शनिवार, 17 मई 2014

बड़े बेआबरू होकर तेरे कुचे से निकले हम-


भारत के प्रधानमंत्री के लिए यह कहना ठीक नहीं होगा लेकिन अगर वास्तविकता की बात की जाय तो गलत भी नहीं होगा| 10 साल पहले जब ‘मनमोहन सिंह’ भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लिए थे उस समय उनकी छवि मुस्किलो के समय भारत को मजबूती प्रदान करने की थी लेकिन बीते दस सालो में उनके द्वारा किए गए कामो या उनसे कराए गए कामो ने उनको अब तक के सबसे असफल प्रधानमंत्री की छवि प्रदान की है जिसके साथ ही वो प्रधानमंत्री पद से रुखसत हो रहे हैं| 
1991 के भयंकर आर्थिक तंगी के दलदल से भारत को निकलकर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में एक मजबूत प्रतिद्वंदी के रूप में खडा करने वाले महान अर्थशास्त्री ‘मनमोहन सिंह’ आज जब इस गणतंत्र भारत के वजीरे आजम के पद से विदाई के समय राष्ट्र के नाम संबोधन दे रहे थे तो उन्होंने देशवासियों का उसके लिए भी आभार व्यक्त किया जो उन्हें देशवासियों से नहीं मिला है| प्रधानमंत्री जी ने कहा, ‘’प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के बाद भी आप सब के प्यार और सम्मान की बहुत याद आएगी’’ लेकिन सच तो ये है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रमुख को एक परिवार की निजी महत्वाकांक्षा ने मखौल का विषय बना कर रख दिया| यूपीए 1 में जितने भी विकास के काम हुए या आरटीआई आया सब का श्रेय सोनिया गांधी और राहुल गांधी को दिया गया और यूपीए 2 में जितने भी घोटाले हुए सबका ठीकरा प्रधानमंत्री के सर फोड़ा गया| मुझे याद नहीं आ रहा कि मैंने किसी भी नुक्कड़ या चौराहे पर कांग्रेस का कोइ ऐसा बैनर-पोस्टर देखा हो जिसमे सबसे बड़ा फोटो प्रधानमंत्री का लगा हो| सोशल साईट्स पर तो कार्टून्स ने देश के इस सबसे बड़े संवैधानिक प्रधान की गरिमा को तार-तार कर दिया| बाकी कसर अभी हाल ही में आई ‘संजय बारू’ और ‘पी सी पारेख’ की किताबो ने पूरा कर दिया| 

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