शनिवार, 21 मई 2016

लोग बिहार को कान से देखते हैं आँख से नहीं

दिल्ली में बढ़ते अपराध की घटनाओं पर दिल्ली उच्च न्यायालय की टिपण्णी कि 'दिल्ली में जंगलराज है' को सुनकर नितिन चंद्रा जी की फिल्म 'वन्स अपॉन अ टाइम इन बिहार' का यह डायलॉग याद आ गया कि 'लोग बिहार को कान से देखते हैं आँख से नहीं।'...बिहार को सच में लोग 'कान' से ही देखते हैं, जिन्होंने कभी बिहार के लोगों का आथित्य नहीं देखा वे बिहार से बाहर बैठे बोलते हैं बिहार में जंगलराज है, जिन राज्यों की जीडीपी का आधार बिहारी पसीना है वहां के लोग कहते हैं बिहार में जंगलराज है, जिनकी सुख समृद्धि का राज बिहारी कौशल है उन्हें बिहार में जंगलराज दिखाई देता है, वाह रे नज़र... वाह रे नजरिया...कभी किसी सियासी शख्स ने अपनी सियासत चमकाने के लिए 'जंगलराज' की जुमलेबाजी कर दी और हम बिहारी भी कूद पड़े बिहार की पहचान को 'जंगलराज' से जोड़ने में...मैं दिल्ली में रहता हूँ हर दिन यहाँ के अखबारों में मर्डर, लूट, बलात्कार की ख़बरें होती है लेकिन मैंने तो किसी दिल्ली वाले को आज तक कहते नहीं सुना कि
'गोली मार दिया जाएगा कपार में,
मत निकालिएगा दिल्ली के बाजार में।'
अपराध अपराध होता है इसकी निंदा की जानी चाहिए। कानून का राज कायम करने में विफल सरकार से भी जवाब माँगा जाना चाहिए। लेकिन अपने ही राज्य को जंगलराज कहते हुए अपने और अपनों के बारे में कुछ तो विचार किया ही जाना चाहिए। आप बिहार में रहते हो तो आपको फर्क नहीं पड़ता होगा लेकिन किसी सुदूर शहर में दूसरे राज्य में रहने वाले बिहारी को अगर यह सुनना पड़े कि 'भाई जंगलराज का क्या हाल है?' तो कैसा महसूस होता होगा समझ सकते हैं। घर में तनाव का वातावरण हो या घर में झगड़ा हुआ हो तो घर के सदस्य घर के बाहर तख्ती पर यह लिखकर तो नहीं टांग देते न कि 'इस घर में जंगलराज है।' जितनी क्षमता से अब काफ़िया मिला मिला कर जंगलराज पर कविता लिखी जा रही है और जितनी मेहनत से उसे सोशल मीडिया पर फैलाया जा रहा है उतनी क्षमता और उतनी मेहनत अगर इसी माध्यम द्वारा सरकार और शासन पर दबाव बनाने में लगाई जाती तो बिहार का ज्यादा भला होता...
दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पराक्रम, कौशल और प्रतिभा के जाना जाने वाला राज्य आज जंगलराजके उपनाम से बदनाम हो रहा है। हालाँकि इस बदनामी के पीछे कोई गैर नहीं है...सियासी कुनबो में बंट चुका वर्तमान समाज समर्थकके आगे अपनी पहचान की तिलांजलि दे रहा है। राजनीतिक कूटनीति और चालबाजी की प्राथमिक समझ ना रखने वाला व्यक्ति भी आज हर सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रम को सियासी तराजू पर तौलने में लगा हुआ है...हाल के दिनों में यह प्रवृति ज्यादा देखने को मिल रही है जब कि किसी भी घटना के तुरंत बाद अलग अलग गुट अपने अपने सियासी शब्दकोष में उसके हितार्थ ढूंढने में लग जा रहे हैं। हर एक गंतव्य के लिए सियासी सड़क का सहारा ही समाज को विभेद और तनाव के रास्ते पर ले जा रहा है। मुनव्वर राणा साहब ने लिखा भी है,
तुम्हे अहले सियासत ने कहीं का नहीं छोड़ा,
हमारे साथ जो रहते सुखनवर हो गए होते।’




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