रविवार, 12 जून 2016

12 जून 1975: सियासी मूल्यों के अवसान की शुरुआत



‘अब तक तो हमारी आँखों ने बस दो ही नज़ारे देखे हैं.
कि कौम के रहबर गिरते हैं या लोकसभा गिर जाती है।’

मुनव्वर राणा साहब के इस शेर को भारतीय सियासत की किसी एक घटना या घटनाक्रम के संबंध में चरितार्थ होते देखना हो तो आज से 41 साल पहले के भारतीय राजनीति के पन्नों को पलटना होगा। जी हाँ, 12 जून। 12 जून को और इसके बाद सरोकार की सियासत पर हावी होती स्वार्थसिद्धि की राजनीति का जो नंगा नाच भारतीय राजनीति ने देखा और इसके बाद लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद को जिस तरह से इस कौम के रहबर का शिकार होना पड़ा यह पूरी दुनिया ने देखा। वर्तमान समय में भारतीय सियासत से जिस सूचिता और इमानदारी के लोप की बात की जा रही है वह शायद हिन्दुस्तान की राजनीति को विरासत में मिली है। 12 जून 1975 को आए न्यायालय के एक फैसले ने भारतीय राजनीति को ऐसे दो राहे पर खडा कर दिया था जहाँ हमारे रहबरों के पास दो रास्ते थे। एक यह कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा या उसके सम्मान में झुक जाएं या फिर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के वजीरे आजम की कुर्सी पर एक ऐसा दाग छोड़ जाएं जिसका भूत हमेशा सियासी मूल्यों को अपनी जद में लेता रहे। अफ़सोस कि इस देश के तत्कालीन रहबरों ने दूसरा रास्ता चुना और ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ की जबरदस्ती स्वीकृति को देश पर थोपा।
वह 12 जून 1975 की सुबह 10 बजे का समय था जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के कोर्टरूम नंबर 24 में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का प्रवेश हुआ। फैसला आने वाला था राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी मामले का। मामला 1971 के लोकसभा चुनाव से जुड़ा था जिसमे इंदिरा गांधी ने अपने प्रतिद्वंदी राजनारायण को 1,11,810 वोटों से हराया था। हालाँकि राजनारायण अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे। यही कारण था कि चुनाव परिणाम के तुरंत बाद उन्होंने न्यायालय का सहारा लिया था और इंदिरा गांधी की जीत में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के कारण उनका चुनाव निरस्त करने की मांग की थी। हालाँकि केस की सुनवाई 18 मार्च 1975 को ही हो गई थी लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव के कारण उस दिन फैसला नहीं सुनाया गया। इस बीच वे सारी कोशिशें हुई जिससे कि फैसला इंदिरा गांधी के हक़ में आ जाय। जस्टिस सिन्हा को इसका भी लालच दिया गया कि अगर वे सरकार के हक़ में फैसला सुनाते हैं तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा लेकिन जज साहब ने अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया और वर्तमान समय के उन उदाहरणों की फेहरिस्त में आने से बच गए जिसमे ऐसे लोग हैं जिन्हें नेताओं का केस लड़ने या मनमाफिक फैसला देने के इनाम में पार्टी के सत्ता में आने के बाद सरकारी वकील या हाईकोर्ट के जज से सुप्रीम कोट का जज बना दिया गया। अंततः फैसला आया और जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले छह सालों तक इंदिरा गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया गया। हालाँकि प्रधानमंत्री पद और कार्य या जिम्मेदारी को देखते हुए जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के वकील की मांग पर बीस दिन का स्टे दे दिया। यह स्टे इसलिए भी था ताकि सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा अपील कर सकें। इंदिरा गांधी की तरफ से 22 जून को सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर किया गया। 24 जून 1975 को जस्टिस कृष्ण अय्यर ने इंदिरा नेहरु गांधी बनाम राजनारायण के इस केस में अपना फैसला सुना दिया। इस फैसले से इंदिरा गांधी को कुछ राहत तो मिली लेकिन संसद की कार्यवाही में शामिल ना होने और संसद जाने से रोक के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा। इस फैसले के अगले दिन ही दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की विशाल रैली हुई। लाखों की तादात में पहुंचे समर्थकों के बीच वहीं से जेपी ने ‘दिनकर’ की इन पंक्तियों के साथ हुंकार भरी कि,
‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’
एक तरफ सरकार और इंदिरा गांधी पर न्यायालय की तलवार और दूसरी तरफ जनहित के मामले में असफल होती सरकार पर जेपी के नेतृत्व में एकजुट होता विपक्ष और मुखर होती जनता ने सरकार पर चौतरफा वार किया। जेपी के भाषण के कुछ देर बाद ही इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाने की तैयारियां शुरू कर दी। सुबह तीन बजे तक इंदिरा गांधी अपने विश्वस्त सहयोगियों के साथ आपातकाल पर चर्चा और वह भाषण तैयार करने में लगी रहीं जिसके जरिए वह देशवासियों को आपातकाल की जानकारी देने वाली थीं। सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक हुई। हालाँकि यह बैठक औपचारिक ही थी क्योंकि बैठक में स्वर्ण सिंह को छोड़कर किसी मंत्री ने आपातकाल लागू करने को लेकर कोई सवाल तक नहीं पूछा। इस बैठक के 2 घंटे बाद ही इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी के जरिए देश में आपातकाल लगाए जाने की घोषणा कर दी। आपातकाल के दौरान सियासी निरंकुशता किस तरह से राजनीतिक, सामाजिक और मानवीय मूल्यों पर हावी रही यह देश कभी नहीं भूल सकता। पर अफ़सोस कि भारतीय राजनीति का इतिहास वादों की बलिवेदी पर बदलते इरादे देखने को अभिसप्त रहा है। जिस राजनारायण ने इंदिरा गांधी को कोर्ट के कटघरे में खड़ा करा दिया और गैर कांग्रेसी सरकार बनाने के सूत्रधार लोगों में से एक रहे बाद में वे ही चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने और खुद को बड़े मंत्री पद पर विराजमान देखने के कांग्रेसी लालच के आगे झुक गए और संजय गांधी के जाल में फंसकर जनता पार्टी सरकार के अंतर्कलह की सारी कहानी उगल दी। हालाँकि चरण सिंह और राजनारायण की यह ख्वाहिस बस 23 दिनों के लिए पूरी हुई और कांग्रेस ने अपना हित साधने के बाद इन्हें भी किनारे कर दिया...।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें