शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हिन्दी दिवस मनाने का औचित्य क्या है?-

एक तरफ आज से 71 साल पहले 9 अगस्त 1942 को आजादी की लड़ाई में महात्मा गाँधी ने अँगरेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था| सपना था अंग्रे भी जायेंगे और अंग्रेजियत भी| जबकि दूसरी तरफ 175 साल पहले 12 अक्टूबर 1836 को लार्ड मैकाले ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था कि, ''आगामी 100 साल बाद हिंदुस्तान में ऐसे बच्चे होंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी|'' स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। 13 सितंबर,1949 को संविधान सभा की बहस में भाग लेते हुए 'पंडित जवाहर लाल नेहरू' ने कहा था, ''किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।" वर्तमान समय में जब हम अपने समाजिक बोल-चाल और रीति-रिवाज पर नजर डालते है तो यह पाते है कि लार्ड मैकाले की भविष्यवाणी सच साबित हो रही है| और हमारे दूरदर्शी प्रधानमंत्री 'पंडित नेहरू' का हिन्दी को अपनाने का सपना आज आजादी के 67 साल बाद भी अधूरा है|
‘थोमस बैबिंगटन मैकाले’ ब्रिटेन का राजनीतिज्ञ, कवि, और इतिहासकार था| सन् 1834 से 1838 तक वह भारत की सुप्रीम काउंसिल में लॉ मेंबर तथा लॉ कमिशन का प्रधान रहा। प्रसिद्ध दंडविधान ग्रंथ "दी इंडियन पीनल कोड" की पांडुलिपि इसी ने तैयार की थी। आज भारतीय संस्कृति में हिन्दी सिर्फ कहने को ही हमारी मातृभाषा है| भारत को यह दुर्दिन दिखाने के पिछे लार्ड मैकाले का बहुत बड़ा हाथ है| व्यापार के बहाने आकर भारतीय संस्कृति का सम्मुल नष्ट करने का सपना देखने वाले अँगरेजों में सबसे घृणित अँगरेज मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटेन की संसद में भारत के प्रति अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, "मैं भारत में काफी घुमा हूँ। दाएँ- बाएँ, इधर उधर मैंने यह देश छान मारा और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो, जो चोर हो। इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्यूंकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर हैं, तो वे अपने आत्मगौरव, आत्म सम्मान और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं। एक पूर्णरूप से गुलाम भारत।" अपने इस सपने को साकार करने के लिए 1858 में लोर्ड मैकोले द्वारा Indian Education Act बनाया गया। इसके तहत भारत में मौजूद सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया।
वो था अपना भारत जिसके चारित्रिक आदर्श और गुणवता का पुरे विश्व में डंका बजता था| लेकिन अंग्रेजों ने हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक संपदा 'माँ हिन्दी' में सेंध डालकर भारतीय संस्कृति में अंग्रेजी का एक ऐसा बिजा रोपण कर दिया जिसके कुप्रभाव से आज भारतीय संस्कृति खतरे में पड़ी नजर आ रही है| हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, 'वर्धा' के अनुरोध पर 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आज पुरे 60 साल हो गए हमे हिन्दी दिवस मानते हुए, लेकिन कठिन दौर से गुजर रही इस विरासत को बचाने के सार्थक कदम आज भी नजर नही आ रहे है| हम बचपन से ही सुनते आ रहे है कि, हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है| लेकिन सूचना के अधिकार के तहत एक ऐसा खुलासा हुआ है जिसे जानने के बाद हिन्दी पर तरस आती है, और गुस्सा आता है हमारे नीति-नियताओ पर| राष्ट्रभाषा के विषय में सूचना के अधिकार कानून के तहत माँगी गइ जानकारी में, लखनऊ की आरटीआई कार्यकर्ता 'उषा शर्मा' को दी गई जानकारी इस ओर इंगित करती है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं हैं। गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग से मिली सूचना के अनुसार भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी भारत की राजभाषा केवल राजकाज की भाषा तक सीमित हैं। भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा का कोर्इ उल्लेख नहीं है।
कहा जाता है, ''जब से जागो तभी सबेरा'', अतः अभी भी समय है हिन्दी को बचाने का वरना प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस मनाने का कोइ औचित्य नही रह जाएगा| मेरा मतलब यह कतई नही है कि हम दूसरी भाषाओं को ना अपनाए, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अपना स्थान सबसे ऊपर रखने के लिए हमे और विदेशी भाषाएँ भी जाननी होगी| लेकिन हमे पहले अपनी मातृभाषा पर पकड़ मज़बूत बनानी होगी| हमे इन पंक्तियों पर गौर करना होगा कि,
''हिन्दी में हम काम करेंगे पहले मन में संकल्प करें,
निश्चय होकर आरंभ करें, विश्वास न मन में अल्प करें,
पहले यदि कुछ मुस्किल होगी धिरे-धीरे मीट जाएगी,
अभ्यास निरंतर करने से मज़बूत पकड़ हो जाएगी|'' 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

पाखंडियो के कारण धूमिल होती संत की महता-

भारत के बारे में कहा जाता है,
''बिना वेदाम बिना गीताम बिना रामायाणी कथाम,
बिना कवि कालिदासम भारतम नैव भारत:''
भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही साधु-संतो का महत्वपूर्ण स्थान रहा है| भले ही उनका प्रारंभिक जीवन कैसा भी रहा हो लेकिन एक सन्यासी के तौर पर, एक तपस्वी के तौर पर उन लोगो ने भारतीय संस्कृति को वो शक्तियाँ दी जिनकी बदौलत हमने अपनी जमीन से पुरे विश्व का मार्गदर्शन किया| महर्षि वाल्मीकि जो कभी रत्नाकर नामक भयंकर डाकू हुआ करते थे| एक बार निर्जन वन में उन्होने नारद मुनि को लुटना चाहा, तो नारद मुनि जी ने उन्हे समझाया, कि इस कार्य के फलस्वरुप जो पाप तुम्हें होगा उसका दण्ड भुगतने में तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे? अपने घर वालों से इस प्रश्न का नकारात्मक उतर सुन कर रत्नाकर की दश्युकर्म से विरक्ति हो गई| तत्पश्चात नारद जी के समझाने पर वे राम नाम के जप में तल्लीन हो गए| शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि, एक बार महर्षि वाल्मीकि प्रेमालाप में लीन एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि किसी बहेलिये ने नर पक्षी का वध कर दिया, जिसके वियोग में मादा पक्षी विलाप करने लगी| उसके इस करुण विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी, और उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ाः
''मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥''
अर्था, 'अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी|' यहीं से महर्षि को ज्ञान की प्राप्ति हुई जिसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" की रचना की|
गोस्वामी तुलसीदास की कथा भी कुछ इसी प्रकार की है| तुलसीदास के बारे में कहा जाता है कि, एकबार आधी रात को वे उफनती यमुना नदी तैरकर अपनी पत्‍‌नी रत्नावली से मिलने उसके मायके पहुँच गए| पति के इस अप्रत्याशित व्यवहार से खीज कर रत्नावली ने उन्हे एक दोहे के माध्यम से शिक्षा दी, उसी दोहे ने उन्हें तुलसीदास बना दिया| वह् दोहा था,
''अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?''
ये वो संत महात्मा थे जिनके जिन्दगी की एक घटना ने उन्हें भगवान के लिए समर्पित कर दिया| पिछ्ले कुछ सालों में बहुत सारे तथाकथित सन्यासियो का उद्भव हुआ, जिन्होंने अपने आप को भगवान का दूत बताकर आम जनमानस की आस्था के साथ खिलवाड़ किया| लेकिन कहा जाता है, ''सच्चाई छूप नही सकती बनावट के वसुलो से|'' इन पाखंडियो के साथ भी ऐसा ही हुआ| ये जहाँ से आए थे वहाँ पहुँच गए है या पहुँचने वाले है| पिछले दिनो टीवी 'निर्मल बाबा' का उदय हुआ, जो अनोखे ढ़ग से लोगों पर कृपा बरसाते थे| ये लोगो की परेशानिया दूर करने के लिए उन्हें गोल्गप्पे और धनिये की चटनी खाने की सलाह देते थे| मैने जब उनके बारे में सुना तो मुझे लगा आयुर्वेद के कोइ डॉक्टर होंगे, लेकिन उनके भक्तों के अनुसार वे बहुत बड़े सिद्ध ज्ञानी महात्मा थे| लेकिन जब सच्चाई सबके सामने आई तो पता चला ये तो निर्मलजीत सिंह नरूला हैं, जो 80 के दसक तक ईंट भट्टा का का काम करते थे| धोखाधड़ी के आरोप में पुरे देश में कई जगहो पर लोगो ने इस 'निर्ल्लज' बाबा के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया है|
लोगो की आस्था को तक पे रख कर एक लड़की के साथ कुकृत्य करने वाले आशाराम की कहानी भी कुछ ऐसी ही है| अपने को भगवान बताने वाले आशारा कोयला चोर से कथावाचक तक का सफर पूरा कर वर्तमान में सलाखों के पिछे अपने कुकर्मो की सजा भुगत रहे है| भगवान में लोगो की आस्था का गलत फायदा उठा कर एक मज़दूर से आशाराम बापू बनकर इस पाखंडी ने कई लोगो को बेघर कर उनके जमीन पर कब्जा कर लिया| हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक इनके पास 10000 करोड़ रुपये का साम्राज्य है| सन्यासियो को रुपये-पैसे से कोई मतलब नही होता| अगर किसी सन्यासी के पास अपार धन-संपदा है तो वह संत हो ही नही सकता|