रविवार, 31 मई 2015

मन की बात : भूखे भजन ना होई गोपाला

‘एक चुटकी भर चांदनी एक चुटकी भर शाम,
बरसों से सपने यही देखे यहाँ आवाम’

‘राजनीतिक रोटी सेंकने वाले लोग 40 साल तक आपके साथ खेल खेलते रहें’ सैनिकों के एक रैंक एक पेंसन के सपने को जिवंत करने के लिए फिर से सांत्वना देते प्रधानमंत्री जी की बात सुनकर मुझे ‘दिनेश शक्ल’ का यह शेर याद आ गया सच में राजनीति आज तक खेलती ही तो आई है हमारी संवेदनाओं से, हमारे सपनो से अब यह मोदी जी के हाथ में है कि वे सत्ता की डोर से आम आदमी के सपनों को बांधते हैं या फिर यह सांत्वना सियासी बिसात भर बन कर रह जाती है
जब दुनिया की सारी सभ्यताएं लड़खड़ा कर चलना सीख रही थी तब भारत ने आगे बढ़कर उनका मार्गदर्शन किया और जगत गुरु का खिताब हासिल किया आज भी संसार का मार्गदर्शन भारतीय दर्शन के द्वारा ही संभव है एक बार फिर से योग के माध्यम से भारत के हाथों में विश्व समुदाय का नेतृत्व दिलाने के लिए मोदी जी बधाई के पात्र हैंभारत को योग का ब्रांड एम्बेसडर बनना चाहिए यह हम सब के लिए गर्व की बात होगी लेकिन हमारे गाँवों में एक बात कही जाती है,
‘भूखे भजन ना होई गोपाला’
जठराग्न की आग ने जिनके पेट और पीठ का अंतर मिटा दिया है वे क्या जाने योग क्या है और वे क्या योग करेंगे? मोदी जी ने गरीबो के फ़ौज की बात कही मैं व्यक्तिगत रूप से एक साल की मोदी सरकार की कई योजनाओं का समर्थक हूँ लेकिन एक कसक है मेरे मन में और वह यह कि मोदी जी के शासन का एक साल बीत जाने के बाद भी फुटपाथ पर सोने वाले गरीबों की संख्या में कमी नहीं आई आज भी उतनी ही संख्या में और उसी हाल में बच्चे लाल बती पर गाड़ियों के गेट पर दस्तक देते हैं साल 2013 हो, 2014 या अब 2015, लक्ष्मीनगर मेट्रो स्टेशन की सीढ़िया उतरते समय मुझे वह औरत आज भी उन्ही चिथड़ो में उसी हाल में हाथ फैलाए हुए दिखती है कुछ देर के लिए मैं मान भी लूँ कि उस औरत जैसे और भी लोग भीख को ‘प्रोफेसन’ बना चुके हैं लेकिन क्या यह ‘प्रोफेसन’ इस देश के स्वास्थ्य के लिए सही है? अपने हक़ की आवाज बुलंद कर रहे लोगों पर साम-दाम-दंड-भेद से काबू पाने वाली सरकार क्या जनतंत्र के इस बदनुमा दाग को खूबसूरती का रंग नहीं दे सकती है? क्या सरकार उन जैसी औरतों और तमाम भीख मांगने वालो के जीवन यापन की मुकम्मल व्यवस्था कर उनके भीख मांगने के ऊपर कठोर कार्यवाई नहीं कर सकती है? जरुर कर सकती है, अगर चाहे तो अपने हित की सरकारी योजनाओं की राह देखती रहती है जनता प्रधानमंत्री जी ने कहा भी कि 8 करोड़ 52 लाख लोगों ने 20 दिन पुरानी योजना का लाभ लिया
किसान और युवा ये दो अगर सशक्त हो जाए तो देश को सशक्त होने से कोई नहीं रोक सकता प्रधानमंत्री जी ने इस मन की बात में इन दोनों के हीत की भी बात की. किसान चैनल सचमुच हमारे सुदर गाँव के किसानों के लिए हितकारी साबित होगा अगर वे इसे देखते और सीखते हैं परन्तु फिर से परेशानी वही है, बिजली की देश के कई गाँव आज भी बिजली की दयनीय दशा से जूझ रहे हैं कई गाँव तो ऐसे हैं जहाँ आज तक तार-पोल भी नहीं जा पाया है किसान चैनल से किसान लाभान्वित हो इसके लिए सरकार को बिजली के हालात पर भी ध्यान देना चाहिए

देश का आलाकमान जब देश के युवाओं से सीधे मुखातिब होता है तब देश की नई पौध पर इसका एक बेहतर प्रभाव पड़ता है प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी जी ने युवाओं से संवाद का कोई भी मौक़ा छोड़ा नहीं है विद्यार्थियों को परीक्षा की शुभकामना और कामयाबी के कारगर उपाय बताने के साथ-साथ उनके परीक्षा परिणाम में भी प्रधानमंत्री सरिक होते दिखते हैं इस बार उन्होंने विफल छात्रों को राह दिखाया और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जी से प्रेरणा लेने की बात कही ‘जो पायलट बनना चाहते थे लेकिन फेल हो जाने के कारण पायलट नहीं बन सके।‘ युवा मन से मोदी जी के मन की बात का सार्थक परिणाम भी देखने को मिल रहा है बीते मार्च की बात है, हरियाणा के कारनाल के रहने वाले ‘राकेश रोहिल्ला’ ने पीएमओ के कहने पर अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ के 10 करोड़ के ऑफर को ठुकरा दिया बेहतर भारत के निर्माण के लिए हमें प्रधानमंत्री जी के इस बात की सार्थकता की ओर कदम बढ़ाना होगा कि, ‘आपके सपने, आपकी शक्ति, आपके सामर्थ्य का देश के सपने से मेल-जोल होना चाहिए

शनिवार, 30 मई 2015

हिन्दी पत्रकारिता के 189 साल.

‘आज दिवस लौ उग चुक्यो मार्तंड उदन्त,
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अंत’
आर्थिक परेशानियों के कारण ‘उदन्त मार्तंड’ को बंद करने की सुचना के साथ इसके अंतिम अंक में यही लिखा था ‘प. युगल किशोर शुक्ला जी’ ने. आज से 189 साल पहले शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह पहला पत्र भले ही अस्त हो गया हो लेकिन इसके द्वारा जलाई गयी पत्रकारिता की लौ ने इसके उद्देश्य को फलीभूत करने में अहम् भूमिका निभाई. पर अफ़सोस कि पत्रकारिता ‘उदन्त मार्तंड’ और ‘पण्डित’ जी की विरासत को संभाल नहीं पाई. आज जब लोकतंत्र का यह चौथा खम्भा सरकार और कॉर्पोरेट के हाथो की कठपुतली बन बैठा है तब अकबर इलाहाबादी की यह पंक्तियाँ वास्तविकता से दूर दिखती है कि,
‘खींचो ना कमानों को ना तलवार निकालो,
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो.’
एक बड़े समाचार पत्र समूह ने जब इमानदारी से यह स्वीकार कर लिया है कि ‘वे विज्ञापन का धंधा करते हैं’ तो फिर यह बताने की जरुरत नहीं है कि हर सुबह हम खबर के साथ विज्ञापन नहीं पढ़ते बल्कि विज्ञापन के साथ खबर पढ़ते हैं. शायद आप नहीं जानते होंगे कि सैकड़ो चैनलों वाले इस देश में सिर्फ तीन समाचार चैनल ऐसे हैं जिनके मालिक पत्रकारिता करते हैं बाकी सब ‘कॉर्पोरेट किंग’ हैं, और हाँ ऐसा नहीं है कि इन तीन चैनलों पर भी विशुद्ध पत्रकारिता होती है. बहुत पीछे जाने की जरुरत नहीं है, अभी दो दिन पहले की बात है बाबा रामदेव के पतंजली योगपीठ में गोली चली, एक व्यक्ति की हत्या हुई, रामदेव के भाई जेल गए उसके बाद भी कई समाचार चैनलों पर इस खबर को उतनी तवज्जो नहीं दी गयी क्योंकि पतंजली योगपीठ का विज्ञापन करोड़ो का होता है. रामदेव जी सरीके किसी और लोकप्रिय व्यक्ति से जुड़ी यह खबर होती तो इसे ब्रेकिंग न्यूज में स्थान मिलता.
पत्रकार आज भी सच दिखाना चाहते हैं, धुप, गर्मी बरसात में खबरों की पड़ताल कर रहा एक संवाददाता चाहता है कि उसकी खबर उसी रूप में पाठको/दर्शकों तक पहुंचे लेकिन पत्रकारिता को संकट सत्ता के उन चाटुकार चैनल मालिकों से है जो सियासत की जी हजुरी कर राज्यसभा का टिकट पाना चाहते हैं, जो कॉर्पोरेट की दलाली कर करोड़पती बनना चाहते हैं.

रविवार, 10 मई 2015

माँ

पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने कहा है, ‘जब मैं पैदा हुआ इस दुनिया में आया, वो एकमात्र दिन ऐसा था जब मैं रो रहा था और मेरी माँ के चेहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी’ बेटे का रुदन सुनकर कारण जान लेने वाली माँ का दुःख एक बेटा क्यों नहीं जान पाता ? पूरी जिन्दगी जिस माँ के लिए उसका बेटा ही सब कुछ होता है, उस बेटे के लिए उसकी माँ सब कुछ क्यों नहीं हो सकती ? मुनव्वर राणा साहब का एक शेर है,     
‘उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है,   
कोई भी जहर को मीठा नहीं बताता है,    
कल अपने आप को देखा था माँ की आँखों में,    
ये आयना हमें बुढा नहीं बताता है                                                                                                                                                       
यह सर्वविदित है कि मातृत्व की छाँव बेटे के उम्र की मोहताज नहीं, पर आखिर क्यों इस तथाकथित आधुनिक समाज में बेटे और माँ की बढ़ती उम्र इन दोनों के बीच दूरियों को जन्म दे रही है ? आखिर क्यों बच्चों में मातृत्व की चाहत उम्र के एक पड़ाव तक ही रह गयी है ? ऐसे तमाम सवाल हैं जो वर्तमान समाज के समक्ष सुरसा की भाँती मुंह फैलाए खड़े हैं अगर समय रहते इनका जवाब नहीं ढूंढा गया तो परिवार-सभ्यता और मर्यादा के लिए जानी जाने वाली यह भारत भूमि आधुनिकता की रफ़्तार में कहीं गुम हो जाएगी इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जिस देश में धरती, गाय और नदियों तक को हम माँ कहते हैं वहां अपनी माँ का दर्द साझा करने के लिए हमारे पास समय नहीं है भारत में दिन-ब-दिन बढ़ती वृद्धाश्रमों की संख्या यह बताने के लिए काफी है कि हमारा वर्तमान समाज किस दिशा में जा रहा है

कुछ साल पहले की बात है, फ्रांस में बहुत गर्मी पड़ी तो वहां के कई बूढ़े लोग अपने एघरों में मृत पाए गए थे क्योंकि वहां उनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं था। हमारा वर्तमान भी इस दिशा में बढ़ रहा है और वैश्वीकरण के रास्ते दुनिया की यह हकीकत भारतीय संस्कृति में घुसपैठ करने को तैयार है। जरुरत है अपनी विरासत और माँ की अहमियत को समझने की। सिर्फ सोशल साइट्स पर ‘सुपर मॉम’ वाला मैसेज चस्पा कर देने से हम बेटा-बेटी होने का फर्ज अदा नहीं कर सकते हैं। सिर्फ एक दिन माँ के पसंद की साड़ी उन्हें पहना कर या उनकी पसंद का खाना खिलाकर हम उन तमाम दिनों की असलियत पर पर्दा नहीं डाल सकते हैं जब माँ हमारे साथ रहते हुए भी हमसे दूर रहती है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हम उस भारत भूमि पर निवास करते हैं जहाँ चंगेज खान जैसे खूनी शासक के दरबार में एक माँ पहुँचती है और उससे सीधे सवाल करती है, ‘तेरी फ़ौज में मेरा बेटा काम करता था, मैं उसे लेनी आई हूँ। चंगेज खान हैरानी से उस माँ से प्रश्न करता है कि माँ तू आई कैसे ? रास्ते में पर्वत और समुन्द्र पड़े होंगे तूने उसे पार कैसे किया ? तो माँ का जवाब आता है, मैं समुन्द्र और पर्वत से यह कह कर रास्ता माँगी कि मैं माँ हूँ मुझे रास्ता दो और उन्होंने मुझे रास्ता दे दिया।
अभी व्हात्सअप पर एक मैसेज खूब फॉरवार्ड किया जा रहा है जिसमे यह बताया गया है कि, ‘एक बेटा अपनी पत्नी और बेटे के साथ घर से बाहर निकलते हुए अपनी माँ से कहता है, माँ पास के मंदिर में भंडारा है आप वहां जा कर खाना खा लेना, हम बाहर से खा कर आएँगे तभी उनका छोटा बेटा अपनी माँ से कहता है, माँ मैं बड़ा होकर घर के पास एक मंदिर बनवाऊंगा, ताकि जब मैं अपनी पत्नी के साथ बाहर जाऊं तो आप लोगो को खाना खाने में परेशानी नहीं हो’ एक छोटा सा यह मैसेज वर्तमान और भविष्य की दिशा-दशा बताने के लिए काफी है। हमारा आज का कर्म ही कल की बुनियाद बनता है। आज अपने बच्चों के सामने बुजुर्गों के लिए किया जाने वाला सलूक ही कल हमारे और हमारे बच्चों के बीच के संबंधों का आधार बनेगा। क्षणिक आकर्षण के आगे माँ के प्यार और उसकी अहमियत को नजरअंदाज करने वाली युवा पीढी को भी मुनव्वर राणा की इन पंक्तियों से सीख लेनी चाहिए कि,

‘कल रात मैंने चाहतो की सब किताबे फाड़ दी,                   
सिर्फ एक कागज पर लिखा लब्ज माँ रहने दिया।‘