शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सम्बन्धों के लिए खतरा न बन जाए प्राइवेसी

शायद उनकी नई-नई शादी हुई थी, मैं जैसे ही उनके सामने के अपने बर्थ पर बैठा, दोनों के चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए। पता नहीं, वे निश्चिंतता के भाव थे या प्राइवेसी में खनन की खीज! वो मेरी पहली 2nd एसी की यात्रा थी, इसलिए फूल पैसा वसूल मूड में मैं तुरन्त ही पैर फैलाते हुए पर्दा खींचकर पसर गया। मगर उनकी प्राइवेसी में खलन डालने की मेरी स्वचिन्ता तुरन्त ही काफूर हो गई, जब उनके बीच ही प्राइवेसी दीवार बनकर खड़ी हो गई। दरअसल, कुछ देर बाद सामने पर्दे के पार से मोबाइल छीना-झपटी की आवाज आने लगी, शायद पत्नी, पति को अपना मोबाइल नहीं दिखाना चाहती थी। उसके बाद पति उठकर अपने ऊपर के बर्थ पर चला गया, फिर कुछ देर बाद नीचे आया और मानमनौव्वल हुई। उस पूरी यात्रा में जो मैं सुन सका था और जो लाइन मुझे याद रह गई, वो ये थी कि 'दो प्यार करने वालों के बीच प्राइवेसी जैसा कुछ नहीं होता और अगर होता है तो फिर वो प्यार नहीं होता...' मेरी एक दोस्त की प्रेम कहानी का भी इसीलिए जल्द अंत हो गया, क्योंकि उसका ब्वॉयफ्रेंड उसके सामने बैठकर भी कई बार किसी और से चैट करता रहता और उसका हाथ अपने मोबाइल तक पहुंचने भी नहीं देता। एकबार इसे लेकर ही झगड़ा हुआ और उसने अपनी प्राइवेसी की कीमत पर प्यार को ठोकर मार दी।
इस यात्रा वृतांत और इस अधूरी प्रेम कहानी की जरूरत इसलिए महसूस हुई, क्योंकि आज एकबार फिर एक ऐसी ही घटना से सामना हुआ। प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के बीच प्राइवेसी एक मुद्दा हो सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि अभिभावक और बच्चों के बीच ऐसा कुछ होना चाहिए। वो बच्चा जो अभी कॉलेज का मुंह नहीं देखा, उसकी जिंदगी में भी प्राइवेसी जैसे शब्द की अहमियत हो सकती है, यह आज पता चला। अव्वल तो यह कि किशोरावस्था की दहलीज को मोबाइली दानव से दूर, बहुत दूर होना चाहिए लेकिन अगर इसकी दस्तक हो भी गई, तो फिर अभिभावकों का मित्रवत पहरा जरूरी है। पढ़ाई के नाम पर अभिभावक से 10 हजार का मोबाइल खरीदवाने वाला बच्चा उस मोबाइल से पढ़ाई के अलावा हर काम कर रहा है और शायद इसीलिए उसके अभिभावक को उस मोबाइल का पैटर्न लॉक भी नहीं पता। बच्चों के लिहाज से यह समस्या विकराल है, लेकिन आम बात करें तो भी मोबाइल प्राइवेसी सम्बन्धों में दरार का एक बड़ा कारण बनती है। आज स्थिति यह है कि आप किसी का बैंक एकाउंट चेक कर सकते हैं, लेकिन उसके मोबाइल को हाथ नहीं लगा सकते।  
गौर करने वाली बात यह है कि इस प्राइवेसी युद्ध में दोनों तरफ ऐसे लोग हैं, जिनका दरअसल कोई भी काम पर्दे में है ही नहीं। इनमें वे सभी शामिल हैं, जिनका फेसबुक डेटा लीक हो चुका है। इनमें से ज्यादातर वे हैं, जो चाइनीज मोबाइल इस्तेमाल करते हैं और उनके फोन की हर गतिविधि पर कोई तीसरी आंख पहरा दे रही है। इनमें से लगभग सभी लोग, कोई भी एप्लिकेशन इंस्टॉल करते समय बिना जाने-पढ़े उसके हर टर्म-कंडीशन को एसेप्ट करते जाते हैं और उस एप्लिकेशन वालों को अपने कॉन्टैक्ट से लेकर, व्हाट्सएप और कैमरा तक का कमांड दे देते हैं। इनमें से ज्यादातर वे हैं, जिनके मोबाइल में शेयर इट और ट्रू कॉलर जैसे एप्लीकेशन्स हैं, जो डाटा ट्रांसफर के लिए बदनाम हैं। ऐसे अनेकों माध्यम हैं, जिनके सहारे लोगों के मोबाइल की हर वो जानकारी दूसरे के पास जा रही है, जिसे वे अपने किसी खास से भी नहीं बांटना चाहते। 

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

सियासत सिनेमा नहीं है साहेब

लोगों की नज़र में सिनेमा की दुनिया हीरो से शुरू होकर हीरो पर ही खत्म हो जाती है। लोग जानते हुए भी नहीं समझना चाहते कि हीरो का हर अगला शब्द और एक्शन निर्देशक के आदेश पर निर्भर करता है। ठीक उसी तरह से, पत्रकारिता और खासकर टीवी पत्रकारिता का दायरा लोगों की नज़र में एंकरों की दुनिया से आगे नहीं बढ़ पाता। दुनिया नहीं जानती कि जिस एंकर को वह सर्वज्ञाता समझ रही है, उसका पूरा ज्ञान सामने के टेलीप्रॉम्प्टर पर होता है और उसका हर अगला वाक्य कान में लगे इयरफोन से आ रही आवाज़ पर निर्भर करता है। वह चाहे हीरो के लिए निर्देशक का आदेश हो, या एंकर के कान में लगे इयरफोन में चैनल के प्रोड्यूशर की आवाज़, दोनों का मूल उद्देश्य दर्शकों की पसंद पर निर्भर करता है। सियासत में ऐसा नहीं होता, लेकिन सिनेमाई अवतार के दीवाने भारतीय समाज को 2014 में एक ऐसा नेता मिला, जो हीरो भी था, एंकर भी और नेता तो था ही, जिसके सिनामाई डायलॉग सदृश सियासी नारों ने गत 10 साल तक मौन रही कांग्रेस का धमाकेदार विकल्प पेश किया। खुद को विकल्प से विजेता बनते देख इस नेता में सर्वशक्तिशाली बनने की चेष्टा हिलोरे लेने लगी और बस यही से सियासी नेता पर सिनेमाई हीरो और पत्रकारीय एंकर की छवि हावी होनी शुरू हुई। फिर तो दर्शकों की तालियों और वाहवाही के लिए कुछ भी बोलने को तैयार इस नेता ने वो भी बोला, जो उसके पद की गरिमा के गर्त से भी नीचे था। इस हीरोइक छवि में देश का पर्याय ढूंढ चुकी जनता ने बाकी उन सभी नेताओं को कूप मंडुप समझ लिया जो न हीरो थे न ही एंकर। इस देश को ऐसा नेता स्वीकार ही नहीं था, जो सोच-सोचकर बोले, जिसके पास लच्छेदार भाषा का अभाव हो, जो वाकपटु न हो। लेकिन कहते हैं न कि 'अति का भला न बरसना', हीरोइक छवि बनाए रखने की कोशिशें जब लक्ष्मण रेखा पार कीं और विरोधी को नीचा दिखाने के शाब्दिक वाण विधवा का मजाक बनाने से भी पीछे नहीं हटे, फिर जनता ने विकल्प तलाशना शुरू किया, जिसकी परिणति आज का परिणाम है। हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस का वनवास खत्म करने के बाद, आज प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी ने खुलकर कहा कि 'इस चुनाव में हमारी लड़ाई भले इनके साथ रही, लेकिन इन तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जनता के लिए जो काम किया, उसे हमारी सरकार आगे बढ़ाएगी।' आजादी के 7 दशक की प्रगति को ज़ीरो बताकर खुद को भाग्यविधाता साबित करने की हीरोगिरी वाली सियासत के इस दौर में पप्पू सिद्ध किए जा चुके नेता का यह ईमानदार बयान काबिल-ए-तारीफ तो है ही। काश साहेब यह समझ पाते कि सियासत सिनेमा नहीं है...