रविवार, 10 मई 2015

माँ

पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने कहा है, ‘जब मैं पैदा हुआ इस दुनिया में आया, वो एकमात्र दिन ऐसा था जब मैं रो रहा था और मेरी माँ के चेहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी’ बेटे का रुदन सुनकर कारण जान लेने वाली माँ का दुःख एक बेटा क्यों नहीं जान पाता ? पूरी जिन्दगी जिस माँ के लिए उसका बेटा ही सब कुछ होता है, उस बेटे के लिए उसकी माँ सब कुछ क्यों नहीं हो सकती ? मुनव्वर राणा साहब का एक शेर है,     
‘उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है,   
कोई भी जहर को मीठा नहीं बताता है,    
कल अपने आप को देखा था माँ की आँखों में,    
ये आयना हमें बुढा नहीं बताता है                                                                                                                                                       
यह सर्वविदित है कि मातृत्व की छाँव बेटे के उम्र की मोहताज नहीं, पर आखिर क्यों इस तथाकथित आधुनिक समाज में बेटे और माँ की बढ़ती उम्र इन दोनों के बीच दूरियों को जन्म दे रही है ? आखिर क्यों बच्चों में मातृत्व की चाहत उम्र के एक पड़ाव तक ही रह गयी है ? ऐसे तमाम सवाल हैं जो वर्तमान समाज के समक्ष सुरसा की भाँती मुंह फैलाए खड़े हैं अगर समय रहते इनका जवाब नहीं ढूंढा गया तो परिवार-सभ्यता और मर्यादा के लिए जानी जाने वाली यह भारत भूमि आधुनिकता की रफ़्तार में कहीं गुम हो जाएगी इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जिस देश में धरती, गाय और नदियों तक को हम माँ कहते हैं वहां अपनी माँ का दर्द साझा करने के लिए हमारे पास समय नहीं है भारत में दिन-ब-दिन बढ़ती वृद्धाश्रमों की संख्या यह बताने के लिए काफी है कि हमारा वर्तमान समाज किस दिशा में जा रहा है

कुछ साल पहले की बात है, फ्रांस में बहुत गर्मी पड़ी तो वहां के कई बूढ़े लोग अपने एघरों में मृत पाए गए थे क्योंकि वहां उनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं था। हमारा वर्तमान भी इस दिशा में बढ़ रहा है और वैश्वीकरण के रास्ते दुनिया की यह हकीकत भारतीय संस्कृति में घुसपैठ करने को तैयार है। जरुरत है अपनी विरासत और माँ की अहमियत को समझने की। सिर्फ सोशल साइट्स पर ‘सुपर मॉम’ वाला मैसेज चस्पा कर देने से हम बेटा-बेटी होने का फर्ज अदा नहीं कर सकते हैं। सिर्फ एक दिन माँ के पसंद की साड़ी उन्हें पहना कर या उनकी पसंद का खाना खिलाकर हम उन तमाम दिनों की असलियत पर पर्दा नहीं डाल सकते हैं जब माँ हमारे साथ रहते हुए भी हमसे दूर रहती है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हम उस भारत भूमि पर निवास करते हैं जहाँ चंगेज खान जैसे खूनी शासक के दरबार में एक माँ पहुँचती है और उससे सीधे सवाल करती है, ‘तेरी फ़ौज में मेरा बेटा काम करता था, मैं उसे लेनी आई हूँ। चंगेज खान हैरानी से उस माँ से प्रश्न करता है कि माँ तू आई कैसे ? रास्ते में पर्वत और समुन्द्र पड़े होंगे तूने उसे पार कैसे किया ? तो माँ का जवाब आता है, मैं समुन्द्र और पर्वत से यह कह कर रास्ता माँगी कि मैं माँ हूँ मुझे रास्ता दो और उन्होंने मुझे रास्ता दे दिया।
अभी व्हात्सअप पर एक मैसेज खूब फॉरवार्ड किया जा रहा है जिसमे यह बताया गया है कि, ‘एक बेटा अपनी पत्नी और बेटे के साथ घर से बाहर निकलते हुए अपनी माँ से कहता है, माँ पास के मंदिर में भंडारा है आप वहां जा कर खाना खा लेना, हम बाहर से खा कर आएँगे तभी उनका छोटा बेटा अपनी माँ से कहता है, माँ मैं बड़ा होकर घर के पास एक मंदिर बनवाऊंगा, ताकि जब मैं अपनी पत्नी के साथ बाहर जाऊं तो आप लोगो को खाना खाने में परेशानी नहीं हो’ एक छोटा सा यह मैसेज वर्तमान और भविष्य की दिशा-दशा बताने के लिए काफी है। हमारा आज का कर्म ही कल की बुनियाद बनता है। आज अपने बच्चों के सामने बुजुर्गों के लिए किया जाने वाला सलूक ही कल हमारे और हमारे बच्चों के बीच के संबंधों का आधार बनेगा। क्षणिक आकर्षण के आगे माँ के प्यार और उसकी अहमियत को नजरअंदाज करने वाली युवा पीढी को भी मुनव्वर राणा की इन पंक्तियों से सीख लेनी चाहिए कि,

‘कल रात मैंने चाहतो की सब किताबे फाड़ दी,                   
सिर्फ एक कागज पर लिखा लब्ज माँ रहने दिया।‘


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