बुधवार, 30 अगस्त 2017

No Means No... चाहे वो बीबी ही क्यों न हो

'No, No Your Honour... ना सिर्फ एक शब्द नहीं, अपने आप में एक पूरा वाक्य है। इसे किसी तर्क, स्पष्टीकरण, एक्सप्लेनेशन या व्याख्या की जरूरत नहीं होती। ना का मतलब ना ही होता है। उसे बोलने वाली लड़की कोई परिचित हो, फ्रेंड हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो, या आपकी अपनी बीबी ही क्यों न हो, नो मिन्स नो... And When Someone Say So, Stop...'
ये शब्द याद हैं आपको। आपने पिंक फ़िल्म देखी हो तो शायद याद होगा। एक बूढ़े वकील द्वारा तीन लड़कियों के सम्मान-स्वाभिमान-स्वतंत्रता की सार्थकता को जीवंत बनाने वाली इस जिरह को पहली बार देखकर आंखों में आंसू आ गए थे। पूरी फिल्म में केवल कोर्ट रूम की वो जिरह मैंने सैकड़ों बार देखी है। आज सुबह-सुबह ये फिर से याद आ गया। अखबार खोला, तो पहले पन्ने पर ही खबर थी, 'केंद्र ने कहा, वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध बनाना ठीक नहीं।' पहली बार में लगा, कुछ गलत पढ़ लिया, केंद्र सरकार और वो भी महिलाहित के मुद्दों पर मुखर रहने वाली सरकार ऐसा कैसे कह सकती है। लेकिन पूरी खबर पढ़ी, तो यकीन हो गया कि ये बराबरी की बात करने वाली लोकतंत्रताकम शासन पद्धति की आवाज़ नहीं, बल्कि उस पुरुषवादी मानसिकता की सामंती सोच है, जो महिला में 'मैं' वाले अहसास को देखने की आदी नहीं और जो चाहती है कि महिला की पहचान मर्द के नाम की मोहताज बनी रहे। उसकी बीबी उसके लिए बस खिदमत की खादिम हो और पति के हुक्म की तमिल करना ही पत्नियों का फर्ज बना रहे। क्या सितम है कि आज़ादी के 7 दशक बाद जब हम स्वतंत्रता की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं, तब सरकार का वकील न्यायालय में खड़े होकर कहता है कि 'वैवाहिक दुष्कर्म के मामले में महिलाओं को अधिकार दे देने से इसका बेजा इस्तेमाल होगा।' काश... काश कोर्ट रुम में पिंक फ़िल्म के बुजुर्ग दीपक सहगल जैसा कोई वकील होता, जो उस सरकारी भोंपू की आंख में आंख डालकर कह सकता कि आज के दौर में जब अधिकार और हक विमर्श का विषय बन रहा है उस समय खुद पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आधी आबादी के विरोध को कोई बेजा नहीं बता सकता, चाहे वो सरकार ही क्यों न हो। काश पिंक फ़िल्म का न्याय आज की वास्तविकता बन पाता...।
सच में कभी-कभी रील, रियल से ज्यादा सुखद और सुकूनदेह लगता है। कभी-कभी लगता है, जो स्क्रीन पर चल रहा है, काश वो ही हमें आस-पास नज़र आता। लेकिन बहुधा ऐसा नहीं होता, लड़कियों के मामले में तो बिल्कुल नहीं। हमने फिल्मी स्क्रीन पर हजारों बार देखा है कि लड़कियां या औरतें खुद पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं, लेकिन आपने अपने आस-पास कितनी औरतों को मर्दों पर गरजते देखा है? पति में देवता देखने वाली कितनी पत्नियों को उनका पति देवी मानता है? हो ही नहीं सकता कि आपने रोजमर्रा के अपने काम-काज या आवागमन में कहीं किसी महिला के साथ हो रही छेड़खानी, या जबरदस्ती नहीं देखी हो, लेकिन याद कीजिए कि ऐसे कितने नजारे आपने देखे हैं कि उस लड़की ने पीछे मुड़कर लड़के को जोरदार थप्पड़ रसीद किया हो, या कितनी लड़कियां मुड़कर आंख तरेरने का भी साहस जुटा पाती हैं। हजारों में एक होती है, वर्णिका कुंडू, जिसमे पुरुषवादी मानसिकता के चरमोत्कर्ष को ललकारने की हिम्मत होती है। वरना गांवों और शहरों की भी बहुत सी लड़कियां खुद की और मां-बाप की इज्जत की परवाह करते हुए घुटती रहती हैं और देखती-सहती रहती हैं अपने स्वाभिमान और सम्मान को हर दिन कुचले जाते हुए। फिर भी हमारी सरकार को डर है कि वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध का दर्जा दे देने पर, महिलाएं पुरुषों के खिलाफ इसका इस्तेमाल करेगी। सरकार ने तो ये भी कहा है कि इससे विवाह संस्था की बुनियाद हिल जाएगी। माफ़ किजिएगा, लेकिन अगर ये विवाह संस्था जुल्म के बाद दर्द सहते हुए भी औरत को घुटघुटकर जीने के लिए बाध्य करती है, तो इसका हिल जाना ही सही है। सरकारी वकील ने ये भी कहा है कि वैवाहिक दुष्कर्म को धारा-375 के अधीन लाने का आधार ये नहीं हो सकता, कि विश्व के कई देशों में ये अपराध है। बताइए, क्या दोगला रवैया है, इसी सरकार के लिए तीन तलाक को खत्म करने का सबसे बड़ा आधार यही था कि विश्व के कई देशों में ये खत्म किया जा चुका है। समझ नहीं आता कि किसी का अधिकार, किसी की आज़ादी किसी इंसान के लिए नुकसानदेह कैसे हो सकती है? एक पति भी तो इंसान ही होता है न... लेकिन वो साथी या वो पति इंसान नहीं होता, जिसके लिए उसकी दोस्त या उसकी बीबी सिर्फ एक वस्तु हो... और ऐसी विकृत मानसिकता से जल्द-से-जल्द सिसकियां सुनने का हक छीन लेना चाहिए और उसे सिसकियां भरने की सजा दी ही जानी चाहिए...

रविवार, 27 अगस्त 2017

महारैली: 'नीतीश गरियाओ-तेजस्वी बढ़ाओ'

बिहार ही नहीं देश की राजनीति में भी ये साबित हो चुका है कि रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ वोटों में तब्दील नहीं होती। सोशल मीडिया में आज 'भाजपा भगाओ-देश बचाओ' रैली की बातों से ज्यादा उसमे आई भीड़ की चर्चा है। कारण है, फोटोशॉप। ये फोटोशॉप वाली तस्वीर कोई अदना सा कार्यकर्ता शेयर करता, तो समझा जा सकता था, लालू यादव और शरद यादव जैसे बड़े नेताओं ने भी इसे असली भीड़ बता दिया। जैसा कि होना था, संख्याबल के मामले में आज की रैली मजाक बनकर रह गई और इसमें फोटोशॉप के बड़े-बड़े धुरंधर भी शामिल हो गए और उन्होंने तो भीड़ को हवा में भी उड़ा दिया। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि रैली में लोग नहीं थे, लगभग आधा गांधी मैदान भीड़ से भरा दिखाई दे रहा था। वैसे भी, कहा जाता है कि जेपी के बाद आजतक किसी भी नेता में वो ताकत नहीं दिखी, जो गांधी मैदान को लोगों से पाट दे, मोदी में भी नहीं।

खैर, बात करते हैं रैली की। मुझे ये रैली 'भाजपा भगाओ-देश बचाओ' से ज्यादा  'नीतीश गरियाओ-तेजस्वी बढ़ाओ' प्रतीत हुई। पूरा लालू कुनबा चाहे वो खुद लालू यादव हों, राबड़ी देवी, तेजस्वी या तेजप्रताप, सबने मोदी-भाजपा से ज्यादा नीतीश को आड़े हाथों लिया। राबड़ी देवी का ठेठ अंदाज में नीतीश पर बरसना तो बिहार में लंबे समय तक चर्चा के केंद्र में रहेगा। लालू यादव ने तो यहां तक कह दिया कि 'जब नीतीश बीमार पड़े, तो समझो वो कोई खतरनाक काम कर रहा है।' नीतीश पर सबसे ज्यादा बरसे शरद यादव। उन्होंने तो ललकार कर कह दिया कि, 'तुमने यहां 11 करोड़ जनता के साथ छल करके गठबंधन तोड़ा, मैं आज यहां एलान करता हूँ कि पूरे भारत मे 125 करोड़ जनता के साथ वाला महागठबंधन बनेगा।' ममता बनर्जी ने कहा, 'नीतीश ने लालू का साथ छोड़ा है, लालू ने नहीं। आने वाले समय में बिहार की जनता भाजपा-नीतीश को छोड़ देगी।' इस रैली को नेता पुत्रों का सम्मेलन भी कहा जा सकता है। तेज तेजस्वी के अलावा यहां दो दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के दो पूर्व मुख्यमंत्री बेटे भी उपस्थित थे, हेमंत सोरेन और अखिलेश यादव। दोनों ने इस मंच का उपयोग नीतीश को गरियाने और तेजस्वी के राजतिलक को समर्थन देने के साथ साथ अपने प्रदेश की जनता को संदेश देने के लिए भी किया। अखिलेश यादव ने तो चाचा के रूप में नीतीश पर चुटकी लेते हुए उन्हें डीएनए वाला चाचा करार दिया। वहीं हेमंत सोरेन ने इसी बहाने झारखंड के आदिवासियों के साथ ज्यादती का मुद्दा उछाल दिया।

हालांकि इस रैली ने 2019 के लिए भाजपा की नींव को कमजोर करने के प्रयासों का आधार तो तैयार कर ही दिया। पिछले कई दिनों से सोनिया और राहुल के इसमें न शामिल होने को लेकर रैली की सार्थकता पर सवाल उठाया जा रहा था। लेकिन गुलाम नबी आज़ाद ने उनकी अनुपस्थिति का कारण स्पष्ट किया और सोनिया गांधी का रिकॉर्डेड मैसेज सुनाया गया, तो वहीं अशोक चौधरी ने रैली के लिए राहुल गांधी का संदेश सुनाया। यानि अभी तो स्पष्ट है कि राजद की इस रैली को समर्थन या भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने को लेकर कांग्रेस में कोई संशय वाली स्थिति नहीं है। सोनिया गांधी ने उस संदेश के सहारे ही पुरजोर तरीके से मोदी सरकार पर हमला बोला। वहीं राहुल का लिखित संदेश उनके सजीव भाषण से ज्यादा प्रभावी लगा। शरद यादव का आज का भाषण लंबे समय तक याद रखा जाएगा। आज ये स्पष्ट दिखा कि अगर 2019 में मोदी सरकार के सामने संकट की घड़ी उत्पन्न होती है, तो उसके सूत्रधार शरद यादव ही होंगे। गुलाम नबी आज़ाद भी आज बहुत दिनों बाद आक्रामक तेवर में नज़र आए और खुलकर महागठबंधन की वकालत की। बिहारी अंदाज में भाषण की शुरुआत करना ममता बनर्जी का लालू प्रेम दिखा गया। ममता के लहजे से स्पष्ट झलक रहा था कि वे पूरी तरह से एनडीए से दो-दो हाथ करने के मूड में हैं। वो चाहे तारिक अनवर हों, अली अनवर या फिर देवेगौड़ा जी के संदेशवाहक, सबने खुले दिल से लालू का समर्थन और भाजपा का विरोध किया। लालू के आदेश पर तेजप्रताप यादव का शंख फूंकना भी दिलचस्प था। तेजप्रताप ने खुद के सर पर पगड़ी बांधते हुए अपने छोटे भाई तेजस्वी को इस सियासी महाभारत का कृष्ण बता दिया। वैसे, ये देखने वाली बात होगी कि क्या तेजप्रताप के सर पर केवल दिखावटी पगड़ी ही रहेगी या फिर वे भी कृष्ण की भूमिका में आ सकते हैं, क्योंकि पिछले दिनों उड़ती हुई खबर आई थी कि तेजस्वी और तेजप्रताप जिस बिहार यात्रा पर साथ निकले थे, उसपर पहले केवल तेजस्वी जाने वाले थे। लेकिन लालू के घर में ही इसे लेकर मतभेद हो गया और अंत में दोनों को भेजा गया। वैसे तो आज लालू यादव ने पूरा प्रयास किया कि तेजस्वी के राजतिलक को देशव्यापी सियासी मंजूरी मिल जाय और वो मिल भी गई लेकिन लालू के लिए आगे की राह आसान नहीं, न तो 'तेजप्रताप वाले घर' में और न ही 'मोदी वाले इंडिया' में...

सोमवार, 14 अगस्त 2017

इस रात की 'सुबह' कब होगी...

वो आधी रात का समय था, जब अपने भाषण के दौरान नेहरू ने कहा था- 'मध्यरात्री घंटे के स्पर्श पर जब दुनिया सोती है, भारत जीवन और आजादी के लिए जागेगा। आज हमने अपने दुर्भाग्य को समाप्त कर दिया...।' लेकिन क्या सच में दुर्भाग्य समाप्त हो गया? क्या ये रात के बाद की सुबह की निशानी है कि जब लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जी राष्ट्र के नाम संबोधन कर रहे होंगे और हम भारत माता की जय के नारे लगा रहे होंगे, तब देश के सबसे बड़े सूबे में सैकड़ों माताएं अपनी सूनी हो चुकी कोख के लिए विलाप कर रही होंगी? पानी भरे घरों के छप्पर पर बैठकर, फिर से बारिश ना हो जाय इस डर से आसमान की ओर कातर दृष्टि से देख रहे करोड़ों लोगों की ज़िंदगी का अंधेरा क्या सच में उजाले में बदल गया है? आज ढाबो में बर्तन धो रही नन्ही हाथें, अपने मालिक की एक आवाज पर सरपट दौड़ने वाले नन्हे पैर, और हाथों में गुटखे का थैला लिए ट्रेनों-बसों में घूमते बच्चे क्या अब तक आज़ादी से रूबरू हो सके हैं? भर पेट भोजन ना मिल पाने के कारण हमारे देश में हर 5 मिनट में 1 आदमी दम तोड़ देता है, क्या उनके लिए वो दिन का उजाला भी रात का अंधेरा नहीं है, जब उनकी जठरागन जिंदगी पर हावी जो जाती है? एक दिन की जिंदगी जीने के लिए जब दहाई अंक का सबसे ज्यादा पैसा भी नाकाफी हो, उस दौर में देश की उस 70 फीसदी से ज्यादा आबादी के लिए स्वतंत्रता का मतलब क्या हो सकता है, जो 20 रुपए प्रतिदिन में गुजारा करती है? 86 फीसदी ग्रामीण और 82 फीसदी शहरी आबादी, जिसके पास आज भी मेडिकल बीमा नहीं है, उसके देहावसान के बाद उसके परिजनों की जिंदगी में उजाले वाली बल्ब क्या फ्यूज नहीं हो जाती होगी? उस 65 फीसदी युवा आबादी के जरिए सुराज की कल्पना क्या आधारविहीन नहीं है, जिसमे से हर साल 25,000 युवा पढ़ाई के दबाव या अन्य चुनौतियों के कारण आत्महत्या कर लेते हैं? क्या ये अंधेरे में हाथ मारना नहीं है कि 'स्कूल चले हम' का नारा देने के दशकों बाद भी और इस नारे को सार्थक करने पर सैकड़ों करोड़ रुपए बहाने के बाद भी देश में 10 करोड़ से ज्यादा बच्चों को स्कूल नसीब नहीं है?

'इलाही वो भी दिन होगा, कभी वो दिन भी देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा।'
इस शेर में गुलाम भारत की पीड़ा है, पर अफ़सोस कि इन शब्दों में आज भी उन 20 करोड़ भारतीयों का सपना है, जो खुले आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। इन सबके बावजूद, मैं न तो खुद हतोत्साहित हूं और न ही मेरी मंशा आपको हताश करने की है। आजादी के 70 सालों में हमने खूब तरक्की भी की है, पर अफसोस कि हमारे नीति नियंता उस तरक्की से आमजन को नहीं जोड़ पाए। हमने सबसे कम लागत की परमाणु ऊर्जा तो विकसित कर ली, लेकिन देश की एक बड़ी आबादी को इस लायक नहीं बना सके कि वो महीने भर की कमाई से खाना पकाने वाला एक रसोई गैस सिलेंडर भी खरीद सके। सामरिक शक्ति के मामले में हम दुनिया के अग्रणी देशों में हैं, आज सबसे ताकतवर चीन भी हमसे आंख मिलाने से पहले सौ बार सोचता है, लेकिन क्या हम स्वास्थ्य के मामले में खुद को मजबूत कर पाए हैं? हालत ये है कि देश में 61,011 लोगों पर एक अस्पताल, 1833 मरीजों पर एक बेड और 1700 मरीजों पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है। ये यूं ही नहीं है, परमाणु पनडुब्बी लांच करने से लेकर, चांद और मंगल पर मानव रहित मिशन भेजने के मामले में हम अमेरिका के समकक्ष हैं, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करने के मामले में उससे बहुत नीचे। स्वास्थ्य सेवाओं पर अमेरिका अपनी जीडीपी का 8.3 फीसदी खर्च करता है, जबकि हम अपनी जीडीपी का सिर्फ 1.4 प्रतिशत। कैसे ना होंगे 100 में 70 आदमी बीमार, और फिर इन पंक्तियों को कैसे झुठला सकते हैं कि
'100 में 70 आदमी फिलहाल जब नासाद है,
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश का आजाद है।'

आंकड़ों में दर्ज है कि भारत की मिड-डे मील योजना दुनिया का सबसे बड़ा भोजन कार्यक्रम है, लेकिन देश के 39 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और 40 प्रतिशत बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन मनाने से पहले ही चल बसते हैं,  केवल पिछले साल यानि 2016 में 2,96,279 बच्चे डायरिया और निमोनिया से मर गए... आखिर क्यों 70 साल का उजाला भी इनकी जिंदगी में सुबह की रौशनी नहीं ला पाया? आखिर इस रात की सुबह क्यों नहीं होती...? आप जब ये पढ़ रहे होंगे, तब शायद 14 की मध्य रात्रि नहीं, 15 का सुबह होगा... चारो तरफ देशभक्ति के गीत गूंज रहे होंगे, आसमान में तिरंगा लहरा रहा होगा, हम अपने शहीदों और उनकी कुर्बानीयों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे होंगे, चारों तरफ महात्मा गांधी जिंदाबाद, सरदार पटेल जिंदाबाद, सुभाष चन्द्र बोस जिंदाबाद के नारों से आकाश गुंजयमान हो रहा होगा... लेकिन सोचिएगा, क्या हम गांधी-नेहरू-पटेल-सुभाष बोस के सपनों के भारत में जी रहे हैं, सोचिएगा कि 'तंत्र' के मामले में नहीं, 'जन' के मामले में हम 14 अगस्त की मध्य रात्रि के बाद से कितना कदम आगे बढ़े हैं...? आखिर इस रात की सुबह क्यों नहीं होती...

रविवार, 13 अगस्त 2017

हादसों की राजनीति या राजनीति का हादसा

गोरखपुर की घटना अब पुरानी होने लगी है, इसलिए सरकार और भाजपा का बचाव दल सक्रिय हो रहा है, जो लाजिमी है। ऐसे तमाम प्रसंग सुनाए-बताए जा रहे हैं, जब कांग्रेस सरकार में ऐसी घटनाएं हुईं और मंत्रियों ने इस्तीफा नहीं दिया। हालांकि ऐसे प्रसंग सुनाने वाले भूल जा रहे हैं कि तब भाजपा ने उन मंत्रियों को दायित्व का बोध कराने और नैतिकता का पाठ पढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। हम भाजपा को पूर्णतः कठघरे में खड़ा नहीं कर रहे, ये हम समझ रहे हैं कि
'जाने लें चिलम जब चढ़े ले अंगारी'
लेकिन आप दिल पर हाथ रखकर बताइए, क्या आप प्रधानमंत्री मोदी जी से ये उम्मीद कर सकते थे कि वे ऐसी बड़ी घटना पर एक ट्वीट तक नहीं करेंगे? क्या आप सोच सकते थे कि खुद को लाल बहादुर शास्त्री का सियासी वारिस बताकर वोट मांगने वाले सिद्धार्थ नाथ सिंह खुद के और सरकार के बचाव में ऐसी गैरजिम्मेदाराना दलील देंगे? इस मामले में सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा करने वाला वर्तमान विपक्ष भी कौन सा दूध का धुला है। ये दलील देकर और सोचकर कि आपातकाल के बाद भी इंदिरा सत्ता में आई थीं, 2019 में मोदी को मात देने की रणनीति बना रही कांग्रेस शायद बेलछी कांड के समय इंदिरा गांधी का बिहार दौरा भूल चुकी है। अहमद पटेल की जीत के समय सुना था कि राहुल गांधी को वायरल फीवर है, शायद अब तक ठीक नहीं हुए। राहुल गांधी इंदिरा की विरासत को वैसे ही आगे बढ़ा रहे हैं, जैसे सिद्धार्थनाथ सिंह लालबहादुर शास्त्री की। सुकुमार राहुल जी पिछले कई दिनों से अपने ऑफिस के ट्विटर हैंडल के सहारे ही गोरखपुर घटना में सरकार को घेर रहे हैं। शायद राहुल गांधी को ये मालूम भी नहीं होगा- 'आपातकाल के बाद इंदिरा सियासी और कानूनी, हर रूप से विपक्ष के निशाने थीं। उसी दौरान 27 मई 1977 को बिहार में भागलपुर के बेलछी गांव में दबंगों ने कई दलितों के फूंक दिए, इस घटना में दर्जन भर से ज्यादा दलित जिंदा जला कर मार दिए गए थे। इस घटना की खबर सुनते ही इंदिरा गांधी बेलछी के लिए रवाना हो गईं। गांव में गाड़ी नहीं जा सकती थी, इसलिए हाथी की यात्रा करनी पड़ी। वहां भारी बारिश हुई थी और कीचड़ था, जब हाथी के जाने में भी मुश्किल हुई, तो इंदिरा को ट्रैक्टर की यात्रा करनी पड़ी, जब ट्रैक्टर भी नहीं जा सका, तो इंदिरा कीचड़ वाली सड़क पर पैदल चलकर पीड़ितों के घर पहुंचीं।' कहा जाता है कि इंदिरा की बेलछी यात्रा ने ही जनता पार्टी सरकार की उल्टी गिनती शुरू कर दी थी। आज की कांग्रेस को ये किस्सा कौन बताए। ख़ैर, गोरखपुर जैसी घटनाओं के समय कांग्रेस के कुकृत्य गिना रहे भाजपाई बंधुओं के लिए इंदिरा का एक और किस्सा- आज से तक़रीबन छत्तीस साल पहले अचानक अंधेरा हो जाने की वजह से क़ुतुबमीनार की सबसे ऊपरी मंज़िल पर भगदड़ मच गई थी, जिसमें करीब 45 लोग कुचल कर और दम घुटने की वजह से मर गए थे। मरने वालों में ज़्यादातर स्कूली बच्चे थे। इंदिरा गांधी घटनास्थल पर पहुंचीं। ज़मीन पर एक लाइन से रखी बच्चों की लाशें, कपड़े से ढकी हुई थीं। हवा की वजह से कई के चेहरे से कपड़ा हट गया, जिससे उनका कुचला हुआ चेहरा नज़र आ गया। वो मंजर देख इंदिरा की आंखों से आंसू टपक कर दामन में आ गिरे और उन के मुंह से बरजस्ता निकल गया-
'जिन को पामाल किया बाद-ए-सबा तूने आज,
यही गुंचे कभी खिलते तो गुलिस्तां बनते...'