सोमवार, 14 अगस्त 2017

इस रात की 'सुबह' कब होगी...

वो आधी रात का समय था, जब अपने भाषण के दौरान नेहरू ने कहा था- 'मध्यरात्री घंटे के स्पर्श पर जब दुनिया सोती है, भारत जीवन और आजादी के लिए जागेगा। आज हमने अपने दुर्भाग्य को समाप्त कर दिया...।' लेकिन क्या सच में दुर्भाग्य समाप्त हो गया? क्या ये रात के बाद की सुबह की निशानी है कि जब लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जी राष्ट्र के नाम संबोधन कर रहे होंगे और हम भारत माता की जय के नारे लगा रहे होंगे, तब देश के सबसे बड़े सूबे में सैकड़ों माताएं अपनी सूनी हो चुकी कोख के लिए विलाप कर रही होंगी? पानी भरे घरों के छप्पर पर बैठकर, फिर से बारिश ना हो जाय इस डर से आसमान की ओर कातर दृष्टि से देख रहे करोड़ों लोगों की ज़िंदगी का अंधेरा क्या सच में उजाले में बदल गया है? आज ढाबो में बर्तन धो रही नन्ही हाथें, अपने मालिक की एक आवाज पर सरपट दौड़ने वाले नन्हे पैर, और हाथों में गुटखे का थैला लिए ट्रेनों-बसों में घूमते बच्चे क्या अब तक आज़ादी से रूबरू हो सके हैं? भर पेट भोजन ना मिल पाने के कारण हमारे देश में हर 5 मिनट में 1 आदमी दम तोड़ देता है, क्या उनके लिए वो दिन का उजाला भी रात का अंधेरा नहीं है, जब उनकी जठरागन जिंदगी पर हावी जो जाती है? एक दिन की जिंदगी जीने के लिए जब दहाई अंक का सबसे ज्यादा पैसा भी नाकाफी हो, उस दौर में देश की उस 70 फीसदी से ज्यादा आबादी के लिए स्वतंत्रता का मतलब क्या हो सकता है, जो 20 रुपए प्रतिदिन में गुजारा करती है? 86 फीसदी ग्रामीण और 82 फीसदी शहरी आबादी, जिसके पास आज भी मेडिकल बीमा नहीं है, उसके देहावसान के बाद उसके परिजनों की जिंदगी में उजाले वाली बल्ब क्या फ्यूज नहीं हो जाती होगी? उस 65 फीसदी युवा आबादी के जरिए सुराज की कल्पना क्या आधारविहीन नहीं है, जिसमे से हर साल 25,000 युवा पढ़ाई के दबाव या अन्य चुनौतियों के कारण आत्महत्या कर लेते हैं? क्या ये अंधेरे में हाथ मारना नहीं है कि 'स्कूल चले हम' का नारा देने के दशकों बाद भी और इस नारे को सार्थक करने पर सैकड़ों करोड़ रुपए बहाने के बाद भी देश में 10 करोड़ से ज्यादा बच्चों को स्कूल नसीब नहीं है?

'इलाही वो भी दिन होगा, कभी वो दिन भी देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा।'
इस शेर में गुलाम भारत की पीड़ा है, पर अफ़सोस कि इन शब्दों में आज भी उन 20 करोड़ भारतीयों का सपना है, जो खुले आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। इन सबके बावजूद, मैं न तो खुद हतोत्साहित हूं और न ही मेरी मंशा आपको हताश करने की है। आजादी के 70 सालों में हमने खूब तरक्की भी की है, पर अफसोस कि हमारे नीति नियंता उस तरक्की से आमजन को नहीं जोड़ पाए। हमने सबसे कम लागत की परमाणु ऊर्जा तो विकसित कर ली, लेकिन देश की एक बड़ी आबादी को इस लायक नहीं बना सके कि वो महीने भर की कमाई से खाना पकाने वाला एक रसोई गैस सिलेंडर भी खरीद सके। सामरिक शक्ति के मामले में हम दुनिया के अग्रणी देशों में हैं, आज सबसे ताकतवर चीन भी हमसे आंख मिलाने से पहले सौ बार सोचता है, लेकिन क्या हम स्वास्थ्य के मामले में खुद को मजबूत कर पाए हैं? हालत ये है कि देश में 61,011 लोगों पर एक अस्पताल, 1833 मरीजों पर एक बेड और 1700 मरीजों पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है। ये यूं ही नहीं है, परमाणु पनडुब्बी लांच करने से लेकर, चांद और मंगल पर मानव रहित मिशन भेजने के मामले में हम अमेरिका के समकक्ष हैं, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करने के मामले में उससे बहुत नीचे। स्वास्थ्य सेवाओं पर अमेरिका अपनी जीडीपी का 8.3 फीसदी खर्च करता है, जबकि हम अपनी जीडीपी का सिर्फ 1.4 प्रतिशत। कैसे ना होंगे 100 में 70 आदमी बीमार, और फिर इन पंक्तियों को कैसे झुठला सकते हैं कि
'100 में 70 आदमी फिलहाल जब नासाद है,
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश का आजाद है।'

आंकड़ों में दर्ज है कि भारत की मिड-डे मील योजना दुनिया का सबसे बड़ा भोजन कार्यक्रम है, लेकिन देश के 39 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और 40 प्रतिशत बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन मनाने से पहले ही चल बसते हैं,  केवल पिछले साल यानि 2016 में 2,96,279 बच्चे डायरिया और निमोनिया से मर गए... आखिर क्यों 70 साल का उजाला भी इनकी जिंदगी में सुबह की रौशनी नहीं ला पाया? आखिर इस रात की सुबह क्यों नहीं होती...? आप जब ये पढ़ रहे होंगे, तब शायद 14 की मध्य रात्रि नहीं, 15 का सुबह होगा... चारो तरफ देशभक्ति के गीत गूंज रहे होंगे, आसमान में तिरंगा लहरा रहा होगा, हम अपने शहीदों और उनकी कुर्बानीयों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे होंगे, चारों तरफ महात्मा गांधी जिंदाबाद, सरदार पटेल जिंदाबाद, सुभाष चन्द्र बोस जिंदाबाद के नारों से आकाश गुंजयमान हो रहा होगा... लेकिन सोचिएगा, क्या हम गांधी-नेहरू-पटेल-सुभाष बोस के सपनों के भारत में जी रहे हैं, सोचिएगा कि 'तंत्र' के मामले में नहीं, 'जन' के मामले में हम 14 अगस्त की मध्य रात्रि के बाद से कितना कदम आगे बढ़े हैं...? आखिर इस रात की सुबह क्यों नहीं होती...

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