शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

सियासत की 'अटल' शक्सियत को शत-शत नमन...

कश्मीर से जुड़े हर स्थानीय नेता कश्मीर समस्या के लिए हिंदुस्तानी नेता और नीति को जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन समाधान के लिए ईमानदार प्रयास का जब भी जिक्र आता है, तो उनके होठों पर सिर्फ एक नाम होता है और वह है, 'अटल बिहारी वाजपेयी।' मैं ऐसे बहुत से 'हार्डकोर' भाजपाइयों को जानता हूँ, जो एक प्रधानमन्त्री के रूप से अटल जी को पसंद नहीं करते, और ऐसे कई बड़े नेताओं को भी जानता हूँ जो धुर विरोधी हो कर भी अटल जी की सियासी सोच के कायल हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि अटल जी ने कभी विचारधारा को थोपने वाली सियासत नहीं की, हां वे एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। वे चाहते थे कि अयोध्या में राम मंदिर बने लेकिन वह ये भी चाहते थे कि कश्मीर सुलझाने के लिए कश्मीरियों से बात की जाय। भारत ही नहीं दुनिया की सियासत ने दुबारा किसी 'अटल' शख्सियत को नहीं देखा क्योंकि कोई और नेता इन पंक्तियों को जी ही नहीं पाया कि

'टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते,
सत्य का संघर्ष सत्ता से, न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है, किरण अंतिम अस्त होती है,
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते,
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते...।'

भारतीय सियासत का यह शिखर पुरुष आज सक्रिय राजनीति से दूर है, लेकिन अपने सुकर्मों द्वारा इन्होंने राजनीति को जो दिशा दिखाई वह युग-युगांतर तक इस महान नेता की गाथा गाते रहेंगे। आज जब सियासी सफर के हर कदम में करोड़ो-अरबो लुटाए जा रहे हैं इस समय सियासत के उस पितामह की याद आती है, जिन्होंने भरे संसद में कहा था,
'ऐसी सरकार जो सांसदों के खरीदने से बनती हो मैं इसे चिमटे से छूने से अस्वीकार करता हूँ।' वर्तमान सियासत में जबकि विरोध का स्तर ज़ुबानी नीचता की परकाष्ठा पार कर रहा है, हमारे नेताओं को अटल जी के उस व्यक्तित्व से सीख लेने की जरूरत है जिसके कारण विपक्षी दल के प्रधानमंत्री 'नरसिम्हा राव' ने इन्हें सरकार का नुमाइंदा बना कर पाकिस्तान भेजा था। आज के नेताओं को, विरोधी की नजर में भी अपनत्व की उस अटल छवि से सीखने की जरूरत है जिसके कारण निवर्तमान प्रधानमंत्री 'राजीव गांधी' ने अटल जी के मना करने के बावजूद उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल के साथ जाने के बहाने इसलिए अमेरिका भेजा था ताकि वे वहां अपने घुटने का इलाज करा सकें क्योंकि अटल जी की खुद की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं थी कि वे अपने खर्च से अमेरिका जाकर इलाज कराएं। आज के दौर में बनने से पहले टूटने वाले गठबंधन के सूत्रधार नेताओं को तो यह पता ही होगा कि वह 'अटल क्षमता' ही थी जिसकी बदौलत भारतीय राजनीति ने 24 दलों के गठबंधन की सफल सरकार देखी थी। कितना अच्छा होता कि हमारे नेता अटल जी की स्वच्छ छवि वाली विरासत को आगे बढ़ाते और उनकी इन पंक्तियों को सार्थक करते कि,

'आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ,
आओ फिर से दिया जलाएँ...।'

वह अटल जी ही थे जिन्होंने संसद के भीतर विदेश निति पर हो रही चर्चा में अपनी बात से तत्कालीन प्रधानमंत्री 'नेहरू' जी को प्रभावित कर दिया था और नेहरू जी ने अटल जी की प्रशंसा करते हुए कहा था, 'आप एक दिन जरूर देश का प्रतिनिधित्व करेंगे।' वह अटल जी ही थे जिन्होंने पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब दिया और समय पर समझाया भी कि,

'ओ नादान पड़ोसी अपनी आँखें खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।'

वर्तमान राजनीति के खराब चरित्र का एक कारण यह भी है कि इसके पास अब कोई 'अटल शख्सियत की छवि' नहीं है। काश कोई चमत्कार होता और अटल जी की ओजस्वी वाणी संसद में सुनाई देती...काश...!

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