मंगलवार, 19 नवंबर 2013

अपने कार्यकाल में भारत को वैश्विक स्तर पर एक नई पहचान दिलाने वाली भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री 'श्रीमती इंदिरा गांधी जी' की आज 96 वी जयन्ती है| उनके इस जन्मदिवस पर मै तहे दिल से उनके प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ| 

देख कर आज का अराजक भारत मुझे उस शेरनी की याद आती है,
जिन्होंने भारत को बुलंदी बख्सी, उस इंदिरा गांधी की याद सताती है,
इस 96 वे जन्मदिवस पर भी आज जब सारे सपने उनके अधूरे है 
कैसे ना कहूं उनके बेटे आज उनको भूले बिसरे हैं|

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

कूड़े के ढेर में भारत का भविष्य-

कल पुरे भारत में बाल दिवस बड़े ही धूम-धाम से मनाया गया| यह दिन एक ओर जहाँ उन बच्चो को समर्पित है जिन्हे भविष्य में देश की बागडोर अपने हाथो में लेनी है, तो वही दुसरी तरफ यह दिन उस महान पुरोधा 'पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन है जिन्हे बच्चे प्राणो से भी प्यारे थे| लेकिन कल जब पुरे देश में समर्थ अभिभावकों के बच्चे बाल दिवस का आनंद ले रहे थे, उस दिन भी कुछ बच्चो को कूड़े के ढेर में अपना भविष्य ढूंढते देखा जा सकता था। क्या हम उस महान पुरोधा के जन्म दिवस को सार्थक कर पा रहे है जिन्हें बच्चे प्यार से चाचा नेहरू कहते थे। ये कैसी विसमता है कि एक समर्थ्य अभिभावक का बच्चा गाड़ी में बैठ कर स्कूल जाता है तो दुसरी तरफ उसी का हमउम्र दुसरा बच्चा अपनी जठराग्नि शांत करने के लिए लाल बती पर गाडियो का सीसा खटखटाता है| आंकड़े बताते है कि भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 17 लाख बच्चे इलाज के अभाव में मरते है। स्वाभाविक है जो अभिभावक अपने लाडले की भुख से बिलखती आत्मा को तृप्त नहीं कर सकता है उसके लिए बच्चे का इलाज और उसे स्कुल भेजने की बात सोचना भी बेमानी होगी। लोहिया जी ने कहा था ''प्रधानमंत्री का बेटा हो या राष्ट्रपति की हो संतान, टाटा या बिडला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।'' पर आज आजादी के 65 साल बाद भी सुबह के प्रथम साक्षात्कार में पीठ पर कचरे का थैला लिए एक छोटे बच्चे को देखकर लोहिया जी का ये नारा सपना ही प्रतीत होता है। ये हालत केवल एक़ शहर विशेष या राज्य विशेष की नहीं है। कोहिमा से कांडला और कश्मीर से कन्याकुमारी तक पुरे भारत में हम भारत के भविष्यो के इस गर्तोंमुख गंतब्य से रूबरू हो सकते है। अंतर सिर्फ इतना है कि कही यह बालश्रम के रूप में दिखता है, कही सार्वजनिक स्थल पर कटोरा बजाते हुए, कही पॉकेटमारी करते या चेन खींचते हुए, तो कही ट्रेनों में सूरदास की लाठी थामे हुए। 

बाजारों के अपार जनसैलाभ में हम सामान आयुवर्ग के बच्चो को अलग-अलग परिस्थितियों से सामना करते देख सकते है। कोई महंगे पठाखे और अच्छे ब्रांड के कपड़ो की जिद करता नजर आता है, कोई अपने कल को स्वर्णिम बनाने के लिए कचरों की ढेर से लड़ रहा होता है, तो कोई अपने भाग्य पर आंसू बहाता हुआ हाथ पसारे हुए दुसरो के पीछे दौड़ रहा होता है। अपने हमउम्र बच्चो की ऐयाशी देखकर सडको पर पल रहे बच्चो का मन क्या हिन भावना से ग्रस्त नहीं होगा? क्या वे भी उनकी तरह ठाठ-बाट से जीना नहीं चाहेंगे? और एक ऐयासी की जिंदगी जीने के लिए अगर वे कोई गलत रुख अपनाते है, तो क्या यह उनकी गलती है? समान आयुवर्ग के बीच उपजी गहरी खाई के कारण हिन भावना से ग्रस्त कोमल-मन बच्चो को नजर अंदाज करके क्या हम अपने ही देश में कसाब और सुल्तानमिर्जा पैदा नहीं कर रहे है?

आज ढाबो में बर्तन धो रही नन्ही हाथें, अपने मालिक की एक आवाज पर सरपट दौड़ने वाले नन्हे पैर, और हाथो में गुटको का थैला लिए ट्रेनो-बसो में घूमते बच्चो की मासूम आँखे उन समाज के ठेकेदारो से हर दिन प्रश्न करती दिख सकती है जो सिर्फ कागजो में कानून बनाना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं| आज विडंबना यह है कि बाल श्रमिकों के कल्याण के लिए उठने वाली आवाज नक्कार खाना में तूती बन कर रह गयी है। 1980 में ही बालश्रम के कार्य पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। 1986 में राष्ट्रीय बालश्रम आयोग के सुझाव पर राष्ट्रीय बालश्रम एवं पुनर्वास अधिनियम पारित किया गया। 1996 में उच्च न्यायालय तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी बालश्रम के विरुद्ध व्यवस्था करने की अनुशंसा की। बावजूद इसके बालश्रम पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है।
भारतीय समाज में दरार पैदा करती बच्चो की इन दयनीय स्थिति पर 'राजेश रेड्डी' जी ने ठीक ही कहा है-
"यहाँ हर शख्स, हर पल हादसा होने से डरता है ,
खिलौना है जो मिटटी का फ़ना होने से डरता है ,
मेरे दिल के किसी कोने में, एक मासूम सा बच्चा ,
बड़ों की देख कर दुनिया, बड़ा होने से डरता है.......!

सोमवार, 11 नवंबर 2013

कुछ याद इन्हे भी कर लें-

आज 31 अक्टूबर का दिन भारतीय इतिहास का वह् दिन है जब भारत की ऐतिहासिक भूमि पर उस महान पुरोधा 'सरदार वल्लब भाई पटेल' का प्रादुर्भाव हुआ था जिन्होंने 600 देशी रियासतों को मिलाकर एक गणतंत्र भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई|
दुसरी तरफ़ यह दिन भारत के राजनीतिक इतिहास का वह् काला दिन है जब भारतीय गणराज्य को अपने कार्यकाल में एक नई दिशा देने वाली सिंहनी श्रीमती इंदिरा गाँधी जी की निर्मम हत्या कर दीं गई थी|
आज जब हम इन दो महान नेताओं के भारत के लिए सपने ओर वर्तमान भारत की तुलना करते है तो यह पाते है कि आज भी हम इनके सपनों के भारत से कोसो दूर हैं|
आज जब हमारी 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि चीन के कब्जे में है, अरुणाचल प्रदेश और लद्दक के कुछ क्षेत्रों पर चीन आज भी अपनी नजर गड़ाए बैठा है, चीनी सैनिक हमारे सीमा क्षेत्र में आकर गश्त करते है, पाकिस्तान आज भी अपनी नमुराद हरकतों से बाज़ नही आ रहा है, इस समय हमे भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल की याद आती है जिन्होंने अपने बूते 600 देशी रियासतों का भारत में विलय कराया था| आज सता सूख के लिए किसी भी हद तक गिरने वाले नेताओं को सदर पटेल के जीवन से सिख लेनी चहिए जिन्होंने प्रधानमंत्री पद को तरजीह ना देते हुए आज़ाद भारत के अस्तित्व को तरजीह दी| मैंने 'राजीव दीक्षित' जी के एक भाषण में सुना था, ''आजादी के बाद प्रधानमंत्री पद के चुनाव में सरदार पटेल को बहुमत मिला, लेकिन नेहरू किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते थे| इसके लिए वे महात्मा गाँधी के पास गए और कहा कि अगर मै प्रधानमंत्री नही बना तो काँग्रेस भंग कर दूँगा| चुकी काँग्रेस भंग हो जाती तो अँगरेजों को एक बहाना मिल जाता कि भारत के पास नेतृत्व का अभाव है इसलिए हम भारत को स्वतंत्र नही कर सकते, यह सोच कर गाँधी जी ने नेहरू की बात मान ली और पटेल जी ने गृहमंत्री बनना मुनासिब समझा| 
दूसरी तरफ़ आज हम 'श्रीमती इंदिरा गाँधी जी'' की 29 वी पुण्य तिथि मना रहे  है| लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के पश्चात जब इन्दिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनी, उस समय भारत सूखे की मार झेल रहा था| लेकिन अपनी कार्य कुशलता और सफल नेतृत्व की बदौलत इन्दिरा जी ने भारत को विकाश के पथ पर ला खड़ा किया| 1980 के आम चुनाव में जब की पुरे भारत में ''कांग्रेस हटाओ देश बचाओ'' का स्लोगन जन-जन का नारा बन चूका था| उस विषम परिस्थिति में इंदिरा जी ''गरीबी हटाओ देश बचाओ'' का नारा देकर पुनः आम-जन के दिल पर काबिज हो गई| पर दुर्भाग्यवश, शायद ''जठराग्नि को आर्थिक सुधारों के पैरो तले रौदा जाना, भारतीय जनता के नसीब में लिखा ही था| एक प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा जी की ''गरीबी हटाओ देश बचाओ'' की आखिरी ख्वाहिस आज 29 साल बाद भी पूरी तरह अधूरी है| आज भी 34 करोड़ 47 लाख भारतीय आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही है| ये सरकारी आँकड़े है, इनमें वे लोग शामिल नही है जिन्हें आज तक फूटपाथ छोड़कर छपापड़ नसीब नही हुआ| महँगाई से त्रस्त जनता का बुरा हाल किसी से छुपा नही है| खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही है| दुःख होता यह देखकर इंदिरा जी की पार्टी के नेता 1, 5 और 12 रुपये में भरपेट खाना मिलने की बात कर गरीबों का मजाक उड़ा रहे है| उनके पौत्र कहते है गरीबी तो केवल मनः स्थिति है|
हमारी वर्तमान काँग्रेस सरकार 'जन वितरण प्रणाली' का नाम बदलकर 'इंदिरम्मा अन्न योजना' करने पर विचार कर रही है| आम आदमी को महँगाई की आग में जलने को मजबूर करने वाली काँग्रेस नित यूपीए सरकार को यह जानना चहिए कि केवल किसी योजाना का नाम इंदिरा गाँधी के नाम पर रख देने से उन्हें श्रद्धांजलि नही दी सकती| उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन करोड़ों लोगो के मुँह तक निवाला पहुँचाना जो कई-कई दिन भूखे पेट सोने को मजबूर रहते है ओर अंततः एक दिन जठराग्नि की भेंट चढ़ जाते है|