‘…हम-तुम
उतनी दूर, धरा से नभ की जितनी दूरी
फिर भी हमने साध मिलन की पल में कर ली पूरी
मैंने धरती को दुलराया, तुमने अम्बर चूम लिया
प्रिये तुम्हारी सुधि को मैंने यूँ भी अक्सर चूम लिया…’
फिर भी हमने साध मिलन की पल में कर ली पूरी
मैंने धरती को दुलराया, तुमने अम्बर चूम लिया
प्रिये तुम्हारी सुधि को मैंने यूँ भी अक्सर चूम लिया…’
देवल आशीष की ही इन
पंक्तियों के साथ श्रृंगार रस के इस शिखर हस्ताक्षर को उनकी पुण्यतिथि पर सादर
नमन...श्रृंगार रस के चोटी के कई कवि जिस एक कवि की काव्यात्मक क्षमता का लोहा
मानते हैं वे देवल आशीष ही हैं...धरती पर इस कवि के दीवानों से शायद ईश्वर को भी
जलन होने लगी थी तभी तो उन्होंने आज ही के दिन 2011 में इस युवा कवि को हमसे छीन
लिया...वर्तमान समय में जब हर तरफ नफरतों की आंधियां चल रही है और प्यार को भी बाजार
बनाया जा रहा है, देवल आशीष का एक मुक्तक याद आता है जो मुझे बहुत प्रिय है...
‘प्यार के बिना भी उम्र काट लेंगे आप
किन्तु
कहीं तो अधूरी जिन्दगानी रह जाएगी।
यानी रह जाएगी न मन में तरंग
ना ही देह पर नेह की निशानी रह जाएगी।
रह जायेगी तो बस नाम की नहीं तो फिर
और किस काम की जवानी रह जाएगी।
रंग जो ना ढंग से उमंग के चढेंगे तो
कबीर सी चदरिया पुरानी रह जायेगी।’
कहीं तो अधूरी जिन्दगानी रह जाएगी।
यानी रह जाएगी न मन में तरंग
ना ही देह पर नेह की निशानी रह जाएगी।
रह जायेगी तो बस नाम की नहीं तो फिर
और किस काम की जवानी रह जाएगी।
रंग जो ना ढंग से उमंग के चढेंगे तो
कबीर सी चदरिया पुरानी रह जायेगी।’
देह
रूप में भले ही देवल आशीष आज हम सबके बीच नहीं हैं लेकिन इनकी काव्यपंक्तियाँ
इन्हें सदा अमर रखेंगी। इन्ही के एक और मुक्त के साथ शत-शत नमन इस काव्यकुल के
अमिट हस्ताक्षर को...
‘हमने
तो बाजी प्यार की हारी ही नहीं है,
जो चूके निशाना वो शिकारी ही नहीं है,
कमरे में इसे तू ही बता कैसे सजायें
तस्वीर तेरी दिल से उतारी ही नहीं है।’
जो चूके निशाना वो शिकारी ही नहीं है,
कमरे में इसे तू ही बता कैसे सजायें
तस्वीर तेरी दिल से उतारी ही नहीं है।’
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