे... ये वो चंद सच हैं, जो सत्ता बदलने के साथ भी नहीं बदलते और राजनीतिक ताकतें हमें-आपको मंदिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम जैसे मुद्दों में उलझाकर अपनी सियासी स्वार्थसिद्धि का इंतेजाम करती रहती हैं। 

शनिवार, 6 जनवरी 2018

सांप्रदायिकता से लड़ाई भ्रष्टाचार का पाप नहीं धो सकती

अपने जीवन की पहली राजनीतिक रैली में मैंने जो सियासी डायलॉग सुना वो था- 'यही पुलिस गोली चलाएगी।' 2004 के विधानसभा चुनाव प्रचार में सिकटा आए नीतीश कुमार ने बिहार को कुशासन और जंगलराज के जंजाल से निकालकर सुशासन देने के वादे के साथ यह बात कही थी। यह अलग मुद्दा है कि बिहार वर्तमान में भी सुशासन की पहुंच से दूर है। उसी चुनाव प्रचार के दौरान पहली बार जया प्रदा और अमर सिंह को भी देखना सुनना हुआ। दोनों साथ आए थे और अमर सिंह की एक बात जो आजतक मुझे याद है, वो कुछ ऐसी थी- 'आपलोग जोरदार तालियां बजाकर जया जी का स्वागत कीजिए, क्योंकि ये बहुत मुश्किल से यहां आई हैं, इनके पिताजी इन्हें नहीं आने दे रहे थे, वे कह रहे थे कि वो 'लालू का इलाका' है, मैं अपनी बेटी को वहां नहीं जाने दे सकता, लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि नहीं, आप जाने दीजिए, इनकी सुरक्षा मेरी जिम्मेदारी है, अगर आज ये बिहार नहीं गईं, तो फिर आगे भी कोई बाहरी लड़की बिहार जाने में डरेगी...' अमर सिंह के इस लच्छेदार भाषण का सार मुझे आज समझ में आता है, लेकिन उस समय मैंने जया प्रदा के लिए ताली नहीं बजाई थी। इसलिए नहीं कि अभिनेत्री या नेत्री के रूप में वे मुझे पसंद नहीं या मुझे अमर सिंह की बात समझ में नहीं आई, बल्कि इसलिए क्योंकि जो लड़की हमारे यहां जबरदस्ती लाई गई हो, उसके सम्मान में ताली क्यों बजाना। जया प्रदा का डर भले सियासी हो, लेकिन बिहार की आबोहवा में उन दिनों 'बेटियों की इज्जत' को लेकर बरती जाने वाली सावधानी महसूस की जा सकती थी।
यह उन्हीं दिनों की बात है, जब हमने अपने सिलेबस की एक किताब 'कथान्तर' में कर्पूरी ठाकुर के साथ लालू प्रसाद यादव की जीवनी पढ़ी थी। लेकिन कथान्तर में जिस जनहितकारी और गरीबों के मसीहा लालू का जिक्र था, वो लालू हमें जमीन पर कहीं नहीं दिखे। उस कथान्तर में मैंने पढ़ा था कि 'मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार लालू जी हेलीकॉप्टर में बैठकर कहीं जा रहे थे, एक खेत के ऊपर से उड़ते हुए उन्होंने देखा कि नीचे कुछ मजदूर 'पनपीआव' (जलपान) खा रहे हैं, लालू जी ने हेलीकॉप्टर नीचे उतरवाया और उनके साथ बैठकर सत्तू प्याज खाए।' लेकिन कथान्तर में इसका जिक्र नहीं था कि लालू जी ने बिहार में किसानों की हालत सुधारने के लिए क्या किया, सत्तू खाने के एवज में उन्होंने उस किसान को ऐसा क्या दिया कि उसका बेटा तंगहाली की किसानी से बाहर आ सके। मुझे उस कथान्तर की सिर्फ एक पंक्ति में लालू प्रसाद यादव की सियासत का ध्येय नज़र आता है, और वो पंक्ति थी- 'लालू के मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उनकी मां मरछिया देवी ने पूछा कि ई मुख्यमंत्री का होला, तो लालू ने उन्हें समझाया कि माई रे, हथुआ राज मिल गइल...' 90 के दशक से लेकर अब तक की लालू की सियासत देखें, तो इसका साफ संकेत मिलता है कि उन्होंने बिहार को 'खैरात' ही समझा।
लालू यादव की 15 साल की स्वार्थसिद्धि वाली सियासत ने सिर्फ विकास का गला नहीं घोंटा बल्कि हमारे जैसे लाखों युवकों के सपनों को भी मार डाला।पता नहीं तेज-तेजस्वी उस समय कहां थे और क्या कर रहे थे, लेकिन मैं तब 8वी कक्षा में था, जब अपने सिकटा रेलवे स्टेशन के बुक स्टॉल पर टंगे दैनिक जागरण में गौतम गोस्वामी की मृत्यु की खबर पढ़ी। उन दिनों हम भी ज्यादातर बिहारी बच्चों की तरह गौतम गोस्वामी की राह पर चलकर प्रशासनिक सेवा में जाना चाहते थे, इसलिए गौतम गोस्वामी के बारे में हर संभव ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश की थी और उस समय हीरो की तरह उभरे पटना के डीएम के बारे में हमारा मन मानने को तैयार नहीं था कि डॉक्टरी का पेशा छोड़कर आईएएस बनने वाला यह अधिकारी घोटाला कर सकता है। पता नहीं सच्चाई क्या थी, लेकिन गोस्वामी के साथ हमारे सपने भी दम तोड़ गए, क्योंकि सिस्टम के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के कृत्य के लिए उसके मातहत लोगों की सजा हमारे लिए असहनीय थी। हो सकता है उसमे गौतम गोस्वामी की भी भागीदारी रही हो, लेकिन बिना ऊपर वाले की मर्जी के तो वो संभव नहीं हो होता।
आज लालू यादव को साढ़े तीन साल की सजा होने के बाद उनके बेटे तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि 'हमें गर्व है अपने पिता पर, जिन संघर्षों के कारण वे जेल में हैं...' मैं मान लेता हूं कि पिछले तीन साल से लालू यादव साम्प्रदायिक ताकतों के साथ संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन चारा घोटाला 2014 का तो है नहीं, जो साम्प्रदायिक ताकतें उन्हें जेल भेज देना चाहती हैं। इससे पहले तीन बार जब लालू जेल गए तब कांग्रेस की सरकार थी। क्या तब भी कांग्रेस इन्हें सांप्रदायिकता से लड़ने की सजा दे रही थी? और संप्रदायिकता से लालू की लड़ाई ने शोषितों-वंचितों को क्या दिया है? लालू शान से कहते हैं कि हमने आडवाणी का रथ रोका, लेकिन आडवाणी का रथ रोकने से उस तबके को क्या मिला, जिसके नाम आज वे जेल से चिट्ठी लिख रहे हैं। अगर उन्होंने अपने 15 साल के शासन में शोषितों-वंचितों का इतना ही ध्यान रखा होता, तो वे भी बिहार में साउथ वाले एनटीआर और अम्मा की तरह पूजे जाते। आज उन्हें चिट्टी लिखवाकर उसका सार्वजनिक वाचन नहीं कराना पड़ता। साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ाई जरूरी है, लेकिन उसके नाम पर किसी के भ्रष्टाचार वाले पाप पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। हमारी नज़र में व्यापम घोटाला, सृजन घोटाला, शौचालय घोटाला या भाजपा शासित राज्यों के अन्य घोटाले भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन केवल इसलिए कि इन घोटालों पर आज कोई सवाल नहीं हो रहे, हम चारा घोटाले को सिरे से खारिज नहीं कर सकते। जिस तरह चारा घोटाला मामले में लालू यादव ने एफआईआर दर्ज कराया था, उसी तरह नीतीश कुमार ने भी सृजन मामले में जांच के आदेश दिए हैं। बहुत हद तक संभव है कि तेजस्वी जब मुख्यमंत्री बनें, तब वे सख्ती से जांच कराकर नीतीश को सजा दिलवाएं, क्योंकि आज की राजनीति में कोई अपने कुकृत्यों की सजा खुद तो दिलवा नहीं सकता, न लालू ने दिलवाया न नीतीश दिलवाएंगे...।