सोमवार, 11 जनवरी 2016

सियासत-ए-हिन्द के सरताज 'शास्त्री जी' को सलाम।

आज का दिन यानी 11 जनवरी, भारत के इतिहास का वह काला दिन है जब सियासत और कूटनीति के कुचक्रों ने भारत से इसके सबसे सुयोग्य और सफल सियासदान को छीन लिया था। आज ही के दिन 1965 में रूस के तासकन्द में कुछ विदेशी और कुछ देशद्रोहियों की चाल ने 'लाल बहादुर शास्त्री' जी के नेतृत्व से इस देश को मरहूम कर दिया था।

वर्तमान समय की सियासत जब स्वार्थसिद्धि की हद तक सिमट कर रह गई है इस समय उस प्रधानमंत्री का ख्याल आता है जो पंजाब नेशनल बैंक का 5 हजार का कर्ज नहीं चुका पाए थे जो उन्होंने एक फीएट कार खरीदने के लिए लिया था। आज के नेताओं ने जबकि सियासत को विलासिता का साधान बना लिया है इस समय वह महान शास्त्री जी याद आते हैं जो सिर्फ इसलिए पार्टी के काम से कश्मीर जाने से मना कर रहे थे क्योंकि उनके पास ठंढ में पहनने वाला गर्म कोर्ट नहीं था। आज के नेताओं को शायद ही पता होगा या वे जानना नहीं चाहते होंगे कि कश्मीर जाने के लिए नेहरू जी का दिया हुआ कोर्ट ही शास्त्री जी प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पहनते रहे। आज जब राजनीति पहुँच और पैरवी का भी माध्यम बन चुकी है इस समय हमें राजनीति में पहचान का गुमान ना करने का यह उदाहरण गौरवान्वित कर देता है: 'शास्त्री जी के बेटे अनिल शास्त्री जब कॉलेज में एडमिशन लेने गए तब उन्होंने अपनी पहचान छुपाने के लिए अपने आवेदन पत्र में पिताजी के नाम के साथ शास्त्री नहीं लिखा था, साथ ही पेशा में भी सरकारी कर्मचारी लिखा था।' छोटा लेकिन सबसे ऊँचे कद का वह प्रधानमंत्री तो आज नहीं हैं लेकिन भारतीय सियासत इस बात से गौरवान्वित होती रहेगी कि इसे ऐसे नेता का नेतृत्व मिला था जिन्होंने दुश्मन को उसके घर में घसुकर रौंदा था, और संप्रभुता की सुरक्षा के लिए खुद कई आहुति दे दी...