शनिवार, 31 मई 2014

संगम होगा कि नहीं?


‘’मेरे मन की गंगा का तेरे मन की यमुना से
बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं,,,,,’’
1964 में आई हिंदी फिल्म ‘संगम’ का यह गीत कुछ शब्दों के हेर फेर के साथ अगर इस अंदाज में कहा जाय,
‘’तेरे नापाक इरादों का अंत हमारी भूमी से
बोल शरीफ बोल कभी होगा कि नहीं,,,,’’
तो यह भारत की आजादी के बाद से ही सुरसा की भांति मुंह फैलाए खड़ी उस समस्या पर यक्ष प्रश्न होगा जिसकी रक्त पिपासा दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है| आजादी के बाद से भारत पाकिस्तान के बीच चार जंग लड़े जा चुके हैं और चारो में पाकिस्तान ने मुंह की खाई है| लेकिन ऐसा नहीं कि भारत की कोइ छति नहीं हुई, भारत की भी छति हुई है और अपूर्णीय छति हुई है| लेकिन अफ़सोस कि आज भी समस्या जस के तस बनी हुई है| आए दिन ख़बरें आती हैं, ‘पकिस्तान द्वारा सीजफायर के उलंघन में इतने सैनिक शहीद, कश्मीर में घुसपैठ की कोशिश को नाकाम करने में इतने सैनिक शहीद| किसी भी शहादत के बाद हम गर्व से कहते हैं कि हमारा सिपाही अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हुआ, हमें फक्र है| लेकिन इसका एक पहलु और भी है, और हम उसे नहीं देखते जब ‘एक प्रेयसी की मेहंदी सूखने से पहले ही मांग उजड़ जाती है, हाथो में राखी लिए एक बहन अपने भाई का मृत शरीर देखने को विवस हो जाती है, एक माँ की अंधी आँखों के लिए जीवित और मृत शारीर में फर्क करना मश्किल हो जाता है और एक बुढा बाप जवान बेटे के शव पर सर रखकर विलाप करता है|
हमारे नए प्रधानमंत्री जी के शपथ में शरीक होने आए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ‘शरीफ साहब’ ने जब कहा कि, ‘हम वहीँ से बात आगे बढ़ना चाहेंगे जहाँ से अटल जी के समय में बात आगे नहीं बढ़ पाई थी’ तो मन में एक आशा जगी है कि शायद अब इन गोलों बारूद बम हथियार की जगह बातचीत से रास्ता निकलेगा| लेकिन अतीत के आईने में झाँकने से लगता है कि
‘’यह उनकी पुरानी आदत है इजहारे इश्क करने की,
बढाते है खुद ही हाथ अपनी और खुद ही खींच लेते हैं|’’
बात चाहे 1948 की हो, 1965 की, 1971 की या 1999 की पाकिस्तान के नापाक इरादों को हम हर बार देख चुके हैं, और हर बार हमने अपनी तरफ से बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रखा है| लेकिन फिर भी पकिस्तान हमारी अस्मिता पर हमला करने से कभी बाज नहीं आया| 66 वर्षों के बाद जब पिछले साल पाकिस्तान में लोकतंत्र का राज कायम हुआ और ‘नवाज शरीफ’ प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने कहा था कि ‘मै पाकिस्तान की भूमि का इस्तेमाल भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए नहीं करने दूंगा’ लेकिन तब से अब तक ना ही सीमा पार से सीजफायर का उल्लंघन रुका और ना ही उधर से शांति वार्ता की कोइ पहल हुई| ‘संगम’ फिल्म के गीत की कुछ पंक्तियाँ यहाँ सटीक बैठेगी कि,
‘’आप हमारे दिल को चुरा कर आँख चुराए जाते हैं,
ये एकतरफा रस्मे वफ़ा हम फिर भी निभाए जाते हैं|’’
अब जबकि भारत ने पहल की है, पकिस्तान को चाहिए कि वो भारत के साथ बातचीत के लिए कदम से कदम मिलाकर चले क्योकि पाकिस्तान की राजनीति में ‘शरीफ साहब’ के सबसे बड़े दुश्मन और भारत के साथ दुश्मनी के हिमायती ‘परवेज मुशर्रफ’ की वास्तविकता दुनिया देख चुकी है|
कुछ दिन पहले गूगल ने अपने प्रचार के लिए एक वीडियो जारी किया था जिसमे सरहद के नाम पर बांट दिए गए दो जिगरी दोस्तों की कहानी है जो पुरी जिन्दगी मिलने को बेचैन रहते हैं लेकिन ‘गूगल’ की सहायता से मिलते भी हैं तो तब जब एक पैर कब्र में हैं| यह वीडियो दिखाता है कि केवल सरहद और सियासत बंट जाने से दिल नहीं बंटते, आज भी पकिस्तान की आवाम का दिल हिन्दुस्तान की आवाम के लिए और हिंद्स्तान का पाकिस्तान के लिए धड़कता है| आज भी लोग उस क्रिकेट को नहीं भूले हैं जब बैटिंग करते समय ‘राहुल द्रविड़’ के जूते का फीता खुल गया था, जिसे शायद भारतीय खिलाडियों ने भी देखा हो लेकिन माहौल उस समय बदल गया जब पाकिस्तानी टीम के सबसे उम्रदराज खिलाड़ी ‘इन्जेमामुल हक’ ने पीच से आकर उस फीते को बांधा था| आज भी गाँवो की गलियों में लोग कहा करते हैं कि ‘काश ऐसा होता कि एक क्रिकेट टीम होती जिसमे सचिन और सोएब एक साथ खेलते, फिर किस देश की हिम्मत थी हमारे सामने अड़ जाने की| आज भी इस पर चर्चा होती है कि अगर भारत-पाकिस्तान अपने गिले-शिकवे दूर कर दोस्ती का दामन थाम लें तो फिर हमारे सामने कौन है जो अपनी दादागिरी दिखा सके| हम आशा करते हैं कि नए प्रधानमंत्री अपने सन्देश रूप में ‘संगम’ फिल्म के एक गीत की इन पंक्तियों को अपने पाकिस्तानी समकक्ष तक पहुंचा पाने में कामयाब होंगे और यह सार्थक भी होगा कि,
‘’तुझे गंगा मै समझूंगा तुझे यमुना मै समझूंगा
तु दिल के पास है इतना तुझे अपना मै समझूंगा|’’

निरंजन कुमार मिश्रा.
विद्यार्थी- पत्रकारिता स्नातक.

क्या ये कुता अब नहीं भौंकेगा?

‘प्रताप’ ने रुकना झुकना और बिकना नहीं सीखा है| हिन्दी पत्रकारिता के आधार स्तम्भ और ‘प्रताप पत्रिका’ के सम्पादक ‘गणेशशंकर विद्यार्थी’ जी पर उग्र और क्रांतिकारी लेख न छापने के लिए अंगरेजी शासन के द्वारा मुक़दमे और सजा की धमकी दिए जाने के बाद ‘विद्यार्थी’ जी का यही जवाब था कि, ‘प्रताप’ रुकना झुकना और बिकना नहीं जनता|
लेकिन देश को फिरंगियों के चंगुल से मुक्त कराने में अहम् भूमिका अदा करने के बाद आज इस लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बना ‘मीडिया’ जब कॉर्पोरेट के हाथो की कठपुतली बनता जा रहा है तो ‘स्वराज अखबार के इस आदर्श वाक्य की सार्थकता पर प्रश्न खड़ा हुआ नजर आता है कि,
‘’लाख बांधो तुम हमें जंजीर से,
वक्त पर निकलेंगे फिर भी तीर से|’’
ऐसे तो अप्रत्यक्ष रूप से यह बहुत पहले से हो रहा है, ये उस समय भी हुआ था जब ‘मुकेश अम्बानी’ के बेटे की कार से दो लोगो मौत हो गई थी और यह खबर किसी भी न्यूज चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में ना ही फ्लैश करती नजर आई थी और ना ही किसी समाचार पत्र की सुर्खी बनी| इसका कारण था ‘रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआइएल) के पास इंफोटेल के 95  प्रतिशत शेयर हैं| इंफोटेल एक टेलीविजन  संकाय (कंजोर्टियम) है जिसका 27 टीवी समाचार और मनोरंजन चैनलों पर नियंत्रण है| इनमें नेटवर्क18 के सभी चैनल (सीएनएन-आइबीएन, आइबीएन लाइव, सीएनबीसी,आइबीएन लोकमत और लगभग हर क्षेत्रीय भाषा का ईटीवी) शामिल है|’ लेकिन जब मै यह खबर सुना कि देश के एक बड़े मीडिया समूह ‘नेटवर्क 18’ को अम्बानी ने अब प्रत्यक्ष रूप से खरीद लिया है तो वरिष्ठ पत्रकार ‘अखिलेश मिश्र’ जी की यह बातें याद आ गईं जो कुछ दिनों पहले मैं उनके द्वारा लिखित एक किताब में पढ़ा था, ‘’हम पत्रकारों की नियति कुते की होती है, अब यह हमें तय करना है कि सड़को पर भौंक कर जनता को सजग करने वाला कुता बनना है या बंद गाड़ी में मैडम की गोद में बैठने वाला कुता|’’
वैसे भारत में ‘बनारसी दास चतुर्वेदी जी’ जैसे पत्रकार भी हुए हैं जिन्होंने अपने संपादकत्व में प्रकाशित समाचार पत्र के मालिक ‘रामानंद चक्रवर्ती जी’ के खिलाफ उनके ही अखबार में ही लिख दिया था जब चक्रवर्ती जी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के सभापति चुने गए थे| लेकिन उस समय के समाचारपत्रों के मालिक भी प्रसिद्धि या पैसा कमाने के लिए नहीं वरन देश सेवा के लिए इस पुण्य के काम में आते थे| कहा जाता है जब ‘चक्रवर्ती जी’ ने ‘चतुर्वेदी जी’ से पूछा कि मेरे सभापति बनने का समाचार किसी अखबार में प्रकाशित हुआ है या नहीं, तो चतुर्वेदी जी ने अपना ही अखबार उन्हें पकड़ा दिया जिसे पढ़कर वे ‘मुस्कुराए’ बिना नहीं रह सके|
एक वह समय था जब ‘स्वदेश’ अखबार में संपादक के लिए निकला विज्ञापन कुछ इस तरह का था, ‘’चाहिए स्वराज के लिए सम्पादक| वेतन दो सुखी रोटीयां, एक ग्लास ठंढा पानी और हर सम्पादकीय के लिए दस साल जेल|’’ लेकिन इसके बाद भी ‘स्वराज’ का सम्पादक बनने के लिए योग्य उम्मीदवारों की भीड़ जमा हो गयी थी| और एक यह समय है जहाँ ‘चेहरा, टाई और कोट-पैंट’ की क्वालिटी ही तय करने के लिए पर्याप्त है कि आपको देखते रहने के लिए कितने लोग चैनल नहीं बदलेंगे| सच में यही तो आज के मीडिया का प्रमुख ध्येय हो कर रह गया है कि किसकी टीआरपी कितनी आती है| हाँ मै केवल ‘इलेक्ट्रोनिक मीडिया’ की बात कर रहा हूँ क्योकि जहाँ तक मेरा अनुभव है आज कल ठेके पर पत्रकार पैदा कर रहे मीडिया संस्थानों में (कुछ अपवाद भी हैं जो पत्रकारिता के मूल उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं) पढने वाले बच्चे आज कल केवल टीवी पर दिखने का उद्देश्य लेकर कभी देश सेवा का माध्यम रहे इस पेशे में आना चाहते हैं जो आज व्यवसाय बन कर रह गया है|

गुरुवार, 22 मई 2014

जेपी के दो सिपाही फिर एक साथ-

'2स्टेट्स' फिल्म की एक बात मुझे अच्छी लगी थी कि, ‘जवानी में उस दरवाजे को कभी मत ठुकराना जिसके आगे बुढापे में हाथ फैलाना पड़े|’ लेकिन यह जूमला राजनीति में कारगर नहीं है| ये तो अन्दर की बात है कि पहले हाथ छोटे भाई के बड़े बाबू शरद जी ने फैलाया या बड़े भाई के सिपहसलार सिद्धिकी जीने पिछड़ी जाति के मुख्यमंत्री को समर्थन देने के बहाने फिर से कमंडलको रोकने का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास किया| भारत की राजनीति के लिए यह एक अनूठा कदम है कि रंगा-बिल्ला’, ‘चाणक्य-चन्द्रगुप्त’, और छोटे भाई-बड़े भाईसरीके उपनामों से बिहार की राजनीति में प्रसिद्द लालू-नितीश की यह जोड़ी फिर से हाथ मिला चुकी है| जेपी आन्दोलन के स्तम्भ रहे इन दो नेताओ के साथ से यह मुमकिन है कि रामविलासजी के चिराग तले अन्धेरा जाय| राजग गठबंधन में बिहार के मुख्यमंत्री पद का सपना संजोये रालोसपा के कुशवाहा जी का सपना सपना ही रह जाय और सुशील मोदी जी को भी इतिहास एक भूतपूर्व उपमुख्यमंत्री के तौर पर ही याद करे|
जेपी आन्दोलन से उपजी लालू-नितीशकी यह जोड़ी दिन-ब-दिन राजनीति में नए प्रतिमान स्थापित कर रही थी| लेकिन थ्री इडियट्समें आर माधवनने क्या खूब कहा है कि, ‘दोस्त फेल हो जाय तो दुःख होता है, लेकिन दोस्त पास हो जाय तो उससे भी ज्यादा दुःख होता है|’ वहीँ बात यहाँ भी लागू होती हैं| वीपी सिंह की खिचड़ी सरकार गिरने के बाद नितीश की पब्लिसिटी में कमी और अडवाणीका रथ रोकने के बाद एक ख़ास समुदाय और निचली जातियों में लालूकी बनती पैठ ने साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खड़े राजनीति के इस केंद्र को बांटने का काम किया और 1994 में 20 साल पुरानी यह जोड़ी दो भाग में बंट गयी| 1995 के विधानसभा चुनाव में नितीश की समता पार्टी को मिले 7 सीटों ने एक नए साथी की तलाश का तलब पैदा किया| यह साथी वही भाजपाथी जो आज भंवर में फंसी नितीश की नैया का कारण बनी हुई है और जिसके लिए नितीश कुमार आज कहते हैं कि मिट्टी में मिल जाएँगे लेकिन भाजपासे हाथ नहीं मिलाएंगे|
आज स्थिति यह थी कि 20 साल पहले बिछड़ चुके इन दोनों भाइयो के राजनीतिक सितारे गर्दिश में थे| इस चुनाव में जातिगत और भ्रष्टाचार के मुद्दों से हटकर येदियुरप्पाऔर रामविलास पासवानसे हाथ मिलाने के भाजपा के प्रयोग को सफल हुआ देख कर नितीश को भी शायद इसकी लालसा जगी| और समाजवाद के सांचे से निकलकर साम्प्रदायिकता का लबादा ओढ़े भाजपा से हाथ मिलाने में गुरेज ना करने वाले नितीश कुमार ने वसूलो को रद्दी की टोकरी में डाल कर न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए गए लालू यादवसे हाथ मिला लिया| अब यह देखने वाली बात होगी कि जैसे कमंडल को रोकने के लिए वीपी सिंह ने मंडलका सहारा लिया था वैसे ही जेपीके ये दो सिपाही ऐसा कौन सा रास्ता अख्तियार करते हैं जो भारतीय राजनीति में इनका पुराना स्थान वापस दे सके| यह भी सोचने वाली बता है कि क्या नरेन्द्र मोदी की विकास के साथ हिंदुत्व की राजनीती का मुकाबला पिछडो, दलितों और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों से किया जा सकता है| 20 साल के साथ के बाद 20 साल पहले अलग हो चुके जेपी के दो सिपाहीयो को फिर से एक साथ लाने का श्रेय मोदीके साथ-साथ मांझीको भी दिया जाना चाहिए|


बुधवार, 21 मई 2014

''कैद में गुजरेगी जो उम्र बड़े काम की थी,
पर मै क्या करती कि जंजीर तेरे नाम की थी|''
मशहूर शायरा ‘परवीन शाकिर’ की यह पंक्तियाँ ‘अरविन्द केजरीवाल’ पर सटीक बैठती है| सियासत रूपी संगमरमर को तरासने के लिए कारीगर रूपी सियासतदान कोइ भी हथियार उठाने से परहेज नहीं करते हैं| जैसा कि भाजपा ने आरोप लगाया है केजरीवाल का जेल जाना पब्लिसिटी स्टंट है| अगर यही कारण है तो फिर केजरीवाल को मनोनुकूल सफलता मिलती नहीं दिख रही है क्योकि आज तिहाड़ के बाहर केजरीवाल समर्थको की वह भीड़ नहीं उभरी जिसकी कल्पना कर वे जेल गए होंगे|
अपने खोए जनाधार को वापस पाने के लिए जब एक इंजीनियरिग ग्रेजुएट मुख्यमंत्री का पद त्याग सकता है तो फिर यह आईआईटीयन जेल क्यों नहीं जा सकता? इनके पास तो ‘वसूल’ भी है जैसा कि ‘सिसोदिया’ जी ने कहा है कि आप के कई नेताओं पर केस दर्ज है लेकिन हमने किसी में भी बेल बॉन्ड नहीं भरा है|
वैसे बहुत से कथित बुद्धिजीवी आज न्यायिक अवमानना की बात कर रहे है| ये वे लोग हैं जो जब अपने पर आता है तो अनुशासन की सारी परिधि पार कर जाते हैं| जब ‘लालू यादव’ ने ‘मोदी जी’ को जीत की बधाई नहीं दी तो बहुतो ने इसे जायज करार दिया था कि यह अपने वसूलो की बात है| अरे भैया ये भी तो वसूलो की ही बात है जैसा कि ‘केजरीवाल’ कह रहे हैं कि ‘मुझे नहीं लगता कि मैंने कोइ बहुत गलत काम किया है जिसके लिए मुझे बेल बॉन्ड भरना होगा, अगर आपकी नजर में गलती है तो जेल भेज दें|’ न्यायालय की अवमाना तब होती जब बेल बॉन्ड नहीं भरने की बाद जेल जाते समय मजिस्ट्रेट के सामने न्यायालय विरोधी नारे लगाए गए होते| केजरीवाल का राजनीति में जन्म ही ‘वसूलो की पब्लिसिटी’ से हुआ था| फिर तो ये जायज है कि,
‘’वसूलो पे जो आंच आए तो टकराना जरुरी है,
अगर ज़िंदा हैं तो ज़िंदा नजर आना जरुरी है,,|’’

मंगलवार, 20 मई 2014

‘बिहारी’ बना बिहार का वजीर-




‘विनय बिहारी’ कभी इस गीत के कारण मशहूर हुए थे,
‘’लालू भैया बतिया मानअ बनी जा अगुआ गैर ना जानअ...’’
जिस काम के लिए ये निवेदन था वो तो लालू जी ने स्वीकार नहीं किया लेकिन अबकी बार नितीश कुमार ने जीतन राम मांझी की अगुआई में इस निर्दलीय विधायक की जदयू में आस्था को पहचानने में कोइ भूल नहीं की और नवाज दिया इन्हें उसी विभाग के पद से जिसकी पहचान ने इन्हें कलाकार से माननीय बनने का सौभाग्य दिया|
इसी गीत के बीच की पंक्ति है,
‘’रात देखनी इहे सपनवा तबे से कहता इहे मनवा..’’
पहली बार ही विधायक बनने के बाद मंत्री पद पाने वाले ‘विनय बिहारी’ का शायद यह सपना रहा होगा कि वे उस विभाग का दायित्व संभाले जिसमे आस्था ने उन्हें जगजाहिर किया| सियासत में पत्नी ‘चंचला बिहारी’ के सफल हो जाने के बाद भी असफल रहे ‘विनय बिहारी’ की पुकार शायद माँ दुर्गा ने सुन ली जब उन्होंने यह गीत लिखा कि,
‘’हे दुर्गा भवानी माई महारानी दुखवा सुनावे कहाँ जाईं हों,
नजरिया तु डालअ गिरल हईं उठा ल हे माई हमरा के तु आपन बना ल..|’’
कहा तो यह भी जाता है कि नाच गाने में रुची को भविष्य बनाने की जिद की कारण पिताजी ने इन्हें घर से निकाल दिया था| एक छोटी सी अटैची में केवल 2 कपड़े के साथ घर छोड़ने वाले गीतकार विनय बिहारी के नाम से ही कई भोजपुरी फिल्मे हीट हो जाती है, वहीं बिहार की राजनीति में भी ‘विनय बिहारी’ का नाम आज पहचान का मोहताज नहीं है| यह तो देखने वाली बात होगी कि अपनी कार्यकुशलता और लगन की बदौलत पिता का सर गर्व से उंचा कर देने वाले विनय बिहारी ‘कला संस्कृति विभाग’ को कितना ऊपर पहुंचा पाते हैं| वैसे यह तो साबित हो गया कि ‘लौरिया-योगापटी’ के लोगो ने अपने प्रतिनिधी को पहचानने में कोइ भूल नहीं की क्योकि फिल्मिस्तान का यह बाजीगर सियासत में भी उसी कर्मठता से काम कर रहा है| पिछले साल पुरे बिहार में किसी विधायक ने अपने क्षेत्र में सबसे अधिक ट्रांसफार्मर लगवाया है तो वह हैं ‘लौरिया-योगापटी’ विधायक विनय बिहारी|