रविवार, 19 जून 2016

शब्द नहीं सृष्टि है 'पिता'

'पिता एक जीवन को जीवन का दान है
पिता दुनिया दिखाने का अहसान है।
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं
पिता है तो बाजार के सब खिलौने अपने हैं।'

आज पहली बार हुआ कि किसी के बारे में लिखने के लिए मुझे शब्द नहीं मिल पा रहे थे। कई बार लिखा कई बार मिटाया। क्योंकि पिता के अहसान को शब्दों में समाहित नहीं किया जा सकता। मेरे लिए मेरे पापा जी सिर्फ एक इंसान नहीं बल्कि मेरे जीवन के सूत्रधार हैं। ऊपर लिखी ओमव्यास जी की कविता की पंक्तियाँ बहुत पहले सुनी थी...आज याद आ गई...और इन्ही के साथ याद आ गया मेरा वह पहला सपना जिसे मेरे पापा जी ने जीवंत किया।
मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था। तब पापा जी के साथ हर दिन साइकल पे बैठकर स्कूल जाता और आता। उन दिनों मैं नया नया साइकल चलाना सीखा था। एक दिन स्कूल में ही एक लड़के को चमचमाती साइकल चलाते देखा। देखते ही अपना बालमन उसपर मोहित हो गया। कई दिन टिफिन (लंच ब्रेक) के समय उस लड़के से वह साइकल मांगकर चलाया। पापा जी से अब भी हम भाई बहन इतने फ्रैंक नहीं हैं। इसलिए डर-संकोच के कारण कई दिनों तक मन में इस इच्छा को दबाने के बाद अंततः एक दिन स्कूल से आते समय पापा जी से कह ही दिया कि 'श्याम (साइकल वाले लड़के का नाम) जो साइकल लेकर स्कूल आता है वह मुझे बहुत अच्छी लगती है, आप मेरे लिए खरीद दीजिएगा...?' वह ही क्यों नई साइकल खरीद देंगे थोड़ा और बड़े हो जाओ तब...' बोलते समय मेरी हिचक भांपते हुए पापा जी ने कहा। लेकिन मुझे वही साइकल चाहिए थी। जब मैं देखा कि पापा जी राजी हो गए तब मैंने जिद किया कि वही साइकल चाहिए। साइकल वाली बात के बाद किसी कारणवश मैं कुछ दिन स्कूल नहीं गया। एक दिन ऐसे ही शाम के समय घर के सामने खेल रहा था तभी देखा कि उस छोटी साइकिल को चलाते हुए पापा जी चले आ रहे हैं...अब भी जब कभी कोई पूछता है या कहीं लिखना होता है कि मेरे अब तक के जीवन में सबसे खुशी का पल कौन सा है, तो मैं इसी घटना का बखान करता हूँ। जो चीजें मुझे सबसे प्यारी और पसंदीदा हैं उनमे इस निर्जीव साइकल का स्थान सबसे ऊपर है। यह इस साइकल के साथ मेरा अपनत्व ही है कि इसकी   सीट और हैंडिल ऊंची करा करा कर मैंने 12वी तक की पढ़ाई के लिए स्कूल जाने के साधन के रूप में इसी का उपयोग किया। आज भी यह मेरे भगिना के हाथों में सुरक्षित है। यह फोटो पिछले साल मल्टीमीडिया फोन से खिची गई थी इसलिए साफ़ नहीं आ सकी है लेकिन इसके निर्जीव साइकल के स्पर्श का अहसास ताउम्र ताजा रहेगा।
यह तो सिर्फ एक उदाहरण है...जब इच्छा, चाहत, और जरूरत में फर्क करने की समझ नहीं थी तब भी और अब भी जब हम अपनी जरूरतें समझने लगे हैं, पापा जी हर कदम पर कई बार हमसे पहले हमारी जरूरतें समझ लेते हैं। ऐसे तो आज के दिन को पिता के अहमियत के अहसास से रोमन कैथोलिक लोगों ने जोड़ा, हमारा तो हर दिन का हर क्षण और सांस का हर हिस्सा पिता के आशीर्वाद से है। फिर भी मैं तो यही कहूँगा...
'उंगलियां पकड़ आपने चलना मुझे सिखाया है,
मेरी हर खुशी को आपने खुद का सपना बनाया है,
धन्यवाद करता हूँ मैं उस परमपिता परमेश्वर का,
जिसने इस धरती पर मुझको आपका पुत्र बनाया है।'

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