शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

एक अजातशत्रु का अवसान...

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा 
आंख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा...

यह शेर उस देश की शायरा परवीन शाकिर का है, जिसके लिए अटल जी ने कहा था- 'दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं...' आज अटल जी पंचतत्व में विलीन हो गए, लेकिन पाकिस्तान से जुड़ी कश्मीर समस्या के समाधान को लेकर जब भी ईमानदार प्रयासों का जिक्र होगा अटल जी का नाम पहले आएगा। कश्मीर से जुड़े हर स्थानीय नेता कश्मीर समस्या के लिए हिंदुस्तानी नेता और नीति को जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन समाधान के लिए ईमानदार प्रयास का जब भी जिक्र आता है, तो उनके होठों पर सिर्फ एक नाम होता है और वह है, 'अटल बिहारी वाजपेयी।' मैं ऐसे बहुत से 'हार्डकोर' भाजपाइयों को जानता हूं, जो एक प्रधानमंत्री के रूप से अटल जी को पसंद नहीं करते और ऐसे कई बड़े नेताओं को भी जानता हूं, जो धुर विरोधी हो कर भी अटल जी की सियासी सोच के कायल हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि अटल जी ने कभी विचारधारा को थोपने वाली सियासत नहीं की, हां वे एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। वे चाहते थे कि अयोध्या में राम मंदिर बने लेकिन वह ये भी चाहते थे कि कश्मीर सुलझाने के लिए कश्मीरियों से बात की जाय। भारत ही नहीं दुनिया की सियासत ने दुबारा किसी 'अटल' शख्सियत को नहीं देखा क्योंकि कोई और नेता इन पंक्तियों को जी ही नहीं पाया कि

'टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते,
सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है,
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते,
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते...।'

आज भारतीय सियासत के इस अजातशत्रु का अवसान हो गया, लेकिन अपने सुकर्मों द्वारा इन्होंने राजनीति को जो दिशा दिखाई वह युग-युगांतर तक इस महान नेता की गाथा गाते रहेंगे। आज जब सियासी सफर के हर कदम में करोड़ों-अरबो लुटाए जा रहे हैं इस समय सियासत के इस पितामह की याद आती है, जब इन्होंने भरी संसद में कहा था- 
'ऐसी सरकार जो सांसदों के खरीदने से बनती हो मैं इसे चिमटे से छूने से अस्वीकार करता हूं।' वर्तमान सियासत में जबकि विरोध का स्तर ज़ुबानी नीचता की परकाष्ठा पार कर रहा है, हमारे नेताओं को अटल जी के उस व्यक्तित्व से सीख लेने की जरूरत है जिसके कारण विपक्षी दल के प्रधानमंत्री 'नरसिम्हा राव' ने इन्हें सरकार का नुमाइंदा बना कर पाकिस्तान भेजा था। आज के नेताओं को, विरोधी की नजर में भी अपनत्व की उस अटल छवि से सीखने की जरूरत है, जिसके कारण निवर्तमान प्रधानमंत्री 'राजीव गांधी' ने अटल जी के मना करने के बावजूद उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल के साथ जाने के बहाने इसलिए अमेरिका भेजा था ताकि वे वहां अपने घुटने का इलाज करा सकें क्योंकि अटल जी की खुद की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं थी कि वे अपने खर्च से अमेरिका जाकर इलाज कराएं। आज के दौर में बनने से पहले टूटने वाले गठबंधन के सूत्रधार नेताओं को तो यह पता ही होगा कि वह 'अटल क्षमता' ही थी जिसकी बदौलत भारतीय राजनीति ने 24 दलों के गठबंधन की सफल सरकार देखी थी। कितना अच्छा होता कि आज अटल जी के लिए श्रद्धांजलि के लिए उमड़े हुजूम में से हर नेता उनकी स्वच्छ छवि वाली विरासत को आगे बढ़ाते और उनकी इन पंक्तियों को सार्थक करते कि,

'आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दिया जलाएं...।'

वे अटल जी ही थे जिन्होंने संसद के भीतर विदेश निति पर हो रही चर्चा में अपनी बात से तत्कालीन प्रधानमंत्री 'नेहरू' जी को प्रभावित कर दिया था और नेहरू जी ने अटल जी की प्रशंसा करते हुए कहा था, 'आप एक दिन जरूर देश का प्रतिनिधित्व करेंगे।' वे अटल जी ही थे जिन्होंने पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब दिया और समय पर समझाया भी कि,

'ओ नादान पड़ोसी अपनी आंखें खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।'

वर्तमान राजनीति के खराब चरित्र का एक कारण यह भी है कि अब इसके पास कोई 'अटल शख्सियत की छवि' नहीं रही... हिन्दू धर्म की मेरी मान्यता यह उम्मीद जगाती है कि मौत से ठनी रार में अवसान को प्राप्त हुआ यह अजातशत्रु पुनर्जन्म लेकर दोबारा इस देश की सियासत और सामाजिकता को पटरी पर लाने के लिए आएगा, क्योंकि वे न सिर्फ इस देश की जरूरत हैं, बल्कि चाहत भी हैं। आज उनकी अंतिम यात्रा में प्रधानमंत्री, दर्जन भर से ज्यादा मुख्यमंत्री, सैकड़ों सांसद-विधायक, लाखों पार्टी कार्यकर्ता और असंख्य लोग जरूर दिखे होंगे, लेकिन मैंने जो देखा उससे ऑफिस में बैठे हुए आंखें डबडबा गईं। दीनदयाल उपाध्याय से होकर आईटीओ चौराहे पर आने के क्रम में एक चैनल का कैमरा कुछ समय के लिए एक बुजुर्ग पर फोकस हुआ, जो एक हाथ से आंसू पूछते हुए दूसरे हाथ से 'अटल बिहारी जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे... इस दृश्य से एक शेर याद आ गया कि
'कहानी खत्म हुई और ऐसे खत्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियां बजाते हुए...

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

बेलगाम सत्ता और निरीह चौथा खम्भा

किसी स्वयंसेवी संस्था को चाहिए कि रवीश कुमार की इस सूक्ति का शिलापट्ट देशभर में लगा दे कि 'एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है...' सच में लग रहा है कि एक नागरिक के तौर पर इस देश की जनता विचार-शून्य स्थिति में पहुंच गई है और शायद सरकार भी यह समझ गई है कि अब इस देश में नागरिक नहीं समर्थक और विरोधी बसते हैं। आज का दिन वर्तमान दौर की भारतीय पत्रकारिता के लिए महत्वपूर्ण है। इस दिन को खासकर दो बातों के लिए याद रखा जाना चाहिए। पहली यह कि एक शख्स ने अपने पत्रकारीय धर्म के निर्वहन के लिए सत्ता के सान्निध्य को ठोकर मार दी और दूसरी यह कि वैश्विक स्तर पर महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर महान भारतीय लोकतंत्र की शानदार बहुमत वाली सरकार एक पत्रकार से डर गई। वैसे ये डर अचानक सामने नहीं आई। आलमपनाह की परेशानी तो उसी दिन से शुरू हो गई थी जब मास्टर स्ट्रोक की शुरुआत ही सत्ता और सत्ताधारी पार्टी की 'भागीदारी' से देशभर में हो रहे खनन की खबरों से हुई थी। सरकार को इस बात ने भी कचोटा कि आखिर इस पत्रकार को यह क्यों दिखा कि केवल बीते एक साल में हुए 12553 बैंक फ्रॉड में देश को 18 हजार करोड़ से ज्यादा का चूना लग गया... इस पत्रकार ने इस सच का ढोल क्यों पीटा कि 2009-13 के बीच 87 हजार करोड़ रहने वाला एनपीए 2014-18 में 4 लाख करोड़ के करीब पहुंच गया... इस पत्रकार को यह खबर कैसे मिली कि बीते 4 साल में सरकार 9 बार तेल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर 31 खरब रुपए कमा चुकी है... इस पत्रकार ने क्यों यह गणना की कि बीते चार साल में सरकार परस्त गुंडों की भीड़ ने 64 निर्दोषों को बेमौत मार दिया... इस पत्रकार ने क्यों यह सवाल उठाया कि जो देश केवल एक साल 2009-10 में अपने 18 हजार से ज्यादा गांवों को रौशन कर चुका है, उसी देश में 4 साल में विद्युतीकृत किए गए 18 हजार गांव कौन सी बड़ी उपलब्धि हैं... इस पत्रकार ने सेस के खेल को उजागर करते हुए क्यों यह सच देश के सामने रखा कि बीते चार साल में हुई सेस की कमाई में से खर्च के बाद भी सरकार के खाते में साढ़े 17 खरब रुपए बचे हुए हैं, जिनका कोई लेखा-जोखा नहीं है... इस पत्रकार ने सीएजी रिपोर्ट वाली उस ख़बर को क्यों तूल दी, जिसमें सरकार के 19 मंत्रालयों द्वारा देश को 1179 करोड़ रुपए का चूना लगाने की बात सामने आई थी... ऐसी अनेक खबरें हैं जिनके कारण सरकार को पुण्य प्रसून वाजपेयी खटकने लगे थे... हाल के दिनों की सबसे बड़ी खबर वो थी जब इन्होंने सरकार की आंख में आंख डालकर साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री के सामने मजमा सजाकर जबरदस्ती उगलवाया जाता है कि किसान की आमदनी 50 प्रतिशत बढ़ गई...
होना तो यह चाहिए था कि खुद के लिए प्रधानसेवक सुनने को लालायित रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी इन सभी खबरों से सीख लेकर देश को आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करते। नोटबंदी के कुछ दिन बाद आम लोगों के लिए भी बैंकिंग ट्रांजैक्शन को आसान बनाने से सम्बन्धित एक स्किम का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने मीडिया को इसलिए धन्यवाद दिया था, क्योंकि किसी टीवी चैनल पर उन्हें एक ऐसे आदमी की पीड़ा दिखी थी जिसके पास स्मार्टफोन नहीं था। मीडिया के साथ नरेंद्र मोदी के छत्तीस के आंकड़े वाले इतिहास के बावजूद उस समय मुझे लगा था कि तथाकथित छप्पन इंची सीने वाले इस शख्स में अपनी आलोचना सुनने और उससे सीख लेने की क्षमता है, लेकिन उसके बाद कई ऐसे उदाहरण दिखे, जिसने साबित किया कि वो मेरी गलत धारणा थी। वो चाहे सेल्फी के लिए लालायित रहने वाले चंद पत्रकारों को ही इंटरव्यू देने की बात हो या सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों और संस्थानों के पीछे हाथ धोकर पड़ने की, हर बार इस सरकार ने लोकतंत्र के चौथे खंभे की नींव कमज़ोर करने की कोशिश की। हमने यही पढ़ा है कि पत्रकारिता सत्ता के चरणवन्दन का नाम नहीं है और न ही पत्रकारिता केवल सूचना का माध्यम है। अफसोस कि सत्ता से सर्वार्थसिद्धि साधने वाले चंद पत्रकारों और अपने भविष्य के लिए राज्यसभा की चौखट ताकने वाले कुछ मालिकों ने पत्रकारिता को पीआईबी और सूचना प्रसारण मंत्रालय से भी गया-गुजरा बना दिया और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस देश की जनता उसे ही पत्रकारिता समझ बैठी। मोदी जी आज चाहें तो अपने चार साल के कामों के लेखा-जोखा वाला बैनर बीच समुंदर में लगवा सकते हैं, लेकिन सुदूर गांव का कोई वंचित-पीड़ित अपनी बात बगल के थानेदार और बीडीओ तक पहुंचाने में भी असमर्थ होता है। विडम्बना देखिए कि सरकार उन्हें ही पत्रकारिता का झंडाबरदार मान चुकी है, जो सरकार के कामों को विज्ञापन एजेंसी की तरह फैला रहे हैं और उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी है जो उस जनता की आवाज को सत्ता के कान तक पहुंचाने के लिए प्रयासरत हैं, जिनतक आज़ादी के 70 वर्ष में लोकतंत्र की रौशनी नहीं पहुंची। यही पत्रकारिता वे तीन लोग कर रहे थे, जिन्हें सत्ता की ताकत ने आज टीवी स्क्रीन से हटा दिया।