बुधवार, 21 मई 2014

''कैद में गुजरेगी जो उम्र बड़े काम की थी,
पर मै क्या करती कि जंजीर तेरे नाम की थी|''
मशहूर शायरा ‘परवीन शाकिर’ की यह पंक्तियाँ ‘अरविन्द केजरीवाल’ पर सटीक बैठती है| सियासत रूपी संगमरमर को तरासने के लिए कारीगर रूपी सियासतदान कोइ भी हथियार उठाने से परहेज नहीं करते हैं| जैसा कि भाजपा ने आरोप लगाया है केजरीवाल का जेल जाना पब्लिसिटी स्टंट है| अगर यही कारण है तो फिर केजरीवाल को मनोनुकूल सफलता मिलती नहीं दिख रही है क्योकि आज तिहाड़ के बाहर केजरीवाल समर्थको की वह भीड़ नहीं उभरी जिसकी कल्पना कर वे जेल गए होंगे|
अपने खोए जनाधार को वापस पाने के लिए जब एक इंजीनियरिग ग्रेजुएट मुख्यमंत्री का पद त्याग सकता है तो फिर यह आईआईटीयन जेल क्यों नहीं जा सकता? इनके पास तो ‘वसूल’ भी है जैसा कि ‘सिसोदिया’ जी ने कहा है कि आप के कई नेताओं पर केस दर्ज है लेकिन हमने किसी में भी बेल बॉन्ड नहीं भरा है|
वैसे बहुत से कथित बुद्धिजीवी आज न्यायिक अवमानना की बात कर रहे है| ये वे लोग हैं जो जब अपने पर आता है तो अनुशासन की सारी परिधि पार कर जाते हैं| जब ‘लालू यादव’ ने ‘मोदी जी’ को जीत की बधाई नहीं दी तो बहुतो ने इसे जायज करार दिया था कि यह अपने वसूलो की बात है| अरे भैया ये भी तो वसूलो की ही बात है जैसा कि ‘केजरीवाल’ कह रहे हैं कि ‘मुझे नहीं लगता कि मैंने कोइ बहुत गलत काम किया है जिसके लिए मुझे बेल बॉन्ड भरना होगा, अगर आपकी नजर में गलती है तो जेल भेज दें|’ न्यायालय की अवमाना तब होती जब बेल बॉन्ड नहीं भरने की बाद जेल जाते समय मजिस्ट्रेट के सामने न्यायालय विरोधी नारे लगाए गए होते| केजरीवाल का राजनीति में जन्म ही ‘वसूलो की पब्लिसिटी’ से हुआ था| फिर तो ये जायज है कि,
‘’वसूलो पे जो आंच आए तो टकराना जरुरी है,
अगर ज़िंदा हैं तो ज़िंदा नजर आना जरुरी है,,|’’

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