मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

बाजीराव मस्तानी: मुहब्बत और नफरत की अंतहीन दास्तां...

'आंधी रोके तो हम तूफ़ान, तूफ़ान रोके तो हम आग का दरिया' या 'चीते की चाल, बाज की नजर और बाजीराव जी तलवार पर संदेह नहीं करते' जैसी बातों को अपने पराक्रम से चरितार्थ करने वाला वीर योद्धा अगर किसी की जुदाई में दीदार को तड़प कर दम तोड़ दे तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि,
'बाजीराव ने मस्तानी से मुहब्बत की थी ऐयासी नहीं।' जब पहली बार इस फ़िल्म के बारे में सुना तो गूगल बाबा के माध्यम से बस इतना ही जान पाया कि पेशवा बाजीराव महान पराक्रमी योद्धा था। लेकिन बाजीराव की कहानी को 'संजय लीला भंसाली' ने जिस तरह से परदे पर जिवंत किया है वह काबिले तारीफ है। मुहब्बत की कहानी को परदे पर 'बाजार' बना कर परोसने के इस दौर में भंसाली साहब ने जिस तरह से 'बाजीराव मस्तानी' की जिंदगी के हर पहलू को प्रमाणिकता के साथ पेश किया है उसका जवाब नहीं...
'हर युद्ध का नतीजा तलवार से नहीं होता। तलवार से ज्यादा धार, चलाने वाले की सोच में होनी चाहिए' एक योद्धा के रूप में यह बोलते हुए 'रणवीर सिंह' हो या 'तुझे याद कर लिया है आयत की तरह, हम तेरा जिक्र हो गए इबादत की तरह' को अपने अभिनय क्षमता से शब्दों से उतारकर सार्थक बना देने वाली 'दीपिका पादुकोण' या एक पतिव्रता पत्नी की भूमिका में 'प्रियंका चोपड़ा' जो गुरुर की बात आने पर कहने से भी नहीं डरती कि 'आप हमसे हमारी जिंदगी मांग लेते तो हम ख़ुशी ख़ुशी दे देते पर आपने तो हमसे हमारा गुरुर छीन लिया', सबने अपनी संजीदा अभिनय कौशल से भंसाली जी का साथ दिया है एक ऐतिहासिक कहानी को परदे पर ऐतिहासिक बनाने में।
'ये सच है कि हर धर्म ने एक रंग को चुन लिया है पर रंग का तो कोई धर्म नहीं होता, हाँ कभी-कभी इंसान का मन काला जरूर हो जाता है जो उसे रंग में भी धर्म दिखाई देता है'
मस्तानी की यह बात वर्तमान परिपेक्ष्य में हमारे समाज के लिए सबसे बड़ी सीख है। सीख तो और भी कई देती है यह फ़िल्म जैसे, 'जड़ पे वार करो तो बड़े से बड़ा पेड़ भी गिर जाता है' या 'जब दीवारों से ज्यादा दुरी दिलों में हो जाय तो छत नहीं टिकती या 'जंगल में शेरनी जब बच्चे को जन्म देती है तो वहां कोई दाईमा नहीं होती है' या 'वो वीर ही क्या जिसके सामने श्रृंगार अपनी पलकें ना झुका दे।'

'किसकी तलवार पर सर रखूं ये बता दो मुझे,
इश्क करना अगर खता है तो सजा दो मुझे
ऐ मुहब्बत के इतिहास लिखने वालो
मैं अगर हर्फ़े गलत हूँ तो फिर मिटा दो मुझे।'
नफरत से घिरी नजरों के बीच भी मस्तानी ने बाजीराव के साथ मुहब्बत की जो मिशाल पेश की है वह बाजीराव के इन शब्दों को अमर रखेगी कि, 'दुनिया हम दोनों को हमेशा एक ही नाम से याद रखेगी, बाजीराव-मस्तानी।'

'इश्क, जो तूफानी दरिया से बगावत कर जाए वो इश्क
जो महबूब को देखे तो खुदा को भूल जाए वो इश्क।'
इन शब्दों से सही अर्थों में साक्षात्कार कराने वाली यह फ़िल्म कभी ज़ेहन से नहीं उतरेगी। ऐसी फ़िल्में बनती रहनी चाहिए...उन्ही शब्दों के साथ मैं भी अंत करूँगा जिसके साथ यह फ़िल्म ख़त्म होती है...

'उस दिन अपनी बेरहमी पर सबसे ज्यादा वक्त रोया था,
मुहब्बत के आसमान ने अपने दो सितारों को जो खोया था।
कहते हैं टूटे हुए सितारों को देख लो तो तमन्नाएँ पूरी हो जाती हैं।
ये दो सितारें खुद अपनी तमन्ना के लिए टूटे थे।

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