गुरुवार, 10 मई 2018

समाज, सियासत और मोहब्बत को शब्द देने वाला शायर

'पेड़ को काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा।'

वर्तमान समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे को बहुत पहले शायरी में समेट कर जिस शायर ने समाज को सबक सिखाने का काम किया था उसकी मुहब्बत की पंक्तियां आज भी राह चलते लोगों को गुनगुनाते हुए सुनी जा सकती हैं। सामने वाले के चेहरे की बनावटी हंसी को देखकर आज भी अनायास ही यह गीत होठों पर आ जाता है कि
'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो 
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो...'

मिले या बिछड़े हुए, बिछड़ते-बिछड़ते मिले हुए या मिलते-मिलते बिछड़ चुके किसी हमसफ़र की याद इस 20वीं सदी में भी इसी शायर द्वारा लिखे गए 19वीं सदी के इस गीत को ही अपना अपना गंतव्य बनाती है कि,
'चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था, 
सरे राह चलते-चलते,
वहीं थम के रह गई है, मेरी रात ढलते-ढलते...'

आज आजादी की पहली जंग की सालगिरह है। जी हां, आज ही के दिन 1857 में फिरंगियों से भारत की आजादी की आवाज़ बुलंद हुई थी, जिसकी परिणति ने हमें स्वतंत्रता की आबो हवा में सांस लेने की सौगात दी। लेकिन जिन कुर्बानियों की बदौलत हमने स्वतंत्रता पाई उनके लिए नतमस्तक कर देता है, इसी गीतकार का यह गीत जिसकी मैं बात कर रहा हूं,
'कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...।'

जिस लिखनी से मातृभूमि के दीवानों का देशवासियों के लिए यह पैग़ाम निकला उसी लेखनी से उन दीवानों के दिल की आवाज भी निकली है, जिनकी सार्थकता को आज भी लोग जीते हैं...
'कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों हैं?
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं?
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं?
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं?'

शायरी को दीवानों के दिल से निकला प्रश्न बनाने वाले इस शायर की इन पंक्तियों से भी आप शायद ही अनभिज्ञ होंगे कि,
'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं 
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं...।'

प्रवास हर समय में समाज की एक पीड़ा रही है... और शायर, कवि, गीतकार की तत्कालीन समय में सार्थकता यही है कि वह उस समय के दुःखों, तकलीफों को आवाज दे... दूर रहकर अपनी जमीन को याद करने वालों की ख्वाहिस को इस शायर ने कुछ यूं शब्दों में पिरोया है कि
'वो कभी धूप कभी छांव लगे,
मुझे क्या-क्या न मेरा गांव लगे,
किसी पीपल के तले जा बैठे 
अब भी अपना जो कोई दांव लगे।'

वक्त के हंसी सितम से खुद को और 'उनको' बदलने के भाव को बयां करने वाले उस महान शायर को अब तक आप पहचान ही गए होंगे...फिर भी मैं बता देता हूं... समाज, सियासत और मुहब्बत तीनों को अपनी लेखनी से बयां करने वाले मशहूर शायर 'कैफ़ी आज़मी' की आज पुण्यतिथि है। उसी कैफ़ी आज़मी की जिन्होंने हिंदी सीने जगत को 'शबाना आज़मी' जैसी अदाकारा दी... और जो अपनी ही इन पंक्तियों को चरितार्थ कर गए कि 
'इंसां की ख्वाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद।'
आज ही के दिन यानी 10 मई को आज से 6 साल पहले यह मशहूर शायर, कवि, और गीतकार यह गुनगुनाते हुए हमसे रुखसत हो गया कि,
'ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं...'
लेकिन अब भी...
'जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं...।'

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