मंगलवार, 31 जुलाई 2018

आत्मस्वार्थसिद्धि के लिए पहचान की बलि

'अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्,
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्...'
अर्थात, यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह पूरी धरती ही एक परिवार जैसी है...' दुनिया की सभ्यताएं जब लड़खड़ा कर चलना सिख रही थीं, तब बुद्ध ने वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा प्रस्तुत कर भारत को जगत गुरु होने की संज्ञा दिलाई थी। आज भी संसार का मार्गदर्शन भारतीय दर्शन के बिना संभव नहीं है। हालांकि विडम्बना यह भी है कि यह देश अपनी अस्मिता बचाने वाली आज़ादी हासिल करने से पहले की विशेषताओं को ही आजतक ढो रहा है, अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद से आज तक इस देश ने अपनी पहचान का बंटाधार ही किया है, जो आजतक जारी है। क्या सितम है कि पूरी दुनिया हमारी जिन विशेषताओं के लिए हमें जानती है, हमारे तथाकथित भाग्यविधाता क्षणिक निजी स्वार्थसिद्धि के लिए उन्हीं विशेषताओं को तहस-नहस करने पर आमादा हैं। मुद्दा यह नहीं है कि एनआरसी की बुनियाद वर्षों पहले तत्कालीन 'कांग्रेसी' प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने डाली थी, मुद्दा यह भी नहीं है कि वर्तमान सत्ताधारी पार्टी का अध्यक्ष खुद को खुदा समझे जाने वाली अकड़ में खुला ऐलान कर देता है कि वो एक बड़ी आबादी इस देश की नागरिक नहीं है, जिसमें देश के पूर्व राष्ट्रपति का परिवार शामिल है, जिसमें सीमा पर जान की बाजी लगाने वाले सिपाही के परिजन शामिल हैं और जिसमें ऐसे हजारों लोग शामिल हैं, जो इस लोकतंत्र का महापर्व समझे जाने वाले चुनाव में अपनी भागीदारी देते आए हैं। मुद्दा यह है कि क्या हम अपनी उस पहचान से पीछा छुड़ा रहे हैं, जो मुश्किल घड़ी में दलाई लामा को शरण देती है, जो मुश्किल घड़ी में बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को हमारी तरफ देखने का मौका देती है और जिसके कारण एक पाकिस्तानी गायक भारतीय नागरिकता का सौभाग्य पाना चाहता है।
कहा जाता है कि हमारे संविधान का बड़ा उद्देश्य देश में कानून का राज कायम करना है और इसके लिए संविधान कानून-व्यवस्था की बात करता है। यही वही संविधान है, जिसकी शपथ लेकर हर दल और हर नेता सत्ताशीन होते हैं और यह वही कानून-व्यवस्था है, जिसका राज कायम करने की बात हर सरकार करती है, तो फिर यह कैसा कानून का राज है कि हर दिन अवैध रूप से इस देश में घुसपैठ हो रहा है। जो नेता आज संसद में छाती ठोककर कह रहे थे कि हममें वो हिम्मत है कि हमने एनआरसी को लागू किया, तो फिर उनकी हिम्मत अवैध घुसपैठ रोकने के समय कहां थी। आज जब वे संसद में अपनी हिम्मत का ढोल पिट रहे थे, तब भी अवैध रूप से बांग्लादेशी असम में घुस रहे होंगे। क्या हमारी कानून व्यवस्था के पास यह क्षमता नहीं है कि अवैध घुसपैठ रोकी जा सके या उनकी पहचान की जा सके, जो आश्रय की आड़ में हमारी जमीन को खोखला कर रहे हैं? क्या चंद आततायियों की करतूतों के लिए हम उन्हें भी दरबदर कर देंगे जिन्होंने दशकों पहले इस जमीन को अपना मादरे वतन मान लिया था...? क्या यह हमारे पहचान की हमारे मूल चरित्र की बलि नहीं होगी? हमारा देश तो इस सत्य को दशकों से जीता आ रहा है कि 'हैं गांधी भी मगर हम हाथ में लाठी भी रखते हैं', तो फिर हम गांधी की पहचान का ही बंटाधार क्यों कर रहे हैं, जबकि 'दिनकर' की इस सूक्ति हमारे पास है-
'छीनता हो सत्व कोई, और तू
त्याग-तप के काम ले यह पाप है,
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है...'