गुरुवार, 25 जनवरी 2018

गुंडातंत्र न बन जाए हमारा गणतंत्र

'भले ही हमारा देश 15 अगस्त को स्वतंत्र हुआ, लेकिन हमें असली आज़ादी मिली थी आज के दिन, यानि 26 जनवरी को। आज ही के दिन हमारा संविधान लागू हुआ और हमें भारतीय होने का दर्जा हासिल हुआ...' स्कूली दिनों में आज के दिन का हमारा भाषण ऐसा ही होता था। तब इस भाषण को रटना पड़ता था, तब भले ही समझ उतनी विकसित नहीं थी, लेकिन आस्ता भरपूर थी। दिल्ली आने के बाद याद नहीं कि कभी मैं बिना खाए या पूजा करके झंडा फहराने गया हूं, लेकिन स्कूली दिनों में यह हमारे लिए सामाजिक नहीं व्यक्तिगत उत्सव हुआ करता था, जिसमे भगवान भी शामिल थे, गांधी-नेहरू-भगत-सुभाष भी और सेना के वीर सिपाही भी। तब हम मन्दिर में जल चढ़ाने के बाद झंडा फहराने जाया करते थे वो भी बिना अन्न ग्रहण किए, क्योंकि वो भी एक तरह से पूजा के समान था। तब का बालमन भी उस दिन की पूजा में खुद की नहीं, देश की हिफाजत की दुआ करता था। 
आज ऐसे ही सोच रहा था कि क्या सभी का बचपन ऐसा ही बीता होगा, खासकर उनका जो आज थोथी इज्जत के नाम पर शासन की धज्जियां उड़ा रहे हैं और सियासी शह जिनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने 'स्व' से आगे पढ़कर 'पर' के बारे में कभी सोचा होगा, देश के लिए दुआ करना तो दूर की बात है। क्योंकि जो देश की संपदा को विनष्ट करना अपनी जीत समझे, जिसके लिए लोगों में भय का माहौल पैदा करना उद्देश्य की प्राप्ति हो, जो देश की सर्वोच्च संस्था न्यायपालिका को अपने जूते की नोक पर रखे और जो अपनी बात मनवाने के लिए बच्चों से भरी बस पर भी पत्थर फेंकने से गुरेज न करे, वो खुद के बारे में तो सोच सकता है, लेकिन देश के बारे में नहीं। देश एक व्यक्ति, एक संस्था या एक जातिगत समूह से नहीं बनता, खासकर भारत जैसे देश की पहचान तो वैसी नहीं है। विविधता में एकता हमारी पहचान रही है, पर अफसोस कि एकता के नाम पर एकरूपता लादी जा रही है। ऐसा तो गणतंत्र नहीं था हमारा। न सिर्फ शासन बल्कि सामाजिकता के स्तर पर भी हमें आत्ममंथन की जरूरत है। आज तो पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों को भी करणी सेना के करतूत वाजिब दिख रहे हैं। जिन्हें अपने दादा-दादी से बैठकर बात करने की फुर्सत नहीं, जो अपने परदादा-परदादी का नाम तक नहीं जानते, वे भी आज पद्मावती के बहाने विरासत बचाने की बात कर रहे हैं। आज जब हमारा गणतंत्र 69वे साल में प्रवेश कर गया, हमें सोचना चाहिए कि इतने सालों में हमने क्या पाया और जो पाया उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए क्या प्रयत्न कर रहे हैं। केवल राजस्थान की ही बात करें, तो किसी भी क्षेत्र के किसी अखबार का कोई संस्करण ऐसा नहीं होता है, जिसमे किसी भी दिन बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध की कोई घटना नहीं हो, लेकिन आजतक किसी भी संगठन ने उसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई। जिन राजूपत राजघरानों की राजकुमारियां आज विदेशों की पाश्चात्य संस्कृति में सराबोर हो रही हैं, उन्हें ये चिंता सताने लगी कि सिनेमा के पर्दे पर पद्मावती देवी का किरदार निभा रही अभिनेत्री का पेट क्यों दिख रहा है। दिक्कत यह है कि हम अपने बंधे-बंधाए दायरे से बाहर निकलना नहीं चाहते। 
हमने न सिर्फ बचपन से पढ़ा है, बल्कि देखा भी है कि हमारे आस-पास के लोगों का आचार-विचार, बोल-चाल, रहन-सहन सब भिन्न होता है। मेरे गांव से महज 2 किमी की दूरी पर एक मुस्लिम बहुल गांव है, उनकी भाषा हमारे गांव की भाषा से अलग है, उनका पहनावा और रहन-सहन भी हमसे अलग है। लेकिन न सिर्फ हम सद्भाव वाले पड़ोसी गांवों के हैं, बल्कि उस गांव के बच्चों के साथ मैं हॉस्टल में भी रहा हूं। यह है हमारा वास्तविक गणतंत्र, पर अफसोस कि यह 'है' अब धीरे-धीरे 'था' में बदलता जा रहा है। दुर्भाग्यवश ऐसा कहना पड़ रहा है कि वर्तमान का भारत हमें हमारे वास्तविक भारत से अलग छवि पेश कर रहा है। हम मानते हैं कि हर दौर में अभिव्यक्ति की आजादी का बेजा इस्तेमाल होता रहा है, हर दौर में लोगों की भावनाएं आहत होती रही हैं, हर दौर में गुंडे-मवाली सड़कों पर आते रहे हैं, लेकिन क्या हर दौर में सरकार के इक़बाल पर सवालिया निशान खड़ा होता रहा है? क्या हर दौर में सरकार ने निरीह-निस्पृह होने का दिखावा करते हुए हुड़दंगियों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है? हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने जब पहली बार कहा था कि 'संविधान हमारे लिए ग्रन्थ है' तब लगा था कि इस सरकार में वैसा कुछ नहीं होगा जैसा 1975 में देश के संविधान के साथ और 1984 में देश के भाईचारे के खिलाफ हुआ था। लेकिन इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देशभर से आने वाली खबरों ने हमारे उस विश्वास की चूलें हिला दी हैं कि अब वैसा कुछ नहीं होगा। सप्ताह भी पूरे नहीं हुए जब हमारे प्रधानमंत्री जी ने एक समाचार चैनल को दिए साक्षात्कार में कहा था कि 'मैं चुनावी फायदों को ध्यान में रखकर फैसला नहीं लेता', तो क्या आहत भावना के नाम पर गुंडागर्दी करने का खुला छूट दे देना चुनावी फायदे को ध्यान में रखकर लिया जाने वाला फैसला नहीं है? कौन नहीं जानता कि पद्मावती रिलीज नहीं करने वाले मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और गोवा में किसके आदेश से शासनात्मक पत्ता हिलता है? कांग्रेसी शासन के भ्रष्टाचार से त्रस्त भारतवासियों को सुकून मिलता था मोदी जी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से, लेकिन अगर कांग्रेस मुक्त भारत का असली ध्येय यही है कि सब जगह मनमाफिक हुक्म चलाया जाए, फिर क्या फायदा इस कांग्रेस मुक्त भारत का? इसी 26 जनवरी से कुछ दिन पहले 2015 में अपनी कुछ लोकतांत्रिक मांगों को लेकर धरने पर बैठे अरविंद केजरीवाल को अराजक की संज्ञा दी दी गई थी, वो भी इन्हीं भाजपाइयों द्वारा, लेकिन देशभर में शासन की छाती पर मूंग दलने वाले मुट्ठी भर हुड़दंगियों के खिलाफ निंदा के दो शब्द बोलना भी हमारी सरकार ने जरूरी नहीं समझा है। हम वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान बुलन्द करने की बात करते हैं, लेकिन उन 10 आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्षों को हम किस तरह के भारत से रूबरू कराया रहे हैं, जो अभी नई दिल्ली में हैं। क्या अभी उन तक सिर्फ भारत-आसियान बैठक की खबर ही पहुंचती होगी, क्या वे इंरनेट और टीवी के जरिए नहीं देख रहे होंगे कि मीटिंग हॉल और लाटीयन की दिल्ली के बाहर का भारत अभी किस माहौल में जी रहा है? हमने तो सिंघम फ़िल्म के इस डायलॉग को शासन का चरित्र समझ लिया था कि 'पुलिस चाह दे तो किसी मंदिर के आगे से कोई एक जूता भी नहीं चुरा सकता', तो क्या मैं गलत था...? क्या गुंडातंत्र बनना ही अब इस गणतंत्र की नियति है...?

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

बदलती सत्ता में न बदलने वाले सच

'शहर में करता था जो सांप के काटे का इलाज,
उसके तहखाने से सांपों के ठिकाने निकले...'

अभी 'शकील आजमी' को सुनते हुए, उनकी इन पंक्तियों पर मन ठहर सा गया। वर्तमान सियासी मौजूं पर इस शेर की सार्थकता यह सोचने पर विवश करती है कि जनता के भले के लिए बुरे को बुरा और खराब को खराब कहने वाले सुर अगर पूरी तरह से विपरीत रुख अख्तियार कर लें, तो जनता का क्या होगा?
'रिटेल में एफडीआई' से हमारा पहला परिचय एक ऐसे सांप के बिल के रूप में हुआ था, जिससे विदेशी कारोबारियों के रूप में निकले सांप हमारे खुदरा व्यापारियों को डंस लेते हैं, अफ़सोस कि इसके प्रति हमें आगाह करने वाले रहनुमाओं को आज उसी सांप के बिल में तरक्की का मणि दिख रहा है। रिटेल में एफडीआई के लिए पूरी तरह से भारत के दरवाजे खोलने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी, वही मोदी जी हैं, जिन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा रिटेल में एफडीआई के लिए हिंदुस्तान के दरवाजे आधे खोलने पर उन्हें कहा था कि मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार 'विदेशियों द्वारा, विदेशियों की और विदेशियों के लिए सरकार' है। उसी 'रिटेल में एफडीआई' वाले सांप से जनता को बचाने वाला रखवाला बनकर सामने आए हमारे वर्तमान वित्त मंत्री जेटली जी ने तब रामलीला मैदान की भरी सभा में खुदरा व्यापारियों की दारुण दशा का मार्मिक चित्रण करते हुए कहा था कि 'अंतिम सांस तक मैं भारत के खुदरा व्यापार को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से दूर रखने के लिए लड़ता रहूंगा।' अफ़सोस कि यहां भी वादों की बलि वेदी पर इरादे बदल गए...
2012-14 के बीच उजागर हुए घोटालों की फेहरिस्त पर फिर से नज़र डालें तो वो इसी रूप में सामने आए कि योजना में हुआ खर्च वाजिब खर्च से ज्यादा था या उसके नाम पर उगाही कर ली गई थी। तत्कालीन विपक्षी पार्टी द्वारा कांग्रेस के कुकृत्यों को उजागर करने की कोशिशों को जनता ने सराहा भी और उसके साथ खड़े भी हुए, नतीज़ा यह निकला कि कांग्रेस को उसके किए की सजा मिली और उन्हें इतिहास की सबसे बड़ी हार से रूबरू होना पड़ा, बदले में हमें ऐसी सरकार मिली, जो आर्थिक और सामाजिक विकास के साथ-साथ भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को जीवंत करने में पूर्णतः सक्षम थी। लेकिन तब पता नहीं था कि यह क्षमता यहां तक पहुंच जाएगी कि एक धार्मिक आयोजन के लिए गीता की एक प्रति की खरीददारी 37,950 रुपए में की जाएगी। जी हां, हरियाणा राज्य में भाजपा की सरकार है और जो मुख्यमंत्री हैं, उन्हें हमारे प्रधानमंत्री जी का वरदहस्त प्राप्त है और उसी मुख्यमंत्री जी वाली सरकार ने पिछले साल आयोजित गीता जयंती महोत्सव में गीता की 10 प्रतियां खरीदने के लिए 3,79,500 रुपए खर्च कर दिए...
हमारे वर्तमान सत्ताधारी तो उस समय सत्ता वाले रहनुमा ही थे, जब 3 साल पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर दिल्ली सरकार के एक कार्यक्रम में राजस्थान के एक किसान ने आत्महत्या कर ली थी। तब हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वहन करते हुए कई ट्वीट किए थे और किसानों को उनकी दुर्दशा से उबारने के वादे के साथ मरने वाले किसान के दुःख के लिए अंग्रेजी में 'Deeply Shattered' भी लिखा था। एक आत्महत्या कल भी हुई है और यह प्रधानमंत्री जी के लिए 3 साल पहले की दिल्ली वाली किसान आत्महत्या से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी बोध वाली घटना है, क्योंकि यह उसी पार्टी के शासन वाले राज्य की घटना है, जिसके आलाकमान हमारे प्रधानमंत्री जी हैं। 3 साल पहले दिल्ली में आत्महत्या करने वाला किसान तो राजस्थान का था लेकिन कल जिस कारोबारी ने आत्महत्या की वह उत्तराखंड का ही था और उसने उत्तराखंड में ही आत्महत्या की, वो भी सरकार के एक बड़े कैबिनेट मंत्री के सामने अपनी समस्याओं का रोना रोते हुए। अफ़सोस कि 3 साल पहले वाली दिल्ली की घटना को आम आदमी पार्टी की सियासी संवेदनहीनता बताने वाले दल ने अपनी नीतिगत विफलताओं के कारण अपने सामने एक कारोबारी को जहर खाते और उसे मौत के मुंह में जाता देखकर भी उसे 'नौटंकी' करार दिया...
एक बहुमत वाली सरकार के शासन में अराजक तत्वों का बेखौफ मन जब एक बड़े क्षेत्र को मुर्दाघाटी में बदल दे और पीड़ित लोगों की देखरेख करने के बजाय उन्हें कड़ाके की सर्द रात में तड़पता छोड़कर जिम्मेदार लोग हीटर की गर्मी में सुरा-सुन्दरियों के रास-रंग का आनंद लें, तो इसे 'निहायत ही घटिया और चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाला हरकत' कहा जाना सर्वथा उचित है, तब भी जब वो आयोजन निजी हो। समाजवादी पार्टी के सैफई महोत्सव की गोरखपुर के तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ जी द्वारा की गई भर्त्सना में हमने भी अपना सुर मिलाया था, लेकिन तब पता नहीं था कि सत्ता मिलने पर अपने शहर की चांदनी रात को गुलजार करने वाली परम्परा उत्तर प्रदेश में कायम रहेगी, भले ऐसे कृत्य की भर्त्सना करने वालों के हाथ में ही सत्ता क्यों न हो और भले वहां 30 निरीह बच्चों की मौत के जख्म अभी हरे क्यों न हों। आज से शुरू हुए गोरखपुर महोत्सव में जब बॉलीवुड गायक शान अपनी तान छेड़ेंगे, मुख्यमंत्री योगी के प्रमुख सचिव अवनीश अवस्थी की धर्मपत्नी मालिनी अवस्थी जब कजरी और ठुमरी का राग अलापेंगी और अभिनेता रवि किशन जब कमरिया लपालप करेंगे, तब वो मंजर सैफई से बस इसी मामले में अलग होगा कि लोग वहां यादव परिवार के धन को नहीं बल्कि अपने टैक्स के पैसे को पानी में बहता देख रहे होंगे और वहां नेता जी नहीं बल्कि 'नाथ योगी' के नारे लग रहे होंगे... ये वो चंद सच हैं, जो सत्ता बदलने के साथ भी नहीं बदलते और राजनीतिक ताकतें हमें-आपको मंदिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम जैसे मुद्दों में उलझाकर अपनी सियासी स्वार्थसिद्धि का इंतेजाम करती रहती हैं। 

शनिवार, 6 जनवरी 2018

सांप्रदायिकता से लड़ाई भ्रष्टाचार का पाप नहीं धो सकती

अपने जीवन की पहली राजनीतिक रैली में मैंने जो सियासी डायलॉग सुना वो था- 'यही पुलिस गोली चलाएगी।' 2004 के विधानसभा चुनाव प्रचार में सिकटा आए नीतीश कुमार ने बिहार को कुशासन और जंगलराज के जंजाल से निकालकर सुशासन देने के वादे के साथ यह बात कही थी। यह अलग मुद्दा है कि बिहार वर्तमान में भी सुशासन की पहुंच से दूर है। उसी चुनाव प्रचार के दौरान पहली बार जया प्रदा और अमर सिंह को भी देखना सुनना हुआ। दोनों साथ आए थे और अमर सिंह की एक बात जो आजतक मुझे याद है, वो कुछ ऐसी थी- 'आपलोग जोरदार तालियां बजाकर जया जी का स्वागत कीजिए, क्योंकि ये बहुत मुश्किल से यहां आई हैं, इनके पिताजी इन्हें नहीं आने दे रहे थे, वे कह रहे थे कि वो 'लालू का इलाका' है, मैं अपनी बेटी को वहां नहीं जाने दे सकता, लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि नहीं, आप जाने दीजिए, इनकी सुरक्षा मेरी जिम्मेदारी है, अगर आज ये बिहार नहीं गईं, तो फिर आगे भी कोई बाहरी लड़की बिहार जाने में डरेगी...' अमर सिंह के इस लच्छेदार भाषण का सार मुझे आज समझ में आता है, लेकिन उस समय मैंने जया प्रदा के लिए ताली नहीं बजाई थी। इसलिए नहीं कि अभिनेत्री या नेत्री के रूप में वे मुझे पसंद नहीं या मुझे अमर सिंह की बात समझ में नहीं आई, बल्कि इसलिए क्योंकि जो लड़की हमारे यहां जबरदस्ती लाई गई हो, उसके सम्मान में ताली क्यों बजाना। जया प्रदा का डर भले सियासी हो, लेकिन बिहार की आबोहवा में उन दिनों 'बेटियों की इज्जत' को लेकर बरती जाने वाली सावधानी महसूस की जा सकती थी।
यह उन्हीं दिनों की बात है, जब हमने अपने सिलेबस की एक किताब 'कथान्तर' में कर्पूरी ठाकुर के साथ लालू प्रसाद यादव की जीवनी पढ़ी थी। लेकिन कथान्तर में जिस जनहितकारी और गरीबों के मसीहा लालू का जिक्र था, वो लालू हमें जमीन पर कहीं नहीं दिखे। उस कथान्तर में मैंने पढ़ा था कि 'मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार लालू जी हेलीकॉप्टर में बैठकर कहीं जा रहे थे, एक खेत के ऊपर से उड़ते हुए उन्होंने देखा कि नीचे कुछ मजदूर 'पनपीआव' (जलपान) खा रहे हैं, लालू जी ने हेलीकॉप्टर नीचे उतरवाया और उनके साथ बैठकर सत्तू प्याज खाए।' लेकिन कथान्तर में इसका जिक्र नहीं था कि लालू जी ने बिहार में किसानों की हालत सुधारने के लिए क्या किया, सत्तू खाने के एवज में उन्होंने उस किसान को ऐसा क्या दिया कि उसका बेटा तंगहाली की किसानी से बाहर आ सके। मुझे उस कथान्तर की सिर्फ एक पंक्ति में लालू प्रसाद यादव की सियासत का ध्येय नज़र आता है, और वो पंक्ति थी- 'लालू के मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उनकी मां मरछिया देवी ने पूछा कि ई मुख्यमंत्री का होला, तो लालू ने उन्हें समझाया कि माई रे, हथुआ राज मिल गइल...' 90 के दशक से लेकर अब तक की लालू की सियासत देखें, तो इसका साफ संकेत मिलता है कि उन्होंने बिहार को 'खैरात' ही समझा।
लालू यादव की 15 साल की स्वार्थसिद्धि वाली सियासत ने सिर्फ विकास का गला नहीं घोंटा बल्कि हमारे जैसे लाखों युवकों के सपनों को भी मार डाला।पता नहीं तेज-तेजस्वी उस समय कहां थे और क्या कर रहे थे, लेकिन मैं तब 8वी कक्षा में था, जब अपने सिकटा रेलवे स्टेशन के बुक स्टॉल पर टंगे दैनिक जागरण में गौतम गोस्वामी की मृत्यु की खबर पढ़ी। उन दिनों हम भी ज्यादातर बिहारी बच्चों की तरह गौतम गोस्वामी की राह पर चलकर प्रशासनिक सेवा में जाना चाहते थे, इसलिए गौतम गोस्वामी के बारे में हर संभव ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश की थी और उस समय हीरो की तरह उभरे पटना के डीएम के बारे में हमारा मन मानने को तैयार नहीं था कि डॉक्टरी का पेशा छोड़कर आईएएस बनने वाला यह अधिकारी घोटाला कर सकता है। पता नहीं सच्चाई क्या थी, लेकिन गोस्वामी के साथ हमारे सपने भी दम तोड़ गए, क्योंकि सिस्टम के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के कृत्य के लिए उसके मातहत लोगों की सजा हमारे लिए असहनीय थी। हो सकता है उसमे गौतम गोस्वामी की भी भागीदारी रही हो, लेकिन बिना ऊपर वाले की मर्जी के तो वो संभव नहीं हो होता।
आज लालू यादव को साढ़े तीन साल की सजा होने के बाद उनके बेटे तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि 'हमें गर्व है अपने पिता पर, जिन संघर्षों के कारण वे जेल में हैं...' मैं मान लेता हूं कि पिछले तीन साल से लालू यादव साम्प्रदायिक ताकतों के साथ संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन चारा घोटाला 2014 का तो है नहीं, जो साम्प्रदायिक ताकतें उन्हें जेल भेज देना चाहती हैं। इससे पहले तीन बार जब लालू जेल गए तब कांग्रेस की सरकार थी। क्या तब भी कांग्रेस इन्हें सांप्रदायिकता से लड़ने की सजा दे रही थी? और संप्रदायिकता से लालू की लड़ाई ने शोषितों-वंचितों को क्या दिया है? लालू शान से कहते हैं कि हमने आडवाणी का रथ रोका, लेकिन आडवाणी का रथ रोकने से उस तबके को क्या मिला, जिसके नाम आज वे जेल से चिट्ठी लिख रहे हैं। अगर उन्होंने अपने 15 साल के शासन में शोषितों-वंचितों का इतना ही ध्यान रखा होता, तो वे भी बिहार में साउथ वाले एनटीआर और अम्मा की तरह पूजे जाते। आज उन्हें चिट्टी लिखवाकर उसका सार्वजनिक वाचन नहीं कराना पड़ता। साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ाई जरूरी है, लेकिन उसके नाम पर किसी के भ्रष्टाचार वाले पाप पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। हमारी नज़र में व्यापम घोटाला, सृजन घोटाला, शौचालय घोटाला या भाजपा शासित राज्यों के अन्य घोटाले भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन केवल इसलिए कि इन घोटालों पर आज कोई सवाल नहीं हो रहे, हम चारा घोटाले को सिरे से खारिज नहीं कर सकते। जिस तरह चारा घोटाला मामले में लालू यादव ने एफआईआर दर्ज कराया था, उसी तरह नीतीश कुमार ने भी सृजन मामले में जांच के आदेश दिए हैं। बहुत हद तक संभव है कि तेजस्वी जब मुख्यमंत्री बनें, तब वे सख्ती से जांच कराकर नीतीश को सजा दिलवाएं, क्योंकि आज की राजनीति में कोई अपने कुकृत्यों की सजा खुद तो दिलवा नहीं सकता, न लालू ने दिलवाया न नीतीश दिलवाएंगे...।