गुरुवार, 26 मई 2016

जनतंत्र की सार्थकता और मोदी के दो साल


अभिज्ञान शाकुंतलम में एक जगह जिक्र आता है कि ‘माता गौतमी गर्भवती शकुन्तला को लेकर रात के तीसरे पहर वन के अपने आश्रम से नगर में राजा दुष्यंत के महल  के बाहर पहुँचती है और बाहर खड़े दरबान से पूछती है कि क्या राजा का महल यही है? दरबान के हाँ के बाद जब माता गौतमी कहती हैं कि क्या मैं राजा से मिल सकती हूँ तो दरबान का जवाब आता है, अविश्रमोयम लोकतंत्रस्य सर्वाधिकारः’ अर्थात यह आप का नियमित लोकतान्त्रिक अधिकार है। 
भारत को लोकतंत्र की जननी यूँ ही नहीं कहा जाता है। उस प्राचीन काल में भी हमारे यहाँ जनता को यह अधिकार प्राप्त था कि वह अपने राजा, अपनी सरकार के मुखिया से आधी रात को भी मिल सकती है। राम राज के बाद अकबर का शासन इसलिए याद किया जाता है कि वो भेष बदल कर जनता का हाल जानने निकल पड़ता था और यथासंभव समाधान करता था। 1947 के बाद हमें आजादी तो मिली...सरकारों ने खरबों रूपए जनहित के नाम पर जारी भी किए पर अफ़सोस कि पैसा लाभुकों तक नहीं पहुँच सका...कारण सिर्फ एक ही है...और वो यह कि हमारी व्यवस्था, हमारी सरकार आजाद भारत में वह लोकतंत्र कायम करने में असफल रही या जानबूझकर नहीं कर सकी जिसका जिक्र कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में किया है।
अंध भक्ति और अंध विरोध की चाहरदीवारी से बाहर निकल कर देखें तो वर्तमान सरकार में तकनीक के साथ नियत की जुगलबंदी कुछ हद तक उस प्राचीन काल के लोकतंत्र के अनुरूप सरकार और व्यवस्था से संवाद का मौका मुहैया कराने में सफल होती प्रतीत हो रही है। आज सुदूर गाँव में बैठा आदमी भी अपनी बात रायसीना की पहाड़ियों तक पहुंचा सकता है...और सिर्फ पहुंचा ही नहीं सकता...पल पल यह भी जान सकता है कि अपनी परेशानी दूर करने की जो अर्जी उसने अपने रहनुमाओं तक भेजी है वो अभी किस विभाग में विचाराधीन है या कब तक यथा स्थान पहुंचेगी। आज जिस तकनीक के सहारे वर्तमान प्रधानमंत्री खुद तक जनता की जिज्ञासा या समस्याओं को आमंत्रित करते हैं, भारत में उस तकनीक का आगमन तो बहुत पहले हो चुका था लेकिन किसी ने उसका इतना समुचित उपयोग किया क्यों नहीं? उत्तर एक ही है, करना नहीं चाहते थे। सरकार की तरफ से जनता से संवाद की कोशिश शानदार है और इसका फायदा भी होता दिख रहा है। इतना तो तय ही है कि आज का प्रधानमंत्री उस सियासी या स्वार्थसिद्धि की मज़बूरी में नहीं घिरा है कि उसे कहना पड़े कि मैं 1 रुपया भेजता हूँ तो लाभुक तक 20 पैसा पहुंचता है। आज तो सभी सरकारी महकमों के बाबुओं की यह मज़बूरी है कि वे ‘ना खाउंगा ना खाने दूंगा’ की सत्यता का सहभागी बने। काश यह मज़बूरी पिछली सरकारों में भी दखने को मिली होती, तो देश की दशा और दिशा वर्तमान से बेहतर जरुर होती। विज्ञापन शुरू से ही इस बदनामी के शिकार है कि वे झूठ का पुलिंदा होते हैं लेकिन जिन विज्ञापनों के माध्यम से वर्तमान सरकार अपनी कामयाबी की कहानी को हम तक पहुंचा रही है उसकी सत्यता की परख करते हुए हम-आप यह जानकार सतुष्ट हो सकते हैं कि इसका वास्ता कहीं ना कहीं जमीनी हकीकत से जरुर है। कल तक जो मजदूर फटी धोती में सिक्के संभाल कर रखता था वह भी आज एटीएम कार्ड धारक है। हम गाँव वाले जानते हैं कि गैस सब्सिडी के सीधे खाते में पहुँचने से गैस एजेंसी वालों की मनमानी से किस स्तर तक निजात मिली है। मोदी सरकार के दो साल की सफलता या विफलता को आप चाहे जिन मानकों या आंकड़ों की नजर से आंके लेकिन मेरी नजर में तो यह सरकार जनतंत्र की कसौटी पर उसी समय खरी उतर गई जब मैंने अपने गाँव में एक लड़के को यह कहते कि ‘टूटलका पुलवा के फोटो खीच के मोदी जी के वेबसाईट पर अपलोड करे के पड़ी...’ और चलती ट्रेने में ट्रेन की कुव्यवस्था देखकर एक सहयात्री को यह कहते कि ‘ट्विट कर प्रभु जी के’ सुना। आशा और आश्वासन में बहुत अंतर होता है। विश्वास केवल आंकड़ो से नहीं कामों से बनता है... ।    

रविवार, 22 मई 2016

मेरी वेदना के चित्र पर किसी ने आंसू भी बहाए होते

मुझे लगता है प्रधानमंत्री जी के आज के मन की बात का सार इस एक वाक्य में ही समाहित हो सकता है जो उन्होंने एक कविता की कुछ पंक्तियों के बीच कही कि ‘काश मेरी वेदना के चित्र पर किसी ने आंसू भी बहाए होते।' हममें से अधिकाँश लोग आजीवन प्रकृति का दोहन ही करते रहते हैं। कभी उसकी वेदना नहीं समझ पाते और उसी वेदना ना समझ पाने का कुफल भीषण गर्मी, पानी की किल्लत और जंगलों की आग के रूप में हमारे सामने आता है। सूखे को लेकर प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री जी की अलग अलग बैठक प्रशंसनीय तो है ही साथ ही मोदी जी के इस वाक्य को हमें आत्मसात करने की जरूरत है कि 'पानी परमात्मा का प्रसाद है।' पानी की बर्बादी के बाद हममें किसी ख़ास को खोने की वेदना प्रस्फुटित होनी चाहिए। मोदी जी के इस कथन के अनुभव से तो हम हर दिन गुजरते हैं कि 'कितने भी थक कर आए हों मुंह पर पानी छिड़कते हैं तो कितना सुकून मिलता है...' जल की अहमियत को समझने के लिए हमें मोदी जी द्वारा कहे गए जल से संबंधित इन तीन बातों को अपने जीवन में आत्मसात करने की जरूरत है...'जल संचय, जल संरक्षण, जल सिंचन'...महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व आंध्र प्रदेश द्वारा पानी की बचत के लिए चलाए जा रहे विभिन्न योजनाओं के बारे में प्रधानमंत्री से सुन कर तथा विभिन्न राज्यों द्वारा डीप इरिगेशन की व्यवस्था के बारे में जान कर सरकारों के लिए मन में एक सकारात्मक सोच का संचार हुआ।
JAM (जनधन, आधार और मोबाइल) में तालमेल बैठाते हुए समाज को कैशलेस सोसाइटी की तरफ बढ़ाना सरकार का एक सार्थक प्रयास है। मोदी जी का यह कहना सही है कि इससे हम आधुनिक भारत और ट्रांसपैरेंट भारत की तरफ कदम बढ़ाएंगे।
ऐसा हर बार होता है कि किसी भी खेल में हार के बाद हमारा समाज खिलाड़ी पर कीचड़ उछालना शुरू कर देता है। हम मुश्किल समय में अपनी संवेदना को उसके साथ नहीं रख पाते। मोदी जी के इस विचार का सारथी हमें भी बनना चाहिए कि 'रियो ओलंपिक के लिए जाने वाले खिलाड़ियों का अपने अपने प्रयासों से प्रोत्साहित करें।' बदनाम सियासी कुनबों से अगर किसी नेता या मंत्री के अच्छे कामों की खबर मिलती है तो मन खुश हो जाता है यह सोचकर कि हमारी राजनीति उतनी बुरी भी नहीं है। एक राज्य के मुख्यमंत्री उम्मीदवार होने के मानसिक दबाव के बीच खेल मंत्री सर्वानंद सोनोवाल का ओलंपिक के लिए तैयारी कर रहे खिलाड़ियों के बीच जाना उनकी समस्याएं सुनना, उन्हें दूर करने की दिशा में काम करना और प्रोत्साहित करना सच में प्रशंसनीय है।
हाल के दिनों में आए दिन युवाओं की आत्महत्या की ख़बरें आ रही है। इसमें ज्यादातर वैसे बच्चे हैं जिन पर अभिभावकों का दबाव था पढ़ाई या परिणाम को लेकर। मन की बात में मोदी जी द्वारा कही गई गौरव पटेल की कहानी सभी के लिए सीख है कि सफलता का शीर्ष छूने के लिए बच्चों पर दबाव कहीं उनके भविष्य को अंधकारमय ना कर दे। 89.33 प्रतिशत नंबर प्राप्त किए हुए लड़के को शाबासी देने की बजाय उससे यह कहना कि अगर 4 नंबर और आ जाते तो 90% हो जाता, एक सफलता की ओर अग्रसर बच्चे को हतोत्साहित करना, उसका पाँव खीचना है। प्रधानमंत्री जी ने कितनी सही बात कही कि 'जितनी सफलता मिली है उसे गुनगुनाओ उसी में से नई सफलता निकलेगी।' मोदी जी ने एक कविता के माध्यम से इस परिस्थिति का मर्म समझाया...
'जिंदगी के कैनवास पर मैंने वेदना का चित्र बनाया
और जब उसकी प्रदर्शनी हुई तो लोग आए
और किसी ने कहा नीला की जगह पिला रंग होना चाहिए था,
यह लाइन मोटी यह पतली होनी चाहिए थी,
काश मेरी वेदना के चित्र पर किसी ने आंसू भी बहाए होते...'

शनिवार, 21 मई 2016

लोग बिहार को कान से देखते हैं आँख से नहीं

दिल्ली में बढ़ते अपराध की घटनाओं पर दिल्ली उच्च न्यायालय की टिपण्णी कि 'दिल्ली में जंगलराज है' को सुनकर नितिन चंद्रा जी की फिल्म 'वन्स अपॉन अ टाइम इन बिहार' का यह डायलॉग याद आ गया कि 'लोग बिहार को कान से देखते हैं आँख से नहीं।'...बिहार को सच में लोग 'कान' से ही देखते हैं, जिन्होंने कभी बिहार के लोगों का आथित्य नहीं देखा वे बिहार से बाहर बैठे बोलते हैं बिहार में जंगलराज है, जिन राज्यों की जीडीपी का आधार बिहारी पसीना है वहां के लोग कहते हैं बिहार में जंगलराज है, जिनकी सुख समृद्धि का राज बिहारी कौशल है उन्हें बिहार में जंगलराज दिखाई देता है, वाह रे नज़र... वाह रे नजरिया...कभी किसी सियासी शख्स ने अपनी सियासत चमकाने के लिए 'जंगलराज' की जुमलेबाजी कर दी और हम बिहारी भी कूद पड़े बिहार की पहचान को 'जंगलराज' से जोड़ने में...मैं दिल्ली में रहता हूँ हर दिन यहाँ के अखबारों में मर्डर, लूट, बलात्कार की ख़बरें होती है लेकिन मैंने तो किसी दिल्ली वाले को आज तक कहते नहीं सुना कि
'गोली मार दिया जाएगा कपार में,
मत निकालिएगा दिल्ली के बाजार में।'
अपराध अपराध होता है इसकी निंदा की जानी चाहिए। कानून का राज कायम करने में विफल सरकार से भी जवाब माँगा जाना चाहिए। लेकिन अपने ही राज्य को जंगलराज कहते हुए अपने और अपनों के बारे में कुछ तो विचार किया ही जाना चाहिए। आप बिहार में रहते हो तो आपको फर्क नहीं पड़ता होगा लेकिन किसी सुदूर शहर में दूसरे राज्य में रहने वाले बिहारी को अगर यह सुनना पड़े कि 'भाई जंगलराज का क्या हाल है?' तो कैसा महसूस होता होगा समझ सकते हैं। घर में तनाव का वातावरण हो या घर में झगड़ा हुआ हो तो घर के सदस्य घर के बाहर तख्ती पर यह लिखकर तो नहीं टांग देते न कि 'इस घर में जंगलराज है।' जितनी क्षमता से अब काफ़िया मिला मिला कर जंगलराज पर कविता लिखी जा रही है और जितनी मेहनत से उसे सोशल मीडिया पर फैलाया जा रहा है उतनी क्षमता और उतनी मेहनत अगर इसी माध्यम द्वारा सरकार और शासन पर दबाव बनाने में लगाई जाती तो बिहार का ज्यादा भला होता...
दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पराक्रम, कौशल और प्रतिभा के जाना जाने वाला राज्य आज जंगलराजके उपनाम से बदनाम हो रहा है। हालाँकि इस बदनामी के पीछे कोई गैर नहीं है...सियासी कुनबो में बंट चुका वर्तमान समाज समर्थकके आगे अपनी पहचान की तिलांजलि दे रहा है। राजनीतिक कूटनीति और चालबाजी की प्राथमिक समझ ना रखने वाला व्यक्ति भी आज हर सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम को सियासी तराजू पर तौलने में लगा हुआ है...हाल के दिनों में यह प्रवृति ज्यादा देखने को मिल रही है जब कि किसी भी घटना के तुरंत बाद अलग अलग गुट अपने अपने सियासी शब्दकोष में उसके हितार्थ ढूंढने में लग जा रहे हैं। हर एक गंतव्य के लिए सियासी सड़क का सहारा ही समाज को विभेद और तनाव के रास्ते पर ले जा रहा है। मुनव्वर राणा साहब ने लिखा भी है,
तुम्हे अहले सियासत ने कहीं का नहीं छोड़ा,
हमारे साथ जो रहते सुखनवर हो गए होते।’




शुक्रवार, 13 मई 2016

दिल्ली, दोपहर और जूस वाला

आसमान से 42 डिग्री सेल्सियस का ताप फेंकता सूरज, आगे चलते हुए पिछवाड़े से आग फेंकती डीटीसी बस, गर्म हवा के थपेड़े और निचे से बाइक की तपती सीट, इसी बीच किसी छायादार पेड़ के निचे कोई 'दिलवाला जूस वाला' दिख जाए तो बाइक खुद-ब-खुद मुड़ जाती है...हम भी मुड़ ही गए हैं...हाँ भैया कौन सा बनाऊं 10 का, 20 का या 30 का...गर्दन झटक कर अपनी लंबी बालों को यथास्थान करते हुए जूस वाले भाई ने पूछा है...मैं भी 20 वाला कह कर उनके बाल, जूस के ठेले पर लिखे नाम 'दिलवाले' और दिलवाले वाले अजय देवगन तथा रवीना टंडन की तस्वीरों में सामंजस्य बैठाने लगा हूँ...देखकर अच्छा लगा है कि सिंघम स्टाइल वाले फैन्स के जमाने में अजय देवगन के दिलवाले वाले फैन भी हैं...भाई के बाल और जूस ठेले का नाम देखकर मन बचपन की उन यादों में गोते लगाने लगा है जब बरफ (आइसक्रीम) वाला पों पों बजाता था और हम दौड़ पड़ते थे...(एक गोलाकार बैलून की तरह होता था जिसे दबाने पर पों पों की आवाज आती थी, इसे ही बजाकर बरफ वाला अपने आने की सूचना देता था) साइकिल के स्टैंड पर रखे गए लकड़ी या टिन के डब्बे में से बरफ वाला बरफ निकालता। बात इशारों में ही होती थी कि 1,2 या 5 रुपया वाला चाहिए क्योंकि मुंह में पड़े गुटखे की मजबूरी उन्हें बोलने नहीं देती थी। जब दाम को लेकर विवाद होता तब भाई साहब किसी कोने में पच्च कर देते...तब आइसक्रीम शब्द गाँवों में उतना लोकप्रिय नहीं हुआ था, लेकिन नाम में आइसक्रीम या कुल्फी का उपयोग जरूर दिखता था...साइकिल पर बरफ के डब्बे के पीछे या उसी के सहारे लगाए गए लकड़ी के तख्ते पर ये लोग फिल्मी सितारों के नाम से ही अपने चलंत दूकान का नाम रख लेते थे जैसे 'ऐश्वर्या आइसक्रीम', 'काजोल कुल्फी' इत्यादि...
मैं इन्ही यादों में खोया था तभी जूस वाले ने जूस से भरा ग्लास बढ़ा दिया है...इस बार भाई साहब एक मशहूर गज़ल गुनगुना रहे थे...मैंने भी सुबह में All India Radio से प्राप्त उस गज़ल से संबंधित ज्ञान का उपयोग करते हुए पूछ दिया है...भाई ये जो आप गा रहे हैं इसे तो गाया है ग़ुलाम अली साहब ने, लिखा कौन है? तड़ाक से जवाब आया है...'हसरत मोहानी'...भाई मोदी जी ने मुझे भी रेडियो सुनना सीखा दिया है...जवाब के साथ मिले एक और जवाब ने मुझे हतप्रभ कर दिया है...सच में एक बात तो है, मोदी जी सिर्फ सरकार ही नहीं चला रहे...
आज का दिन क्यों ख़ास है ? किस महान हस्ती ने आज जन्म लिया या कौन बिछड़ गए... ये हममे से बहुत लोग नहीं जानते होंगे लेकिन उस दिलवाले हेयर स्टाइल जूस वाले को सब पता था क्योंकि वह दिन में रेडियो सुने ना सुने सुबह 8 बजे के न्यूज़ के साथ उससे पहले का कार्यक्रम भी जरूर सुनता है जिसमे यह सब बताया जाता है...ख़ैर आज मशहूर शायर, स्वतंत्रता सेनानी और संविधान सभा के सदस्य रहे हसरत मोहानी की पुण्यतिथि है...और इन्ही की लेखनी से निकली वह मशहूर गजल जिसे जूस वाले भाई साहब गुनगुना रहे थे वह है...

'चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है...'

मंगलवार, 10 मई 2016

चलते चलते...यूं ही कोई मिल गया था...

'पेड़ को काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा।'

वर्तमान समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे को बहुत पहले शायरी में समेट कर जिस शायर ने समाज को सबक सिखाने का काम किया था उसकी मुहब्बत की पंक्तियाँ आज भी राह चलते लोगों को गुनगुनाते हुए सुनी जा सकती है...सामने वाले के चेहरे की बनावटी हंसी को देखकर आज भी अनायास ही यह गीत होठो पर आ जाता है कि
'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो...'

मिले या बिछड़े हुए, बिछड़ते बिछड़ते मिले हुए या मिलते मिलते बिछड़ चुके किसी हमसफ़र की याद इस 20वी सदी में भी 19वी सदी के इस गीत को ही अपना अपना गंतव्य बनाती है कि,
'चलते-चलते यूँ ही कोई मिल गया था,
सरे राह चलते-चलते...
वहीं थम के रह गई है, मेरी रात ढलते-ढलते...'

आज आजादी की पहली जंग की सालगिरह है...जी हाँ आज ही के दिन 1857 में फिरंगियों से भारत की आजादी की आवाज बुलंद हुई थी...जिसकी परिणति ने हमें स्वतंत्रता की आबो हवा में सांस लेने की सौगात दी...लेकिन जिन कुर्बानियों की बदौलत हमने स्वतंत्रता पाई उनके लिए नतमस्तक कर देता है उसी गीतकार का यह गीत जिसकी मैं बात कर रहा हूँ,
'कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...।'

जिस लिखनी से मातृभूमि के दीवानों का देशवासियों के लिए यह पैग़ाम निकला उसी लेखनी से उन दीवानों के दिल की आवाज भी निकली है जिनकी सार्थकता को आज भी लोग जीते हैं...
'कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों हैं?
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं?
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं?
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं?'

शायरी को दीवानों के दिल से निकला प्रश्न बनाने वाले इस शायर की इन पंक्तियों से भी आप शायद ही अनभिज्ञ होंगे कि,
'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं...।'

प्रवास हर समय में समाज की एक पीड़ा रही है...और शायर, कवि, गीतकार की तत्कालीन समय में सार्थकता यही है कि वह उस समय के दुःखों, तकलीफों को आवाज दे...दूर रहकर अपनी जमीन को याद करने वालों की ख्वाहिस ये पंक्तियाँ बखूबी समेटे हुए है कि,
'वो कभी धूप कभी छाँव लगे,
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे,
किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे।'

वक्त के हंसी सितम से खुद को और उनको बदलने के भाव को बयां करने वाले उस महान शायर को अब तक आप पहचान ही गए होंगे...फिर भी मैं बता देता हूँ...समाज, सियासत और मुहब्बत तीनों को अपनी लेखनी से बयां करने वाले मशहूर शायर 'कैफ़ी आज़मी' की आज पुण्यतिथि है। उसी कैफ़ी आज़मी की जिन्होंने हिंदी सीने जगत को 'शबाना आज़मी' जैसी अदाकारा दी...और जो अपनी ही इन पंक्तियों को चरितार्थ कर गए कि
'इंसाँ की ख़ाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद।'
आज ही के दिन यानी 10 मई को आज से 6 साल पहले यह मशहूर शायर, कवि, और गीतकार यह गुनगुनाते हुए हमसे रुखसत हो गया कि,
'ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं...'
लेकिन अब भी...
'जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं...।'

रविवार, 8 मई 2016

मां और मदर्स डे

‘...सुनो, मैं सोच रहा हूं कि इस मदर्स डे, मम्मी को अपने ही घर बुलाऊं और हम उन्हें एक कार सरप्राइज गिफ्ट में दें।’ भाई साहब के इतना कहते ही बगल की सीट पर बैठी महिला जो शायद उनकी पत्नी थीं, जोर से बोल पड़ीं, ‘अभी तो जनवरी में उनके जन्मदिन पर जंगपुरा जैसे इलाके में तुमने उन्हें फ्लैट गिफ्ट किया है...’
मैं बस इतना ही सुन सका क्योंकि मदर डेयरी की लाल बत्ती हरी हो गई और मझे अपनी बाइक आगे बढ़ानी पड़ी साथ ही वह गाड़ी भी धूल उड़ाती आगे बढ़ गई, जिसमे बैठे ‘बेटे-बहु’ की बातचीत उस आधुनिकता का चित्रण कर रही थी, जो भारतीय विरासत और संस्कृति के ऊपर बदनुमा दाग है। उन दोनों की बातचीत से ही स्पष्ट हो गया कि वह बेटा उसी शहर में रहकर भी अपनी मां से अलग रहता है। यहां यह बताना जरूरी है कि जिस कार में वे बैठे थे, उसकी पिछली सीट पर एक विशालकाय कुत्ता बैठा था, जिसकी गर्दन खिड़की से बाहर थी। मुझे नहीं पता कि कुत्ता पालना आधुनिकता का पैमाना है या वर्तमान की जरूरत, लेकिन यह तो सर्वविदित है कि कुपात्र और सुपात्र का पैमाना माता पिता के प्रति पुत्र का व्यवहार ही होता है। पूरी उम्र जो माता-पिता इस आस में गुजार देते हैं कि उम्र के अंतिम पड़ाव में उनकी संतान उनका सहारा बनेगी, वो संतान अगर उस समय अपनी तथाकथित आधुनिक जीवनशैली को माता-पिता की जरूरतों और ख्वाहिशों पर हावी कर दे, तो उस माता-पिता के दुःख का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने एकबार कहा था, ‘जब मैं पैदा हुआ, इस दुनिया में आया, वो एकमात्र दिन ऐसा था जब मैं रो रहा था और मेरी मां के चेहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी।’ बेटे का रुदन सुनकर कारण जान लेने वाली मां का दुःख एक बेटा क्यों नहीं जान पाता? पूरी जिन्दगी जिस मां के लिए उसका बेटा ही सब कुछ होता है, उस बेटे के लिए उसकी मां सब कुछ क्यों नहीं हो सकती? मुनव्वर राणा साहब का एक शेर है,    
‘उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है,  
कोई भी जहर को मीठा नहीं बताता है,  
कल अपने आप को देखा था मां की आंखों में,    
यह आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है...’  
यह बताने की बात नहीं कि मातृत्व की छांव बेटे के उम्र की मोहताज नहीं, पर आखिर क्यों इस तथाकथित आधुनिक समाज में बेटे और मां की बढ़ती उम्र इन दोनों के बीच दूरियों को जन्म दे रही है ? आखिर क्यों बच्चों में मातृत्व की चाहत उम्र के एक पड़ाव तक ही रह गई है? ऐसे तमाम सवाल हैं जो वर्तमान समाज के समक्ष सुरसा की भांति मुंह फैलाए खड़े हैं। अगर समय रहते इनका जवाब नहीं ढूंढा गया, तो परिवार-सभ्यता और मर्यादा के लिए जानी जाने वाली यह भारत भूमि आधुनिकता की रफ्तार में कहीं गुम हो जाएगी। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जिस देश में धरती, गाय और नदियों तक को हम मां कहते हैं, वहां अपनी मां का दर्द साझा करने के लिए हमारे पास समय नहीं है। भारत में दिन-ब-दिन बढ़ती वृद्धाश्रमों की संख्या यह बताने के लिए काफी है कि हमारा वर्तमान समाज किस दिशा में जा रहा है।
कुछ साल पहले की बात है, फ्रांस में बहुत गर्मी पड़ी तो वहां के कई बुजुर्ग अपने घरों में मृत पाए गए थे, क्योंकि वहां उनकी देख-रेख करने वाला कोई नहीं था। हमारा वर्तमान भी इस दिशा में बढ़ रहा है और वैश्वीकरण के रास्ते दुनिया की यह हकीकत भारतीय संस्कृति में घुसपैठ करने को तैयार है। जरूरत है अपनी विरासत और मां की अहमियत को समझने की। सिर्फ सोशल साइट्स पर ‘सुपर मॉम’ वाला मैसेज चस्पा कर देने से हम बेटा-बेटी होने का फर्ज अदा नहीं कर सकते हैं। सिर्फ एक दिन मां की पसंद की साड़ी उन्हें पहना कर या उनकी पसंद का खाना खिलाकर हम उन तमाम दिनों की असलियत पर पर्दा नहीं डाल सकते हैं जब मां हमारे साथ रहते हुए भी हमसे दूर रहती है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हम उस भारत भूमि पर निवास करते हैं, जहां चंगेज खान जैसे खूनी शासक के दरबार में अपने बेटे को खोजती हुई पहुंची एक मां, उससे सीधे सवाल करती है, ‘तेरी फौज में मेरा बेटा काम करता था, मैं उसे लेनी आई हूं... चंगेज खान हैरानी से उस मां से प्रश्न करता है कि मां तू आई कैसे ? रास्ते में पर्वत और समुन्द्र पड़े होंगे तूने उसे पार कैसे किया ? तो उस मां का जवाब होता है, मैंने समुद्र और पर्वत से यह कहकर रास्ता मांगी कि मैं मां हूं, मुझे रास्ता दो और उन्होंने मुझे रास्ता दे दिया।’
अभी व्हाट्सएप पर एक मैसेज खूब फॉरवार्ड किया जा रहा है। जिसमे यह बताया गया है कि, ‘एक बेटा अपनी पत्नी और बेटे के साथ घर से बाहर निकलते हुए अपनी मां से कहता है, मां पास के मंदिर में भंडारा है आप वहां जा कर खाना खा लेना, हम बाहर से खा कर आएंगे। तभी उनका छोटा बेटा अपनी मां से कहता है, मां मैं बड़ा होकर घर के पास एक मंदिर बनवाऊंगा, ताकि जब मैं अपनी पत्नी के साथ बाहर जाऊं तो आपको और पापा को खाना खाने में परेशानी नहीं हो।’ एक छोटा सा यह मैसेज वर्तमान और भविष्य की दिशा-दशा बताने के लिए काफी है। हमारा आज का कर्म ही कल की बुनियाद बनता है। आज अपने बच्चों के सामने बुजुर्गों के लिए किया जाने वाला सलूक ही कल हमारे और हमारे बच्चों के बीच के संबंधों का आधार बनेगा। क्षणिक आकर्षण और सर्वार्थसिद्धि के आगे मां के प्यार और उसकी अहमियत को नजरअंदाज करने वालों को हम जैसे मातृत्व सुख से महरूम लोगों के दर्द से जरूर सीख लेनी चाहिए, जिनका दुर्भाग्य मुनव्वर राणा की इन पंक्तियों की ख्वाहिश को भी जीने की इजाजत नहीं देता...
‘जी चाहता है कि मैं फिर से खिलौना हो जाऊं,
मां से इस तरह से लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं...'

रविवार, 1 मई 2016

मज़बूरी का नाम मजदूरी...

'कुचल कुचल के न फ़ुटपाथ को चलो इतना
यहां पर रात को मज़दूर ख़्वाब देखते हैं...'

भले ही एक चाय बेचने वाले की सियासी संगत उसे सत्ता की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा दे, लेकिन अहमद सलमान के इस शेर की सार्थकता भारत और भारतीयता का दुर्भाग्य बनी रहेगी। मखमली चादर कभी भी एक मजदूर के ख्वाब का बिस्तर नहीं हो सकता... आज मजदूर दिवस है, मजदूरों की दीन-दशा पर आज फिर कशीदे गढ़े जाएंगे, जीडीपी में इनका योगदान ट्विटर पर ट्रेंड करेगा। प्रधानमंत्री जी ने तो ट्वीट भी कर दिया है। लेकिन ये नहीं बता सके कि भूख के कारण जिनका पेट और पीठ एक हो चुका है, उनके लिए मनरेगा की मजदूरी में एक रुपए की बढ़ोतरी से कैसे अच्छे दिन लाए जा सकते हैं...
दिल्ली आया तो पहली बार देखा कि एक माँ सिर्फ भरपेट भोजन के लिए पेट पर अपने बच्चे और पीठ पर इंट या बालू लादे हुए कई मंजिल चढ़ती है। मजदूरी तो पहले भी मैं देखा था लेकिन मजबूरी की आग में एक माँ को मजदूर बनते दिल्ली ने ही दिखाया। ऐसा नहीं कि इतनी मेहनत के बाद भी इन्हें इनका वाजिब हक मिल पा रहा है। तमाम कागजी कानूनों के इस दौर में भी ये धन्ना सेठों के रहमोकरम पर 'पल' रहे हैं। रात 8 बजे के बाद आपको किसी भी महानगर या बड़े शहर के शोर से बेफिक्र फुटपाथों पर सैकड़ों की संख्या में एक साथ सोए हुए लोग दिख जाएंगे जो केवल पैसों के किए अपना आशियाना छोड़कर घर से सैकड़ों किमी दूर खुले आसमान के नीचे सोने को मजबूर हैं। यह वह दुःख है जिसे वो नहीं जान सकता जो एसी कमरों और महंगी गाड़ियों में बैठ कर रोजमर्रा की जरुरतो से मरहूम अपनी जन्मस्थली को भूल जाता है, लेकिन वो जान सकता है जो सैकड़ो किलोमीटर दूर अपने परिवार की खुशी के लिए किसी और की सौ मंजिला इमारत को अंतिम रूप देने में अपनी हड्डियाँ गला रहा है। हर राज्य की नई सरकार इस वादे के साथ सता पर काबिज होती है कि वे प्रवास रोकेंगे। लेकिन बिहार, झारखंड, यूपी, कश्मीर, आसाम और अन्य कई राज्यों से महानगरों की ओर जाने वाली ट्रेनों की भारी भीड़ हर दिन उन हुक्मरानों से सवाल करती दिखती है जो आजादी के लगभग 7 दशक बाद भी भारत को इस तरह नहीं बना सकें जहाँ एक आदमी अपनी जन्मस्थली पर ही अपने परिवार के साथ पूरी जिन्दगी बसर कर सके। आखिर कब तक प्रवासी मजदूर अपने परिवार से दूर दिल्ली के कापसहेड़ा, मुम्बई के धारावी और कोलकाता के स्लम एरिया में अभावग्रस्त जिन्दगी जीने को मजबूर रहेंगे? ‘गरीब-किसान-मजदूर’ ये तीन शब्द हैं जो सियासत की शब्दावली में सबसे पहले आते हैं लेकिन अफ़सोस कि सत्ता आज तक इन्हें इनका वाजिब हक़ नहीं दे सकी और ये आज भी उसी जगह पर खड़े हैं जहाँ 7 दशक साल पहले एक बूढ़ा फ़कीर इन्हें छोड़कर गया था। आंकड़ो की ओट में सियासी बिसात बिछाने वाले आखिर यह कब समझेंगे कि मजदूर के शरीर में केवल वोटिंग मशीन पर बटन दबाने वाला अंगूठा ही नहीं वरन वह पूरा शरीर भी है जिससे निकला पसीना जीडीपी की बुनियाद खड़ी खड़ी करता है। किसी ने सच ही कहा है,
'दुनिया बदली
सत्ता बदली
बदले गांव जवार
पर मजदूर का हाल न बदला
आई गई सरकार...।'