रविवार, 21 दिसंबर 2014

वादों की आग में पहचान का हवन

एक दोहे की पंक्ति है, ‘’भूख ना जाने जूठी पात’’ | बेकार समझ कर सड़क पर फेंक दिए गए खाने से भी किसी आदमी को भूख मिटाते देखकर जब हमारे नितिनियंताओं की नींद नहीं खुलती है तो फिर इस धर्मान्तरण पर इतना बवाल क्यों मचा है ? लाखो करोड़ खर्च कर के भूखे भारत को संपन्न बनाने में विफल रहने वाली सरकार को यह हक़ किसने दे दिया कि वह उस संविधान की अवहेलना करे जिसकी प्रस्तावना में ‘उपासना की स्वतंत्रता’ की बात कही गयी है | धर्मांतरण या कथित ‘घर वापसी’ के किसी भी खबर का कोइ पात्र ऐसा नहीं है जो अबोध हो या जिसे भटका कर उसका धर्मपरिवर्तन किया गया हो | गरीबी की आग में जलकर तिलक टोपी और क्रॉस जैसे धार्मिक प्रतिको में खुद को बदलने वाला कोइ भी आदमी ऐसा नही दिखा जो पक्के मकान से निकलकर धर्मांतरण के लिए गया हो | धर्म के नाम पर सियासत की रोटियाँ सकने वालो के बूते की बात नहीं है कि उसकी घर वापसी करा दे जिसकी पत्नी एलपीजी से खाना बनाती है | धर्म की यह आग हमेशा उन्हें ही जलाती है जो आज भी उपले या अंगीठी की आग से पेट की आग बुझा रहे हैं | धर्मांतरण करने वाले परिवारों में कोइ भी परिवार ऐसा नहीं है जिसने अपने बच्चो को कॉन्वेंट स्कुल से बुलाया हो एक नए नाम और एक नई पहचान अपनाने के लिए | ये तो वह हैं जो आज भी दो जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं | ये ना ही कल उस हालत में थे कि अपने लाडले को स्कुल भेज सके और ना ही आज उनकी यह औकात है कि अपने बच्चो की पीठ से कूड़े का थैला उतर कर उसे स्कुल बैग के लिए खाली कर सके | फिर क्या फायदा वह 5 लाख खर्च करने का जो केवल नाम और पहचान बदलता है परिस्थितियां नहीं | क्या सार्थकता है उन धर्मगुरुओं की जिनके पर्चे और प्रलोभन इनके हालात नहीं बदल सकते |
हाल के दिनों में धर्मांतरण का यह जीन प्रकट हुआ 8 दिसंबर को ‘आगरा के वेद्नगर में’ जहाँ लगभग 60 मुस्लिम परिवारों के 387 सदस्यों ने हवन में अपनी पुरानी पहचान का भी हवन कर दिया जहाँ  इस्माईल राजकुमार बन गए तो जहाँगीर, प्रदीप | जिस बस्ती की सुबह कुरआन की आयतों से होती थी वहां संस्कृत के श्लोक सुनाई दे रहे थे | लेकिन इनके नाम और पहचान बदलने का कारण था अपने उस सपने को सच होते देखना जो हर एक माँ की ख्वाहिस होती है और हर एक बाप चाहता है | टोपी उतार कर तिलक लगा चुके राजकुमार ने पत्रकारों को बताया भी कि, ‘हम पिछले 17 साल से आगरा में रह रहे हैं | कभी कहीं से डेरा उखाड़ दिया जाता है तो कभी कहीं से | बच्चो को शिक्षा नहीं मिल पा रही है | किसी सरकारी योजना की मदद हमें नहीं मिलती | अब हमें उम्मीद है कि नई पहचान के साथ पुरानी मुश्किलों का अभी अंत होगा |’’ सरकारों की जिम्मेदारी को धर्म के ठेकेदारों से पुरी होने की यह उम्मीद उस ‘सुफिया बेगम’ को भी थी जो उस समय तक अपने नए नाम का इन्तजार कर रही थी | हालंकि इन्हें अगले 24 घंटे में ही कलावा हटा कर कुरआन पकड़ना पड़ा | पहचान के बदलाव का यह नाटकीय रूपांतरण उनकी परिस्थितियाँ नहीं बदल सका उनके बच्चे अब भी तैयार खड़े थे कूड़ा बीनने जाने के लिए | आगरा की घटना सड़क से संसद तक हंगामा मचा ही रही थी कि तभी 14 दिसंबर को यूपी के कुशीनगर में 5 हन्दू परिवार के 27 लोगों ने इसाई धर्म अपना लिया | अब भी देश के अलग अलग भागों में धर्मनिरपेक्ष भारत को ठेंगा दिखाने का यह कार्यक्रम बदस्तूर जारी है | अब भी लोग अपनी परिस्थितियां बदलने के लिए अपनी पहचान बदल रहे हैं | आजादी के बाद से ही अपने अच्छे दिनों के  इन्तजार में सरकारों से लगातार उपेक्षा पा रहा आम आदमी आज वादों की आग में अपनी पहचान का हवन कर रहा है तो यह उसकी गलती नहीं है | यह गलती है इस व्यवस्था की जिसने वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादों के सिवा उसे कुछ नहीं दिया |  

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

नीरजा भनोट : जिसकी शहादत ने भारत पाकिस्तान दोनों को रुलाया


‘पाकिस्तान से ‘तगमा-ए-इंसानियत’ का खिताब पाने वाली पहली और अकेली भारतीय.
 ‘’अमेरिका से ''जस्टिस फॉर विक्टम ऑफ क्राइम'' का खिताब पाने वाली पहली और अकेली भारतीय’’

यह बलिदान अखबारों के किसी कोने में छपे श्रद्धांजलि के चंद शब्द और तस्वीर पर फुल चढ़ा कर याद करने का मोहताज नहीं है. यह बलिदान है पशुता पर मानवता को हावी होते देखने के लिए, यह बलिदान है भारत भूमि की उस विरासत को अजेय रखने के लिए जिसकी सारी दुनिया लोहा मानती है और यह बलिदान है भारत की भावी पीढी में सच्ची भारतीयता का संचार करने के लिए.
उस समय मैं छठी कक्षा का विद्यार्थी था जब एसएसबी (सशस्त्र सीमा बल) के एक प्रतियोगिता में मुझसे एक प्रश्न पूछा गया था, ‘अशोक चक्र पाने वाली सबसे कम उम्र की महिला’ और मैने तपाक से उत्तर दिया था, ‘नीरजा भनोट’
‘विधासागर का सामान्य ज्ञान’ रटने का फल यह हुआ कि मैं और मेरे एक साथी सम्मिलित रूप से वह प्रतियोगिता जीत गए लेकिन मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई ‘नीरजा भनोट’ को जानने की. यह 2007 की बात है और उस समय उधर हमारे यहाँ ‘गूगल बाबा’ का उद्भव नहीं हुआ था. खैर जब परिस्थितियाँ इस काबिल बनी कि मन में उठे प्रश्नों का त्वरित जवाब मिल सके, तब मैं जाना ‘नीरजा भनोट’ को.
अभी कुछ दिन पहले जब ‘भारत के कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला युसुफजई’ को संयुक्त रूप से शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया तब भारत और पाकिस्तान में एक साथ पटाखे फोड़े गए थे. ऐसा उस समय भी हुआ था जब ‘नीरजा’ ने नापाक मंसूबो को नाकाम कर भारत-पाकिस्तान दोनो को राहत की सांस दी थी. लेकिन अंतर बस इतना था कि ‘नोबेल पुरस्कार’ वाली खबर शुरुआत से ही खुशी की खबर थी लेकिन ‘नीरजा भनोट’ वाली खबर मौत के मुहाने पर खड़े लोगो को जिन्दगी मिल जाने की खबर थी पर अफ़सोस यह खुशी उसे ही नसीबा नहीं हो सकी जिसने 360 लोगो को मौत के मुंह से निकाला था. वो भी उस समय जब अगले दो दिन बाद वह अपना 23 वा जन्मदिन मनाने वाली थी.
‘’5 सितम्बर 1986 को उस समय तक सब कुछ सामान्य था जब पैन एम 73 विमान कराची, पाकिस्तान के एअरपोर्ट पर अपने पायलट का इन्तजार कर रहा था. विमान में लगभग 380 यात्री बैठे हुए थे, और बचपन से एअरहोस्टेस बनने का सपना देखने वाली ‘नीरजा भनोट’ भी बतौर एअरहोस्टेस उस विमान में मौजूद थी. अभी विमान के उड़ान भरने में कुछ समय बाकी ही था कि तभी अचानक 4 आतंकियों ने पुरे विमान को गन प्वाइंट पर ले लिया. उन्होंने पाकिस्तान सरकार पर दबाव बनाया कि वो जल्द से जल्द विमान में पायलट को भेजे, लेकिन पाकिस्तान सरकार ने माना कर दिया. तब आतंकियों से नीरजा और उसकी सहयोगियों को बुलाया और कहा कि वो सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित करें ताकि वो किसी अमेरिकन को मारकर पाकिस्तान सरकार पर दबाव बना सकें,
नीरजा ने सभी यात्रियों के पासपोर्ट इकट्ठे किए लेकिन विमान में बैठे 5 अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपाकर बाकी सभी आतंकियों को सौंप दिए. उसके बाद आतंकियों ने एक ब्रिटिश को विमान के गेट पर लाकर पाकिस्तानी सरकार को धमकी दी कि यदि पायलट नहीं भेजा तो वह उसको मार देंगे, लेकिन नीरजा ने उस आतंकी से बात करके उस ब्रिटिश नागरिक को भी बचा लिया.
धीरे-धीरे 16 घंटे बीत गए. पाकिस्तान सरकार और आतंकियों के बीच बात का कोई नतीजा नहीं निकला. अचानक नीरजा को ध्यान आया कि प्लेन में फ्यूल किसी भी समय समाप्त हो सकता है और उसके बाद अंधेरा हो जाएगा. जल्दी उसने अपनी साथी एयर-होस्टेस को यात्रियों को खाना बांटने के लिए कहा और साथ ही, प्लेन के इमरजेंसी गेट के बारे में समझाने वाला कार्ड भी देने को कहा. नीरजा को पता लग चुका था कि आतंकवादी सभी यात्रियों को मारने की सोच चुके हैं.
उसने सर्वप्रथम खाने के पैकेट आतंकियों को ही दिए क्योंकि उसका सोचना था कि पेट भरने के बाद शायद वो शांत दिमाग से बात करें. इसी बीच सभी यात्रियों ने आपातकालीन द्वारों की पहचान कर ली. नीरजा ने जैसा सोचा था वही हुआ. प्लेन का फ्यूल समाप्त हो गया और अंधेरा छा गया. नीरजा भी इसी वक्त का इंतजार कर रही थी. उसने तुरंत प्लेन के सारे इमरजेंसी गेट खोल दिए. जैसा कि उसने सोचा था, वही हुआ. यात्री उन गेट्स से बाहर कूदने लगे.

यात्रियों को अंधेरे में प्लेन से कूदकर भागता देख आतंकियों ने भी फायरिंग शुरू कर दी. इसमें कुछ यात्री घायल जरूर हुए, लेकिन इनमें से 360 पूरी तरह से सुरक्षित थे. अब विमान से भागने की बारी नीरजा की थी, लेकिन तभी उसे बच्चों के रोने की आवाज सुनाई दी. दूसरी ओर, पाकिस्तानी सेना के कमांडो भी प्लेन में आ चुके थे. उन्होंने तीन आतंकियों को मार गिराया लेकिन  नीरजा उन तीन बच्चों को खोज चुकी थी और उन्हें लेकर प्लेन के इमरजेंसी गेट की ओर बढ़ने लगी, तभी अचानक बचा हुआ चौथा आतंकवादी उसके सामने आ खड़ा हुआ.
नीरजा ने बच्चों को नीचे ढकेल दिया और खुद उस आतंकी से भिड़ गई. 23 साल की पतली-दुबली नीरजा के सीने में आतंकी ने कई गोलियां उतार दीं. नीरजा ने उन तीन बच्चों को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दिया.’’


अभी पूरा विश्व पेशावर में बछ्को के चीत्कार से कराह रहा है लेकिन ‘भारत माँ की यह बहादुर बेटी’ उन बच्चों के रोने की आवाज को नजर अंदाज नहीं कर सकी और मानवता के लिए खुद कुर्बान हो गई. अगर वह चाहती तो सबसे पहले उस इमरजेंसी गेट से भाग सकती थी लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. हालांकि उस चौथे आतंकी को भी पाकिस्तानी कमांडों ने मार गिराया, लेकिन वो नीरजा को न बचा सके.

नीरजा के बलिदान पर पूरा पाकिस्तान रोया था, खासकर उन तीन बच्चों के माता-पिता, जिन्हें नीरजा ने बचाते हुए अपनी जान दे दी थी. नीरजा की शहादत पर भारत के हर नागरिक को गौरव का अहसास हुआ. दोनों देशों ने मिलकर नीरजा का सम्मान किया. भारत सरकार ने जहां नीरजा को सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'अशोक चक्र' दिया, तो पाकिस्तान सरकार ने भी नीरजा को 'तमगा-ए-इन्सानियत' दिया. भारत के इतिहास में अशोक चक्र पाने वाली सबसे युवा लड़की थी नीरजा.  2004 में नीरजा भनोत पर डाक टिकट भी जारी हो चुका है. इतना ही नहींअमेरिका ने भी अपने 5 यात्रियों की जान बचाने के लिए नीरजा को ''जस्टिस फॉर विक्टम ऑफ क्राइम'' अवार्ड से नवाजा. इनकी शहादत को यादगार बनाने के लिए इनके नाम का वेबसाईट भी बनाया गया है, http://neerjabhanot.org/home.html.


शत-शत नमन इस वीरांगना को.