शनिवार, 6 जनवरी 2018

सांप्रदायिकता से लड़ाई भ्रष्टाचार का पाप नहीं धो सकती

अपने जीवन की पहली राजनीतिक रैली में मैंने जो सियासी डायलॉग सुना वो था- 'यही पुलिस गोली चलाएगी।' 2004 के विधानसभा चुनाव प्रचार में सिकटा आए नीतीश कुमार ने बिहार को कुशासन और जंगलराज के जंजाल से निकालकर सुशासन देने के वादे के साथ यह बात कही थी। यह अलग मुद्दा है कि बिहार वर्तमान में भी सुशासन की पहुंच से दूर है। उसी चुनाव प्रचार के दौरान पहली बार जया प्रदा और अमर सिंह को भी देखना सुनना हुआ। दोनों साथ आए थे और अमर सिंह की एक बात जो आजतक मुझे याद है, वो कुछ ऐसी थी- 'आपलोग जोरदार तालियां बजाकर जया जी का स्वागत कीजिए, क्योंकि ये बहुत मुश्किल से यहां आई हैं, इनके पिताजी इन्हें नहीं आने दे रहे थे, वे कह रहे थे कि वो 'लालू का इलाका' है, मैं अपनी बेटी को वहां नहीं जाने दे सकता, लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि नहीं, आप जाने दीजिए, इनकी सुरक्षा मेरी जिम्मेदारी है, अगर आज ये बिहार नहीं गईं, तो फिर आगे भी कोई बाहरी लड़की बिहार जाने में डरेगी...' अमर सिंह के इस लच्छेदार भाषण का सार मुझे आज समझ में आता है, लेकिन उस समय मैंने जया प्रदा के लिए ताली नहीं बजाई थी। इसलिए नहीं कि अभिनेत्री या नेत्री के रूप में वे मुझे पसंद नहीं या मुझे अमर सिंह की बात समझ में नहीं आई, बल्कि इसलिए क्योंकि जो लड़की हमारे यहां जबरदस्ती लाई गई हो, उसके सम्मान में ताली क्यों बजाना। जया प्रदा का डर भले सियासी हो, लेकिन बिहार की आबोहवा में उन दिनों 'बेटियों की इज्जत' को लेकर बरती जाने वाली सावधानी महसूस की जा सकती थी।
यह उन्हीं दिनों की बात है, जब हमने अपने सिलेबस की एक किताब 'कथान्तर' में कर्पूरी ठाकुर के साथ लालू प्रसाद यादव की जीवनी पढ़ी थी। लेकिन कथान्तर में जिस जनहितकारी और गरीबों के मसीहा लालू का जिक्र था, वो लालू हमें जमीन पर कहीं नहीं दिखे। उस कथान्तर में मैंने पढ़ा था कि 'मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार लालू जी हेलीकॉप्टर में बैठकर कहीं जा रहे थे, एक खेत के ऊपर से उड़ते हुए उन्होंने देखा कि नीचे कुछ मजदूर 'पनपीआव' (जलपान) खा रहे हैं, लालू जी ने हेलीकॉप्टर नीचे उतरवाया और उनके साथ बैठकर सत्तू प्याज खाए।' लेकिन कथान्तर में इसका जिक्र नहीं था कि लालू जी ने बिहार में किसानों की हालत सुधारने के लिए क्या किया, सत्तू खाने के एवज में उन्होंने उस किसान को ऐसा क्या दिया कि उसका बेटा तंगहाली की किसानी से बाहर आ सके। मुझे उस कथान्तर की सिर्फ एक पंक्ति में लालू प्रसाद यादव की सियासत का ध्येय नज़र आता है, और वो पंक्ति थी- 'लालू के मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उनकी मां मरछिया देवी ने पूछा कि ई मुख्यमंत्री का होला, तो लालू ने उन्हें समझाया कि माई रे, हथुआ राज मिल गइल...' 90 के दशक से लेकर अब तक की लालू की सियासत देखें, तो इसका साफ संकेत मिलता है कि उन्होंने बिहार को 'खैरात' ही समझा।
लालू यादव की 15 साल की स्वार्थसिद्धि वाली सियासत ने सिर्फ विकास का गला नहीं घोंटा बल्कि हमारे जैसे लाखों युवकों के सपनों को भी मार डाला।पता नहीं तेज-तेजस्वी उस समय कहां थे और क्या कर रहे थे, लेकिन मैं तब 8वी कक्षा में था, जब अपने सिकटा रेलवे स्टेशन के बुक स्टॉल पर टंगे दैनिक जागरण में गौतम गोस्वामी की मृत्यु की खबर पढ़ी। उन दिनों हम भी ज्यादातर बिहारी बच्चों की तरह गौतम गोस्वामी की राह पर चलकर प्रशासनिक सेवा में जाना चाहते थे, इसलिए गौतम गोस्वामी के बारे में हर संभव ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश की थी और उस समय हीरो की तरह उभरे पटना के डीएम के बारे में हमारा मन मानने को तैयार नहीं था कि डॉक्टरी का पेशा छोड़कर आईएएस बनने वाला यह अधिकारी घोटाला कर सकता है। पता नहीं सच्चाई क्या थी, लेकिन गोस्वामी के साथ हमारे सपने भी दम तोड़ गए, क्योंकि सिस्टम के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के कृत्य के लिए उसके मातहत लोगों की सजा हमारे लिए असहनीय थी। हो सकता है उसमे गौतम गोस्वामी की भी भागीदारी रही हो, लेकिन बिना ऊपर वाले की मर्जी के तो वो संभव नहीं हो होता।
आज लालू यादव को साढ़े तीन साल की सजा होने के बाद उनके बेटे तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि 'हमें गर्व है अपने पिता पर, जिन संघर्षों के कारण वे जेल में हैं...' मैं मान लेता हूं कि पिछले तीन साल से लालू यादव साम्प्रदायिक ताकतों के साथ संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन चारा घोटाला 2014 का तो है नहीं, जो साम्प्रदायिक ताकतें उन्हें जेल भेज देना चाहती हैं। इससे पहले तीन बार जब लालू जेल गए तब कांग्रेस की सरकार थी। क्या तब भी कांग्रेस इन्हें सांप्रदायिकता से लड़ने की सजा दे रही थी? और संप्रदायिकता से लालू की लड़ाई ने शोषितों-वंचितों को क्या दिया है? लालू शान से कहते हैं कि हमने आडवाणी का रथ रोका, लेकिन आडवाणी का रथ रोकने से उस तबके को क्या मिला, जिसके नाम आज वे जेल से चिट्ठी लिख रहे हैं। अगर उन्होंने अपने 15 साल के शासन में शोषितों-वंचितों का इतना ही ध्यान रखा होता, तो वे भी बिहार में साउथ वाले एनटीआर और अम्मा की तरह पूजे जाते। आज उन्हें चिट्टी लिखवाकर उसका सार्वजनिक वाचन नहीं कराना पड़ता। साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ाई जरूरी है, लेकिन उसके नाम पर किसी के भ्रष्टाचार वाले पाप पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। हमारी नज़र में व्यापम घोटाला, सृजन घोटाला, शौचालय घोटाला या भाजपा शासित राज्यों के अन्य घोटाले भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन केवल इसलिए कि इन घोटालों पर आज कोई सवाल नहीं हो रहे, हम चारा घोटाले को सिरे से खारिज नहीं कर सकते। जिस तरह चारा घोटाला मामले में लालू यादव ने एफआईआर दर्ज कराया था, उसी तरह नीतीश कुमार ने भी सृजन मामले में जांच के आदेश दिए हैं। बहुत हद तक संभव है कि तेजस्वी जब मुख्यमंत्री बनें, तब वे सख्ती से जांच कराकर नीतीश को सजा दिलवाएं, क्योंकि आज की राजनीति में कोई अपने कुकृत्यों की सजा खुद तो दिलवा नहीं सकता, न लालू ने दिलवाया न नीतीश दिलवाएंगे...।

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