रविवार, 11 दिसंबर 2016

जनता फिर भी 'लाइन' में है...

'एक चुटकी भर चांदनी, एक चुटकी भर शाम,
वर्षों से सपने यही देखे यहां अवाम...।'

वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे देखना शायद भारतीय जनता की बदकिस्मती ही है और उसी बदकिस्मती को बयां करती है 'दिनेश शक्ल' की ये पंक्तियां। संसद का पूरा शीत सत्र हो-हल्ले की भेंट चढ़ गया। दोनों मुख्य राजनीतिक दल इसके लिए बराबर के जिम्मदार हैं। लेकिन उधर राहुल कहते हैं कि मुझे नहीं बोलने दिया जा रहा और इधर मोदी कहते हैं कि मुझे नहीं बोलने दिया जा रहा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि राहुल की बात यूपीए का कोई नेता नहीं माने या मोदी का आदेश मानने से एनडीए का कोई नेता मुकर जाए। लेकिन दोनों जनता के सामने घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। अब होगा यही कि संसद सत्र के अंतिम दिनों में मोदी 'लाजवाब' भाषण देंगे और सत्ता पक्ष के साथ-साथ जनता भी झूम उठेगी। सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक सदन में पीएम का भाषण चर्चा का विषय बन जाएगा। सब यही कहेंगे, वाह क्या बोला है, धो डाला... पर विपक्ष फिर भी सवालों के जवाब के लिए हो हल्ला मचाएगा लेकिन जनता को यह जवाब कोई नहीं देगा कि आखिर क्यों संसद सत्र में लगने वाली जनता के खून पसीने की कमाई शोर-शराबे और आरोपों-प्रत्यारोपों की भेंट चढ़ गई। अफ़सोस कि जनता आज नागरिक से ज्यादा समर्थक और विरोधी की भूमिका में आ गई है। तमाम असुविधाओं के बावजूद उसे अपने 'प्रिय' नेता के दर्शन और समर्थन के लिए 'लाइन' लगना मंजूर है... 


'भोर था प्यार अब दोपहर हो गया,
स्वप्न का हर भंवर खंडहर हो गया,
तुम संवरती-संवरती हुईं सैफई,
मैं उजड़ कर मुजफ्फरनगर हो गया।'

हर बार दिखाए जाने वाले सियासी सपने कुछ समय बाद किस तरह से केवल सपने भर बन कर रह जाते हैं और सैफई का विकास मॉडल किस तरह से पूरे सूबे की दुर्दशा के लिए एक मजाक है, इसे कवि 'प्रियांशु गजेंद्र' की इन पंक्तियों से भी समझा जा सकता है। लोहिया और चरण सिंह के बाद जब मुलायम सिंह समाजवादी खेमे के अगुआ के रूप से आगे आए, तो जनता में एक आस जगी कि अखाड़े का यह पहलवान जनता के हक़ के लिए लड़ेगा। यह 'नेता' लोहिया और चौधरी जी के समाजवाद के सपने को जिवंत करेगा। पर अफ़सोस कि समाजवाद परिवारवाद का रास्ता और विलासिता का साधन बन गया। हाल में जब समाजवादी पार्ट के नए खेवैया ने समाजवाद की जातिगत राजनीति और गुंडागर्दी वाली सियासी पहचान को सार्वजनिक रूप से ललकारा और विकास के समाजवादी मॉडल के सहारे आगे बढ़ने की बात कही, तब लगा कि 'नेता का बेटा' हाशिए पर पड़े लोगों के हौसलों को उड़ान देगा। लेकिन आज जब पता चला कि समाजवाद के सियासी सूरमाओं ने फिर से मुख्तार अंसारी जैसे गुंडे के आगे घुटने टेक दिए और उसके हत्यारे भाई को बांदा से टिकट दे दिया गया तो यह सपना फिर से भरभरा गया कि देश को दिशा देने वाली यूपी की सियासत में सूचिता लौटेगी। जनता तब भी समाजवाद की हकीकत से रूबरू हुई थी, जब मुजफ्फरनगर में सैकड़ों लोग खुले आसमान के नीचे ठंढ में ठिठुरते रहे थे और समाजवाद के पहरुआ सैफई में हीटर के बीच बॉलीवुड की बालाओं के साथ झूम रहे थे और जनता आज भी इनकी असलियत देख रही है, लेकिन इन सब के बावजूद आज भी अपने समाजवादी नेताओं के एक दीदार के लिए यूपी की बड़ी आबादी 'लाइन' लगने को तैयार है...

'जिसे मैंने सुबह समझ लिया,
कहीं वो भी शाम-ए-अलम ना हो।'

मुमताज नसीम के इस शेर को आज बिहार सरकार के प्रति पिछड़ों और वंचितों के विचार से जोड़कर देखा जा सकता है। 2005 में जब लालू के जंगल राज को जड़ से खत्म करने के मंसूबे के साथ नीतीश कुमार ने ऐलान किया कि 'वही पुलिस गोली चलाएगी' तो जनता को भयाक्रान्त माहौल से छुटकारा मिला। बिहार की जनता को लगभग एक दशक तक सुशासन की जो सौगात मिली उसी का प्रतिफल था कि बिहार की बिगड़ी पहचान के सर्जग और जंगल राज के प्रतीक लालू यादव के साथ नीतीश के  हाथ मिलाने को भी जनता ने कबूल किया और कभी चिर विरोधी रहे लालू-नीतीश को सर आंखों पर बिठाया। इस जीत से सबसे ज्यादा जो समुदाय या वर्ग खुश हुआ वह था हाशिए पर पड़ा पिछड़ा वर्ग। क्योंकि लालू किसी समय उनकी आवाज हुआ करते थे और नीतीश ने उन्हें 'गर्त' से उबारा था। अब उन्हें सपना दिखाया गया था समाज की पहली पंक्ति में कदमताल करते हुए चलने का। लेकिन दो दिन पहले भागलपुर में जो हुआ उसने ना सिर्फ उन सपनों का गला घोंटा बल्कि सरकार के इकबाल पर भी सवालिया निशान लगा दिया।  अपने आशियाने के सपने को पूरा होते देखने की आस में डीएम ऑफिस के सामने आवाज उठा रही औरतों को जिस बेरहमी और बेशर्मी से मारा गया वह निहायत ही कायरता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि ऐसी घटना नीतीश सरकार में पहली बार हुई है, पहले भी दलितों-औरतों पर लाठियां बरसाई जाती रही है। लेकिन जनता सब भूलकर फिर नीतीश को अपना 'नेता' मान लेती है। अब भी वही होगा, निश्चय यात्रा और नीतीश की अन्य यात्राओं में भी वही जनता फिर से भीड़ जुटाने के लिए 'लाइन' में लगेगी... लब्बोलुबाव यह कि हर बार की सियासी बेवफाई भी जनता को वफ़ा से नाउम्मीद नहीं करती और चोट खाने के बाद भी लोग फिर से उसी आशा, आकांक्षा और उत्साह से 'लाइन' में खड़े हो जाते हैं...

मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

6 दिसम्बर: स्तंभों के ढहने और जनता के बिलखने का दिन...

वह 6 दिसम्बर ही था जब नियति ने उन लाखों लोगों को स्तंभहिन कर दिया जिनको आम्बेडकर ने सर उठा कर जीने की ताकत दी... वह 6 दिसम्बर ही था जब एक स्तंभ का गुंबज गिरते ही धर्मनिरपेक्ष भारत की बंधुता धाराशायी हो गई थी... वह 6 दिसम्बर का सूर्य ही था जिसने विश्व जगत को यह मनहूस खबर दी कि लाखों लोगों के लिए स्तंभ, वह मंडेला नहीं रहे जिनके शब्दों ने ना सिर्फ अफ़्रीका बल्कि पूरे विश्व को अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाया... और आज भी 6 दिसम्बर ही है जब तमिलनाडु के लाखों लोग अपने सियासी व सामाजिक स्तंभ 'अम्मा'  के लिए बिलख रहे हैं... उस अम्मा के लिए आज देश आंसुओं में डूबा है, जिन्होंने जनता को अपना समझकर जननेता  की एक नई परिभाषा गढ़ी... अभी 'आज तक' पर जयललिता के साथ प्रभु चावला के पुराने 'सीधी बात' कार्यक्रम का प्रसारण हो रहा है... जयललिता बोल रही हैं, 'राजनीति नहीं प्रजा मेरा परिवार है, एआईडीएमके के लाखों कार्यकर्ता मेरा परिवार हैं'... आज यह बात सच साबित हो रही है... खैर, एक बहुत पुराना टीवी विज्ञापन याद आ रहा है-
'जाने वाले तो एक दिन चले जाते हैं,
सिर्फ यादें ही अपनी वो दे जाते हैं,
नाम उनके स्मारक बनाते रहें,
उनकी यादों को यूं ही सजाते रहें...'

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

राष्ट्रहित में राष्ट्रवाद का पेंच

पिछले दिनों पीटीआई ने खबर दी कि 'प्रधानमंत्री जी की तरफ से ऐसी कोई अपील नहीं है कि दिवाली पर केवल भारत में बनी वस्तुएं ही खरीदें।' बात भी सही है। माना कि देश में बने उत्पादों का उपभोग स्वाभिमान के साथ विकास का सूचक है। लेकिन राष्ट्रवाद की अंधी दौड़ में आप वैश्वीकरण को झुठला नहीं सकते। जिस समय भारत में चीन में बनी फुलझड़ियाँ, जो फ्यूज हो चुकी थीं और मोबाइल के फ्लिप कवर और स्क्रीन गार्ड में आग लगा कर भारत प्रेम की ज्वाला जगाई जा रही थी, उसी समय 20 अक्टूबर को भारतीय सैनिक, चीनी सैनिकों के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास कर रहे थे। जिस चीन ने 54 साल पहले छल से हमारी संप्रभुता पर चोट की और आज हमारे पड़ोसी को हथियार मुहैया करा रहा है, उसके साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास जायज है, उसके पैसे से मोदी जी की महत्वाकांक्षी योजना, स्मार्ट सिटी को संजीवनी मिले यह जायज है, उसके पैसे से भारत की जीडीपी में उछाल लाया जाए यह जायज है, लेकिन उसकी बाजार से कुछ छोटे-मोटे सामान खरीद कर भारत में अपनी रोजी-रोटी चलाना नाजायज है... वाह रे देशभक्ति और वाह रे बुद्धिमता... और हाँ, जिस इनडायरेक्ट रिलेशन से हम पाकिस्तान से होते हुए चीन विरोध तक पहुंचे हैं, उस डायरेक्ट रिलेशन वाले पाकिस्तान से हिंदुस्तान की कथित 'दुश्मनी' की भी कहानी सुनिए... जिस समय उड़ी हमला हुआ उस समय भी और जिस समय सर्जिकल स्ट्राइक हुआ उस समय भी और आज भी अटारी बॉर्डर, अमन सेतु, सदा-ए-सरहद, या चकन-दे-बाग से हजारों बस और ट्रक आ-जा चुके हैं, समझौता एक्सप्रेस उसी रफ्तार से दौड़ रही है, भारत-पाकिस्तान के बीच हॉकी के मैच में आज भी वही रोमांच था, 'खून और पानी आज भी साथ बह रहे हैं, पाकिस्तान से मोस्ट फेवरेबल नेशन का दर्जा छीने जाने पर हुए मीटिंग्स की फाइलों की ग्रह दशा बदल गई है। ले-दे कर बात यह है कि कूटनीति-सियासत और राष्ट्रवाद को एक ही डंडे से नहीं हांका जा सकता...। 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

असफाक और अदम...

जुबाने-हाल से अशफ़ाक़ की तुर्बत ये कहती है,
मुहिब्बाने-वतन ने क्यों हमें दिल से भुलाया है?
बहुत अफसोस होता है बडी़ तकलीफ होती है,
शहीद अशफ़ाक़ की तुर्बत है और धूपों का साया है।’

ऐसा होना नहीं चाहिए था, लेकिन अफ़सोस कि आज ये पंक्तियाँ सार्थक हो रही है। जिनके सुकर्मों और सीखों के ऊपर हमारे आज के सुखमय जीवन की बुनियाद खड़ी है, ऐसे दो महान लोगों का आज जन्मदिन है। लेकिन अपने और अपनों में ही मशगुल होकर हमने उन्हें भुला दिया। किसी शहीद और साहित्यकार की समाधी पर आवारा कुत्तों को भटकते देखते हैं तो उपर्युक्त पंक्तियों की सार्थकता हमें शर्म का अहसास कराती है। इत्तेफाक से आज एक जन्मदिन की शुभकामना के ट्वीट नोटिफिकेशन से ही नींद खुली। प्रधानमंत्री जी ने अपनी पार्टी के अध्यक्ष और अनन्य मित्र अमित शाह जी को जन्मदिन की बधाई दी थी। वैसे इसपर तो उनका सर्वाधिकार है कि वे क्या ट्वीट करें और किसे जन्मदिन की बधाई दें, लेकिन उन्होंने ही अपने एक मन की बात में कहा था, ‘अगर इतिहास से नाता टूट जाता है तो इतिहास बनने की संभावनाओं पर भी पूर्ण विराम लग जाता है।’ जिस इतिहास और उसे बनाने वाले जिन लोगों पर हमारे वर्तमान की बुनियाद टिकी है, उनके उल्लेख से दिन-ब-दिन हमारे समाज, सत्ता वर्ग और सियासत का दूर होना उस इतिहास बनने के पूर्ण विराम की तरफ ही इशारा कर रहा है। आज माँ भारती के उस वीर सपूत का जन्मदिन है, जिसने हमारे आज को खुशनुमा बनाने के लिए अपने वर्तमान के ऊपर दुखों का पहाड़ लाद लिया।

‘बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।’

खुद की और देशप्रेम के दीवाने अपने दोस्तों की टोली की कुर्बानी की बदौलत अपनी ही पंक्तियों को सार्थक करने वाले उस वीर योद्धा का नाम है, ‘असफाक उल्ला खान।' आज जब हर दिन धार्मिक भावनाएं देश, कानून और संविधान पर हावी हो रही हैं, इस समय हमें असफाक उल्ला खान से प्रेरणा लेने की जरुरत है, जिन्होंने फांसी पर चढ़ने से पहले भारत को आजाद ना देख पाने का दुःख और अपने धार्मिक बंधन की बेबसी का जिक्र करते हुए लिखा कि,

‘जाऊँगा खाली हाथ मगर, यह दर्द साथ ही जायेगा,
जाने किस दिन हिन्दोस्तान, आजाद वतन कहलायेगा।
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं, फिर आऊँगा-फिर आऊँगा,
 ले नया जन्म ऐ भारत माँ! तुझको आजाद कराऊँगा।
जी करता है मैं भी कह दूँ, पर मजहब से बँध जाता हूँ,
मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कह पाता हूँ।
हाँ, खुदा अगर मिल गया कहीं, अपनी झोली फैला दूँगा,
औ' जन्नत के बदले उससे, यक नया जन्म ही माँगूँगा।’

आज उस कलम कुल के पुरोधा का भी जन्मदिन है जिनकी लेखनी ने हमेशा समाज और सियासत को रास्ता दिखलाया।

‘तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।’

विकास के झूठे आंकड़ों और जमीनी हकीकत में विभेद को दर्शाते हुए हुक्मरानों को ललकारने वाले इस कवि का नाम है, ‘अदम गोंडवी’ जी हाँ वही अदम गोंडवी जिन्होंने सियासत के चरित्र को हुबहू शब्दों में समेटते हुए लिखा,

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे।’

आज जब वोट की राजनीति के लिए हिन्दू-मुसलमान भाईचारे के बीच दीवार खड़ीं की जा रही है इस समय इस कवि की कमी खल रही है जिन्होंने लिखा है,

‘हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये।
छेड़िए एक जंग मिलजुलकर गरीबी के खिलाफ,
दोस्त मेरे मजहबी नगमात को मत छेड़िए।’


मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

सलाम... सदी के दो महानायकों को..

'जहाँ खड़े हो जाते हैं लाइन वही से शुरू होती है...' रील लाइफ में यह डायलॉग सिनेमाई महानायक की पहचान है, लेकिन इसे रियल में जिया है, सियासी और सामाजिक महानायक ने। इत्तेफाक से आज दोनों का जन्मदिन है। आजादी भारत में पहली बार जब अराजकता और अहंकार जनहित पर हावी होने लगा और सियासी नारों की गूंगी गुड़िया खुद को गणतंत्र का गनमैन समझने लगी तब भारत ने एक सियासी महानायक का उद्भव देखा। उनकी जिस आवाज ने कांग्रेस के कानों तक दस्तक दे कर उसे उसकी औकात से अवगत कराया, वह सिनेमाई महानायक द्वारा 'नमक हराम' में बोले गए इस डायलॉग जैसी ही थी कि 'है किसी माँ के लाल में हिम्मत जो मेरे सामने आए।' 70 के दशक का वह सियासी महानायक कांग्रेस के लिए कालिया भी था और काल भी। जेलर  रूप में कांग्रेस की महारानी भले ही अपने सियासी अवसान की दस्तक को दबाने की कोशिश में लगी थीं, लेकिन उस महानायक की आवाज, कश्मीर से कन्याकुमारी और कोहिमा से कांडला तक को जम्हूरियत की अहमियत का अहसास करा रही थी। उम्र के अंतिम पड़ाव में भी जेल से उस महानायक ने जो हुंकार भरी उसकी गूंज जेलर रूपी 'सरकार' तक जिस रूप में पहुंची वह सिनेमाई महानायक की 'कालिया' की आवाज जैसी ही थी, 'आपने जेल की दीवारों और जंजीरों का लोहा देखा है, कालिया की हिम्मत का फौलाद नहीं देखा।' आखिरकार 1977 में उस सियासी महानायक के नेतृत्व में जम्हूरियत ने सत्ता और सियासत को खैरात समझने वालों की खैरियत बिगाड़ी। कांग्रेस को सत्ता से सड़क पर लाने वाले इस सियासी महानायक के देश के सर्वोच्च पद को अस्वीकार करने के बाद जो सन्देश कांग्रेस के कानों तक पहुंचाया, वह सिनेमाई महानायक के  'त्रिशूल' के इस डायलॉग जैसा ही था कि 'आज आपके पास आप की सारी दौलत सही, सब कुछ सही, लेकिन मैंने आपसे ज्यादा गरीब आज तक नहीं देखा।'
महानायकों की गौरव गाथा उनके नाम की मोहताज नहीं होती। जब तक सूरज-चांद रहेगा, सियासत जेपी और सिनेमा अमिताभ के नक्से कदम पर चलते रहेंगे...और हाँ, जेपी कभी मरते नहीं, अमर होते हैं।

सोमवार, 26 सितंबर 2016

देवानंद: एक दिलदार अदाकार

'कहते हैं इश्क नाम के गुजरे थे एक बुजुर्ग,
हम लोग भी मुरीद उसी सिलसिले में हैं।'

जिगर मुरादाबादी साहब की ये पंक्तियाँ अगर किसी एक शख्स पर सटीक बैठती है तो वो हैं, हिंदी सीने जगत के सदाबहार अभिनेता, प्यार, एहसास और रुमानियत की तस्वीर, आज के स्मार्टनेस को अपने समय में परिभाषा बना देने वाले दीवानगी की जीती जागती मिशाल, देवानंद साहब। बॉलीवुड के स्टार्स के लिए हम आज भी सुनते हैं कि उसकी अदा पर लडकियां मरती हैं। यहाँ मरना का मतलब दीवानगी होता है ना कि जान देना। दीवानगी में लड़कियों ने जान सिर्फ एक अदाकार के लिए दिया था जिसका नाम है देवानंद। कहा जाता है, देवानंद के व्हाइट शर्ट और ब्लैक कोर्ट पहनने पर कोर्ट ने रोक लगा दिया था, क्योंकि उन्हें इस ड्रेस में देख कर लड़कियां हद से ज्यादा क्रेजी हो जाया करती थीं। बहुत कम लोग होते हैं जिनकी माशुका प्यार के परवान नहीं चढ़ पाने पर भी खुद को अपने प्रेमी की यादों के हवाले कर देती है। देवानंद साहब उन खुशकिस्मत लोगों में से थे जिन्हें उस समय की सबसे खूबसूरत अदाकारा सुरैया का प्यार नसीब हुआ था पर अफ़सोस कि फ़िल्म 'किनारे किनारे' की शूटिंग से शुरू हुए इस प्यार की पतवार को मांझी नहीं मिल सका और यह मुहब्बत मजहब की भेंट चढ़ गई। लेकिन देवानंद को ना पाने के ग़म में सुरैया ने भी अपने को कमरे में कैद कर लिया और उसी दिन दुनिया के सामने आई जब जिंदगी को अलविदा कहा। हालाँकि सुरैया से बिछड़ने के बाद देवानंद की जिंदगी में आए सूनापन को दूर किया अभिनेत्री कल्पना कार्तिक ने, उनका हमसफ़र बनकर। उम्र के तीसरे पहर में देवानंद की जिंदगी में आई जीतन अमान। लेकिन प्यार में जमाने के हाथो शिकस्त पाए देवानंद को इस बार प्यार से ही हारना पड़ा और जीतन अमान ने उनकी चाहत को ठुकरा दिया। हालाँकि यह नाकाम इश्क दोस्ती में जरूर बदला। यह इत्तेफाक ही है कि करियर के शुरूआती दिनों से उम्र के अंतिम पड़ाव तक मुहब्बत के विभिन्न रूपों से रूबरू होने वाले हसीनाओं के सपनों के इस राजकुमार ने अपनी जिंदगी को पन्नों में समेटा तो उसे नाम भी दिया, 'रोमांसिंग विद लाइफ'। जिंदगी को रुमानियत का पर्याय बनाने वाले इस अभिनेता को जन्मदिन पर सलाम।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

आत्मसात करने से समृद्ध होगी हिंदी, आयोजन करने से नहीं

पिछले साल हिंदी दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला था। आयोजकों ने एक चैनल के एंकर को हिंदी पर अपनी बात रखने के लिए आमंत्रित किया था। एंकर महोदय ने माइक थामा, पर्चा निकाले और शुरू हो गए। बात खत्म करने के बाद  'Thanx' बोलकर सीढ़ियों की तरफ बढे। तभी शायद याद आया कि अरे आज तो हिंदी दिवस है, फिर मुड़े और माइक के पास जाकर बोले,  'Sorry...माफी चाहूंगा।' उसी दिन शाम में वही महोदय अपने चैनल पर औरंगजेब रोड वाले मुद्दे पर चर्चा में अशोक को बार-बार अशोका कह रहे थे। 
हर साल हिंदी दिवस पर यही होता है, पूरे साल हिंदी पर अंग्रेजियत को थोपने वाले चंद लोगों को माइक पकड़ा दिया जाता है और वे भी जाते जाते 'Thanx-Sorry' बोल जाते हैं। गलती उनकी भी नहीं है, माहौल ही कुछ ऐसा तैयार हो रहा है कि हिंदी को पिछड़ेपन की निशानी बना दिया गया है। नई पीढ़ी की एक बड़ी आबादी का क, ख, ग, घ से कोई वास्ता नहीं है। उनके अक्षर पहचान का पैमाना ही A, B, C, D बन गया है। जो अखबार आज हिंदी दिवस के रंग में रंगे नजर आएंगे वे भी साल भर अंग्रेजियत को मजबूती प्रदान करते नजर आते हैं। उनकी नजर में आज की युवा पीढ़ी 'परिस्थिति' नहीं समझ सकती, उसके लिए उन्हें 'सिचुएशन' सटीक लगता है। जब ये ही ऐसे करेंगे तो कैसे समृद्ध होगी हिन्दी। जो हिंदी के मठाधीश हैं वे भी इसकी समृद्धि में बाधक बन बैठे हैं। अंग्रेजी के शब्दकोष में 80 प्रतिशत शब्द दूसरे शब्दों के हैं, जबकि हिंदी के शब्दकोष में आज भी उतने ही शब्द हैं जितने 50 साल पहले थे। हिंदी के वैयाकरण लोग दूसरी भाषा के शब्दों को हिंदी के लिए अछूत समझते हैं। इस मुद्दे पर इस बार के 'तहलका' में महशूर भाषाविद 'राजेंद्र प्रसाद सिंह' जी का बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख प्रकाशित हुआ है। आज तो पूरे दिन फेसबुक ट्विटर मैकाले के पत्र और भारतेंदु जी के श्लोक से भरा रहेंगे। मुझे 'शिवकुमार बिलग्रामी' जी की ये पंक्तियां याद आ रही हैं: 
'धनवान भी इस देश में क्या क्रेज रखते हैं,
हिंदी सिखाने के लिए अंग्रेज रखते हैं।'

बुधवार, 31 अगस्त 2016

अमृता प्रीतम: जो अमर हैं शब्दों में

'उम्र की एक रात थी, 
अरमान रह गए जागते,
किस्मत को निंद आ गई...।'
अमृता के अरमान साहिर और इमरोज की लेखनी में अमर हो गए और उनकी किस्मत का पाठ पूरी दुनिया पिंजर के पन्नों में कर रही है...।
साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञानपीठ, पद्मश्री और पद्म भुषण से सम्मानित एक जिंदादिल लेखिका अमृता प्रीतम का आज जन्मदिन है। अमृता प्रीतम ने प्रेम, रुहानियत के साथ-साथ विभाजन की त्रासदी, महिला उत्पीङन और समाज के अन्य अनछुए पहलुओ को अपनी रचनाओ में स्थान दिया ।
'साहित्य अकादमी का पुरस्कार पाने पहली महिला- अमृता प्रीतम' इसी रूप में अपना पहली बार 'अमृता प्रीतम' के नाम से परिचय हुआ था, विधासागर-सामान्य ज्ञान का रट्टा मारते हुए। जब कहानियों-कविताओं में रूचि जगी और अमृता प्रीतम को पढ़ा और जाना, तब पहली बार पता चला कि अमृता प्रीतम एक नाम नहीं खुद में एक दुनिया हैं...एक ऐसी दुनिया जिसमें शब्दों का संसार तो समाहित है ही, दो ऐसी शख्सियतें भी हैं, जिनके अक्स में उनसे ज्यादा अमृता शामिल हैं। अमृता ताउम्र साहिर में खुद को ढूंढती रहीं, पर पा ना सकीं और इमरोज, अमृता के बाद भी अमृता में जी रहे हैं। इमरोज ने लिखा भी है-

'उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं,
वो अक्सर मिलती है,
कभी तारों की छांव में,
कभी बादलों की छांव में,
कभी किरणों की रोशनी में,
कभी ख्यालों के उजालों में...'
इमरोज से पहले अमृता का सुकून साहिर ही रहे, तभी तो शायद साहिर ने लिखा भी है-

'तेरे तड़प से न तड़पा था मेरा दिल,लेकिन
तेरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं।'

साहिर की बेचैनी को मिले सुधा मल्होत्रा के सहारे ने अमृता को किनारे कर दिया फिर अमृता को कंधा मिला इमरोज का। इमरोज एक ऐसा प्रेमी जिन्होंने अपनी प्रेमिका के पूर्व प्रेमी को भी अपनी पंक्तियों में शामिल किया, अदब के साथ। इसकी नजीर है ये पंक्तियां-

'वो नज़्म से बेहतर नज़्म तक पहुँच गया,
वो कविता से बेहतर कविता तक पहुँच गयी,
पर जिंदगी तक नहीं पहुंचे,
अगर जिंदगी तक पहुँचते,
तो साहिर की जिंदगी नज़्म बन जाती,
अमृता की जिंदगी कविता बन जाती...।'

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

सीट पकड़ प्रतियोगिता

मेट्रो में खाली सीट देखते ही दौड़ लगाने वालों के लिए भी ओलंपिक में एक खेल होना चाहिए, 'सीट पकड़ दौड़'...अरे भाई जब कोच एमएसजी (बाबा राम रहीम) 'रुमाल छू' के जरिए पदक का ख़्वाब देख सकते हैं तो मंगू सिंह क्यों पीछे रहें...इसमें पदक मिलने का पूरा चांस भी है क्योंकि बाकी देश वाले पूरी ताकत के साथ ही दौड़ेंगे, उन्हें तो पता भी नहीं होगा कि सीट छेंकना किसे कहते हैं...हमारी तरह बैग फेंक के सीट हथियाना उन्होंने तो सपनों में भी नहीं सोचा होगा...और अगर खेल में महिलाओं की भी एंट्री रही तब तो भैया...एक बार में 2 ठो पदक पक्का...हम बताते हैं कइसे...'मेट्रो में आपने नहीं देखा कइसे मैडम जी लोग सीट हंथियाने के बाद बगल वाले से मुस्कुरा के बोलती हैं, भैया थोड़ा सा खिसकेंगे...भैया तो जैसे पहिले से तैयार रहते हैं, दांत चियारे जाने के बाद दीवाल ढाहने वाले अंदाज में बगल वाले को धकियाते हैं... और फिर...'बाबू', आओ ना बैठ जाओ...बाबू भी मुंडी नीचे किए हुए तशरीफ़ रखते हैं...' बुझ गए न...लेकिन इसमें एक खतरा है...अगर मैडम जी द्वारा जीते गए सीट के बगल में कोई मुझ जैसा कोई हुआ तो मैडम जी की सीट भी जब्त कर ली जाएगी...

शनिवार, 27 अगस्त 2016

आजादी का अंधेरा

'जिसे मैंने सुबह समझ लिया,
कहीं वो भी शाम-ए-अलम न हो।'
इश्क में ख़्वाब के अधूरे रह जाने के डर को बयां करता मुमताज नसीम का यह शेर सियासी सपनों की आशंका के संदर्भ में भी सही प्रतीत होता है। आजादी के बाद से अब तक हर पांच साल के बाद एक नए सुबह की आहट का सपना दिखाया गया। पर अफ़सोस कि हकीकत अँधेरे के रूप में ही सामने आया। 68 साल की आजादी में संविधान के प्रस्तावना की पहली पंक्ति 'हम भारत के लोग' को भी हमारे नीतिनियंताओं द्वारा सार्थक करा पाने में विफल रहने के बाद जब 2 साल पहले गुजरात से आई एक आवाज ने कानों तक 'सबका साथ सबका विकास' की बात पहुंचाई तब लगा था कि अब असली आजादी का सूरज उदित होगा, पर आज भी हकीकत लगभग वही है। एसी कमरों में बैठकर राष्ट्रवाद का चालीसा पढ़ने वाले क्या जाने कि इस मुल्क की एक बड़ी आबादी को आज भी आजादी मयस्सर नहीं है। जबर्दस्ती स्कूल बंद कराकर बच्चों और अपने भाड़े के टट्टुओं के हाथों में तिरंगा थमा कर  भारत माता की जय के नारे लगवाना आजादी की निशानी नहीं है। आजादी की निशानी वह होती जब अपने खून पसीने से सींचकर उपजाए गए प्याज को एक किसान 5 पैसे प्रतिकिलो नहीं बेचता। यह देश सच्चे अर्थों में आजाद तब कहलाता जब एक आम आदमी को सुविधा और साधन के अभाव में अपनी पत्नी के शव को पीठ पर लादकर 10 किलोमीटर पैदल नहीं चलना पड़ता। हर साल सरकार जानती है कि बारिश होगी, बाढ़ आएगा लेकिन फिर भी हर साल हजारों लोग मर जाते हैं, बेघर हो जाते हैं...। 
क्या यही आजादी है...? जब तक सरकारें आंकड़ों की आड़ में असलियत से पर्दा करती रहेगी तब तक हालात यही रहेंगे। हिंदुस्तान की हकीकत यही है कि आजादी के बाद से ही राम राज के जिस विरासत को हमारी सियासत अपनाने की बात करती है वह चंद घरों से आगे नहीं बढ़ पाता। सही कहा था अदम गोंडवी जी ने...
'भूने काजू प्लेट में व्हिस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।'

शनिवार, 6 अगस्त 2016

दिल वाली दोस्ती...

सिकटा हॉस्टल में हम तीनों की जुगलबंदी के किस्से मशहूर थे...साल 2009 की बात है, जून या जुलाई की एक रात थी। खाने के बाद मैं और सचिन स्कूल की छत पर टहल रहे थे। लौटते समय छत पर ही एक मछरदानी का बाती (बांस का लंबा डंडा जिसके सहारे मच्छरदानी लगाते हैं) हाथ लग गया। मैं उसके एक सिरे को हाथ से पकड़ के दूसरा सिरा जमीन पर टिकाए हुए चल रहा था। छत की सीढ़ियों पर बाती के निचले सिरे के टकराने से उत्पन्न आवाज से मन में एक शरारत सूझी। हॉस्टल में ही एक सर रहते थे। वैसे तो हमें बहुत प्रिय थे और छात्रों के बीच लोकप्रिय भी। लेकिन उस दिन किसी अनजाने में हुई गलती पर मुझे उनसे सबके सामने डांट सुनना पड़ा था। किशोरावस्था की दहलीज पर खड़ा बालमन बदले की भावना में बह गया। सर खिड़की के सामने ही सर रख के सोते थे। खिड़की के सामने आने के बाद जब उनके खर्राटे ने साबित किया कि सर गहरी निद्रा में हैं, मैंने बाती को खिड़की के रड पर (खिड़की में लोहे की सरिया लगी थी) इधर से उधर कई बार किया। बार बार की ऐसी क्रिया से उत्पन्न टर्र-टर्र की आवाज से हमारी आंतरिक खुशी और सर की निद्रा में खलन बढ़ने की गति समान थी। परंतु हम इस चिंता से बहुत दूर की अब सर की नींद खुल भी सकती है, अपनी मस्ती जारी रखे हुए थे। मेरे बाद सचिन ने भी 'बदला' लिया। अचानक दरवाजा खुला और एवरेडी के तीनसाळा टार्च (उन दिनों तीन बैट्री वाला एवरेडी का टॉर्च चलन में था) की पीली रौशनी हमारी आँखों पर पड़ी। पहली बार अहसास हुआ कि हम बिजली से भी तेज रफ़्तार में दौड़ सकते हैं। बाती फेंक कर हम दोनों ने दौड़ लगा दी। सर के रूम के बाद तीसरा कमरा हमारा था। कमरे में घुसते ही सचिन चौकी के निचे घुसा और मैं कूद कर दिव्यप्रकाश के बेड पर दीवाल की तरफ सो गया ताकि लगे कि मैं पहले से सो रहा हूँ। सर हमें कमरे में घुसता देख चुके थे लेकिन पहचान नहीं पाए थे। वैसे ये तो जान गए थे कि हम तीनों में से ही कोई दो था। एक गलती और ये हुई थी कि घुसते हुए सचिन ने दरवाजा बंद कर दिया था। अब तो सर दरवाजा पिटे जा रहे थे...'खोलो जल्दी...जल्दी खोलो...मेरे साथ दिल्लगी कर रहे हैं...अभी बताता हूँ...' बवाल को ज्यादा हवा ना लगे इसलिए सचिन धीरे से अंदर से निकल दरवाजा खोल दिया। सर का शिक्षक मन यही समझा कि जो दो लोग बिस्तर पर हैं उन्ही का कारनामा है, किनारे पर मिल गया दिब्यप्रकाश...बेचारे को नींद में ही जोर का लगा...तड़ाक...निर्दोष आदमी सजा के बाद घायल शेर हो जाता है। इसने भी दहाड़ मारी...मैंने क्या किया...फिर तड़ाक...। मैं तो तकिये में मुंह दबा कर हंसी रोक रहा था लेकिन चौकी के निचे सचिन से हंसी नहीं रुक सकी। बेचारा पकड़ा गया। निकलते हुए बोला...'सर मैं तोड़ (रस्सी) खोज रहा था, हेड सर मांगे हैं मच्छरदानी बाँधने के लिए।' दिब्यप्रकाश तो समझ गया कि ये इन दोनों का ही करा धरा है...फिर मुझे खिंच कर हाजीर किया गया...तड़ाक का शोर मेरे गालों से भी होकर गुजरा...अंततः हमने अनुनय विनय कर के मामला उसी समय रफा दफा करा लिया...
इस अनोखे रिश्ते के अजीब-अजीब किस्से हैं...बेतिया और दिल्ली ने भी ऐसे दोस्त दिए जिनसे प्रगाढ़ प्रेम है। उन सबके लिए आज दिल से दुआ। लेकिन ये किस्सा आज इसलिए याद आ गया क्योंकि दिल पर दिमाग के हावी होने के बाद की शरारत प्रायोजित होती है। बचपन जिंदगी का एक ऐसा मोड़ है जिसकी गलतियां ही आगे की जिंदगी के लिए सबक का काम करती है। उच्च शिक्षा के बाद की दोस्ती दिमाग और जरूरत से होती है लेकिन बचपन की दोस्ती दिल के रास्ते से गुजरती है...दिमाग से हुई दोस्ती की मियाद बहुत बार बहुत कम होती है क्योंकि कई बार इसपर अहम् और प्रतिस्पर्धा हावी हो जाती है...काश ताउम्र ऐसा होता कि दोस्तों में उपजी दुश्मनी का इलाज एक दूसरे की छोटी उंगली का स्पर्श ही होता...

रविवार, 3 जुलाई 2016

जानी...काश ! तुम न जाते...

‘जानी ! फिल्म इंडस्ट्री में दो ही कलाकार हैं, पहला राजकुमार और दूसरा दिलीप कुमार।’ हिंदी सिने जगत का यह सच खुद राजकुमार ने बयां किया था। 'दिलीप कुमार' ने अपने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया था कि एक बार आधी रात को राजकुमार ने फोन कर मजाक में यह बात कही थी। पर राजकुमार का यह मजाक ही भारतीय फिल्म जगत की सच्चाई है।
'राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं मगर
दूश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है।’ सिर्फ दोस्ती और दूश्मनी के किरदार को ही नहीं वरन हर चरित्र को जिवंत बना देने वाले राजकुमार को उनकी इस पुण्यतिथि पर सादर नमन। आज जब हिंदी फिल्मों ने प्रेमिका के सौन्दर्य चित्रण को 'हलकट जवानी' तक उतार दिया है, इस समय ऐसे दिलकश अदाकार की कमी खलती है जो प्रेमिका के पैरो के सौदर्य चित्रण को भी अपनी संवाद अदायगी के बल पर 'अमर' बना देता है। जी हाँ, कौन नहीं जानता इस डायलॉग को : 'आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेगे।’ दो दशक पहले आज ही के दिन उस परवददिगार ने इस महान अभिनेता को हमेशा के लिए अपने पास बुला लिया था जिसके लिए कही गई राजकुमार की यह बात शायद ही कोई ना जानता हो कि, ‘ना तलवार की धार से, ना ही गोलियों की बौछार से, बन्दा डरता है तो सिर्फ परवददिगार से।’

रविवार, 19 जून 2016

शब्द नहीं सृष्टि है 'पिता'

'पिता एक जीवन को जीवन का दान है
पिता दुनिया दिखाने का अहसान है।
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं
पिता है तो बाजार के सब खिलौने अपने हैं।'

आज पहली बार हुआ कि किसी के बारे में लिखने के लिए मुझे शब्द नहीं मिल पा रहे थे। कई बार लिखा कई बार मिटाया। क्योंकि पिता के अहसान को शब्दों में समाहित नहीं किया जा सकता। मेरे लिए मेरे पापा जी सिर्फ एक इंसान नहीं बल्कि मेरे जीवन के सूत्रधार हैं। ऊपर लिखी ओमव्यास जी की कविता की पंक्तियाँ बहुत पहले सुनी थी...आज याद आ गई...और इन्ही के साथ याद आ गया मेरा वह पहला सपना जिसे मेरे पापा जी ने जीवंत किया।
मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था। तब पापा जी के साथ हर दिन साइकल पे बैठकर स्कूल जाता और आता। उन दिनों मैं नया नया साइकल चलाना सीखा था। एक दिन स्कूल में ही एक लड़के को चमचमाती साइकल चलाते देखा। देखते ही अपना बालमन उसपर मोहित हो गया। कई दिन टिफिन (लंच ब्रेक) के समय उस लड़के से वह साइकल मांगकर चलाया। पापा जी से अब भी हम भाई बहन इतने फ्रैंक नहीं हैं। इसलिए डर-संकोच के कारण कई दिनों तक मन में इस इच्छा को दबाने के बाद अंततः एक दिन स्कूल से आते समय पापा जी से कह ही दिया कि 'श्याम (साइकल वाले लड़के का नाम) जो साइकल लेकर स्कूल आता है वह मुझे बहुत अच्छी लगती है, आप मेरे लिए खरीद दीजिएगा...?' वह ही क्यों नई साइकल खरीद देंगे थोड़ा और बड़े हो जाओ तब...' बोलते समय मेरी हिचक भांपते हुए पापा जी ने कहा। लेकिन मुझे वही साइकल चाहिए थी। जब मैं देखा कि पापा जी राजी हो गए तब मैंने जिद किया कि वही साइकल चाहिए। साइकल वाली बात के बाद किसी कारणवश मैं कुछ दिन स्कूल नहीं गया। एक दिन ऐसे ही शाम के समय घर के सामने खेल रहा था तभी देखा कि उस छोटी साइकिल को चलाते हुए पापा जी चले आ रहे हैं...अब भी जब कभी कोई पूछता है या कहीं लिखना होता है कि मेरे अब तक के जीवन में सबसे खुशी का पल कौन सा है, तो मैं इसी घटना का बखान करता हूँ। जो चीजें मुझे सबसे प्यारी और पसंदीदा हैं उनमे इस निर्जीव साइकल का स्थान सबसे ऊपर है। यह इस साइकल के साथ मेरा अपनत्व ही है कि इसकी   सीट और हैंडिल ऊंची करा करा कर मैंने 12वी तक की पढ़ाई के लिए स्कूल जाने के साधन के रूप में इसी का उपयोग किया। आज भी यह मेरे भगिना के हाथों में सुरक्षित है। यह फोटो पिछले साल मल्टीमीडिया फोन से खिची गई थी इसलिए साफ़ नहीं आ सकी है लेकिन इसके निर्जीव साइकल के स्पर्श का अहसास ताउम्र ताजा रहेगा।
यह तो सिर्फ एक उदाहरण है...जब इच्छा, चाहत, और जरूरत में फर्क करने की समझ नहीं थी तब भी और अब भी जब हम अपनी जरूरतें समझने लगे हैं, पापा जी हर कदम पर कई बार हमसे पहले हमारी जरूरतें समझ लेते हैं। ऐसे तो आज के दिन को पिता के अहमियत के अहसास से रोमन कैथोलिक लोगों ने जोड़ा, हमारा तो हर दिन का हर क्षण और सांस का हर हिस्सा पिता के आशीर्वाद से है। फिर भी मैं तो यही कहूँगा...
'उंगलियां पकड़ आपने चलना मुझे सिखाया है,
मेरी हर खुशी को आपने खुद का सपना बनाया है,
धन्यवाद करता हूँ मैं उस परमपिता परमेश्वर का,
जिसने इस धरती पर मुझको आपका पुत्र बनाया है।'

शनिवार, 18 जून 2016

वर्तमान सियासत के बेजान राही को जन्मदिन मुबारक

विरासत में मिली हर चीज हर किसी को अच्छी नहीं लगती खासकर राजनीति, वह भी तब, जब परिवार मूल रूप से सियासी हो और नई पीढी आधुनिकता की गोद में चिपक कर बैठी हो। लेकिन राजनीति से दूराव की इस व्यक्तिगत मज़बूरी के बाद भी अपने परिवार और पार्टी के लिए कोई निजी नापसंदगी को गौण कर दे और सियासत की बारीकियां सीखते हुए राजनेता बनने की राह पर चलने को तैयार हो जाए तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। कुछ कड़वे अनुभव या प्रशंसक और सियासी नजरिए से शायद हमें कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सुखद लगे लेकिन एक भारतीय के नाते इस सबसे पुरानी पार्टी को गर्त की तरफ जाते देखना दुखद लगता है। राजनीतिक और कूटनीतिक चालबाजी से दूर सीधे साधे राहुल गांधी पर बीते कुछ सालों में जिस तरह से सियासी रंग चढ़ा है वह इस भारतीय लोकतंत्र के लिए सुखद है जहाँ विपक्ष की एक महती भूमिका होती है। इस सच को भले ही इस दुर्भाग्य के साथ स्वीकार करना पड़े कि राहुल गांधी परिवारवाद की देन हैं लेकिन स्वीकार तो करना पड़ेगा। क्योंकि इस हमाम में सब नंगे हैं। सियासत बदलने का दावा करने वाली भाजपा भी इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेर नहीं सकती क्योंकि इस मामले में सबसे ताजा उदाहरण धूमल जी के बेटे अनुराग ठाकुर हैं। राहुल गाँधी भले ही चमत्कारिक नेतृत्व के धनी नहीं हैं लेकिन राहुल गांधी राजीव गांधी के बेटे हैं और वर्तमान सियासत का सबसे बड़ा सच यही है। कांग्रेस परिवार की कुछ अपनी मजबूरियां भी है जिसके कारण वह 'राहुल-प्रियंका' से आगे सोच ही नहीं सकते। क्योंकि राजीव गांधी के बाद कांग्रेस ने एक गैर कांग्रेसी नरसिम्हा राव को आगे किया था और परिणाम कांग्रेस परिवार के हित में नहीं रहा।
बहरहाल, राहुल गांधी का आज जन्मदिन है। सोशल मीडिया जिस मजाक के अंदाज में राहुल गांधी को याद करता है, वह सलसिला आज भी जारी है। राहुल गांधी का व्यक्तित्व इस मामले में मुझे पसंद है कि उनके पास अपनी आलोचना और मजाक सहने की क्षमता है। वर्तमान राजनीति में जबकि बड़े तो बड़े छुटभैये नेता भी अपने विरोध के फेसबुक पोस्ट या ट्वीट पर सामने वाले को कानूनी कठघरे में खड़ा कर देते हैं उस समय तमाम मजाक के मामले में सांता-बांता से तुलना को भी राहुल गांधी की मौन स्वीकृति इस लोकतंत्र में सुखद लगती है। परंतु राहुल गांधी को अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। खासकर सियासी मर्यादाएं। जिस तरह ने उन्होंने एक विधेयक की कॉपी फाड़ी या जिस तरह से भरी संसद में ललित मोदी मुद्दे पर घिरी सुषमा स्वराज के अपनत्व को यह कहकर ठेस पहुंचाना है कि 'कल सुषमा आंटी आईं और मुझसे कहा कि राहुल बेटे मुझसे नाराज क्यों हो'...अगर राजनीति में खुद को स्थापित करना है तो राहुल गांधी को इस ओछी सियासत से पार पाना होगा...बहरहाल, उन्हें जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई...

बुधवार, 15 जून 2016

काश! हम जुदा ना होते...

कुछ साल पहले गूगल मैप का एक ऐड आया था जिसमे भारत-पाक बंटवारे के कारण बचपन में ही बिछड़ गए दो जिगरी दोस्तों को उम्र के अंतिम पड़ाव में मिलते दिखाया गया था उस विज्ञापन को देखकर भारत-पाक के भाईचारे वाले रिश्ते के लिए पहली बार मेरी आँखें नम हुई थी। यह वीडियो इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि केवल सरहद और सियासत बंट जाने से दिल नहीं बंटते, आज भी पकिस्तान की आवाम का दिल हिन्दुस्तान की आवाम के लिए और हिन्दुस्तान का पाकिस्तान के लिए धड़कता है। आखिर दोनों की मिट्टी एक जो रही है। आज भी लोग उस क्रिकेट को नहीं भूले हैं जब बैटिंग करते समय ‘राहुल द्रविड़’ के जूते का फीता खुल गया था, जिसे शायद भारतीय खिलाडियों ने भी देखा हो लेकिन माहौल उस समय बदल गया जब पाकिस्तानी टीम के सबसे उम्रदराज खिलाड़ी ‘इन्जेमामुल हक’ ने पीच से आकर उस फीते को बांधा था आज भी गाँवों की गलियों में लोग कहा करते हैं कि काश! ऐसा होता कि एक क्रिकेट टीम होती जिसमे सचिन और सोएब एक साथ खेलते, फिर किस देश की हिम्मत थी हमारे सामने अड़ जाने की। पर अफ़सोस कि इस काश को काश ही रह जाना है।
दिल के ये जज्बात आज इसलिए शब्दों के जरिए बयां हो गए क्योंकि 15 जून ही वह तारीख है जिस दिन प्रेम और अपनत्व पर ‘फूट डालो और शासन करो’ की चाल भारी पड़ गई। 15 जून 1947 को ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत के बंटवारे की योजना स्वीकार की और इस तरह से अंग्रेज दिलों और जज्बात के रिश्तों पर नफरत के वो बीज बो गए जिसके कुफल आज भी दोनों तरफ की मानवता और सामाजिकता का गला घोंट रहे हैं। यह संयोग ही है कि बंटवारे के बाद के वीभत्स नरसंहार को सिनेमाई परदे पर उतारने वाली फिल्म ग़दर भी आज से 15 साल पहले ही रिलीज हुई थी। जी हाँ वही ग़दर जिसे देखकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, आँखें नम हो जाती हैं और मुट्ठियाँ भींच जाती हैं। पर अफ़सोस कि हम इसके सिवाय कुछ कर भी नहीं सकते। जो मानसिकता बंटवारे की कठिन घड़ी में भी अपना-पराया भूल गई वह आज भी दोनों तरफ ज़िंदा है और यही कारण भी है कि आज बंटवारे के लगभग 7 दशक बाद भी ना वो चैन से हैं ना हम। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि आज हमारी सामरिक शक्ति उन्हें चैन से सोने नहीं देती और उनका परमाणु हथियार हमें हर दिन खौफ में रखता है। हालात कुछ भी हो पर उस समय बिछड़ गए दो अपने जब आज मिलते हैं तो ‘गदर’ का यह डायलॉग याद आ जाता है कि ‘सियासत बदल गई...वतन के नाम बदल गए...पर दिल के जज्बात तो नहीं बदले जा सकते न...’
काश ! दोनों तरफ के निति नियंता कभी ठंढे दिमाग से सोचते कि क्या मिला हमें इस जमीनी लकीर से दिलों की दूरियाँ बढ़ा कर? क्या हर दिन सीमा पर शहीद हो रहे दोनों तरफ के जवानों के परिजन उस पल को नहीं कोसते होंगे जब ‘हम जुदा हो गए थे।’ बड़ा भाई होने के नाते भारत ने तो हर मौके पर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, हर बार यह साबित करने की कोशिश की है कि छोटे भाई के लिए हमारे दिलों में अब भी वही जगह है। पर अफ़सोस कि छोटा भाई अब भी उन दूसरों की बातों में ही उलझा है जिनके कारण हालात दिन-ब-दिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के साथ की दुश्मनी भारत के लिए फायदे का सबब रही है। युद्दों में जीत की खुशी सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण होती है, व्यक्तिगत रूप से युद्ध कितने घातक हैं यह वे ही बता सकते हैं जिन्होंने इसका दंश झेला है। काश दोनों तरफ के निति नियंता किसी शायर की इन पंक्तियों का मर्म समझ पाते कि,       
 ‘...यार हम दोनों को यह दुश्मनी भारी पड़ी,
रोटियों का खर्च तक बन्दूक पर होने लगा...।’

रविवार, 12 जून 2016

12 जून 1975: सियासी मूल्यों के अवसान की शुरुआत



‘अब तक तो हमारी आँखों ने बस दो ही नज़ारे देखे हैं.
कि कौम के रहबर गिरते हैं या लोकसभा गिर जाती है।’

मुनव्वर राणा साहब के इस शेर को भारतीय सियासत की किसी एक घटना या घटनाक्रम के संबंध में चरितार्थ होते देखना हो तो आज से 41 साल पहले के भारतीय राजनीति के पन्नों को पलटना होगा। जी हाँ, 12 जून। 12 जून को और इसके बाद सरोकार की सियासत पर हावी होती स्वार्थसिद्धि की राजनीति का जो नंगा नाच भारतीय राजनीति ने देखा और इसके बाद लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद को जिस तरह से इस कौम के रहबर का शिकार होना पड़ा यह पूरी दुनिया ने देखा। वर्तमान समय में भारतीय सियासत से जिस सूचिता और इमानदारी के लोप की बात की जा रही है वह शायद हिन्दुस्तान की राजनीति को विरासत में मिली है। 12 जून 1975 को आए न्यायालय के एक फैसले ने भारतीय राजनीति को ऐसे दो राहे पर खडा कर दिया था जहाँ हमारे रहबरों के पास दो रास्ते थे। एक यह कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा या उसके सम्मान में झुक जाएं या फिर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के वजीरे आजम की कुर्सी पर एक ऐसा दाग छोड़ जाएं जिसका भूत हमेशा सियासी मूल्यों को अपनी जद में लेता रहे। अफ़सोस कि इस देश के तत्कालीन रहबरों ने दूसरा रास्ता चुना और ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ की जबरदस्ती स्वीकृति को देश पर थोपा।
वह 12 जून 1975 की सुबह 10 बजे का समय था जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के कोर्टरूम नंबर 24 में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का प्रवेश हुआ। फैसला आने वाला था राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी मामले का। मामला 1971 के लोकसभा चुनाव से जुड़ा था जिसमे इंदिरा गांधी ने अपने प्रतिद्वंदी राजनारायण को 1,11,810 वोटों से हराया था। हालाँकि राजनारायण अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे। यही कारण था कि चुनाव परिणाम के तुरंत बाद उन्होंने न्यायालय का सहारा लिया था और इंदिरा गांधी की जीत में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के कारण उनका चुनाव निरस्त करने की मांग की थी। हालाँकि केस की सुनवाई 18 मार्च 1975 को ही हो गई थी लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव के कारण उस दिन फैसला नहीं सुनाया गया। इस बीच वे सारी कोशिशें हुई जिससे कि फैसला इंदिरा गांधी के हक़ में आ जाय। जस्टिस सिन्हा को इसका भी लालच दिया गया कि अगर वे सरकार के हक़ में फैसला सुनाते हैं तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा लेकिन जज साहब ने अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया और वर्तमान समय के उन उदाहरणों की फेहरिस्त में आने से बच गए जिसमे ऐसे लोग हैं जिन्हें नेताओं का केस लड़ने या मनमाफिक फैसला देने के इनाम में पार्टी के सत्ता में आने के बाद सरकारी वकील या हाईकोर्ट के जज से सुप्रीम कोट का जज बना दिया गया। अंततः फैसला आया और जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले छह सालों तक इंदिरा गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया गया। हालाँकि प्रधानमंत्री पद और कार्य या जिम्मेदारी को देखते हुए जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के वकील की मांग पर बीस दिन का स्टे दे दिया। यह स्टे इसलिए भी था ताकि सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा अपील कर सकें। इंदिरा गांधी की तरफ से 22 जून को सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर किया गया। 24 जून 1975 को जस्टिस कृष्ण अय्यर ने इंदिरा नेहरु गांधी बनाम राजनारायण के इस केस में अपना फैसला सुना दिया। इस फैसले से इंदिरा गांधी को कुछ राहत तो मिली लेकिन संसद की कार्यवाही में शामिल ना होने और संसद जाने से रोक के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा। इस फैसले के अगले दिन ही दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की विशाल रैली हुई। लाखों की तादात में पहुंचे समर्थकों के बीच वहीं से जेपी ने ‘दिनकर’ की इन पंक्तियों के साथ हुंकार भरी कि,
‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’
एक तरफ सरकार और इंदिरा गांधी पर न्यायालय की तलवार और दूसरी तरफ जनहित के मामले में असफल होती सरकार पर जेपी के नेतृत्व में एकजुट होता विपक्ष और मुखर होती जनता ने सरकार पर चौतरफा वार किया। जेपी के भाषण के कुछ देर बाद ही इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाने की तैयारियां शुरू कर दी। सुबह तीन बजे तक इंदिरा गांधी अपने विश्वस्त सहयोगियों के साथ आपातकाल पर चर्चा और वह भाषण तैयार करने में लगी रहीं जिसके जरिए वह देशवासियों को आपातकाल की जानकारी देने वाली थीं। सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक हुई। हालाँकि यह बैठक औपचारिक ही थी क्योंकि बैठक में स्वर्ण सिंह को छोड़कर किसी मंत्री ने आपातकाल लागू करने को लेकर कोई सवाल तक नहीं पूछा। इस बैठक के 2 घंटे बाद ही इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी के जरिए देश में आपातकाल लगाए जाने की घोषणा कर दी। आपातकाल के दौरान सियासी निरंकुशता किस तरह से राजनीतिक, सामाजिक और मानवीय मूल्यों पर हावी रही यह देश कभी नहीं भूल सकता। पर अफ़सोस कि भारतीय राजनीति का इतिहास वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे देखने को अभिसप्त रहा है। जिस राजनारायण ने इंदिरा गांधी को कोर्ट के कटघरे में खड़ा करा दिया और गैर कांग्रेसी सरकार बनाने के सूत्रधार लोगों में से एक रहे बाद में वे ही चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने और खुद को बड़े मंत्री पद पर विराजमान देखने के कांग्रेसी लालच के आगे झुक गए और संजय गांधी के जाल में फंसकर जनता पार्टी सरकार के अंतर्कलह की सारी कहानी उगल दी। हालाँकि चरण सिंह और राजनारायण की यह ख्वाहिस बस 23 दिनों के लिए पूरी हुई और कांग्रेस ने अपना हित साधने के बाद इन्हें भी किनारे कर दिया...।

शनिवार, 4 जून 2016

प्रेम के गीतों का देवल

‘…हम-तुम उतनी दूर, धरा से नभ की जितनी दूरी
फिर भी हमने साध मिलन की पल में कर ली पूरी
मैंने धरती को दुलराया, तुमने अम्बर चूम लिया
प्रिये तुम्हारी सुधि को मैंने यूँ भी अक्सर चूम लिया…’

देवल आशीष की ही इन पंक्तियों के साथ श्रृंगार रस के इस शिखर हस्ताक्षर को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन...श्रृंगार रस के चोटी के कई कवि जिस एक कवि की काव्यात्मक क्षमता का लोहा मानते हैं वे देवल आशीष ही हैं...धरती पर इस कवि के दीवानों से शायद ईश्वर को भी जलन होने लगी थी तभी तो उन्होंने आज ही के दिन 2011 में इस युवा कवि को हमसे छीन लिया...वर्तमान समय में जब हर तरफ नफरतों की आंधियां चल रही है और प्यार को भी बाजार बनाया जा रहा है, देवल आशीष का एक मुक्तक याद आता है जो मुझे बहुत प्रिय है...

प्यार के बिना भी उम्र काट लेंगे आप किन्तु
कहीं तो अधूरी जिन्दगानी रह जाएगी।
यानी रह जाएगी न मन में तरंग
ना ही देह पर नेह की निशानी रह जाएगी।
रह जायेगी तो बस नाम की नहीं तो ​फिर
और किस काम की जवानी रह जाएगी।
रंग जो ना ढंग से उमंग के चढेंगे तो
कबीर सी चदरिया पुरानी रह जायेगी।’ 

देह रूप में भले ही देवल आशीष आज हम सबके बीच नहीं हैं लेकिन इनकी काव्यपंक्तियाँ इन्हें सदा अमर रखेंगी। इन्ही के एक और मुक्त के साथ शत-शत नमन इस काव्यकुल के अमिट हस्ताक्षर को...
‘हमने तो बाजी प्यार की हारी ही नहीं है,
जो चूके निशाना वो शिकारी ही नहीं है,
कमरे में इसे तू ही बता कैसे सजायें
तस्वीर तेरी दिल से उतारी ही नहीं है।’