गुरुवार, 26 मई 2016

जनतंत्र की सार्थकता और मोदी के दो साल


अभिज्ञान शाकुंतलम में एक जगह जिक्र आता है कि ‘माता गौतमी गर्भवती शकुन्तला को लेकर रात के तीसरे पहर वन के अपने आश्रम से नगर में राजा दुष्यंत के महल  के बाहर पहुँचती है और बाहर खड़े दरबान से पूछती है कि क्या राजा का महल यही है? दरबान के हाँ के बाद जब माता गौतमी कहती हैं कि क्या मैं राजा से मिल सकती हूँ तो दरबान का जवाब आता है, अविश्रमोयम लोकतंत्रस्य सर्वाधिकारः’ अर्थात यह आप का नियमित लोकतान्त्रिक अधिकार है। 
भारत को लोकतंत्र की जननी यूँ ही नहीं कहा जाता है। उस प्राचीन काल में भी हमारे यहाँ जनता को यह अधिकार प्राप्त था कि वह अपने राजा, अपनी सरकार के मुखिया से आधी रात को भी मिल सकती है। राम राज के बाद अकबर का शासन इसलिए याद किया जाता है कि वो भेष बदल कर जनता का हाल जानने निकल पड़ता था और यथासंभव समाधान करता था। 1947 के बाद हमें आजादी तो मिली...सरकारों ने खरबों रूपए जनहित के नाम पर जारी भी किए पर अफ़सोस कि पैसा लाभुकों तक नहीं पहुँच सका...कारण सिर्फ एक ही है...और वो यह कि हमारी व्यवस्था, हमारी सरकार आजाद भारत में वह लोकतंत्र कायम करने में असफल रही या जानबूझकर नहीं कर सकी जिसका जिक्र कालिदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में किया है।
अंध भक्ति और अंध विरोध की चाहरदीवारी से बाहर निकल कर देखें तो वर्तमान सरकार में तकनीक के साथ नियत की जुगलबंदी कुछ हद तक उस प्राचीन काल के लोकतंत्र के अनुरूप सरकार और व्यवस्था से संवाद का मौका मुहैया कराने में सफल होती प्रतीत हो रही है। आज सुदूर गाँव में बैठा आदमी भी अपनी बात रायसीना की पहाड़ियों तक पहुंचा सकता है...और सिर्फ पहुंचा ही नहीं सकता...पल पल यह भी जान सकता है कि अपनी परेशानी दूर करने की जो अर्जी उसने अपने रहनुमाओं तक भेजी है वो अभी किस विभाग में विचाराधीन है या कब तक यथा स्थान पहुंचेगी। आज जिस तकनीक के सहारे वर्तमान प्रधानमंत्री खुद तक जनता की जिज्ञासा या समस्याओं को आमंत्रित करते हैं, भारत में उस तकनीक का आगमन तो बहुत पहले हो चुका था लेकिन किसी ने उसका इतना समुचित उपयोग किया क्यों नहीं? उत्तर एक ही है, करना नहीं चाहते थे। सरकार की तरफ से जनता से संवाद की कोशिश शानदार है और इसका फायदा भी होता दिख रहा है। इतना तो तय ही है कि आज का प्रधानमंत्री उस सियासी या स्वार्थसिद्धि की मज़बूरी में नहीं घिरा है कि उसे कहना पड़े कि मैं 1 रुपया भेजता हूँ तो लाभुक तक 20 पैसा पहुंचता है। आज तो सभी सरकारी महकमों के बाबुओं की यह मज़बूरी है कि वे ‘ना खाउंगा ना खाने दूंगा’ की सत्यता का सहभागी बने। काश यह मज़बूरी पिछली सरकारों में भी दखने को मिली होती, तो देश की दशा और दिशा वर्तमान से बेहतर जरुर होती। विज्ञापन शुरू से ही इस बदनामी के शिकार है कि वे झूठ का पुलिंदा होते हैं लेकिन जिन विज्ञापनों के माध्यम से वर्तमान सरकार अपनी कामयाबी की कहानी को हम तक पहुंचा रही है उसकी सत्यता की परख करते हुए हम-आप यह जानकार सतुष्ट हो सकते हैं कि इसका वास्ता कहीं ना कहीं जमीनी हकीकत से जरुर है। कल तक जो मजदूर फटी धोती में सिक्के संभाल कर रखता था वह भी आज एटीएम कार्ड धारक है। हम गाँव वाले जानते हैं कि गैस सब्सिडी के सीधे खाते में पहुँचने से गैस एजेंसी वालों की मनमानी से किस स्तर तक निजात मिली है। मोदी सरकार के दो साल की सफलता या विफलता को आप चाहे जिन मानकों या आंकड़ों की नजर से आंके लेकिन मेरी नजर में तो यह सरकार जनतंत्र की कसौटी पर उसी समय खरी उतर गई जब मैंने अपने गाँव में एक लड़के को यह कहते कि ‘टूटलका पुलवा के फोटो खीच के मोदी जी के वेबसाईट पर अपलोड करे के पड़ी...’ और चलती ट्रेने में ट्रेन की कुव्यवस्था देखकर एक सहयात्री को यह कहते कि ‘ट्विट कर प्रभु जी के’ सुना। आशा और आश्वासन में बहुत अंतर होता है। विश्वास केवल आंकड़ो से नहीं कामों से बनता है... ।    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें