शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

सियासत की 'अटल' शक्सियत को शत-शत नमन...

कश्मीर से जुड़े हर स्थानीय नेता कश्मीर समस्या के लिए हिंदुस्तानी नेता और नीति को जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन समाधान के लिए ईमानदार प्रयास का जब भी जिक्र आता है, तो उनके होठों पर सिर्फ एक नाम होता है और वह है, 'अटल बिहारी वाजपेयी।' मैं ऐसे बहुत से 'हार्डकोर' भाजपाइयों को जानता हूँ, जो एक प्रधानमन्त्री के रूप से अटल जी को पसंद नहीं करते, और ऐसे कई बड़े नेताओं को भी जानता हूँ जो धुर विरोधी हो कर भी अटल जी की सियासी सोच के कायल हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि अटल जी ने कभी विचारधारा को थोपने वाली सियासत नहीं की, हां वे एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। वे चाहते थे कि अयोध्या में राम मंदिर बने लेकिन वह ये भी चाहते थे कि कश्मीर सुलझाने के लिए कश्मीरियों से बात की जाय। भारत ही नहीं दुनिया की सियासत ने दुबारा किसी 'अटल' शख्सियत को नहीं देखा क्योंकि कोई और नेता इन पंक्तियों को जी ही नहीं पाया कि

'टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते,
सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है,
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते,
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते...।'

भारतीय सियासत का यह शिखर पुरुष आज सक्रिय राजनीति से दूर है, लेकिन अपने सुकर्मों द्वारा इन्होंने राजनीति को जो दिशा दिखाई वह युग-युगांतर तक इस महान नेता की गाथा गाते रहेंगे। आज जब सियासी सफर के हर कदम में करोड़ो-अरबो लुटाए जा रहे हैं इस समय सियासत के उस पितामह की याद आती है, जिन्होंने भरे संसद में कहा था,
'ऐसी सरकार जो सांसदों के खरीदने से बनती हो मैं इसे चिमटे से छूने से अस्वीकार करता हूँ।' वर्तमान सियासत में जबकि विरोध का स्तर ज़ुबानी नीचता की परकाष्ठा पार कर रहा है, हमारे नेताओं को अटल जी के उस व्यक्तित्व से सीख लेने की जरूरत है जिसके कारण विपक्षी दल के प्रधानमंत्री 'नरसिम्हा राव' ने इन्हें सरकार का नुमाइंदा बना कर पाकिस्तान भेजा था। आज के नेताओं को, विरोधी की नजर में भी अपनत्व की उस अटल छवि से सीखने की जरूरत है जिसके कारण निवर्तमान प्रधानमंत्री 'राजीव गांधी' ने अटल जी के मना करने के बावजूद उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल के साथ जाने के बहाने इसलिए अमेरिका भेजा था ताकि वे वहां अपने घुटने का इलाज करा सकें क्योंकि अटल जी की खुद की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं थी कि वे अपने खर्च से अमेरिका जाकर इलाज कराएं। आज के दौर में बनने से पहले टूटने वाले गठबंधन के सूत्रधार नेताओं को तो यह पता ही होगा कि वह 'अटल क्षमता' ही थी जिसकी बदौलत भारतीय राजनीति ने 24 दलों के गठबंधन की सफल सरकार देखी थी। कितना अच्छा होता कि हमारे नेता अटल जी की स्वच्छ छवि वाली विरासत को आगे बढ़ाते और उनकी इन पंक्तियों को सार्थक करते कि,

'आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ,
आओ फिर से दिया जलाएँ...।'

वह अटल जी ही थे जिन्होंने संसद के भीतर विदेश निति पर हो रही चर्चा में अपनी बात से तत्कालीन प्रधानमंत्री 'नेहरू' जी को प्रभावित कर दिया था और नेहरू जी ने अटल जी की प्रशंसा करते हुए कहा था, 'आप एक दिन जरूर देश का प्रतिनिधित्व करेंगे।' वह अटल जी ही थे जिन्होंने पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब दिया और समय पर समझाया भी कि,

'ओ नादान पड़ोसी अपनी आँखें खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।'

वर्तमान राजनीति के खराब चरित्र का एक कारण यह भी है कि इसके पास अब कोई 'अटल शख्सियत की छवि' नहीं है। काश कोई चमत्कार होता और अटल जी की ओजस्वी वाणी संसद में सुनाई देती...काश...!

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

बाजीराव मस्तानी: मुहब्बत और नफरत की अंतहीन दास्तां...

'आंधी रोके तो हम तूफ़ान, तूफ़ान रोके तो हम आग का दरिया' या 'चीते की चाल, बाज की नजर और बाजीराव जी तलवार पर संदेह नहीं करते' जैसी बातों को अपने पराक्रम से चरितार्थ करने वाला वीर योद्धा अगर किसी की जुदाई में दीदार को तड़प कर दम तोड़ दे तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि,
'बाजीराव ने मस्तानी से मुहब्बत की थी ऐयासी नहीं।' जब पहली बार इस फ़िल्म के बारे में सुना तो गूगल बाबा के माध्यम से बस इतना ही जान पाया कि पेशवा बाजीराव महान पराक्रमी योद्धा था। लेकिन बाजीराव की कहानी को 'संजय लीला भंसाली' ने जिस तरह से परदे पर जिवंत किया है वह काबिले तारीफ है। मुहब्बत की कहानी को परदे पर 'बाजार' बना कर परोसने के इस दौर में भंसाली साहब ने जिस तरह से 'बाजीराव मस्तानी' की जिंदगी के हर पहलू को प्रमाणिकता के साथ पेश किया है उसका जवाब नहीं...
'हर युद्ध का नतीजा तलवार से नहीं होता। तलवार से ज्यादा धार, चलाने वाले की सोच में होनी चाहिए' एक योद्धा के रूप में यह बोलते हुए 'रणवीर सिंह' हो या 'तुझे याद कर लिया है आयत की तरह, हम तेरा जिक्र हो गए इबादत की तरह' को अपने अभिनय क्षमता से शब्दों से उतारकर सार्थक बना देने वाली 'दीपिका पादुकोण' या एक पतिव्रता पत्नी की भूमिका में 'प्रियंका चोपड़ा' जो गुरुर की बात आने पर कहने से भी नहीं डरती कि 'आप हमसे हमारी जिंदगी मांग लेते तो हम ख़ुशी ख़ुशी दे देते पर आपने तो हमसे हमारा गुरुर छीन लिया', सबने अपनी संजीदा अभिनय कौशल से भंसाली जी का साथ दिया है एक ऐतिहासिक कहानी को परदे पर ऐतिहासिक बनाने में।
'ये सच है कि हर धर्म ने एक रंग को चुन लिया है पर रंग का तो कोई धर्म नहीं होता, हाँ कभी-कभी इंसान का मन काला जरूर हो जाता है जो उसे रंग में भी धर्म दिखाई देता है'
मस्तानी की यह बात वर्तमान परिपेक्ष्य में हमारे समाज के लिए सबसे बड़ी सीख है। सीख तो और भी कई देती है यह फ़िल्म जैसे, 'जड़ पे वार करो तो बड़े से बड़ा पेड़ भी गिर जाता है' या 'जब दीवारों से ज्यादा दुरी दिलों में हो जाय तो छत नहीं टिकती या 'जंगल में शेरनी जब बच्चे को जन्म देती है तो वहां कोई दाईमा नहीं होती है' या 'वो वीर ही क्या जिसके सामने श्रृंगार अपनी पलकें ना झुका दे।'

'किसकी तलवार पर सर रखूं ये बता दो मुझे,
इश्क करना अगर खता है तो सजा दो मुझे
ऐ मुहब्बत के इतिहास लिखने वालो
मैं अगर हर्फ़े गलत हूँ तो फिर मिटा दो मुझे।'
नफरत से घिरी नजरों के बीच भी मस्तानी ने बाजीराव के साथ मुहब्बत की जो मिशाल पेश की है वह बाजीराव के इन शब्दों को अमर रखेगी कि, 'दुनिया हम दोनों को हमेशा एक ही नाम से याद रखेगी, बाजीराव-मस्तानी।'

'इश्क, जो तूफानी दरिया से बगावत कर जाए वो इश्क
जो महबूब को देखे तो खुदा को भूल जाए वो इश्क।'
इन शब्दों से सही अर्थों में साक्षात्कार कराने वाली यह फ़िल्म कभी ज़ेहन से नहीं उतरेगी। ऐसी फ़िल्में बनती रहनी चाहिए...उन्ही शब्दों के साथ मैं भी अंत करूँगा जिसके साथ यह फ़िल्म ख़त्म होती है...

'उस दिन अपनी बेरहमी पर सबसे ज्यादा वक्त रोया था,
मुहब्बत के आसमान ने अपने दो सितारों को जो खोया था।
कहते हैं टूटे हुए सितारों को देख लो तो तमन्नाएँ पूरी हो जाती हैं।
ये दो सितारें खुद अपनी तमन्ना के लिए टूटे थे।

‘बे-कार दिल्ली’ से दूर होगा ‘गैस चेम्बर’ का कलंक !

‘जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे,
रोज मरते रहे, मर कर जीते रहे…।’

दिल्ली में दिन-ब-दिन जानलेवा होती जा रही प्रदुषण की समस्या पर जब बीते दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह टिपन्नी करते हुए कि ‘दिल्ली में रहना मानो किसी गैस चेंबर में रहने समान है’, केंद्र व् दिल्ली सरकार से इस मामले में स्पष्ट कार्य योजना पेश करने का निर्देश दिया तो एक गजल की उपर्युक्त पंक्तियाँ याद आ गई। गजल की ये पंक्तियाँ दिल्ली की वर्तमान परिस्थिति पर इसलिए भी सटीक बैठती है कि देश के विभिन्न भागों से आ कर दिल्ली को अपना स्थायी या अस्थायी आशियाना बना चुके लोगों के लिए यहाँ साँसों में मौत भरना मज़बूरी बन चुकी है। दिल्ली की प्रदूषित हवा किस तरह से सुरसा की भाँती मुंह फैलाए खड़ी एक समस्या बन चुकी है इसका अंदाजा हम पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर जी के राज्यसभा में दिए उस बयान से लगा सकते हैं जिसमे उन्होंने कहा कि ‘प्रदूषित हवा से होने वाली बीमारियों के कारण हर दिन दिल्ली में 80 लोग मर रहे हैं।’ यह आंकडा काफी भयावह है हमें सचेत करने के लिए कि अब हम ‘बस’ करें। जी हाँ ‘अब बस करें’ यही स्लोगन भी है दिल्ली के वायु प्रदुषण को कम करने के लिए चलाई जा रही दिल्ली सरकार की योजना ‘कार फ्री डे’ का। जो एक तरह से कामयाब होती दिख रही है। ‘कार फ्री डे’ योजना के अनुसार दिल्ली सरकार हर महीने की 22 तारिख को दिल्ली के किसी एक भाग में इसका आयोजन करती है और उस क्षेत्र या उधर से गुजरने वाले लोगों से अपील की जाती है कि वे उस दिन कार का प्रयोग ना करें। 22 नवम्बर को जब द्वारका में कार फ्री डे मनाया गया तो वहां इसका सकारात्मक परिणाम देखने को मिला और प्रदुषण स्तर में कमी देखी गई। उस दिन द्वारका क्षेत्र में ‘पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5’ का स्तर गिर गया। 22 नवम्बर को एक तरफ जहाँ धौला कुआं और पटेल चौक पर पीएम 2.5 का स्तर 645 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर था वही द्वारका वाले हिस्से में यह घटकर 335 माइक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर हो गया था। इससे पहले जिस इलाके में कार फ्री डे का आयोजन किया गया था वहां भी 60 प्रतिशत प्रदुषण कम हुआ था। गौरतलब है कि दिल्ली में ‘पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5’ का स्तर सामान्य से 10 गुना ज्यादा है। डब्ल्यूएचओ के पैमाने के अनुसार हवा में पीएम 2.5 की मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होना चाहिए वही भारतीय पैमाना इसके 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर तक होने को सामान्य मानता है।
दिल्ली की तुलना गैस चेम्बर से करने वाली दिल्ली उच्च न्यायालय की टिपन्नी और कार फ्री डे के रूप में दिखने वाले कुछ सार्थक परिणाम ने दिल्ली सरकार को कठोर कदम उठाने के लिए विवश किया और अंततः 4 दिसंबर को दिल्ली सरकार ने इवन ऑड पॉलिसी की घोषणा कर दी। जिसमे कहा गया कि दिल्ली में अब निजी कारें हर दिन नहीं चलेंगी। इसके तहत दिल्ली में गाड़ियां इवन और ऑड नंबर के अनुसार चलाई जाएँगी। यानी कि दिल्ली में अब निजी वाहन सम और विषम नम्बरों और दिन के आधार पर सड़कों पर उतरेंगे। दिल्ली सरकार के इस निर्णय के अनुसार जिन निजी वाहनों के नम्बर प्लेट पर अंतिम नंबर 0, 2, 4, 6, 8 होगा वह एक दिन चलेंगी और 1, 3, 5, 7, 9, नंबर वाली गाड़ियां अगले दिन। दिल्ली उच्च न्यायालय की टिपन्नी के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की अध्यक्षता में आयोजित जिस आपात बैठक में इस फैसले पर मुहर लगाईं गई थी उस बैठक में दिल्ली में प्रदुषण कम करने से सम्बंधित और भी कई निर्णय लिए गए। बैठक में निर्णय लिया गया कि अब दिल्ली की सड़कों की वैक्यूम क्लीनिंग की जाएगी। लुटियन दिल्ली समेत दिल्ली की 90 प्रतिशत सड़कों की वैक्यूम क्लीनिंग की जाएगी। जिसके लिए विदेशों से यंत्र मंगाए जाएंगे। 720 मेगावाट वाले बदरपुर प्लांट को बंद करने का निर्णय लिया गया है। दिल्ली सरकार ने कहा कि वह बिजली की सतत आपूर्ति के लिए दूसरे प्रयास करेगी लेकिन प्रदुषण से समझौता अब नहीं किया जा सकता और इसलिए एनजीटी से आग्रह किया जाएगा कि वह बदरपुर प्लांट को बंद कराने की कोशिश करे। दिल्ली में कमर्शियल ट्रकों की एंट्री का समय 9 बजे रात से बढाकर 11 बजे करने का निर्णय हुआ। साथ ही 2017 से वाहन उत्सर्जन के लिए यूरो मानक-6 करने की बात कही गई। पार्किंग व्यवस्था की समीक्षा की भी बात हुई।
दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद आए दिल्ली की आप सरकार के इस इवेन-ऑड फॉर्मूले को विपक्षी दलों समेत कई लोगों ने हड़बड़ी में लिया गया फैसला करार दिया। वही दिल्ली सरकार ने इसमें समीक्षा की बात कही और यह भी कहा कि इसे अभी कुछ दिनों के ट्रायल के लिए लागू किया जाएगा। बाद में ट्रायल की यह अवधि 1 से 15 जनवरी तय की गई। इवेन-ऑड फॉर्मूले की घोषणा से एक दिन बाद एक कार्यक्रम में इस मुद्दे पर बोलते हुए मुख्यमंत्री केजरीवाल ने कहा, ‘यह फैसला सिद्धांत रूप से लिया गया है। बहुत सी चीजों पर अभी फैसला लेना बाकी है। हम कुछ समय के लिए इसपर प्रयोग करेंगे। हो सकता है 15 दिनों के लिए। यदि बहुत समस्या पैदा होती है तो इसे रोक दिया जाएगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार की योजना थी कि सार्वजनिक परिवहन को मजबूत कर इसे पेश किया जाता लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय की टिपन्नी के बाद पैदा हुई दहशत के चलते यह बड़ा कदम उठाना पड़ा।’ अगले दिन 5 जनवरी को उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर ने आप सरकार के इस इवेन-ऑड फॉर्मूले को अपना समर्थन दे दिया। उन्होंने कहा कि ‘अगर यह प्रदुषण कम करने में मदद करता है तो हम ऐसा करना पसंद करेंगे।’ 6 जनवरी को दिल्ली सरकार के गृह मंत्री सत्येन्द्र जैन ने इसे लागू करने की रणनीति पेश करते हुए कहा कि विषम नंबर वाली कारें सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को चलेंगी जबकि सम नंबर वाली कारें मंगलवार, गुरूवार और शनिवार को। उन्होंने बताया कि सरकार ने रविवार को लेकर अभी कोई निर्णय नहीं लिया है। साथ ही उन्होंने कहा कि सरकार पीसीआर वैन, दमकल वाहन व एम्बुलेंस जैसी आपात स्थिति से निपटने वाले वाहनों को ही राष्ट्रीय राजधानी की सड़कों पर चने की इजाजत देगी। हालांकि अगले 48 घंटे में ही सम-विषम फॉर्मूले को लागू करने की रणनीति दिन से तारीख पर आ गई। 8 दिसम्बर को सरकार की तरफ से कहा गया कि ‘अब सम-विषम नमबर की कारें दिन की बजाय तारीख के हिसाब से चलेंगी। रविवार को वाहनों की आवाजाही पर कोई रोक-टोक नहीं होगी। सम-विषम नंबर के हिसाब से कारों की चलाने की योजना सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक ही लागू रहेगी।’ हालाँकि 8 दिसंबर को सरकार बाइक पर स्थिति स्पष्ट नहीं कर सकी कि इसे सम-विषम के दायरे में रखा जाएगा या नहीं। एक दिन पहले ही 7 दिसम्बर को आप सरकार के 2 मंत्रियों ने बाइक को इस दायरे में लाने संबंधी अलग-अलग बयान दिए थे। गृहमंत्री सत्येन्द्र जैन ने जहाँ दुपहिया वाहनों को छुट देने की बात कही थी वही परिवहन मंत्री गोपाल राय ने कहा था कि बाइक वालों को भी सम-विषम फॉर्मूले के दायरे में रखा जाएगा। हालाँकि 8 दिसंबर को सरकार की तरफ से कहा गया कि सरकार 25 दिसंबर तक एक विस्तृत खाका लेकर आएगी जिसमे विशेषज्ञों और जनता द्वारा उठाए जा रहे सभी सवालों के जवाब होंगे। इस सम-विषम फॉर्मूले को दिल्ली में लागू करने संबंधी मुद्दे पर केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिलने के बाद मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि ‘गृहमंत्री जी ने पहली जनवरी से शहर में निजी वाहनों के चलने के सम्बन्ध में दिल्ली सरकार के सम-विषम योजना के क्रियान्वयन में केंद्र और दिल्ली पुलिस के पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया है।’ सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि कारों की संख्या आधी करने पर पैदा होने वाली समस्या के हल के लिए सरकार बसों की संख्या बढ़ाएगी साथ ही मेट्रो भी अपने फेरों को बढाने की योजना पर काम कर रही है। परिवहन मंत्री गोपाल राय की तरफ से कहा गया कि ‘सीएनजी से चलने वाली 4 हजार प्राईवेट बसों के साथ 2 हजार स्कूल बसों को सड़कों पर उतारा जाएगा। 2 हजार स्कूल बसों की आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।’
6 हजार नई बसों के साथ 1 जनवरी से दिल्ली की सड़कों पर उतरने वाली 12 हजार बसों की संख्या ने एक नए विवाद को जन्म दिया। एनजीटी ने दिल्ली सरकार के इवेन-ऑड फॉर्मूले पर सवाल उठाते हुए कहा कि जब इतनी बसों की संख्या बढाई जा रही है तो फिर कारों की संख्या कम करने का फायदा ही क्या होगा? सवाल भी सही है। एक बस कई कारों के बराबर प्रदुषण फैलाती है। कानपुर आईआईटी की एक रिपोर्ट ने भी दिल्ली सरकार के फैसले पर सवालिया निशान लगा दिया। आईआईटी कानपुर की स्टडी रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में वायु प्रदुषण बढाने में कारों से ज्यादा ट्रक व धूल भरी सड़कें जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट के अनुसार, ‘दिल्ली में प्रदुषण के लिए मुख्य रूप से चार घटक जिम्मेदार हैं। जिसमे वाहनों से 25-35 फीसदी तक वायु प्रदूषण फैलता है। सड़कों की धूल 35 फीसदी जिम्मेदार है हवा प्रदूषित करने के लिए। राजधानी में भारी उद्योग, कोयले से चलने वाले कारखाने आदि 22 फीसदी साथ ही घरों में जलने वाले चूल्हे भी 22 फीसदी कारण हैं दिल्ली को हवा को प्रदूषित करने के लिए।’ 2013 में आईआईटी कानपुर को दिल्ली में वायु प्रदूषण के अध्ययन की जिम्मदारी दी गई थी। पिछले महीने ही आईआईटी कानपुर ने अपनी रिपोर्ट दिल्ली सरकार को सौंपी। उल्लेखनीय है कि इसी रिपोर्ट के बाद पिछले दिनों नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने ट्रकों और भारी वाहनों के खिलाफ सख्ती बरतने का आदेश दिया था। अब जबकि इस रिपोर्ट से यह साफ़ हो चुका है कि राजधानी में वायु प्रदूषण फैलाने में कारों का ज्यादा असर नहीं है तो यह सवाल उठ रहा है कि क्या कारों की संख्या आधी कर देने से भी दिल्ली को राहत मिलेगी? साल 2000 में हरियाणा के रोहतक के डीसी राजेश खुल्लर ने सम विषम नंबर वाले आटो रिक्शा के लिए यह सम-विषम नंबर वाली यह योजना लागू की थी मगर वो योजना कामयाब नहीं हो पाई। कई लोग इस बात की भी शंका जता रहे हैं कि इस योजना का भी कहीं वही हाल ना हो। कई लोगों का यह भी मत है कि इवेन-ऑड फॉर्मूला लागू होने पर पैसे वाले लोग 2-2 कारें रखने लगेंगे।
जाहिर है अचानक से आदत बदलने की मज़बूरी परेशानी तो लाएगी ही लेकिन हमें आज यह सोचना होगा कि क्या हम अपनी आज की आरामतलब ज़िन्दगी को कल के मौत के तांडव का कारण बनने दे सकते हैं? क्या हम इतने स्वार्थी हैं कि अपनी सहूलियतों में कुछ कटौती कर के भावी पीढी को साफ़ हवा में सांस लेने का तोहफा नहीं दे सकते? अगर हम चाहे तो यह संभव है और हमें इसे संभव बनाना ही होगा क्योंकि अब कोई विकल्प नहीं बचा है हमारे सामने। हमें बीजिंग से सीख लेनी चाहिए जिसने पीएम 2.5 की मात्रा 600 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक होते ही आपात स्थिति लागू कर दिया और 30 नंवबर को चीन में स्कूल कालेज बंद हो गए। प्रदूषण फैलाने वाली 2100 कंपनियों के काम कुछ समय के लिए रोक दिए गए और 200 से ज्यादा एक्सप्रेस वे बंद कर दिये गए। इससे पहले ओलंपिक्स के दौरान बीजिंग में प्रदुषण स्तर 450 इंडेक्स तक पहुँच गया था तब भी वहां की सरकार ने परिवहन व्यवस्था में इस तरह का फॉर्मूला लागू किया था। हालांकि वहां इवन-ऑड की जगह शहर में चल रही गाड़ियों को कलर के हिसाब से चलाया गया। सिर्फ बीजिंग ही नहीं अमेरिका समेत विश्व के 12 देशों के कई बड़े शहरों में यह फॉर्मूला आंशिक या पूर्ण रूप से लागू है। कैलिफोर्निया, पेन्सिल्वेनिया, न्यूयॉर्क, न्यूजर्सी, ओरेजोन, मैक्सिको, नाइजीरिया, वेनेजुएला, पेरिस, चिली, दुबई, आदि में इसे लागू किया गया है। हमारे पड़ोसी देश नेपाल की राजधानी काठमांडू में भी पिछले दिनों तेल संकट के कारण स्थानीय प्रशासन ने परिवहन में इवन-ऑड का फॉर्मूला लागू किया है। ऐसे कई उदाहरण है जिनसे हम सीख लेकर दिल्ली को गैस चेंबर के कलंक से मुक्ति दिला सकते हैं...