गुरुवार, 11 जनवरी 2018

बदलती सत्ता में न बदलने वाले सच

'शहर में करता था जो सांप के काटे का इलाज,
उसके तहखाने से सांपों के ठिकाने निकले...'

अभी 'शकील आजमी' को सुनते हुए, उनकी इन पंक्तियों पर मन ठहर सा गया। वर्तमान सियासी मौजूं पर इस शेर की सार्थकता यह सोचने पर विवश करती है कि जनता के भले के लिए बुरे को बुरा और खराब को खराब कहने वाले सुर अगर पूरी तरह से विपरीत रुख अख्तियार कर लें, तो जनता का क्या होगा?
'रिटेल में एफडीआई' से हमारा पहला परिचय एक ऐसे सांप के बिल के रूप में हुआ था, जिससे विदेशी कारोबारियों के रूप में निकले सांप हमारे खुदरा व्यापारियों को डंस लेते हैं, अफ़सोस कि इसके प्रति हमें आगाह करने वाले रहनुमाओं को आज उसी सांप के बिल में तरक्की का मणि दिख रहा है। रिटेल में एफडीआई के लिए पूरी तरह से भारत के दरवाजे खोलने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी, वही मोदी जी हैं, जिन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा रिटेल में एफडीआई के लिए हिंदुस्तान के दरवाजे आधे खोलने पर उन्हें कहा था कि मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार 'विदेशियों द्वारा, विदेशियों की और विदेशियों के लिए सरकार' है। उसी 'रिटेल में एफडीआई' वाले सांप से जनता को बचाने वाला रखवाला बनकर सामने आए हमारे वर्तमान वित्त मंत्री जेटली जी ने तब रामलीला मैदान की भरी सभा में खुदरा व्यापारियों की दारुण दशा का मार्मिक चित्रण करते हुए कहा था कि 'अंतिम सांस तक मैं भारत के खुदरा व्यापार को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से दूर रखने के लिए लड़ता रहूंगा।' अफ़सोस कि यहां भी वादों की बलि वेदी पर इरादे बदल गए...
2012-14 के बीच उजागर हुए घोटालों की फेहरिस्त पर फिर से नज़र डालें तो वो इसी रूप में सामने आए कि योजना में हुआ खर्च वाजिब खर्च से ज्यादा था या उसके नाम पर उगाही कर ली गई थी। तत्कालीन विपक्षी पार्टी द्वारा कांग्रेस के कुकृत्यों को उजागर करने की कोशिशों को जनता ने सराहा भी और उसके साथ खड़े भी हुए, नतीज़ा यह निकला कि कांग्रेस को उसके किए की सजा मिली और उन्हें इतिहास की सबसे बड़ी हार से रूबरू होना पड़ा, बदले में हमें ऐसी सरकार मिली, जो आर्थिक और सामाजिक विकास के साथ-साथ भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को जीवंत करने में पूर्णतः सक्षम थी। लेकिन तब पता नहीं था कि यह क्षमता यहां तक पहुंच जाएगी कि एक धार्मिक आयोजन के लिए गीता की एक प्रति की खरीददारी 37,950 रुपए में की जाएगी। जी हां, हरियाणा राज्य में भाजपा की सरकार है और जो मुख्यमंत्री हैं, उन्हें हमारे प्रधानमंत्री जी का वरदहस्त प्राप्त है और उसी मुख्यमंत्री जी वाली सरकार ने पिछले साल आयोजित गीता जयंती महोत्सव में गीता की 10 प्रतियां खरीदने के लिए 3,79,500 रुपए खर्च कर दिए...
हमारे वर्तमान सत्ताधारी तो उस समय सत्ता वाले रहनुमा ही थे, जब 3 साल पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर दिल्ली सरकार के एक कार्यक्रम में राजस्थान के एक किसान ने आत्महत्या कर ली थी। तब हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वहन करते हुए कई ट्वीट किए थे और किसानों को उनकी दुर्दशा से उबारने के वादे के साथ मरने वाले किसान के दुःख के लिए अंग्रेजी में 'Deeply Shattered' भी लिखा था। एक आत्महत्या कल भी हुई है और यह प्रधानमंत्री जी के लिए 3 साल पहले की दिल्ली वाली किसान आत्महत्या से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी बोध वाली घटना है, क्योंकि यह उसी पार्टी के शासन वाले राज्य की घटना है, जिसके आलाकमान हमारे प्रधानमंत्री जी हैं। 3 साल पहले दिल्ली में आत्महत्या करने वाला किसान तो राजस्थान का था लेकिन कल जिस कारोबारी ने आत्महत्या की वह उत्तराखंड का ही था और उसने उत्तराखंड में ही आत्महत्या की, वो भी सरकार के एक बड़े कैबिनेट मंत्री के सामने अपनी समस्याओं का रोना रोते हुए। अफ़सोस कि 3 साल पहले वाली दिल्ली की घटना को आम आदमी पार्टी की सियासी संवेदनहीनता बताने वाले दल ने अपनी नीतिगत विफलताओं के कारण अपने सामने एक कारोबारी को जहर खाते और उसे मौत के मुंह में जाता देखकर भी उसे 'नौटंकी' करार दिया...
एक बहुमत वाली सरकार के शासन में अराजक तत्वों का बेखौफ मन जब एक बड़े क्षेत्र को मुर्दाघाटी में बदल दे और पीड़ित लोगों की देखरेख करने के बजाय उन्हें कड़ाके की सर्द रात में तड़पता छोड़कर जिम्मेदार लोग हीटर की गर्मी में सुरा-सुन्दरियों के रास-रंग का आनंद लें, तो इसे 'निहायत ही घटिया और चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाला हरकत' कहा जाना सर्वथा उचित है, तब भी जब वो आयोजन निजी हो। समाजवादी पार्टी के सैफई महोत्सव की गोरखपुर के तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ जी द्वारा की गई भर्त्सना में हमने भी अपना सुर मिलाया था, लेकिन तब पता नहीं था कि सत्ता मिलने पर अपने शहर की चांदनी रात को गुलजार करने वाली परम्परा उत्तर प्रदेश में कायम रहेगी, भले ऐसे कृत्य की भर्त्सना करने वालों के हाथ में ही सत्ता क्यों न हो और भले वहां 30 निरीह बच्चों की मौत के जख्म अभी हरे क्यों न हों। आज से शुरू हुए गोरखपुर महोत्सव में जब बॉलीवुड गायक शान अपनी तान छेड़ेंगे, मुख्यमंत्री योगी के प्रमुख सचिव अवनीश अवस्थी की धर्मपत्नी मालिनी अवस्थी जब कजरी और ठुमरी का राग अलापेंगी और अभिनेता रवि किशन जब कमरिया लपालप करेंगे, तब वो मंजर सैफई से बस इसी मामले में अलग होगा कि लोग वहां यादव परिवार के धन को नहीं बल्कि अपने टैक्स के पैसे को पानी में बहता देख रहे होंगे और वहां नेता जी नहीं बल्कि 'नाथ योगी' के नारे लग रहे होंगे... ये वो चंद सच हैं, जो सत्ता बदलने के साथ भी नहीं बदलते और राजनीतिक ताकतें हमें-आपको मंदिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम जैसे मुद्दों में उलझाकर अपनी सियासी स्वार्थसिद्धि का इंतेजाम करती रहती हैं। 

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