जब मै उस ऑटो में सवार
हुआ तब नहीं पता था कि 5 किमी की यह छोटी सी यात्रा मुझे विविधता की विशेषता वाले
इस भारत की उस वास्तविकता से परिचित कराएगी जिसका हिस्सा मैं भी हूँ लेकिन कभी
इसपर ध्यान नहीं दिया| ‘अंगना में माई रोएली दुअरा पर लोग बिटोराईल बा, मेहरी
बेहोश भईली गिर के धड़ाम से भुआरा के डेड बॉडी आईल बा आसाम से’ यही गीत बज रहा था
उस ऑटो में जब मै ‘सराय काले खां’ बस अड्डे पर उसमे सवार हुआ| यह गीत भोजपुरी का
है और मैने भी विरासत की सीख इसी भाषा में ली है| इसलिए सोचा कि ऑटो चालक से कुछ
बात करते हैं शायद ये भी उसी जगह के हों जहाँ मेरी जन्मस्थली है| यह सोचकर मैंने
अपनी नजरें ऑटो चालक के सामने लगे सीसे की तरफ की ताकि हम दोनों उस सीसे में एक दुसरे
को देखकर बात कर सकें| लेकिन यह देखकर मै परेशान हो गया कि ऑटो चालक एक हाथ से ऑटो
का स्टेयरिंग पकड़ दुसरे से लगातार अपने आंसू पोछ रहा था जबकि जब मै कुछ मिनट पहले
उस ऑटो में चढ़ा था तब सब कुछ सामान्य था| मैंने उनसे ऑटो सड़क के किनारे खड़ी करने
को कहा और रोने का कारण पूछा|
बुढापे की दहलीज पर
खड़े उस ऑटो चालक ने जो कारण मुझे बताया उसे सुनकर मै भी बड़ी मुस्किल से अपने आंसू
रोक पाया| उनका कहना था कि ऑटो में बज रहे गीत के कारण उनकी आँखों में आंसू आ गए|
क्योकि उस गीत का भाव उनके इकलौते बेटे की शायद खत्म हो चुकी जीवन लीला था| पिछले
साल उतराखंड में आई विपदा उनके इकलौते बेटे को अपने साथ ले कर चली गयी थी जो वहां
पर राजमिस्त्री का काम करता था| ‘मेरा बेटा केवल अखिलेश यादव को वोट देने के लिए छुट्टी
लेकर उतराखंड से गाँव आया था क्योकि अखिलेश यादव ने वादा किया था कि उनकी सरकार
बनने के बाद लोगो को नौकरी के लिए दुसरे राज्यों में नहीं जाना पडेगा| मेरे बेटे
के वोट का कर्ज तो जिन्दगी भर अखिलेश यादव के सर
रहेगा क्योकि अगर वे अपने वादे को पूरा कर दिए होते तो आज उम्र के इस पड़ाव
में भी मै ऑटो नहीं चला रहा होता|’
बुजुर्ग ऑटो चालाक
की इन बातो ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि सच में वैश्वीकरण के इस युग ने
‘प्रवास’ की परिभाषा ही बदल दी है| एसी कमरों और महंगी गाड़ियों में बैठ कर
रोजमर्रा की जरुरतो से मरहूम अपनी जन्मस्थली को भूल जाने वाले लोगो और उनलोगों के
प्रवास में बहुत अंतर हैं, जो सैकड़ो किलोमीटर दूर छत से मरहूम अपने परिवार की खुशी
के लिए किसी और की सौ मंजिला इमारत को अंतिम रूप देने में अपनी हड्डियाँ गला रहा
है| हर राज्य की नई सरकार इस वादे के साथ सता पर काबिज होती है कि वे प्रवास
रोकेंगे| लेकिन बिहार, झारखंड, यूपी, कश्मीर आसाम और अन्य कई राज्यों से महानगरों
की ओर जाने वाली ट्रेनों की भारी भीड़ हर दिन उन हुक्मरानों से सवाल करती दिखती है
जो आजादी के लगभग 7 दसक बाद भी भारत को इस तरह नहीं बना सकें जहाँ एक आदमी अपनी
जन्मस्थली पर ही अपने परिवार के साथ पुरी जिन्दगी बसर कर सके| आखिर कब तक प्रवासी
मजदुर अपने परिवार से दूर दिल्ली के कापसहेड़ा, मुम्बई के धारावी और कोलकाता के
स्लम एरिया में अभावग्रस्त जिन्दगी जीने को मजबूर रहेंगे?
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