रविवार, 8 मई 2016

मां और मदर्स डे

‘...सुनो, मैं सोच रहा हूं कि इस मदर्स डे, मम्मी को अपने ही घर बुलाऊं और हम उन्हें एक कार सरप्राइज गिफ्ट में दें।’ भाई साहब के इतना कहते ही बगल की सीट पर बैठी महिला जो शायद उनकी पत्नी थीं, जोर से बोल पड़ीं, ‘अभी तो जनवरी में उनके जन्मदिन पर जंगपुरा जैसे इलाके में तुमने उन्हें फ्लैट गिफ्ट किया है...’
मैं बस इतना ही सुन सका क्योंकि मदर डेयरी की लाल बत्ती हरी हो गई और मझे अपनी बाइक आगे बढ़ानी पड़ी साथ ही वह गाड़ी भी धूल उड़ाती आगे बढ़ गई, जिसमे बैठे ‘बेटे-बहु’ की बातचीत उस आधुनिकता का चित्रण कर रही थी, जो भारतीय विरासत और संस्कृति के ऊपर बदनुमा दाग है। उन दोनों की बातचीत से ही स्पष्ट हो गया कि वह बेटा उसी शहर में रहकर भी अपनी मां से अलग रहता है। यहां यह बताना जरूरी है कि जिस कार में वे बैठे थे, उसकी पिछली सीट पर एक विशालकाय कुत्ता बैठा था, जिसकी गर्दन खिड़की से बाहर थी। मुझे नहीं पता कि कुत्ता पालना आधुनिकता का पैमाना है या वर्तमान की जरूरत, लेकिन यह तो सर्वविदित है कि कुपात्र और सुपात्र का पैमाना माता पिता के प्रति पुत्र का व्यवहार ही होता है। पूरी उम्र जो माता-पिता इस आस में गुजार देते हैं कि उम्र के अंतिम पड़ाव में उनकी संतान उनका सहारा बनेगी, वो संतान अगर उस समय अपनी तथाकथित आधुनिक जीवनशैली को माता-पिता की जरूरतों और ख्वाहिशों पर हावी कर दे, तो उस माता-पिता के दुःख का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने एकबार कहा था, ‘जब मैं पैदा हुआ, इस दुनिया में आया, वो एकमात्र दिन ऐसा था जब मैं रो रहा था और मेरी मां के चेहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान थी।’ बेटे का रुदन सुनकर कारण जान लेने वाली मां का दुःख एक बेटा क्यों नहीं जान पाता? पूरी जिन्दगी जिस मां के लिए उसका बेटा ही सब कुछ होता है, उस बेटे के लिए उसकी मां सब कुछ क्यों नहीं हो सकती? मुनव्वर राणा साहब का एक शेर है,    
‘उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है,  
कोई भी जहर को मीठा नहीं बताता है,  
कल अपने आप को देखा था मां की आंखों में,    
यह आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है...’  
यह बताने की बात नहीं कि मातृत्व की छांव बेटे के उम्र की मोहताज नहीं, पर आखिर क्यों इस तथाकथित आधुनिक समाज में बेटे और मां की बढ़ती उम्र इन दोनों के बीच दूरियों को जन्म दे रही है ? आखिर क्यों बच्चों में मातृत्व की चाहत उम्र के एक पड़ाव तक ही रह गई है? ऐसे तमाम सवाल हैं जो वर्तमान समाज के समक्ष सुरसा की भांति मुंह फैलाए खड़े हैं। अगर समय रहते इनका जवाब नहीं ढूंढा गया, तो परिवार-सभ्यता और मर्यादा के लिए जानी जाने वाली यह भारत भूमि आधुनिकता की रफ्तार में कहीं गुम हो जाएगी। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जिस देश में धरती, गाय और नदियों तक को हम मां कहते हैं, वहां अपनी मां का दर्द साझा करने के लिए हमारे पास समय नहीं है। भारत में दिन-ब-दिन बढ़ती वृद्धाश्रमों की संख्या यह बताने के लिए काफी है कि हमारा वर्तमान समाज किस दिशा में जा रहा है।
कुछ साल पहले की बात है, फ्रांस में बहुत गर्मी पड़ी तो वहां के कई बुजुर्ग अपने घरों में मृत पाए गए थे, क्योंकि वहां उनकी देख-रेख करने वाला कोई नहीं था। हमारा वर्तमान भी इस दिशा में बढ़ रहा है और वैश्वीकरण के रास्ते दुनिया की यह हकीकत भारतीय संस्कृति में घुसपैठ करने को तैयार है। जरूरत है अपनी विरासत और मां की अहमियत को समझने की। सिर्फ सोशल साइट्स पर ‘सुपर मॉम’ वाला मैसेज चस्पा कर देने से हम बेटा-बेटी होने का फर्ज अदा नहीं कर सकते हैं। सिर्फ एक दिन मां की पसंद की साड़ी उन्हें पहना कर या उनकी पसंद का खाना खिलाकर हम उन तमाम दिनों की असलियत पर पर्दा नहीं डाल सकते हैं जब मां हमारे साथ रहते हुए भी हमसे दूर रहती है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हम उस भारत भूमि पर निवास करते हैं, जहां चंगेज खान जैसे खूनी शासक के दरबार में अपने बेटे को खोजती हुई पहुंची एक मां, उससे सीधे सवाल करती है, ‘तेरी फौज में मेरा बेटा काम करता था, मैं उसे लेनी आई हूं... चंगेज खान हैरानी से उस मां से प्रश्न करता है कि मां तू आई कैसे ? रास्ते में पर्वत और समुन्द्र पड़े होंगे तूने उसे पार कैसे किया ? तो उस मां का जवाब होता है, मैंने समुद्र और पर्वत से यह कहकर रास्ता मांगी कि मैं मां हूं, मुझे रास्ता दो और उन्होंने मुझे रास्ता दे दिया।’
अभी व्हाट्सएप पर एक मैसेज खूब फॉरवार्ड किया जा रहा है। जिसमे यह बताया गया है कि, ‘एक बेटा अपनी पत्नी और बेटे के साथ घर से बाहर निकलते हुए अपनी मां से कहता है, मां पास के मंदिर में भंडारा है आप वहां जा कर खाना खा लेना, हम बाहर से खा कर आएंगे। तभी उनका छोटा बेटा अपनी मां से कहता है, मां मैं बड़ा होकर घर के पास एक मंदिर बनवाऊंगा, ताकि जब मैं अपनी पत्नी के साथ बाहर जाऊं तो आपको और पापा को खाना खाने में परेशानी नहीं हो।’ एक छोटा सा यह मैसेज वर्तमान और भविष्य की दिशा-दशा बताने के लिए काफी है। हमारा आज का कर्म ही कल की बुनियाद बनता है। आज अपने बच्चों के सामने बुजुर्गों के लिए किया जाने वाला सलूक ही कल हमारे और हमारे बच्चों के बीच के संबंधों का आधार बनेगा। क्षणिक आकर्षण और सर्वार्थसिद्धि के आगे मां के प्यार और उसकी अहमियत को नजरअंदाज करने वालों को हम जैसे मातृत्व सुख से महरूम लोगों के दर्द से जरूर सीख लेनी चाहिए, जिनका दुर्भाग्य मुनव्वर राणा की इन पंक्तियों की ख्वाहिश को भी जीने की इजाजत नहीं देता...
‘जी चाहता है कि मैं फिर से खिलौना हो जाऊं,
मां से इस तरह से लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं...'

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