मंगलवार, 29 जनवरी 2019

एक 'अनथक विद्रोही' का अवसान

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
आंख हैरान है क्या शख्स जमाने से उठा

हालांकि उनकी शख्सियत को शख्स तक समेटना शायद शाब्दिक कंजूसी होगी, क्योंकि भारतीय राजनीति को अगर ईमानदार शब्दों में संजोया जाय, तो कलम को सर्वाधिक बार इसी नेता के नाम से होकर गुजरना होगा... अब यह सिर्फ इतिहास की बात है कि सिक्कों की खनक पर थिरककर लोहिया के विचारों को तिलांजलि देने वाले समाजवादियों के देश में एक ऐसा नेता भी हुआ, जिसने आईबीएम और कोकाकोला जैसी कम्पनियों को भारत से खदेड़कर उनका स्वदेशी विकल्प जनता के सामने परोसा... यह भी अब सिर्फ इतिहास है कि लटियन दिल्ली वाले आलीशान बंगले के शानदार एसी कमरे से एसी गाड़ी में निकलते हुए रायसीना की पहाड़ियों पर बनी अद्भुत इमारत के वैभवपूर्ण ऑफिस तक जाकर कागजों पर दस्तखत कर देने भर को एक मंत्री के कार्यों का निर्वहन समझने वाले नेताओं के देश में एक ऐसा मंत्री भी हुआ, जिसने रक्षा मंत्री के रूप में सेना के जवानों लिए सर्वाधिक दुर्गम माने जाने वाले सियाचिन का 24 बार दौरा किया और इतिहास यह भी याद रखेगा कि इसी सेनापति के नेतृत्व में कारगिल की चोटियों पर भारतीय जवानों ने पाकिस्तान पर फतह पाई... एसी कमरों की ऐश-ओ-आराम वाली जिंदगी के चंद पलों में दलितों-शोषितों के साथ खड़े होने को कम्युनिज्म बताने वालों के देश में इतिहास ने शायद ही दोबारा ऐसा 'कम्युनिस्ट' देखा, जिसने मजदूरों के लिए सड़कों पर नारे भी लगाए, जिसका अभिवादन लाल सलाम से होता था, जिसके घर की दीवार पर हिरोशिमा में परमाणु बम की विभीषिका की तस्वीरें टंगी थीं, लेकिन बावजूद इसके, देशहित में किए गए परमाणु परीक्षण स्थल पर वो सिर पर लाल साफा बांधे खड़ा था... हालांकि उनके इस कदम को कई बार सियासी नजरिए से गलत करार दिया जाता है, लेकिन सियासी स्वार्थसिद्धि के आगे दोस्ती और रिश्तों को तिलांजलि देने वालों की राजनीतिक जमात में कितने ऐसे नेता हुए जो दोस्ती की लाज रखने के लिए उस सरकार को ही समर्थन ना करने पर मजबूर हुए, जिसे बनाए रखने के लिए एक दिन पहले ही उन्होंने सदन में ऐतिहासिक भाषण दिया था... कहते हैं कि 'काजल की कोठरी में कैसे भी सयाने जाए, एक लीक काजल की लागि है पै लागि है', तो उनपर भी लगी, लेकिन सूचित वाली सियासत की इस शिखर शख्सियत पर कोई आरोप टिक नहीं पाए... सियासी सफर के अंतिम दिनों में इन्हें इन पंक्तियों के दुर्भाग्य से रूबरू होना पड़ा कि 'जो घर मैंने बनाकर दिया था, उस घर से निकाला गया हूं', लेकिन जिसके रग-रग, नस-नस में देश रचा-बसा हो, उसे निकाल कौन सकता है, वो चाहे सियासत हो या जम्हूरियत का जहन... जॉर्ज फर्नांडिस दैहिक रूप से भले ही अब हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन वे अपने सद्कर्मों में सदा अमर रहेंगे...