गुरुवार, 31 मई 2018

कौन जीता... किसकी हार...?

आज आए उपचुनाव परिणामों ने किसी को खुश होने का मौका दिया, तो किसी के चेहरे पर उदासी छा गई... एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर हमें हर उस शख्स या दल की हार सुकून देती है, जिसने खुद को देश से ऊपर समझने की गफ़लत पाल ली हो और जो सोचता हो कि उसे कोई हरा नहीं सकता... लेकिन व्यक्तिगत तौर पर देखें, तो हमारी खुशी या गम का कोई आधार नहीं है... जो आज जीते हैं वो तो आज से राजशाही सुख भोगेंगे ही और जो हार गए उनके भी ठाट-बाट में कोई कमी नहीं आएगी... यह मैं क्यों कह रहा हूं इसके लिए आज चर्चा में रही तीन सीटों और वहां के उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि पर गौर करें, तो हमें हमारे संविधान की वो बात थोथी लगती है, जिसमें जनता के पास लोकतंत्र की चाबी होने की बात कही गई है... सितंबर 2017 में अररिया से सांसद तस्लीमुद्दीन की मृत्यु हुई, उसके बाद उनके विधायक बेटे सरफ़राज़ आलम ने अपनी विधानसभा सीट जोकीहाट से इस्तीफा देकर पिता की खाली हुई अररिया लोकसभा से मार्च 2018 में उपचुनाव जीता... इसके बाद उनकी सीट खाली हो गई, जिसके लिए उन्हीं के सगे भाई यानि तस्लीमुद्दीन के छोटे बेटे शाहनवाज़ आलम ने चुनाव लड़ा, जिसका परिणाम आज आया है... शाहनवाज़ की जीत पर छाती ठोक रहे तेजस्वी राजनीति की किस बेल से निकले हैं ये तो सबको पता ही है... कुछ ऐसी ही कहानी उत्तरप्रदेश की महत्वपूर्ण सीट कैराना की भी है... जिस तरह तस्लीमुद्दीन 90 के दशक से ही सीमांचल में 'राज' करते रहे, कुछ वैसा ही प्रभुत्व मुनव्वर हसन का भी कैराना क्षेत्र में था, बाद के दिनों में हुकुम सिंह ने उन्हें चुनौती दी... 2014 के लोकसभा चुनाव में हुकुम सिंह ने मुनव्वर हसन के बेटे नाहिद हसन को कैराना में शिकस्त दी... उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में नाहिद हसन ने हुकुम सिंह की बेटी मृगांका को विधानसभा चुनाव में हराया... इसी साल फरवरी में हुकुम सिंह की मृत्यु हो गई, जिससे उनकी संसदीय सीट खाली हुई... उपचुनाव में भाजपा ने विधानसभा चुनाव हारी मृगांका को पिता की विरासत संभालने के लिए मैदान में उतारा तो दूसरी तरफ मृगांका को हराने वाले नाहिद हसन की मां तबस्सुम हसन पति की सियासी राह पर आगे बढ़ीं और आज के परिणाम में भारी मतों से विजयी हुईं... तबस्सुम की जीत के जरिए अपनी सियासी डूबती सियासी नैया को पार लगाने का सपना देखने वाले जयंत चौधरी भी इसी वंशवाद के बेल की बूटी हैं... परिवारों और घरानों में पीसते लोकतंत्र की यह दुर्दशा केवल उत्तर भारत में नहीं है, पूरा देश ऐसे 'सियासी आक्रांताओं' की जद में है, पूर्वोत्तर भी इससे अछूता नहीं... आज के चुनाव परिणामों में एक नाम मियानि डी शिरा का भी है, जिन्होंने मेघालय की अम्पति सीट से जीत दर्ज की है... मियानि मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा की बेटी हैं और मुकुल संगमा की ही एक खाली विधानसभा सीट से चुनाव लड़ी थीं... आपको लगेगा कि मुकुल संगमा तो अभी राजनीति में सक्रिय हैं, तो फिर यह सीट कैसे खाली हो गई, तो इसका जवाब यह है कि हमारे संविधान ने सियासी बिरादरी को यह हक दिया है कि वो एकसाथ जितनी थाली में चाहें, खा सकते हैं और पेट भरने पर थाली को फेंक सकते हैं... आप-हम भले एक साथ दो नौकरी नहीं कर सकें, लेकिन नेता दो जगह से चुनाव लड़ सकते हैं... इसी आधार पर मुकुल संगमा ने हाल के विधानसभा चुनाव में दो सीटों से चुनाव लड़ा और दोनों पर जीत दर्ज करने के बाद एक सीट खाली कर दिया, जिसपर हुए उपचुनाव में उनकी बेटी लड़ी और जीती भी... ये लोकतंत्र की अंतहीन मार्मिक दुर्दशा का एक अंश का अंश भर है... अगली बार किसी नेता की जीत पर ताली पीटने या किसी की हार पर आंसू बहाने से पहले सोचिएगा कि क्या इस तंत्र या इस व्यवस्था में आप वहां पहुंच सकते हैं...

गुरुवार, 10 मई 2018

समाज, सियासत और मोहब्बत को शब्द देने वाला शायर

'पेड़ को काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा।'

वर्तमान समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे को बहुत पहले शायरी में समेट कर जिस शायर ने समाज को सबक सिखाने का काम किया था उसकी मुहब्बत की पंक्तियां आज भी राह चलते लोगों को गुनगुनाते हुए सुनी जा सकती हैं। सामने वाले के चेहरे की बनावटी हंसी को देखकर आज भी अनायास ही यह गीत होठों पर आ जाता है कि
'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो 
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो...'

मिले या बिछड़े हुए, बिछड़ते-बिछड़ते मिले हुए या मिलते-मिलते बिछड़ चुके किसी हमसफ़र की याद इस 20वीं सदी में भी इसी शायर द्वारा लिखे गए 19वीं सदी के इस गीत को ही अपना अपना गंतव्य बनाती है कि,
'चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था, 
सरे राह चलते-चलते,
वहीं थम के रह गई है, मेरी रात ढलते-ढलते...'

आज आजादी की पहली जंग की सालगिरह है। जी हां, आज ही के दिन 1857 में फिरंगियों से भारत की आजादी की आवाज़ बुलंद हुई थी, जिसकी परिणति ने हमें स्वतंत्रता की आबो हवा में सांस लेने की सौगात दी। लेकिन जिन कुर्बानियों की बदौलत हमने स्वतंत्रता पाई उनके लिए नतमस्तक कर देता है, इसी गीतकार का यह गीत जिसकी मैं बात कर रहा हूं,
'कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...।'

जिस लिखनी से मातृभूमि के दीवानों का देशवासियों के लिए यह पैग़ाम निकला उसी लेखनी से उन दीवानों के दिल की आवाज भी निकली है, जिनकी सार्थकता को आज भी लोग जीते हैं...
'कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों हैं?
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं?
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं?
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं?'

शायरी को दीवानों के दिल से निकला प्रश्न बनाने वाले इस शायर की इन पंक्तियों से भी आप शायद ही अनभिज्ञ होंगे कि,
'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं 
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं...।'

प्रवास हर समय में समाज की एक पीड़ा रही है... और शायर, कवि, गीतकार की तत्कालीन समय में सार्थकता यही है कि वह उस समय के दुःखों, तकलीफों को आवाज दे... दूर रहकर अपनी जमीन को याद करने वालों की ख्वाहिस को इस शायर ने कुछ यूं शब्दों में पिरोया है कि
'वो कभी धूप कभी छांव लगे,
मुझे क्या-क्या न मेरा गांव लगे,
किसी पीपल के तले जा बैठे 
अब भी अपना जो कोई दांव लगे।'

वक्त के हंसी सितम से खुद को और 'उनको' बदलने के भाव को बयां करने वाले उस महान शायर को अब तक आप पहचान ही गए होंगे...फिर भी मैं बता देता हूं... समाज, सियासत और मुहब्बत तीनों को अपनी लेखनी से बयां करने वाले मशहूर शायर 'कैफ़ी आज़मी' की आज पुण्यतिथि है। उसी कैफ़ी आज़मी की जिन्होंने हिंदी सीने जगत को 'शबाना आज़मी' जैसी अदाकारा दी... और जो अपनी ही इन पंक्तियों को चरितार्थ कर गए कि 
'इंसां की ख्वाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद।'
आज ही के दिन यानी 10 मई को आज से 6 साल पहले यह मशहूर शायर, कवि, और गीतकार यह गुनगुनाते हुए हमसे रुखसत हो गया कि,
'ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं...'
लेकिन अब भी...
'जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं...।'