मंगलवार, 30 जून 2015

वीर सपूत अब्दुल हमीद

1950-51 की बात है, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मगई नदी में भयंकर बाढ़ आई थी. उसी बाढ़ में पास के गाँव की 2 औरतें नदी की धारा में बही जा रही थी. किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उन्हें बचाए तभी सबने देखा कि एक नौजवान ने उफनती नदी में छलांग लगा दी. वह न सिर्फ दोनों औरतों को ज़िंदा निकाल लाया बल्कि उन्हें नाव में बैठाकर उनके घर तक छोड़कर भी आया. कुछ दिन बाद उसी युवक ने उन 50 लाठी डंडो से लैस जमींदार के आदमियों को महज तीन लोगो के साथ मिलकर खदेड़ भगाया था जो उसके गाँव धामपुर के एक किसान की फसल काटने आए थे.
लाठी भांजने कुश्ती लड़ने और गुलेल से निशाना लगाने में पारंगत इस लड़के की बचपन से ही इच्छा थी सेना में जाने की लेकिन घर वाले यह नहीं चाहते थे. पर जब देशप्रेम का धुन सर पर सवार हो तो फिर किसकी फ़िक्र ! बात 1954 की है इसने घरवालों से कहा रेलवे भर्ती की परीक्षा देने जा रहा हूँ और शामिल हो गया सेना में. मातृभूमि पर मर मिटने वाले इस वीर की दिली इच्छा थी कोई ना कोई चक्र और पदक प्राप्त करने की. पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में जाने से पहले इन्होने अपने भाई से कहा भी था, ‘’पल्टन में उनकी बहुत इज्जत होती है जिनके पास कोई चक्र होता है, देखना झुन्नन हम जंग में लडकर कोई न कोई चक्र जरूर लेकर ही लौटेंगे’’  
झुनन्न का यह भाई किसी छोटे चक्र के साथ घर लौट कर तो नहीं आया लेकिन माँ भारती की आबरू की रक्षा में खुद को कुर्बान कर देने वाले इस योद्धा को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ से नवाजा गया.
इस धरती की मिट्टी में खेलते हुए बड़ा होकर मुल्क के आन बान और शान की रक्षा में खुद को कुर्बान करने वाला यह वीर योद्धा ‘अब्दुल हमीद’ था. जब भी देशप्रेम की बात होती है ‘अब्दुल हमीद का नाम आता है पर अफ़सोस कि सियासत यहाँ भी अपना चरित्र सिद्ध करने में पीछे नहीं रही. खुद को आम आदमी और गरीबो की हिमायती बताने वाली ‘मायावती’ ने कक्षा छह की हिंदी पुस्तिका में पढ़ाया जाने वाला पाठ ‘वीर अब्दुल हमीद’ को पाठ्यक्रम से हटवा दिया. सत्ता और सियासत कुछ भी करे हम तो यही कहेंगे :

‘’ये तो मातृभूमि के दीवाने हैं जो विजय गीत ही गाते हैं,
दुम दबाकर दुश्मन भागे जब भी ये गुर्राते हैं,
ज़िंदा में भारत के सपूत और मरकर अमर कहलाते हैं,
कहते हैं फिर से बनूं मातृभूमि का सैनिक हो अगर दुबारा जन्म
धन्य हो धरा के लाल...तुमको मेरा शत नमन...|’’

नागार्जुन : सियासत को आइना दिखाने वाला जन कवि

''जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके 
कर दिए मनोरथ चूरचूर !
उनको प्रणाम !...''

आम आदमी की आवाज को अपने शब्दों में ढालकर आजीवन सत्ता सियासत और व्यवस्था को आईना दिखाने वाले काव्यकुल के पुरोधा बाबा नागार्जुनको उनकी वी जयंती पर उन्ही की इन पंक्तियों के माध्यम से श्रधांजलि. भले ही ये पंक्तियाँ नागार्जुन के कलम से निकली है लेकिन इसकी सार्थकता इस महान कवि के इर्द-गिर्द घुमती भी दिखाई देती है. हमारा दुर्भाग्य है कि इस तथाकथित लोकतंत्र में जनहित की जिस आकांक्षा में नागार्जुन कलम चलाते रहे वह आज भी जनतंत्र की इस धरती से बहुत दूर है. गांधी के नाम पर सियासत कर अपना पेट पालने वाले नामुराद नेताओं के बारे में नागार्जुन ने लिखा भी है :
 
"गांधी जी का नाम बेचकर, बतलाओ कब तक खाओगे?
यम को भी दुर्गंध लगेगी, नरक भला कैसे जाओगे?" 

भारतवासियों को मिले संवैधानिक अधिकार पर खुद को साहबकहने वाले एक नेता की शक्तियां हावी होने लगी तब नागार्जुनने लिखा :
 
''बाल ठाकरे ! बाल ठाकरे !
कैसे फ़ासिस्टी प्रभुओं की,
गला रहा है दाल ठाकरे ...''

आज जब खुद को कव्यकुल से जोड़ने वाले कई तथाकथित कवियों का कलम सियासी नारों तक सिमट कर रह गया है इस समय नागार्जुनकी इन पंक्तियों का ध्यान आता है जो उस समय की निरंकुश शासन के लिए ललकार साबित हुआ था :
 
''खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक...''

जनहित का नाम देकर खुद के हित और स्वार्थसिद्धि के लिए सियासत का दामन थामने वाले लोगों के वास्तविकता की कलई नागार्जुनकी इन पंक्तियों में खुलती है :
   
''सुखी हैं चाटुकार
मगर मस्त हैं लबार
जिनके हित दिल्लीगत त्रिविधतापहारी
लहू की फेंके थूक
मरे शूद्र शंबूक
खेले क्रिकेट राम योजना बिहारी
स्वर्ग है पार्लमेण्ट
करता है बहुमत जनहित की चांदमारी।''

उद्देश्य से भटकती सियासत और सामाजिकता को आईना दिखाने में नागर्जुनके योगदान को शब्दों में समेटना सूरज को दीया दिखाने जैसा है. आज जब कई पन्ने भरकर भी कवि या साहित्यकार अपनी सार्थकता स्पष्ट नहीं कर पाते हैं, इस समय इस जन क्रांतिकारी कवि की जरुरत महसूस होती है जो एक वाक्य में ही हालत और निजात दोनों का पर्दाफास कर देता है.
होंगे दक्षिण, होंगे वाम, जनता को रोटी से काम.

सोमवार, 22 जून 2015

श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनके उतराधिकारी

‘सिंह-गर्जना से जिसने था द्रोही दल को ललकारा।
‘देश अखण्ड रहे मेरा’ था एक यही जिसका नारा॥
नन्दन वन पर आँख लगी जब देखी उन हत्यारों की।
ज्वाला बन कर भड़क उठी तब आग दबे अंगारों की॥‘

आज 'श्यामा प्रसाद मुखर्जी' की पुण्यतिथि है। इस महान शक्सियत के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करती महावीर प्रसाद ‘मधुप’ की ‘इन पंक्तियों के माध्यम से इस पुरोधा को शत नमन। इनके सुकर्म शब्दों में तो हमेशा ही जीवित रहेंगे लेकिन वर्तमान परिपेक्ष्य में इनके विचारों की सार्थकता इस बात में है कि इनके उतराधिकारी इनकी विरासत के प्रति कितने संजीदा हैं। यह तो दिख ही रहा है कि ‘एक विधान, एक प्रधान, एक निशान’ के मुद्दे पर लड़ते हुए बलिदान दे देने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी के उतराधिकारी उनकी इस विचारधारा को किस तरह से आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन आज के समय में जब कि श्रद्धा दिखावे तक सिमट कर रह गई है, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के प्रति ‘भाजपा’ का दिखावटी प्रेम भी नहीं दिख रहा है। अपने हर एक कदम को विज्ञापनों के जरिए जगजाहिर करने वाली वर्तमान सरकार ने राष्ट्रवाद के इस आधार स्तम्भ के लिए किसी अखबार में विज्ञापन के जरिए ही सही श्रधांजलि के दो शब्द कहना उचित नहीं समझा। भले ही इनके उतराधिकारी सियासत के चक्रव्यूह में उलझकर इनकी विरासत को बिसार दें लेकिन इस बुलंद शक्सियत का गुणगान तो युगों-युगों तक ‘मधुप’ जी की ये पंक्तियाँ करती रहेंगी : 

धन्य-धन्य श्यामा प्रसाद! हे अखण्डता के अभिलाषी।
युग-युग तक यश-गान तुम्हारा गायेंगे भारतवासी॥
दो हमको वह शक्ति, देश का सुयश धरा पर व्याप्त करें।
चलें तुम्हारे पद चिह्नों पर सदा सफलता प्राप्त करें॥


विरासत और अतीत के हर एक निशान को सहेजने की वकालत करने वाले प्रधानमंत्री जी की जानकारी में क्या यह बात नहीं है कि कश्मीर में जिस झोपड़ी में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नजरबन्द किया गया था आज उसके निशान तक मिटा दिए गए हैं। शायद यह प्रश्न वाजिब ही नहीं है क्योंकि दूसरी बार केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर में भी सरकार में शामिल भाजपा जब अपने इस अभिभावक की रहस्यमय मौत से पर्दा हटाने के प्रति चिंतित नहीं है तो फिर इनसे जुड़े निशानों को संग्रहित करने की बात कौन सोचेगा ! जब भी कश्मीर पर बात होती है, भाजपाई चीख-चीख कर कहते हैं, ‘जहाँ मुखर्जी शहीद हुए हैं वह कश्मीर हमारा है’, लेकिन भारत के सरताज में वास्तविक भारतीयता देखने का इस शेरे बंगाल का सपना सियासत की गलियों में भटक सा गया है। किसी से सच ही कहा है, 

''ताक पर रख दीजिए अब आप भी अपना जमीर।
यह सियासत है, सियासत में बुरा कुछ भी नहीं।''

गुरुवार, 18 जून 2015

आपातकाल और आज : कुछ बदला क्या !


एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है,
कल नुमाईश में मिला था चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है.

मौजूदा दौर में आपातकाल की संभावना को लेकर ‘आडवानी’ जी की एक टिपण्णी पर छिड़ी बहस के बीच मुझे ‘दुष्यंत कुमार’ की यह पंक्तियाँ याद आ गयी. आज सवाल यह नहीं है कि आपातकाल की संभावना टटोली जाय, आज समय यह सोचने का है कि क्या बीते चालीस बरसों में देश की राजनीति बदली है ? क्योंकि राजनीतिक हालात ही ‘आपातकाल’ का कारण बनते हैं. दुष्यंत कुमार के इन पंक्तियों की पड़ताल की जाय तो मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक रूप से हम 70 के दशक के बहुत आगे बढ़ पाए हैं. बीते एक दशक से एक ‘गुड़िया की कठपुतली’ के हाथों में ही इस देश की चाबी थी. सत्ता में नहीं लेकिन सियासत में आज भी गुड़िया की महता कायम ही है. सरकार के एक साल पूरा करने के मौके पर मथुरा में इमानदारी का ढोल पीटने वाले प्रधानमंत्री जी की सियासी दुर्गति एक गुड़िया के कारण ही हो रही है. इस मामले में तो आपातकाल के आस-पास का दौर आज की अपेक्षा कुछ ठीक ही कहा जाएगा. क्योंकि व्यक्तिगत मित्रता के आगे शासनात्मक नैतिकता की कुर्बानी दे देने वाली एक मंत्री की रक्षा में पूरा सरकारी तंत्र ढाल बनकर खड़ा है जबकि इस देश ने वह दौर भी देखा है जब एक रेल दुर्घटना के बाद तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफा फेंक मारा था.
आजादी हमें 40 के दशक में मिली, दुष्यंत कुमार ने यह सच बयां किया 70 के दशक में लेकिन आज आजादी के लगभग 7 दशक बाद भी भारत चिथड़ों से आजाद नहीं हो पाया है. आजादी के समय 2.7 लाख करोड़ जीडीपी वाला इस देश के पास आज 57 लाख करोड़ की जीडीपी है लेकिन इस अनुपात में इस देश से चीथड़े वालों की संख्या कम नहीं हुई. आज भी देश के विभिन्न भागों में लगभग 18 लाख लोग हर दिन बिना छत के सड़कों पर रात गुजारते हैं. ऐसे लोगों की संख्या देश की राजधानी में 47 हजार के लगभग है. सियासत बदल गयी लेकिन हकीकत आज भी बहुत हद तक बदली नहीं है.
लोकतंत्र का कोई एक भाग जो आज सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में है तो वह है मीडिया. आपातकाल के समय सबसे ज्यादा दबाया भी मीडिया ही गया और सबसे मुखर विरोध भी मीडिया का ही रहा लेकिन वर्तमान समय में देखें तो आपातकाल की भी मुखरता नजर नहीं आती.
इन चालीस सालों में बदला कुछ नहीं सिवाय इसके कि अब पत्रकारिता का रास्ता मिशन से विमुख होकर 'कमिशन' की तरफ मुड़ चला है. संसद की सीढियां उतरते हुए जब एकबार नेहरु लड़खड़ाए और दिनकर जी ने उन्हें गिरने से बचाया था तब नेहरु के धन्यवाद कहने पर दिनकर ने कहा, 'नेहरु जी सियासत के कदम जब जब लड़खड़ाएंगे, अदब उसे सहारा देगा.' लेकिन आज तो हालात इतने बदल चुके हैं कि सियासत के कदम के साथ साथ आवाज भी लड़खड़ा जाती है लेकिन कलम उस सच को आम करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती. वास्तविकता की पड़ताल करें तो हकीकत यही है कि अब 'अकबर इलाहाबादी' के इन शब्दों की सार्थकता समाप्ति की ओर बढ़ती दिख रही है कि, ‘जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो.’ क्या यह इस चौथे खम्भे के लिए शुभ संकेत है कि जिस शख्स को एक साल से ज्यादा हो गए इस देश के वजीरे आला की कुर्सी पर बैठे उसने यहाँ की मीडिया से सार्वजनिक रूप से बात करना मुनासिब नहीं समझा. यह बात और है कि प्रधानमंत्री जी रात के अँधेरे में मीडिया घरानों के मालिको के साथ मीटिंग करते हैं लेकिन यह भी सोचने वाली बात है कि उन मीडिया घरानों के मालिकों में से कितने लोग सीधे तौर पर पत्रकारिता से जुड़े हैं ?