1950-51 की बात है,
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मगई नदी में भयंकर बाढ़ आई थी. उसी बाढ़ में पास के
गाँव की 2 औरतें नदी की धारा में बही जा रही थी. किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी
कि उन्हें बचाए तभी सबने देखा कि एक नौजवान ने उफनती नदी में छलांग लगा दी. वह न
सिर्फ दोनों औरतों को ज़िंदा निकाल लाया बल्कि उन्हें नाव में बैठाकर उनके घर तक
छोड़कर भी आया. कुछ दिन बाद उसी युवक ने उन 50 लाठी डंडो से लैस जमींदार के आदमियों
को महज तीन लोगो के साथ मिलकर खदेड़ भगाया था जो उसके गाँव धामपुर के एक किसान की
फसल काटने आए थे.
लाठी भांजने कुश्ती
लड़ने और गुलेल से निशाना लगाने में पारंगत इस लड़के की बचपन से ही इच्छा थी सेना
में जाने की लेकिन घर वाले यह नहीं चाहते थे. पर जब देशप्रेम का धुन सर पर सवार हो
तो फिर किसकी फ़िक्र ! बात 1954 की है इसने घरवालों से कहा रेलवे भर्ती की परीक्षा
देने जा रहा हूँ और शामिल हो गया सेना में. मातृभूमि पर मर मिटने वाले इस वीर की
दिली इच्छा थी कोई ना कोई चक्र और पदक प्राप्त करने की. पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध
में जाने से पहले इन्होने अपने भाई से कहा भी था, ‘’पल्टन में उनकी बहुत इज्जत होती है जिनके
पास कोई चक्र होता है, देखना झुन्नन हम जंग में लडकर कोई न कोई चक्र जरूर लेकर ही
लौटेंगे’’
झुनन्न का यह भाई किसी
छोटे चक्र के साथ घर लौट कर तो नहीं आया लेकिन माँ भारती की आबरू की रक्षा में खुद
को कुर्बान कर देने वाले इस योद्धा को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’
से नवाजा गया.
इस धरती की मिट्टी
में खेलते हुए बड़ा होकर मुल्क के आन बान और शान की रक्षा में खुद को कुर्बान करने
वाला यह वीर योद्धा ‘अब्दुल हमीद’ था. जब भी देशप्रेम की बात होती है ‘अब्दुल हमीद
का नाम आता है पर अफ़सोस कि सियासत यहाँ भी अपना चरित्र सिद्ध करने में पीछे नहीं
रही. खुद को आम आदमी और गरीबो की हिमायती बताने वाली ‘मायावती’ ने कक्षा छह
की हिंदी पुस्तिका में पढ़ाया जाने वाला पाठ ‘वीर अब्दुल हमीद’ को पाठ्यक्रम से
हटवा दिया. सत्ता और सियासत कुछ भी करे हम तो यही कहेंगे :
‘’ये
तो मातृभूमि के दीवाने हैं जो विजय गीत ही गाते हैं,
दुम
दबाकर दुश्मन भागे जब भी ये गुर्राते हैं,
ज़िंदा
में भारत के सपूत और मरकर अमर कहलाते हैं,
कहते
हैं फिर से बनूं मातृभूमि का सैनिक हो अगर दुबारा जन्म
धन्य
हो धरा के लाल...तुमको मेरा शत नमन...|’’