मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

अलविदा 2013

साल 2013 जहाँ हम सबको सियासत और हवस का नंगा नाच दिखाया वहीँ,
इस साल जनता ने अपने लोकतान्त्रिक अधिकार का सार्थक उपयोग किया. साथ ही
और माननीय को 'आम आदमी बनने का दुर्भाग्य और 'आम आदमी को सता सुख प्राप्त हुआ|

एक तरह से यह साल हमारे लिए मिला जुला रहा, आज जब साल 2013 हम सबसे रुखसत हो रहा है|
हमें मिलकर कहना चाहिए,,,,
अलविदा 2013 ,,,,,,

''अलविदा-अलविदा, अलविदा-अलविदा,,,
नए साल के आने की खुशियों में गुम,
भूल गए आप मुझको कहना अलविदा,
अलविदा-अलविदा, अलविदा-अलविदा,,,

वोट बैंक ने मुझको बदनाम किया,
2013 को दंगों का नाम दिया,,,पर
माननीयों को आम आदमी का तगमा दिया
जनता को तख्तो-ताज पे बैठा दिया,,
केदारेश्वर हुए क्यूँ ना जाने खफा,,,
अलविदा-अलविदा, अलविदा-अलविदा,,,

लोग महंगाई की अग्नि में जलते रहे,
नेता 12 5 और 1 रूपये में पेट भरते रहे,
जिनको समझा था हमने कभी रहनुमा,
वो गरीबी को मन का मैल कहते रहे,,,
पर जाने से मेरे तुमको क्या फायदा,
मानसिकता तेरी अब तक बदली नहीं,
अबला की आबरू अब भी लुटती यहाँ,
गुड़िया रो रही देखो अब भी कहीं,
फिर भी कहता रहूँगा यहीं मै सदा
अलविदा-अलविदा, अलविदा-अलविदा,,,''

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

माँ हो गई मैली-


हिमालय की शुद्धता को खुद में समेटे हरिद्वार की भूमी को पवित्र कर कर काशी विश्वनाथ के चरणों के पखारती तीर्थराज प्रयाग की धरती को  संगम से पाप मुक्त करती, महात्माबुद्ध की भूमी पाटलिपुत्र को पावन कर, भारत को सुंदरवन की सौगात सौंप, गंगासागर में जाकर समुद्र के आगोश में समाहित हो जाने वाली 'गंगा' देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है| अतः मानव-समाज सदा ही इनका ऋणी रहा है एवं जन्मदायिनी माता की भाँति इनका सम्मान करता आया है| वेदों में भी कहा गया है:
''देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे|
शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्ताम तव पद्कमले||''
अर्थात, ''हे गंगा माँ आप स्वर्ग की पवित्र नदी हैं| तीनो लोकों से मुक्ति दिलाने वाली माँ आप सर्वथा शुद्ध हैं| भगवान शंकर के जटा की शोभा बढ़ाती हे माँ गंगा, मेरे मन को अपने चरणों में विश्राम की अनुमति दो|''

आधुनिकता की इस अंधी दौड़ ने वेदो के कई सूक्तियों की सार्थकता समाप्त कर दी है| शायद यही कटु सत्य उपर्युक्त श्लोक के 'तरलतरंगे' के साथ भी घटित होने वाला है| भारत के लगभग एक-चौथाई भू-क्षेत्र को अपवाहित कर उत्तर भारत की अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड कहलाने वाली गंगा, तटवर्ती क्षेत्रों के जीवन का आधार गंगा, लगभग 130 लाख किलोवाट की अनुमानित जलविद्युत क्षमता वाली गंगा, कई बड़े शहरों के सूखे कंठ को तृप्त करने वाली गंगा और देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी से 'पल्स ऑफ इंडिया' की उपाधी प्राप्त करने वाली गंगा आज अपनों की बेरुखी के कारण ही 'भारतीय संस्कृति की वाहक' से 'मृत्यु के वाहक' में तब्दील हो रही हैं| आज अपने जल में विभिन्न प्रकार के भयंकर बिमारियों का जीवाणु लेकर बहने वाली गंगा क्या वही गंगा है जिसने राजा सगर के 60000 पुत्रों का उद्धार किया था और जिसके लिए वेदों में कहा गया है,
''तव जलममलं येन निपीतं परमपदं तनु येन गृहीतं,
मातगंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुम न यमः शक्तः|''
अर्थात, ''हे माँ, जो भी आपके पावन जल को ग्रहण करता है, वह निःसंदेह परम धाम को प्राप्त होता है| हे माँ गंगा, यहाँ तक की मृत्यु के देवता यमराज भी आपके भक्तो को कोई हानि नहीं पहुंचा सकते हैं|''
भारतीय सिनेमा सामाजिक वास्तविकता को भली-भांति परदे पर प्रदर्शित करता है| राजकपूर साहब ने सन 1960 में भारतीय संस्कृति की वाहक गंगा की विशेषताओ का बखान करती एक फिल्म बनाई, ''जिस देश में गंगा बहती है|'' लेकिन अगले ढाई दशक में ही लोगो की निजी स्वार्थ सिद्दी ने गंगा को उस स्थिति में ला खड़ा किया कि, गंगा की विषम परिस्थिति पर राजकपूर साहब को 1985 में फिर से एक फिल्म बनानी पडी, ''राम तेरी गंगा मैली|'' पवित्रता की सूचक रही गंगा आज अपवित्रता के उस मुहाने पर खड़ी है कि किसी गीतकार को गंगा रूप में लोगो को संबोधित करना पड़ता है, ''मानो तो मै गंगा माँ हूँ, ना मानो तो बहता पानी|''

वर्षों से मानव-समाज का उद्धार करती चली आ रही गंगा आज अपने स्वयं के उद्धार के लिए निरीह अवस्था में स्वार्थी मनुष्यों का मुँह ताक रही है| 'नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम यानी एनसीआरपी' के हाल में हुए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि गंगा में इतनी ज्यादा धातुएं और घातक रसायन घुल गए हैं कि इस पानी के संपर्क में रहने वाले लोग कैंसर से पीड़ित होने लगे हैं| शोध के मुताबिक गंगा किनारे रहने वाले लोगों में पित्ताशय, किडनी, भोजन नली, प्रोस्टेट, लीवर, यूरिनरी ब्लैडर और स्किन कैंसर होने का सबसे ज्यादा खतरा है| गंगा के किनारे रहने वाले हर 10 हजार लोगों में 450 पुरुष और एक हजार महिलाएं, पित्त की थैली के कैंसर से पीड़ित हैं| अध्ययन के मुताबिक पित्त की थैली के कैंसर के दूसरे सबसे ज्यादा मरीज भारत में गंगा किनारे बसते हैं|

आज अगर कथित भावी प्रधानमन्त्री 'नरेंद्र मोदी' यह कहते हैं कि गंगा की सफाई के लिए दिल्ली और उत्तर प्रदेश में तख्तापलट की जरुरत है, तो यह उनके सता की राजनीति हो सकती है| मगर सच यह है कि 'गंगा' को उसका खोया वैभव और पवित्रता वापस दिलाने के लिए मनुष्य की मानसिकता में बदलाव की जरुरत है, क्योकि वे कुंठित मानसिकता के लोग ही हैं जो गोमुख से हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते गंगा को प्रतिदिन 89 मिलियन लीटर मल-मूत्र ढोने को विवश करते हैं| आज जब पर्यावरण गुणवत्ता निगरानी समूह पीपुल्स लोक विज्ञान संस्थान (पीएसआई, देहरादून) की एक अध्ययन में यह सच्चाई सामने आती है कि “हरिद्वार में मात्र दो नालों 'ललताराव पुल' और 'ज्वालापुर' से 140 लाख लीटर से भी ज्यादा मलजल गंगा में गिरता है|'' हर की पौड़ी के ऊपर स्थित नाला एस-1, गंगा में दिन प्रतिदिन 2.4 मिलियन लीटर कचरा ले जाता है। जिसमें 100 मिलीलीटर में 31.3 लाख फैकल कॉलिफोर्म और 140 मिलीग्राम/लीटर बीओडी होता हैं| तो मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि 1984 में बने 'गंगा एक्शन प्लान' के तहत आज तक लगभग 1400 करोड़ रुपयो का क्या हुआ? "गंगा को प्रदुषण मुक्त" करने के लिए मई 2011 में 'विश्व बैंक' से लिया गया करीब साढ़े चार हज़ार करोड़ का क़र्ज़ भी क्या गंगा में मलजल के साथ ही बह गया?
कहा जाता है, ''जब से जागो तभी सवेरा'' अतः अभी भी समय है भारतीय संस्कृति की इस सबसे बड़ी विरासत को बचाने का, नहीं तो सुरसा की भांती मुह फैलाये खड़ी यह समस्या एक दिन पूरी भारतीय संस्कृति को ही निगल जाएगी|

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

क्या यह भारत की संप्रभुता पर हमला नहीं है?

मोदी को अमेरिकी वीजा ना देने के लिए अमेरिका को पत्र लिखने वाले 65 सांसद इस समय कहाँ हैं जब एक भारतीय राजनयिक के कपडे उतार कर उसकी तलाशी ली गई| क्या यह भारत की संप्रभुता पर हमला नही है कि, दिल्ली हाई कोर्ट के द्वारा अंतरिम आदेश जारी कर रोजगार के नियम एवं शर्तो के आधार पर भारत के बाहर 'देवयानी खोबरागडे' के खिलाफ कोई कार्रवाई शुरू करने पर रोक लगाने के बावजूद अमेरिका ने न सिर्फ उन्हें गिरफ्तार किया बल्कि उन्हें पुलिस स्टेशन में सेक्स वर्करों, अपराधियों और नसेड़ियों के बीच खड़ा किया गया। साथ ही उनकी डीएनए स्वेबिंग भी की गई। भारत को इसका जबाब कड़ाई के साथ देना चहिए, क्योकि यह पहला मौक़ा नहीं जब अमेरिका ने भारत को इस तरह नीचा दिखाने की कोशिश की है| पिछले साल ही भारतीय सिने जगत के मशहूर अभिनेता 'शाहरुख़ खान' अमेरिका में आयोजित किसी समारोह में भाग लेने गए थे तो न्यूयार्क एअरपोर्ट पर अधिकारियों ने उनके साथ बदतमीजी की थी| उसी न्यूयार्क एअरपोर्ट पर हमारी भारतीय महिला राजदूत की सिर्फ इसलिए तलाशी ली गई थी कि वो साड़ी पहने हुए थीं जो कि भारत की परंपरा है, क्या यह देश के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का अनादर नहीं है| वहीं, भारतीय सिक्ख उच्चायुक्त की पगड़ी खोलकर तलाशी ली गई थी जो कि देश के साथ-साथ धर्म का भी अपमान है| इससे एक कदम आगे बढ़कर अमेरिका ने उस 'अब्दुल कलम जी' की तलाशी लेकर बदतमीजी की जो भारत के पूर्व राष्ट्रपति हैं| आज अमेरिकी राजदूत को तलब करने और लोकसभा अध्यक्ष 'मीरा कुमार जी' तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार 'शिवशंकर मेनन' जी द्वारा अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल से ना मिलने के फैसले से बात नहीं बनने वाली| भारत को अमेरिका की इस गुस्ताखी का मजबूती से जबाब देना चाहिए|




रविवार, 15 दिसंबर 2013

अबला की आबरू खतरे में आखिर कब तक-

आज निर्भया काण्ड के पुरे एक साल बीतने के बाद यह सवाल लाजिमी है कि क्या दरिंदो के दरिंदगी की शिकार उस बहन, उस बेटी के बलिदान से हमने कुछ सीख ली? हमेशा नेताओ के लिए नारे लगाने और झंडे थामने वाले हाथो का बिना किसी नेतृत्व के हजारो की संख्या में देश के सबसे बड़े दरवाजे पर दस्तक देना सार्थक हुआ? मानवता को शर्मसार करने वाली घटना पर उपजे गुस्से को दबाने के लिए बेरहमी से बरसाई गयी लाठियों ने क्या हमारे मानसपटल से उस राक्षस का वध किया जो औरत को पांव की जूती और भोग की वस्तु समझता है? 5.2 डी.से. वाले ठंढ दिन में भी अपने माँ-बहनों के आबरू की रक्षा के लिए कृतसंकल्पित युवक-युवतियों को ठंढी हवा के थपेड़ो के बीच भी नहीं डिगा सकने वाली वाटर कैनल की मार इस बात की सूचक थी कि शायद अब किसी अबला की आबरू से खिलवाड़ नहीं होगा| राजघाट से लेकर रायसीना हिल्स, कश्मीर से कन्याकुमारी और कोहिमा से कांडला तक उपजा जनाक्रोश यह बयां कर रहा था कि अब यह समाज मानवता पर पशुता को हावी होते नहीं देख सकता| आजाद भारत में पहली बार बिना नेतृत्व के राष्ट्रपति भवन तक पहुंची हजारो की भीड़ ने माननीयो को यह सन्देश भेजा कि अब यह समाज लचर व्यवस्था को बर्दास्त नहीं करेगा, और हमारी संसद को नया बलात्कार-विरोधी कानून बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा था| लेकिन इन कानूनो का क्या फायदा जब इन्हे बनाने वाले नेता ही अपने गंदे बयानो से महिलाओ को निचा दिखाएँ|


मध्यप्रदेश के एक पूर्व मंत्री 'विजयवर्गीय' ने कहा था कि ''महिलाएं मर्यादा नहीं लांघें। मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीता का हरण होता है। जब लक्ष्मण रेखा हर व्यक्ति की खींची हुई है। उस लक्ष्मण रेखा को कोई पार करेगा तो रावण सामने बैठा है। वह सीता का अपहरण कर लेगा।'' अरे मंत्री जी रावण की लंका में भी सीता सुरक्षित रह जाती है, लेकिन आप का प्रशासन उसे सुरक्षा दे पाने में नाकाम है, आज थाने में भी एक महिला सुरक्षित नहीं है| महिलाओ और पुरुषों के कंधे से कन्धा मिलाकर लड़ने के बाद भारत आजाद हुआ| हमें एक स्वतन्त्र भारत मिला खुलकर जीने को| लेकिन दुःख होता है जब तमाम सुरक्षा व्यवस्था से घिरी एक महिला मुख्यमंत्री महिलाओ की आजादी को ही बलात्कार का कारण मानती हैं| पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री 'ममता बनर्जी' ने आजादी को रेप की वजह बताया था। उन्होंने कहा था कि लड़के-लड़कियों को माता-पिता द्वारा दी गई आजादी से ही बलात्कार जैसी घटनाएं हो रही हैं। यहीं कारण है कि राजधानी में महिलाओं की सुरक्षा स्थिति में ज्यादा कुछ बदलाव नहीं आया है। दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के अनुसार, 30 नवंबर तक राष्ट्रीय राजधानी में बलात्कार के कुल 1493 मामले दर्ज किए गए, जो पिछले 1 जनवरी से 30 नवम्बर 2012 के बीच 611 थे|  उत्पीड़न के दर्ज मामले भी पांच गुना बढ़कर 3,237 हो गए। 5 दुष्कर्म के मामले (औसतन) रोजाना दर्ज होते हैं दिल्ली में जो पिछले 1 साल के मुकाबले बहुत ज्यादा है|

यह उस भारत की तस्वीर है जहाँ, 543 संसदीय क्षेत्रो, 4032 विधानसभा क्षेत्रो और 638596 गाँवो में 10 लाख से अधिक महिलाये नेतृत्वकारी भूमिका अदा कर रही है। जहाँ कुछ दिनों पहले तक एक महिला को देश का प्रथम नागरिक होने का गौरव प्राप्त था। एक महिला ही जिस देश के सतासिन दल की अध्यक्षा है। लोकतंत्र की धड़कन कहे जाने वाले लोकसभा के अध्यक्ष की कुर्सी भी एक महिला के हाथो में है| लोकतंत्र के रीढ़ विपक्ष की नेता भी एक महिला ही हैं, और जिस देश के 3 बड़े राज्यों की कमान महिलाएँ संभाल रही है। आखिर क्यों? आखिर क्यों इन सब के बावजूद 5 वर्ष की बालिका को हवस का शिकार बना कर दरिन्दगी की सभी हदें पार कर दीं जाती हैं| आखिर क्यों खुद को समाज का अगुवा और पथप्रदर्शक बताने वाले लोग भी इस जघन्य अपराध में सम्मिलित नजर आ रहे हैं|

इन सब घटनाओ से स्थाई निजात पाने के लिए हमें मानविय मूल्यों को समझना होगा, हमारी आने वाली नश्लों को संवेदनशील बनाना होगा और इन्सान को इन्सान के दुख-दर्द को समझने की संस्कृति पैदा करनी होगी। हमें 'मनसा वाचा कर्मणा' एक होकर 'यात्रा नर्यास्ता पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' का अर्थ समझना होगा| हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अपनी अदम्य साहस, अपनी जीजिविषा और फिर अपने बलिदान से हर किसी को मर्माहत करने वाली दामिनी सिंगापूर के अस्पताल में मौत के आगोस में सोते समय इसी बात से व्यथित होगी कि,
रहेगी अबला कि आबरू खतरे में आखिर कब तक?
रहेगी नर की जननी दहशत में आखिर कब तक?
रोज नजारा देख रहें हम यहाँ द्रौपदी दुशासन का,
करेंगे इन्तजार हम केशव का आखिर कब तक ?

विरासत पर सियासत-

वंसानुगत राजनीति की शुरुआत करने वाले नेताओ के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर उनके लिए श्रद्धांजलि संदेशो से भरे समाचारपत्रों का एक भी कोना आज ऐसा नहीं दिखा जहाँ उस महान पुरोधा के लिए दो शब्द लिखें हो जिन्होंने संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्दों-'सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, पंथनिरपेक्ष, और लोकतंत्रात्मक गणराज्य' की नीव रखी थी| जिन्होंने रियासतो में खंडित भारत को अखंड भारत बनाया| आज देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों के आलाकमान 'सरदार पटेल' की विरासत को अपना बताने की होड़ में लगे हैं| क्या सरदार पटेल की गगनचुंबी प्रतिमा स्थापित कर देने से ही मात्र से ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि मिल जाएगी| देहावसान के बाद 'सरदार पटेल की कुल सम्पति 259 रूपए थी| आज उन्हें अपना बताने की होड़ में लगे राजनीतिक पार्टियो में किसी पार्टी के किसी नेता के पास हिम्मत है कि वो सरदार पटेल की इस विरासत को अपना सके|
''अपने बल पर जिन्होंने खंडित भारत को अखंड किया,
पुण्यतिथि पर उनके हम चरणो में शीश नवाते हैं,
गृहमंत्री बनकर जिन्होंने नवभारत को नई दिशा दी,
वह महान पुरोधा लौहपुरुष के नाम से जाने जाते हैं
राजनीति को देशभक्ति कहा करते थे जो महापुरुष,
आज देखो उनके नाम सता के लिए उछाले जाते हैं|''

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

देश के दिल दिल्ली में जम्हूरियत का जलवा-

'बेटा, डीएम बन जाना लेकिन पीएम या सीएम बनने की बात मत सोचना', यही सुझाव था उस सज्जन का मेरे लिए जिन्होंने मुझसे पूछा था कि, तुम पढ़ाई कर के क्या बनना चाहते हो, और मेरा उतर कि 'मै डीएम सीएम और पीएम बनना चाहता हूँ' सुनने के बाद उन्होंने मुझे समझाया, ''आज की राजनीति भ्रष्टों और चोर-डाकुओ की अंतिम शरणस्थली है, राजनीति के वो दिन लद चुके हैं जब इस क्षेत्र में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, और शास्त्री जी जैसे लोग हुआ करते थे| आज यह उस मुकाम पे पहुँच गई है कि कोई ईमानदार आदमी भी देश सेवा के इरादे से राजनीती में आना चाहे तो बेदाग इससे नहीं निकल सकता है, यह आज उस काजल की कोठरी के जैसी हो चुकी है जिसके लिए कहा जाता है, 'काजल की कोठरी में कैसे ही सयाने जाय, एक लिक काजल की लागी है पै लागी है|' इसलिए इससे दूर ही रहना|'' लेकिन मैंने सोचा कि अगर राजनीति गन्दी है तो फिर इसे साफ़ करने की जिम्मेदारी किसकी है? आखिर कब तक एक माँ संसद की कार्यवाही देख रही अपने बेटे की हाथों से टीवी का रिमोट छिनती रहेगी? आखिर कब तक फिरंगियो के हाथो पहले ही लूट चुकी इस सोने की चिड़िया को अब हम अपनों के हाथो लुटते हुए देखते रहेंगे? आंकड़े गवाह हैं, वर्त्तमान लोकसभा में हमारे प्रमुख विपक्षी दल का हर दूसरा सांसद करोड़पति है, पिछले 10 सालों से केंद्र की सता पर काबिज राजनीतिक दल के 10 में से 7 सांसद करोड़पति है| कहा जाता है 'जाके पांव ना फटी बेवाई, सो का जाने पीर पराई|' एसी की कूलिंग बढ़ा कर देश की समस्या पर विचार करने वाले ये राजनेता उस माँ की मर्म को कैसे समझ सकते हैं जो कड़ाके की सर्द रात में फुटपाथ के निचे अपने कलेजे के टुकड़े को अपनी गोद में तड़प कर मरते देखने को विवस होती है| लजीज व्यंजनो से पटे थाली में भोजन करने वाले नेता उस बच्चे की जठरागन को कैसे समझ सकते हैं जो एक निवाले के लिए कूड़े के ढेर से लड़ रहा होता है|

लेकिन देश के दिल दिल्ली में जम्हूरियत के जलवे ने पुरे देश में लोगों को एक सकारात्मक राजनीति का सपना दिखाया है| चार राज्यो के चुनावी नतीजे ने तो बहुत से अहंकारियों की हवा निकाल दी है| कुछ दिनों पहले गरीबी को मनःस्थिति बताने वाले 'युवराज' भी अब 'आम लोगों की पार्टी आम आदमी पार्टी' से सबक लेने की बात करते सुने जाते है| वो नेता भी 'आप' को देश का भविष्य बता रहे हैं जिन्होंने कुछ दिनों पहले एक गरीब के भूख की कीमत 1 रूपये आंकी थी|
यह सब प्रतिफल है क्रन्तिकारी विचारधारा से लबरेज उस आम आदमी का जिसने देश के गर्तोन्मुख गंतव्य को दिशा देने के लिए खुद का स्वर्णिम भविष्य दाव पर लगा दिया| यह प्रतिफल है उस नेतृत्व क्षमता का जो किसी कवि की इन पंक्तियों पर खरा उतरता है कि,
''चल पड़े जिधर दो पग डगमग, चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर|''

आईएएस बनने की ख्वाहिस लेकर दिल्ली आया एक लड़का जब भ्रष्ट व्यवस्था से अजीज आकर उसे बदलने के लिए मैदाने जंग में कूद जाता है, और राजनीति को व्यापार बनाने वाले कथित माननीय को आम आदमी बना देता है| अबला की आबरू बचाने को पत्रकरिता का पेशा छोड़कर राजनीति में आई एक लड़की जब एक दिग्गज नेता को पटकनी दे देती है| जब राजनेता के रूप में गुंडों और बलात्कारियो का लबादा ओढ़ने वाले और उनके टट्टुओं से आम आदमी के हक़ के लिए लड़ते हुए कुर्बान हो जाने वाली एक लड़की का भाई, लोकतंत्र के इस महापर्व में धमाकेदार जीत के साथ व्यवस्था परिवर्तन का साक्षी बनता है और अपनी जीत अपनी उस बहन को समर्पित करता है जो इस भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ते हुए शहीद हो गई, और जब बिना किसी वंशवाद की राजनीति के एक 25 साल का लड़का भी इस लोकतंत्र के महासमर को तर कर विधायक बन जाता हैं, तब लगता है कि पुरानी पतलून-कमीज और घिसी हुई चप्पल पहन कर पिछले 2 सालों से दिल्ली वासियों के दिल में जोश-ओ-जूनून पैदा करने वाले उस 'अरविन्द केजरीवाल की तपस्या रंग लाई जिन्होंने आम आदमी की आवाज बुलंद करने के लिए अपनी आयकर विभाग के कमिश्नर की नौकरी को लात मार दी| व्यवस्था परिवर्तन की इस आंधी में 'पत्रकार मनीष सिसोदिया' का भी बहुत योगदान है जो अपनी पत्रकार की नौकरी छोड़ कर इस आंदोलन का हिस्सा बने| देश हित में मुकदमा लड़ने वाले 'वकील प्रशांत भूषण और उनके पिता शांति भूषण जी' का भी आम आदमी के इस जंग में महत्वपूर्ण योगदानसे इंकार नहीं किया जा सकता| सच के लिए आवाज उठाने के कारण हुए हमले में आज भी पैरालाइसिस की मार झेल रहे 'श्री गोपाल राय' और अपनी अनुभव क्षमता की बदौलत आम आदमी पार्टी को नित संजीवनी प्रदान करने वाले 'योगेन्द्र यादव जी' को तो शत-शत नमन है| आजादी की इस दूसरी लड़ाई से अगर एक आदमी की आवाज निकाल दी जाय तो यह लड़ाई अधूरी मालूम पड़ती है, और वह आवाज है, युवाओ के चहेते कवि 'डॉ. कुमार विश्वास' की| 'दिनकर' के कुल का एक ऐसा दीपक जिसने कभी भी 'पद्य' पुरस्कारो की कामना नहीं की, लेकिन माँ भारती के लिए वो कर दिखाया जिससे कोई भी पुरस्कार उऋण नहीं कर सकते|
वैसे तो दिल्ली की यह जीत आम आदमी की जीत है और यह पार्टी भी आम लोगो की पार्टी है जैसा कि इस पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक भी कहते हैं, लेकिन मैंने यहाँ कुछ लोगों का नाम इसलिए लिया क्योकि अगर ये इस जंग में सरीक नहीं होते तो इन देश विरोधी सरकारों की जनविरोधी नीतियो के तले कुचले जाना यहाँ के लोगो की नियति बन जाती| 


इन देश भक्तो के लिए भी यह राह उतना आसान नहीं था| कदम-कदम पर बाधाएं पैदा की जा रही थी, मगर जैसा कि इन्हे पता था कि, 'एक बच्चे से खिलौना छीनने पर वो पुरी ताकत से उसे बचाने की कोशिश करता है' , ये छदम राजनेता भी वहीं खेल खेलेंगे| और ऐसा हुआ भी, अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियो पर तमाम तरह के आरोप लगाए गए| फर्जी स्टिंग ऑपरेसन में फंसाया गया| लेकिन इनके पास करोड़ों लोगो का प्यार और समर्थन था जिसने इन्हे हर फर्जी आरोपों से बरी कर दिया| इनके पास उस कवि कि आवाज थी जिसने इन्हे बल दिया कि,
''वो हाथो में पत्थर बदलते रहते हैं,
इधर भी अहले जुनूं सर बदलते रहते हैं,
ये दबदबा ये हुकूमत ये नशा-ये-दौलत,
किरायदार हैं सब घर बदलते रहते हैं|''

''You people are behaving like Street boys'' 'अरविन्द केजरीवाल' और कुमार विश्वास' के लिए इसी वाक्य का प्रयोग किया था, विकलांगो को बैशाखी देने में घपला करने वाले 'सलमान खुर्शीद जी' ने जो 'ऑक्सफ़ोर्ड' में पढ़ने के बाद गलियों में उड़ने वाले धूल की कीमत भूल गए, और भूल गए धूल में उड़ने वाले उस छोटे से तिनके कि कीमत जिसके लिए कहा गया है,
''तिनका कबहु ना निंदिये जो पायान्तर होय,
कबहु उड़ी आँखिन पड़े पीर घनेरी होय,,,|'' 
पूर्व भाजपा अध्यक्ष 'नितिन गडकरी जी' ने 2 रूपये का चिल्लर कहा था 'अरविन्द केजरीवाल' और उनके साथियो को, लेकिन पिछले 15  साल से गडकरी जी के किसी धुरंधर से मात ना खाने वाले 'शीला दीक्षित' को 'केजरीवाल जी' ने लगभग 25000 के रिकार्ड वोटों से शिकश्त दे कर 2 रूपये के चिल्लर की कीमत दिखा दी, और वो मुख्यमंत्री भी अब 'भूतपूर्व' बनने के बाद 'मानसून के कीड़े की क्षमता समझ गई होंगी| 

अब भी राह चलते कई ऐसे लोग मिल जाते हैं जो कहते हैं कि ये 'आप' वाले अराजकता फैला रहे हैं, इन्होने अब तक देश हित में किया ही क्या हैं| तो उनके उतर स्वरुप 'डॉ. कुमार विश्वास' की ये पंक्तियाँ-
''कुछ देशभक्ति के मंत्र यहाँ हमने आकर बाचे तो हैं,
 हम अनाचार के विषधर के फन पर चढ़ कर नाचे तो हैं,
और भ्रष्टाचार के अंधड़ को आगे बढ़ ललकारा तो हैं,
धीमा ही सही तमाचा पर उसके मुँह पर मारा तो हैं|''
-निरंजन कुमार मिश्रा

बिलखती ममता, सिसकता बाप क्यों हुक्मरान है चुप-चाप?

एक माँ के लिए इससे बड़ी विपदा कुछ नहीं हो सकती है जब उसे अपने मृत बेटे का शव देखने को विवस होना पड़े| लेकिन उस माँ पर क्या बीत रही होगी जो पिछले 8 दिनों से अपने 11 माह के बेटे के शव के साथ दिन-रात गुजार रही है| सुनने में तो यह अजीब लगता है लेकिन यह सच है| यह सच है उस देश का जहाँ से इटली की सरकार अपने दो सैनिको को क्रिसमस मनाने के लिए इटली बुला लेती है जिनके ऊपर भारतीय मछुवारो के ह्त्या का इल्जाम है, लेकिन लानत है हम पर कि हमारे बेशकीमती वोटो द्वारा चुने हुए हमारे जन प्रतिनिधि अपने उस बेटे को भारत बुला सकने में अब तक नाकाम है जिसके 11 माह के बेटे का शव अंतिम संस्कार के लिए अपने उस पिता की राह देख रहा है जिसे उसके पिता ने अंतिम बार ढाई महीने की उम्र में देखा था| एक माँ इस देश के सबसे बड़े दरवाजे पर जा कर गिड़गड़ा रही है, अपने पति को उसकी लूट चुकी सम्पदा वापस सौंपने के लिए, लेकिन इस बार भी हमारे वजीरे आजम ने उस दुखिया को सिवाय आश्वासन के कुछ नहीं दिया|
यह किस्सा है मुम्बई के 'कैप्टेन सुनील जेम्स का जो नेवी में कैप्टेन हैं, इसी साल उन्होंने इंग्लैण्ड की एक कंपनी 'यूनियन मैरिटाइन' के साथ 4 महीने का कॉन्ट्रैक्ट किया था| सुनील को 'एंटी ओसियन' नमक जहाज की जिम्मेदारी दी गई थी, जुलाई के महीने में उनके जहाज पर अफ़्रीकी देश 'टोगो' के पास समुद्री डाकुओ ने जहाज पर हमला कर के उसे लूट लिया| 'टोगो' की सरकार ने उन पर डाकुओ से मिले होने का आरोप मढ़ कर उन्हें हवालात में डाल दिया| सोचने वाली बात ये है कि उनके पास ना ही 'सुनील' के खिलाफ कोई सुबूत है ना ही साक्ष्य फिर भी क्यों नहीं रिहा किया जा रहा है सुनील को?

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

बेशकीमती हथियार की कीमत-

आज दिल्ली में लोकतंत्र का महापर्व है| तमाम योद्धा मैदान में हैं| कुछ अपने पूर्वज नेताओ के नक्से कदम पर चलकर दारु-शराब और पैसे के बल पर आम जनता को लुभाते दिख रहे हैं, जैसा कि टीवी चैनल दिखा रहे हैं| तो वही इस चुनाव में भारतीय राजनीति का एक बदला हुआ चेहरा भी नजर आ रहा है| आज तक हमने सुचारु रूप से चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग और पुलिस को ही काम करते देखा था लेकिन दिल्ली के इस विधानसभा चुनाव में एक राजनितिक पार्टी भी लोकतंत्र के इस महापर्व को लोकतंत्र के अनुसार आयोजित करने को प्रतिबद्ध दिख रही है| दिल्ली पुलिस भले ही अपना यह काम ठीक ढंग से नहीं निभा पा रही हो (जैसा कि आम आदमी पार्टी के स्टिंग में दिखाया गया है), लेकिन 'आप' अपने वादे कि ''हम राजनीति करने नहीं बल्कि राजनीति को बदलने आये है'' के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्धता दिखाई| कुछ दिनों पहले 'आप' के एक नेता ने कहा था कि चुनाव लेने के परंपरागत तरीके शराब-पैसे के बाँटने वालो की कलई खोलने के लिए उनकी पार्टी ने 2000 खुफिया कैमरो की खरीदारी की है साथ ही उसके लिए 1500 कार्यकर्ताओ को ट्रेनिग दी गई है| अब जबकि 'आप' ने एक बड़ी पार्टी के एक नेता के गुर्गो को खुलेआम शराब बांटते दिखा दिया, 'आप' का यह मुहीम रंग ला रहा है|
वहीं एक निजी चैनल के स्टिंग में 'दिल्ली विधानसभा के स्पीकर रहे 'श्री योगानंद शास्त्री' जी और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री 'साहिब सिंह वर्मा' के बेटे प्रवेश वर्मा.के दफ्तर में और दफ्तर के बाहर उनके गुर्गों को शराब के साथ दिखाया गया है| वहीं दिल्ली विधानसभा के उप सभापति अमरीश सिंह गौतम के दफ्तर को शराब मिलने की वजह से सील किया गया| अब तक तो हम वोट लेने के लिए नेताओ द्वारा शराब और पैसे बाँटने की ही बात सुनते आ रहे थे लेकिन इस बार दिल्ली में एक नेता द्वारा 'आटे के पैकेट' बांटने की भी खबर आई है| कल रात तक चुनाव आयोग और दिल्ली पुलिस ने आचार संहिता का उल्लंघन करने के मामले में 300 से ज्यादा लोगों पर मुकदमा दर्ज कर दिया है, वहीं लगभग डेढ़ सौ लोग कानून की गिरफ्फत में आ चुके हैं| सोचने वाली बात ये है कि इन तमाम गिरफ्तार लोगों में ना कोई प्रत्याशी है और ना ही किसी दल का कोई प्रमुख चेहरा| ये वो लोग हैं जो आजादी के 6 दशक बीत जाने के बाद भी लोकतंत्र का मतलब नहीं समझ सके हैं| जो एक बोतल शराब और कुछ पैसो से उन तमाम क्रान्तिकारियो के सपनो से खिलवाड़ कर रहे हैं जो आजाद भारत का सपना आँखों में सजाए शहीद हो गए| जिह्वा स्वाद और चंद पैसो के लिए अपना जमीर दाव पर लगाने वाले ये लोग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के भारत के लिए उस सपने की बलि दे रहे है जिसे उन्होंने अपने एक भाषण में व्यक्त किया था, ''मेरे सपनो का भारत ऐसा होना चाहिए जिसमे हर व्यक्ति चाहे वह कितना भी गरीब हो चाहे वह कितना भी छोटा हो, अपनी सारी जरुरतो को पूरा कर सके, उसको सारी सुविधाए मिल जाय और वह बिना किसी डर के खुल कर अपनी बात कह सके| आज अगर हम चंद सिक्को के कारण बिक गए तो हमें तैयार रहना चाहिए उस पल के लिए जब हमारे इन बेशकीमती वोटो, जिन्हे हमने कीमतो में उछाल दिया, के द्वारा चुने हुए राजनेता हमारे सपनो को बेचे और हमारे देश को बेचें| क्या आजादी के 67 साल बाद भी जनता इतनी सजग नहीं हुई है कि वह लोकतंत्र में अपने सबसे बड़े हथियार वोट की कीमत समझ सके? पुरे 5 साल तक अपने हक़ के लिए जन प्रतिनिधियो के चक्कर काटने वाली जनता इसी एक दिन अपने मन का भड़ास क्यों नहीं निकाल लेती? क्यों नहीं वो दिखा देती अपनी ताकत उन तथाकथित नेताओ को जो गरीबी को मनःस्थिति समझते हैं और जिनकी नजर में जठराग्न से तड़पते एक पेट की कीमत सिर्फ 1 रूपये 5 रूपये और 12 रूपये होती है|
''गर आपके इस मुल्क में ये हथियार बेहतर चल गया,
याद रखना ऊंची जुल्म की अब सर कभी होगी नहीं,
आज भी गर बिक गए वजह से चंद सिक्को के तुम,
तो ये तय है कि हालत तेरी बेहतर कभी होगी नहीं|''

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

अपने कार्यकाल में भारत को वैश्विक स्तर पर एक नई पहचान दिलाने वाली भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री 'श्रीमती इंदिरा गांधी जी' की आज 96 वी जयन्ती है| उनके इस जन्मदिवस पर मै तहे दिल से उनके प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ| 

देख कर आज का अराजक भारत मुझे उस शेरनी की याद आती है,
जिन्होंने भारत को बुलंदी बख्सी, उस इंदिरा गांधी की याद सताती है,
इस 96 वे जन्मदिवस पर भी आज जब सारे सपने उनके अधूरे है 
कैसे ना कहूं उनके बेटे आज उनको भूले बिसरे हैं|

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

कूड़े के ढेर में भारत का भविष्य-

कल पुरे भारत में बाल दिवस बड़े ही धूम-धाम से मनाया गया| यह दिन एक ओर जहाँ उन बच्चो को समर्पित है जिन्हे भविष्य में देश की बागडोर अपने हाथो में लेनी है, तो वही दुसरी तरफ यह दिन उस महान पुरोधा 'पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन है जिन्हे बच्चे प्राणो से भी प्यारे थे| लेकिन कल जब पुरे देश में समर्थ अभिभावकों के बच्चे बाल दिवस का आनंद ले रहे थे, उस दिन भी कुछ बच्चो को कूड़े के ढेर में अपना भविष्य ढूंढते देखा जा सकता था। क्या हम उस महान पुरोधा के जन्म दिवस को सार्थक कर पा रहे है जिन्हें बच्चे प्यार से चाचा नेहरू कहते थे। ये कैसी विसमता है कि एक समर्थ्य अभिभावक का बच्चा गाड़ी में बैठ कर स्कूल जाता है तो दुसरी तरफ उसी का हमउम्र दुसरा बच्चा अपनी जठराग्नि शांत करने के लिए लाल बती पर गाडियो का सीसा खटखटाता है| आंकड़े बताते है कि भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 17 लाख बच्चे इलाज के अभाव में मरते है। स्वाभाविक है जो अभिभावक अपने लाडले की भुख से बिलखती आत्मा को तृप्त नहीं कर सकता है उसके लिए बच्चे का इलाज और उसे स्कुल भेजने की बात सोचना भी बेमानी होगी। लोहिया जी ने कहा था ''प्रधानमंत्री का बेटा हो या राष्ट्रपति की हो संतान, टाटा या बिडला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।'' पर आज आजादी के 65 साल बाद भी सुबह के प्रथम साक्षात्कार में पीठ पर कचरे का थैला लिए एक छोटे बच्चे को देखकर लोहिया जी का ये नारा सपना ही प्रतीत होता है। ये हालत केवल एक़ शहर विशेष या राज्य विशेष की नहीं है। कोहिमा से कांडला और कश्मीर से कन्याकुमारी तक पुरे भारत में हम भारत के भविष्यो के इस गर्तोंमुख गंतब्य से रूबरू हो सकते है। अंतर सिर्फ इतना है कि कही यह बालश्रम के रूप में दिखता है, कही सार्वजनिक स्थल पर कटोरा बजाते हुए, कही पॉकेटमारी करते या चेन खींचते हुए, तो कही ट्रेनों में सूरदास की लाठी थामे हुए। 

बाजारों के अपार जनसैलाभ में हम सामान आयुवर्ग के बच्चो को अलग-अलग परिस्थितियों से सामना करते देख सकते है। कोई महंगे पठाखे और अच्छे ब्रांड के कपड़ो की जिद करता नजर आता है, कोई अपने कल को स्वर्णिम बनाने के लिए कचरों की ढेर से लड़ रहा होता है, तो कोई अपने भाग्य पर आंसू बहाता हुआ हाथ पसारे हुए दुसरो के पीछे दौड़ रहा होता है। अपने हमउम्र बच्चो की ऐयाशी देखकर सडको पर पल रहे बच्चो का मन क्या हिन भावना से ग्रस्त नहीं होगा? क्या वे भी उनकी तरह ठाठ-बाट से जीना नहीं चाहेंगे? और एक ऐयासी की जिंदगी जीने के लिए अगर वे कोई गलत रुख अपनाते है, तो क्या यह उनकी गलती है? समान आयुवर्ग के बीच उपजी गहरी खाई के कारण हिन भावना से ग्रस्त कोमल-मन बच्चो को नजर अंदाज करके क्या हम अपने ही देश में कसाब और सुल्तानमिर्जा पैदा नहीं कर रहे है?

आज ढाबो में बर्तन धो रही नन्ही हाथें, अपने मालिक की एक आवाज पर सरपट दौड़ने वाले नन्हे पैर, और हाथो में गुटको का थैला लिए ट्रेनो-बसो में घूमते बच्चो की मासूम आँखे उन समाज के ठेकेदारो से हर दिन प्रश्न करती दिख सकती है जो सिर्फ कागजो में कानून बनाना ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं| आज विडंबना यह है कि बाल श्रमिकों के कल्याण के लिए उठने वाली आवाज नक्कार खाना में तूती बन कर रह गयी है। 1980 में ही बालश्रम के कार्य पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। 1986 में राष्ट्रीय बालश्रम आयोग के सुझाव पर राष्ट्रीय बालश्रम एवं पुनर्वास अधिनियम पारित किया गया। 1996 में उच्च न्यायालय तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी बालश्रम के विरुद्ध व्यवस्था करने की अनुशंसा की। बावजूद इसके बालश्रम पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है।
भारतीय समाज में दरार पैदा करती बच्चो की इन दयनीय स्थिति पर 'राजेश रेड्डी' जी ने ठीक ही कहा है-
"यहाँ हर शख्स, हर पल हादसा होने से डरता है ,
खिलौना है जो मिटटी का फ़ना होने से डरता है ,
मेरे दिल के किसी कोने में, एक मासूम सा बच्चा ,
बड़ों की देख कर दुनिया, बड़ा होने से डरता है.......!

सोमवार, 11 नवंबर 2013

कुछ याद इन्हे भी कर लें-

आज 31 अक्टूबर का दिन भारतीय इतिहास का वह् दिन है जब भारत की ऐतिहासिक भूमि पर उस महान पुरोधा 'सरदार वल्लब भाई पटेल' का प्रादुर्भाव हुआ था जिन्होंने 600 देशी रियासतों को मिलाकर एक गणतंत्र भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई|
दुसरी तरफ़ यह दिन भारत के राजनीतिक इतिहास का वह् काला दिन है जब भारतीय गणराज्य को अपने कार्यकाल में एक नई दिशा देने वाली सिंहनी श्रीमती इंदिरा गाँधी जी की निर्मम हत्या कर दीं गई थी|
आज जब हम इन दो महान नेताओं के भारत के लिए सपने ओर वर्तमान भारत की तुलना करते है तो यह पाते है कि आज भी हम इनके सपनों के भारत से कोसो दूर हैं|
आज जब हमारी 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि चीन के कब्जे में है, अरुणाचल प्रदेश और लद्दक के कुछ क्षेत्रों पर चीन आज भी अपनी नजर गड़ाए बैठा है, चीनी सैनिक हमारे सीमा क्षेत्र में आकर गश्त करते है, पाकिस्तान आज भी अपनी नमुराद हरकतों से बाज़ नही आ रहा है, इस समय हमे भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल की याद आती है जिन्होंने अपने बूते 600 देशी रियासतों का भारत में विलय कराया था| आज सता सूख के लिए किसी भी हद तक गिरने वाले नेताओं को सदर पटेल के जीवन से सिख लेनी चहिए जिन्होंने प्रधानमंत्री पद को तरजीह ना देते हुए आज़ाद भारत के अस्तित्व को तरजीह दी| मैंने 'राजीव दीक्षित' जी के एक भाषण में सुना था, ''आजादी के बाद प्रधानमंत्री पद के चुनाव में सरदार पटेल को बहुमत मिला, लेकिन नेहरू किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते थे| इसके लिए वे महात्मा गाँधी के पास गए और कहा कि अगर मै प्रधानमंत्री नही बना तो काँग्रेस भंग कर दूँगा| चुकी काँग्रेस भंग हो जाती तो अँगरेजों को एक बहाना मिल जाता कि भारत के पास नेतृत्व का अभाव है इसलिए हम भारत को स्वतंत्र नही कर सकते, यह सोच कर गाँधी जी ने नेहरू की बात मान ली और पटेल जी ने गृहमंत्री बनना मुनासिब समझा| 
दूसरी तरफ़ आज हम 'श्रीमती इंदिरा गाँधी जी'' की 29 वी पुण्य तिथि मना रहे  है| लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के पश्चात जब इन्दिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनी, उस समय भारत सूखे की मार झेल रहा था| लेकिन अपनी कार्य कुशलता और सफल नेतृत्व की बदौलत इन्दिरा जी ने भारत को विकाश के पथ पर ला खड़ा किया| 1980 के आम चुनाव में जब की पुरे भारत में ''कांग्रेस हटाओ देश बचाओ'' का स्लोगन जन-जन का नारा बन चूका था| उस विषम परिस्थिति में इंदिरा जी ''गरीबी हटाओ देश बचाओ'' का नारा देकर पुनः आम-जन के दिल पर काबिज हो गई| पर दुर्भाग्यवश, शायद ''जठराग्नि को आर्थिक सुधारों के पैरो तले रौदा जाना, भारतीय जनता के नसीब में लिखा ही था| एक प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा जी की ''गरीबी हटाओ देश बचाओ'' की आखिरी ख्वाहिस आज 29 साल बाद भी पूरी तरह अधूरी है| आज भी 34 करोड़ 47 लाख भारतीय आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही है| ये सरकारी आँकड़े है, इनमें वे लोग शामिल नही है जिन्हें आज तक फूटपाथ छोड़कर छपापड़ नसीब नही हुआ| महँगाई से त्रस्त जनता का बुरा हाल किसी से छुपा नही है| खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही है| दुःख होता यह देखकर इंदिरा जी की पार्टी के नेता 1, 5 और 12 रुपये में भरपेट खाना मिलने की बात कर गरीबों का मजाक उड़ा रहे है| उनके पौत्र कहते है गरीबी तो केवल मनः स्थिति है|
हमारी वर्तमान काँग्रेस सरकार 'जन वितरण प्रणाली' का नाम बदलकर 'इंदिरम्मा अन्न योजना' करने पर विचार कर रही है| आम आदमी को महँगाई की आग में जलने को मजबूर करने वाली काँग्रेस नित यूपीए सरकार को यह जानना चहिए कि केवल किसी योजाना का नाम इंदिरा गाँधी के नाम पर रख देने से उन्हें श्रद्धांजलि नही दी सकती| उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन करोड़ों लोगो के मुँह तक निवाला पहुँचाना जो कई-कई दिन भूखे पेट सोने को मजबूर रहते है ओर अंततः एक दिन जठराग्नि की भेंट चढ़ जाते है|

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

कब रुकेगी गोलियों की गडगडाहट और बुटो की धमक-

''ना बुजुर्गो के ख्वाबो की ताबीर हूँ, ना मै जन्नत सी अब कोई तस्वीर हूँ,
जिसको सदियो से मिलकर के लुटा गया, मै वो उजड़ी हुई एक जागीर हूँ,
हाँ मै कश्मीर हूँ, हाँ मै कश्मीर हूँ, हाँ मै कश्मीर हूँ, हाँ मै कश्मीर हूँ ,
मेरे बच्चे बिलखते रहे भूख से ये हुआ है सियासत की एक चुक से,
रोटिया मांगने पर मिली गोलिया चुप कराया गया इनको बन्दुक से|''
इमरान प्रतापगढ़ी की ये पंक्तिया वर्तमान कश्मीर पर सटीक बैठती है| जहाँ नामुराद पाक की नापाक हरकत और भारतीय हुक्मरानों की चुप्पी ने कश्मीर वाशियों को इस हालत में ला खड़ा किया है कि वे आज अपना घर होते हुए भी विस्थापित की जिन्दगी जीने को मजबूर है| जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री 'उमर अब्दुला'' का यह कहना एकदम सही है कि अब केवल बातचीत से बात नहीं बनेगी, भारत सरकार पाकिस्तान के इस हरकत का जबाब देने का कोई दूसरा विकल्प ढूंढे|
आज दुश्मनों और सैनिको के बुटो तले रौंदे जा रहे कश्मीर की धरती का इतिहास बहुत ही स्वर्णिम रहा है| जिसका उल्लेख कल्हण की रचना राजतरंगिणी में मिलता है| कहा भी जाता है कि धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वो कश्मीर है| सबसे पहला कारण और जो सब से बड़ा कारण रहा है कश्मीर की सुन्दरता मे दाग लगाने मे ,वो है आतंकवाद| इन आतंकवादियों के नापाक इरादे और उनके गलत मंसूबो को नाकाम करने के लिए हमारी सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदम ने कश्मीर वासियों को उन्हें उनके ही घर में गुलाम बना दिया है| आए दिन कर्फ्यू की मार झेल रही कश्मीरी जनता को लगातार जिस तरह फौजी संगीनों के साये और अपमान में जीना पड़ता है, वह किसी भी कौम के लिए दमघोंटू होगा।
अगर हम इतिहास के आईने से देखे तो यह पाते है की कश्मीर और कश्मीरियों की इस दुर्दशा का बीजारोपण भारत और पाकिस्तान के निर्माण के समय ही हो चूका था| कश्मीर का भारत में विलय ही विषम परिस्थितियों में हुआ था| अंग्रेजो की साजिश नेहरु का अड़ियल रुख और जिन्ना द्वारा सांप्रदायिक राग अलापे जाने के कारण भारत का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर किया गया|  उन दिनों कश्मीर एक स्वतन्त्र रियासत हुआ करता था| जो एक मुस्लिम बहुल रियासत था लेकिन वहां का राजा हरी सिंह हिन्दू था| अपने स्वर्णिम इतिहास के साथ कश्मीर उस समय तक साम्प्रदायिकता से मुक्त रहा था| भारत के बटवारे पर हुए समझौते के दस्तावेज के अनुसार रियासतो के राजाओं को दोनो मे से एक राष्ट्र को चुनने का अधिकार था परंतु कश्मीर के महाराजा हरी सिंह अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते थे और उन्होने किसी भी राष्ट्र से जुड़ने से बचना चाहा। लेकिन हरी सिंह का स्वतन्त्र रहने का सपना सपना ही रह गया और रियासत पर पाकिस्तानी सैनिको और पश्तूनो के कबीलाई लड़ाको (जो कि उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्य के थे) ने हमला कर दिया। पाकिस्तानी हमले से अपनी सुरक्षा को महाराजा हरी सिंह ने भारत से सैनिक सहायता की अपील की तो भारत ने विलय की शर्त रख दी| इस बार हरी सिंह को विलय के लिए तैयार होना पड़ा| इसप्रकार 1949 में कश्मीर ने सशर्त भारतीय संघ में होना स्वीकार किया। कश्मीर के भारत में शामिल होने पर कश्मीरी जनता के जनमत संग्रह का भी वायदा किया गया था, जिसे कभी निभाया नहीं गया। इसके लिए पंडित नेहरू का तर्क यह था कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1947-48 में पाकिस्तान-समर्थित हमले के बाद यह तय किया गया था कि पाकिस्तान कश्मीर के उत्तर-पश्चिमी हिस्से से अपनी सेनाएँ वापस बुलायेगा और उसके बाद जनमत संग्रह कराया जायेगा। पाकिस्तानी शासकों ने अपना कब्ज़ा छोड़ा नहीं और इसके कारण जनमत संग्रह कराने से भारतीय शासकों ने इनकार कर दिया। लेकिन भारत और पाकिस्तान की क्षेत्रीय महत्तवाकांक्षाओं में पिस गया कश्मीरी अवाम।
80 के दसक में कश्मीर में आतंकवाद अपना पैर पसार चुका था| 1989 से 1991 -92 तक हजारो कश्मीरी नौजवान आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच टकराव की भेंट चढ़ चुके थे| भारत सरकार से कश्मीरियों की अविश्वसनीयता के बल पर ऐसे बहुत से अलगाववादी समूह कश्मीरियों के बीच पैठ बना चुके थे जो आजाद कश्मीर या पाकिस्तान में शामिल होने की ख्वाहिस रखते थे| हत्या, बलात्कार, अपहरण और सेना द्वारा अकल्पनीय दमन की प्रतिक्रिया में हजारो कश्मीरी नौजवान आतंकवाद के रास्ते पर चल निकले| युवा हाथो ने कलम की जगह बन्दुक और गोले बारूद थाम लिए|  इनके दमन को भारत ने कठोर कदम अख्तियार किया| 1989 से भारतीय राज्य ने कश्मीर घाटी में आतंकवाद के विरुध्द बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान शुरू किया और अपनी सैन्य शक्ति के बूते पर 1993 आते-आते आतंकवादी समूहों को काफी हद तक कुचल डाला। लेकिन आतंकवाद को कुचलने के नाम पर कश्मीरी जनता का भी सेना ने भयंकर दमन और उत्पीड़न किया। 1993 में भारत सरकार ने दावा किया कि कश्मीर घाटी में आतंकवाद और पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ को ख़त्म कर दिया गया है और अब घाटी में एक अनुमान के अनुसार केवल 600 से 1,000 सशस्त्र आतंकवादी मौजूद हैं। इसके बाद 90 का दसक सामान्यतः शांत बिता| नई शताब्दी के पहले दसक के मध्य में कश्मीरी जनता में सैन्य-दमन और अत्याचार के ख़िलाफ सुलग रहे भयंकर असंतोष का फायदा उठाया हुर्रियत कान्फरेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने, जो की एक इस्लामी कट्टरपन्थी नेता हैं| इस समय कश्मीर में कोई दुसरी ताकत मौजूद नहीं थी जो भारतीय दमन का विरोध कर सके इसलिए गिलानी को कश्मीरी जनता का अपर समर्थन प्राप्त हुआ| 2004-05 आते-आते इस आन्दोलन ने कश्मीर घाटी में गहरे तक अपनी जड़ें जमा ली थीं। 2009 में अमरनाथ यात्रा के लिए भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ हुए आन्दोलन में इसका प्रमाण भी मिला| अब कश्मीर में भारत विरोधी नारे लागते वे लोग दिखने लगे जिनका सम्बन्ध किसी आतंकी संगठन से नहीं था| वे कश्मीर के आम लोग थे|
आज सारा भारत पकिस्तान की भारत विरोधी कर्मो से दुखी और आक्रोशित हो सकता है लेकिन इस विपदा के भुक्तभोगी उन परिवारों का दर्द कौन समझेगा जिनके सामने कभी कभी ऐसे हालत आते है कि वे महीनो अपने घर की चारदीवारी में कैद रहते हैं| कश्मीर में पिछले डेढ़ दशक में सशस्त्र बलों के हाथों 60,000 कश्मीरी अपनी जान गँवा चुके हैं और 7,000 लापता हैं। इसकी कोई गिनती नहीं कि कितनी औरतों का अपहरण और बलात्कार किया जा चुका है और कितने मासूम अपाहिज हो चुके हैं। भारत सरकार को कश्मीर में ऐसे हालत पैदा करने होंगे जिससे की वहां का हर बच्चा शाह फैजल बन सके|

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

रामेश्वरम के एक छोटे गाँव से निकल कर भारत को परमाणु संपन्न बनाने वाले एक मछुवारे के बेटे 'भारत रत्न' ''अवुल पकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम'' को उनके 82 वे जन्म दिवस पर मै उन्हें तहे दिल से बधाई देता हूँ, जिन्होंने अपने राष्ट्रपत्रित्व काल में भारतीय गणराज्य को एक नई ऊँचाई दी|

''अपने सुकर्मो से जिन्होंने भारत को परमाणु संपन्न किया,
राष्ट्रपति पद पर बैठ भारतीय गणराज्य को धन्य किया,
जन्म दिवस पर करता हूँ मै इस पुरोधा को शत बार नमन,
मिशाईल मैन बनकर जिन्होंने भारत का पताखा बुलंद किया|''

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

जबाब कौन देगा?           
संसद जबाब देगी इसका या संविधान बतलायेगा,
पुलिस तमाशा देख रही इन्हें कौन बचाने आएगा,
अपने ही घर में लोग यहाँ पर जिन्दा जलाए जाते है,
अफ़सोस न्यायालय द्वारा कातिल निर्दोष बताए जाते है|
भारत के लिए हमने गांधी का सपना कहाँ साकार किया,
जब दिन-दहाड़े दबंगों ने दलितों पर अत्याचार किया,
गांधीजी के हरिजन यहाँ दहशत के साये में जीते हैं,
उनके लाडले आज भी बिन बिस्तर भूखे पेट ही सोते हैं,
धर्म के नाम पर आतंकी से दोष हटाये जाते हैं,
अफ़सोस न्यायालय द्वारा कातिल निर्दोष बताए जाते है|
बाबा साहब का एक सपना इनको सशक्त करने का था,
सम्मानित जीवन देकर,इनको बंधन से मुक्त करने का था,
हिंदुस्तान में भी इनको अंग्रेजो के जैसे सताया जायेगा,
भारत के वीर शहीदों को  फिर क्या संदेशा जाएगा,
सारे समाज की गंदगी ढोने के काम इनके सर आते है,
अफ़सोस न्यायालय द्वारा कातिल निर्दोष बताए जाते है|
    

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हिन्दी दिवस मनाने का औचित्य क्या है?-

एक तरफ आज से 71 साल पहले 9 अगस्त 1942 को आजादी की लड़ाई में महात्मा गाँधी ने अँगरेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था| सपना था अंग्रे भी जायेंगे और अंग्रेजियत भी| जबकि दूसरी तरफ 175 साल पहले 12 अक्टूबर 1836 को लार्ड मैकाले ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था कि, ''आगामी 100 साल बाद हिंदुस्तान में ऐसे बच्चे होंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी|'' स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। 13 सितंबर,1949 को संविधान सभा की बहस में भाग लेते हुए 'पंडित जवाहर लाल नेहरू' ने कहा था, ''किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।" वर्तमान समय में जब हम अपने समाजिक बोल-चाल और रीति-रिवाज पर नजर डालते है तो यह पाते है कि लार्ड मैकाले की भविष्यवाणी सच साबित हो रही है| और हमारे दूरदर्शी प्रधानमंत्री 'पंडित नेहरू' का हिन्दी को अपनाने का सपना आज आजादी के 67 साल बाद भी अधूरा है|
‘थोमस बैबिंगटन मैकाले’ ब्रिटेन का राजनीतिज्ञ, कवि, और इतिहासकार था| सन् 1834 से 1838 तक वह भारत की सुप्रीम काउंसिल में लॉ मेंबर तथा लॉ कमिशन का प्रधान रहा। प्रसिद्ध दंडविधान ग्रंथ "दी इंडियन पीनल कोड" की पांडुलिपि इसी ने तैयार की थी। आज भारतीय संस्कृति में हिन्दी सिर्फ कहने को ही हमारी मातृभाषा है| भारत को यह दुर्दिन दिखाने के पिछे लार्ड मैकाले का बहुत बड़ा हाथ है| व्यापार के बहाने आकर भारतीय संस्कृति का सम्मुल नष्ट करने का सपना देखने वाले अँगरेजों में सबसे घृणित अँगरेज मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटेन की संसद में भारत के प्रति अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था, "मैं भारत में काफी घुमा हूँ। दाएँ- बाएँ, इधर उधर मैंने यह देश छान मारा और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो, जो चोर हो। इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्यूंकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर हैं, तो वे अपने आत्मगौरव, आत्म सम्मान और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं। एक पूर्णरूप से गुलाम भारत।" अपने इस सपने को साकार करने के लिए 1858 में लोर्ड मैकोले द्वारा Indian Education Act बनाया गया। इसके तहत भारत में मौजूद सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया।
वो था अपना भारत जिसके चारित्रिक आदर्श और गुणवता का पुरे विश्व में डंका बजता था| लेकिन अंग्रेजों ने हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक संपदा 'माँ हिन्दी' में सेंध डालकर भारतीय संस्कृति में अंग्रेजी का एक ऐसा बिजा रोपण कर दिया जिसके कुप्रभाव से आज भारतीय संस्कृति खतरे में पड़ी नजर आ रही है| हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, 'वर्धा' के अनुरोध पर 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आज पुरे 60 साल हो गए हमे हिन्दी दिवस मानते हुए, लेकिन कठिन दौर से गुजर रही इस विरासत को बचाने के सार्थक कदम आज भी नजर नही आ रहे है| हम बचपन से ही सुनते आ रहे है कि, हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा है| लेकिन सूचना के अधिकार के तहत एक ऐसा खुलासा हुआ है जिसे जानने के बाद हिन्दी पर तरस आती है, और गुस्सा आता है हमारे नीति-नियताओ पर| राष्ट्रभाषा के विषय में सूचना के अधिकार कानून के तहत माँगी गइ जानकारी में, लखनऊ की आरटीआई कार्यकर्ता 'उषा शर्मा' को दी गई जानकारी इस ओर इंगित करती है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं हैं। गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग से मिली सूचना के अनुसार भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी भारत की राजभाषा केवल राजकाज की भाषा तक सीमित हैं। भारत के संविधान में राष्ट्रभाषा का कोर्इ उल्लेख नहीं है।
कहा जाता है, ''जब से जागो तभी सबेरा'', अतः अभी भी समय है हिन्दी को बचाने का वरना प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस मनाने का कोइ औचित्य नही रह जाएगा| मेरा मतलब यह कतई नही है कि हम दूसरी भाषाओं को ना अपनाए, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अपना स्थान सबसे ऊपर रखने के लिए हमे और विदेशी भाषाएँ भी जाननी होगी| लेकिन हमे पहले अपनी मातृभाषा पर पकड़ मज़बूत बनानी होगी| हमे इन पंक्तियों पर गौर करना होगा कि,
''हिन्दी में हम काम करेंगे पहले मन में संकल्प करें,
निश्चय होकर आरंभ करें, विश्वास न मन में अल्प करें,
पहले यदि कुछ मुस्किल होगी धिरे-धीरे मीट जाएगी,
अभ्यास निरंतर करने से मज़बूत पकड़ हो जाएगी|'' 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

पाखंडियो के कारण धूमिल होती संत की महता-

भारत के बारे में कहा जाता है,
''बिना वेदाम बिना गीताम बिना रामायाणी कथाम,
बिना कवि कालिदासम भारतम नैव भारत:''
भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही साधु-संतो का महत्वपूर्ण स्थान रहा है| भले ही उनका प्रारंभिक जीवन कैसा भी रहा हो लेकिन एक सन्यासी के तौर पर, एक तपस्वी के तौर पर उन लोगो ने भारतीय संस्कृति को वो शक्तियाँ दी जिनकी बदौलत हमने अपनी जमीन से पुरे विश्व का मार्गदर्शन किया| महर्षि वाल्मीकि जो कभी रत्नाकर नामक भयंकर डाकू हुआ करते थे| एक बार निर्जन वन में उन्होने नारद मुनि को लुटना चाहा, तो नारद मुनि जी ने उन्हे समझाया, कि इस कार्य के फलस्वरुप जो पाप तुम्हें होगा उसका दण्ड भुगतने में तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे? अपने घर वालों से इस प्रश्न का नकारात्मक उतर सुन कर रत्नाकर की दश्युकर्म से विरक्ति हो गई| तत्पश्चात नारद जी के समझाने पर वे राम नाम के जप में तल्लीन हो गए| शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि, एक बार महर्षि वाल्मीकि प्रेमालाप में लीन एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि किसी बहेलिये ने नर पक्षी का वध कर दिया, जिसके वियोग में मादा पक्षी विलाप करने लगी| उसके इस करुण विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी, और उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ाः
''मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥''
अर्था, 'अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी|' यहीं से महर्षि को ज्ञान की प्राप्ति हुई जिसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" की रचना की|
गोस्वामी तुलसीदास की कथा भी कुछ इसी प्रकार की है| तुलसीदास के बारे में कहा जाता है कि, एकबार आधी रात को वे उफनती यमुना नदी तैरकर अपनी पत्‍‌नी रत्नावली से मिलने उसके मायके पहुँच गए| पति के इस अप्रत्याशित व्यवहार से खीज कर रत्नावली ने उन्हे एक दोहे के माध्यम से शिक्षा दी, उसी दोहे ने उन्हें तुलसीदास बना दिया| वह् दोहा था,
''अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?''
ये वो संत महात्मा थे जिनके जिन्दगी की एक घटना ने उन्हें भगवान के लिए समर्पित कर दिया| पिछ्ले कुछ सालों में बहुत सारे तथाकथित सन्यासियो का उद्भव हुआ, जिन्होंने अपने आप को भगवान का दूत बताकर आम जनमानस की आस्था के साथ खिलवाड़ किया| लेकिन कहा जाता है, ''सच्चाई छूप नही सकती बनावट के वसुलो से|'' इन पाखंडियो के साथ भी ऐसा ही हुआ| ये जहाँ से आए थे वहाँ पहुँच गए है या पहुँचने वाले है| पिछले दिनो टीवी 'निर्मल बाबा' का उदय हुआ, जो अनोखे ढ़ग से लोगों पर कृपा बरसाते थे| ये लोगो की परेशानिया दूर करने के लिए उन्हें गोल्गप्पे और धनिये की चटनी खाने की सलाह देते थे| मैने जब उनके बारे में सुना तो मुझे लगा आयुर्वेद के कोइ डॉक्टर होंगे, लेकिन उनके भक्तों के अनुसार वे बहुत बड़े सिद्ध ज्ञानी महात्मा थे| लेकिन जब सच्चाई सबके सामने आई तो पता चला ये तो निर्मलजीत सिंह नरूला हैं, जो 80 के दसक तक ईंट भट्टा का का काम करते थे| धोखाधड़ी के आरोप में पुरे देश में कई जगहो पर लोगो ने इस 'निर्ल्लज' बाबा के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया है|
लोगो की आस्था को तक पे रख कर एक लड़की के साथ कुकृत्य करने वाले आशाराम की कहानी भी कुछ ऐसी ही है| अपने को भगवान बताने वाले आशारा कोयला चोर से कथावाचक तक का सफर पूरा कर वर्तमान में सलाखों के पिछे अपने कुकर्मो की सजा भुगत रहे है| भगवान में लोगो की आस्था का गलत फायदा उठा कर एक मज़दूर से आशाराम बापू बनकर इस पाखंडी ने कई लोगो को बेघर कर उनके जमीन पर कब्जा कर लिया| हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक इनके पास 10000 करोड़ रुपये का साम्राज्य है| सन्यासियो को रुपये-पैसे से कोई मतलब नही होता| अगर किसी सन्यासी के पास अपार धन-संपदा है तो वह संत हो ही नही सकता|      

रविवार, 25 अगस्त 2013

खतरे में भारत की धर्मनिरपेक्षता-

कुछ दिन पहले बीबीसी ने पुरी दुनिया में रहने वाले 30 लाख हिंदुओं पर एक सर्वे कराया था कि हिंदुओं का सबसे प्रिय भजन कौन सा है| इस सर्वे से जो परिणाम निकल कर सामने आया, वह करारा जबाब है उन धर्म के ठेकेदारों का जो हिन्दु मुस्लिम एकता के बीच दीवार खड़ी करते हैं| 30 लाख हिंदुओं ने जिन 10 भजनों का चयन किया उनमें से 6 'शकील बदायुनी' के लिखे हुए हैं, और 4 'साहिर लुधियानवी' के लिखे हुए हैं| उन 10 के 10 भजनों में संगीत हैं 'नौशाद साहब' का| उन सभी 10 भजनों को आवाज़ दिया हैं 'रफी साहब' ने| ये 10 भजन 'महबूब अली खान' की फिल्मों में हैं, और इन 10 भजनों पर अभिनय किया हैं 'यूसुफ खान' उर्फ दिलीप कुमार ने| यह जीता जागता उदाहरण हैं भारतीय धर्मनिरपेक्षता और हिंदू-मुस्लिम एकता का|
लेकिन वर्तमान समय में धर्म को राजनीतिक रूप देकर एक खास समुदाय की आस्था के साथ जो सौतेला व्यवहार हो रहा हैं, वह भारत की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़ा कर रहा है| भारतीय संविधान हर समुदाय के साथ समान दृष्टिकोण अपनाने की बात करता है| राम जन्मभूमी अयोध्या से हिंदुओं की एक खास आस्था जुड़ी है| यूपी सरकार का यह कहना एकदम गलत है कि 84 कोसी यात्रा से सांप्रदायिक सद्भाव को खतरा है| सांप्रदायिक सद्भाव को खतरा तो अब पैदा हो सकता हैं जब सरकार साधु-संतो के साथ ज्यादती करने पर उतारू है| जो यात्रा किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध नही हो तो उससे सांप्रदायिक तनाव कैसे पैदा हो सकता है? यह बात समझ से परे है कि जो यूपी सरकार अवैध धार्मिक स्थल की दीवार गिराए जाने को हथियार बनाकर सिर्फ 40 मिनट में आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति का निलंबन कर सकती है तो फिर वह 84 कोसी यात्रा पर प्रतिबंध कैसे लगा सकती है? जो यूपी सरकार करोड़ों लोगो के हुजूम वाले कुंभ मेले का आयोजन कर उसे सुरक्षा प्रदान कर सकती है तो फिर वह 84 कोसी यात्रा को सफल क्यो नही बना सकती?
जो लोग रामजन्मभूमि के इतिहास से वाकिफ हैं उन्हे यह पता होगा कि वर्ष 2003 में हाईकोर्ट के आदेश पर भारतीय पुरातत्व विभाग ने विवादित स्थल पर 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 तक खुदाई की जिसमें एक प्राचीन मंदिर के प्रमाण मिले| 12 सितंबर 2011 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने अयोध्या के विवादित स्थल बाबरी मस्जिद पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इस स्थल को राम जन्मभूमि घोषित कर दिया। हाईकोर्ट ने इस मामले में बहुमत से फैसला करते हुए तीन हिस्सों में बाट दिया। विवादित भूमि जिसे रामजन्मभूमि मानते हुए इसको हिंदुओं को सौंपे जाने का आदेश दिया गया। एक हिस्से को निर्मोही अखाड़े को देने का आदेश दिया गया। इस हिस्से में सीता रसोई और राम चबूतरा शामिल था।  तीसरे हिस्से को मुस्लिम गुटों को देने का आदेश दिया गया। अदालत का कहना था कि इस भूमि के कुछ टुकड़े पर मुस्लिम नमाज अदा करते रहे हैं लिहाजा यह हिस्सा उनके ही पास रहना चाहिए। 
90 वर्षीय याचिकाकर्ता हाशिम अंसारी ने इस फैसले पर खुशी जताते हुए कहा था कि अब इस फैसले के बाद इस मुद्दे पर सियासत बंद हो जाएगी। लेकिन इन दो समुदायों को राजनीति के नजरिए से देखने वाले लोग यह नही चाहते कि अयोध्या भी हिंदू-मुस्लिम एकता की एक निशानी बने जहाँ एक ओर हिंदू तो दूसरी ओर मुस्लिम एक साथ अपने-अपने वद दिगार से इस देश के सलामती की दुआ माँगें| डॉ कुमार विश्वास जी के शब्दों में,
''दिवाली में अली बसे राम बसे रमजान,
ऐसा होना चाहिए अपना हिंदुस्तान|''
 
 
 

सोमवार, 19 अगस्त 2013

बढ़ते बिहार के विकास में अवरोध का जिम्मेदार कौन-

मिड डे मिल और चापाकल में जहर से नौनिहालो की मौत तथा नवादा और बेतिया के दंगों से झुलसी बिहार की भूमि एक बार फिर खगड़िया के बदलाघाट रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन की चपेट में आने के कारण हुए 37 लोगो कि मौत से रक्तरंजित हो गई है| बिहार की वह पावन धरती 'बोधगया' जहाँ से महात्मा बुद्ध ने ''वशुधैव-कुटुम्बकम'' की अवधारणा प्रुस्तुत भारत को जगत गुरु होने की संज्ञा दिलाई थी, वहाँ आतंकी अपने नाकाम मंसूबों से निर्दोषों का खून बहा कर चले जाते है| वह बिहार जहाँ के बच्चे अपनी प्रतिभा से भारत ही नही वरन्‌ पुरे विश्व में अपनी अलग पहचान बनाये हुए हैं, वहाँ छोटे-छोटे निर्दोष बच्चे जहरीले भोजन और पानी से तड़प-तड़प के मर रहे हैं|
प्रत्यक्षदर्शीयो के अनुसार इस रेल हादसे का जिम्मेदार चालक हैं जो अगर सीटी बजाते हुए गाड़ी को आगे बढ़ाता तो कई लोगों की जान बच सकती थी। लेकिन उन हादसों का जिम्मेदार कौन हैं जिसके कारण सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे और उनके अभिभावक खौफ में जी रहे है| उन अराजक ताकतों का सरगना कौन है जो नवादा और बेतिया में हिन्दु मुस्लिम भाईचारे के बीच दीवार खड़ा करता है| पिछ्ले 8 सालों से विका के पथ पर अग्रसर बिहार में बीते एक महिने से अराजकता का जो दौर शुरु हुआ है उसका एकमात्र कारण राजनीति का विषाक्त रक्तबीज है| वह राजनीति जिसके लिए सामाजिक भाईचारा कोइ मायने नही रखती, जो वोट पाने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते है|
यह वही बिहार है जिसने 1857 के सिपाही विद्रोह में अंग्रेजी शासन की नीव हिलाने वाला ''कुंवर-सिंह'' पैदा किया| बिहार ही वह पावन भूमि है जहाँ से महात्मा गाँधी ने चम्पा यात्रा शुरू करके भारतीय  स्वतंत्रता संग्राम का श्रीगणेश किया| बिहार की ही धरती से कर्पुरी ठाकुर के नेतृत्व में डा. राम मनोहर लोहिया ने सबसे पहले अपनी समाजवादी पार्टी के सिद्धान्तों को जमीन पर उतारने की शुरूआत की थी| यह नही भुला जाना चहिए कि बिहार भारत का वह पहला राज्य है, जहाँ 58% लोग 25 वर्ष से कम आयु के है| यह बिहारियों के ही श्रम का कमाल है कि 'दिल्ली' पुरे विश्व को अपने वैभव से रूबरू करा रहा है| चाहे महाराष्ट्र की प्रगति हो, पंजाब का कृषि विका हो या गुजराती विकास मॉडल, सब बिहारियों के पसीने का ही प्रतिफ है| बिहार में कुछ साल पहले तक कम के आभाव में लोग जीवकोपार्जन के लिए दुसरे राज्यों का रुख करते थे, पर वर्तमान समय में पलायन में कमी आई है| ''नितीश कुमार जी'' के नेतृत्व में बिहार दिन-दुनी रात-चौगुनी प्रगति कर रहा है| लेकिन ये सब घटनाएँ तेजी से बढ़ते बिहार के लिए 'स्पीड ब्रेकर' के समान है
किसी ने कहा है,
''नदी के घाट पर भी गर सियासी लोग बस जा,
तो प्यासे लोग एक एक बूँद पानी को तरस जा,
गनीमत है कि मौसम पर हुकूमत चल नही सकती,
नही तो सारे बादल इनके आँगन में बरस जा|''

केवल वोट के लिए टीया राजनीति पर आमादा नेताओं को अब समझ जाना चाहिए कि भोली-भाली जनता अपने रहनुमाओं की पहचान भाली-भाँति कर सकती है| 24 जून 1947 को पटना से दिल्ली जाते समय ट्रेन में 'महात्मा गांधी' ने कहा था, ''अब हम पूर्ण स्वराज ले लेंगे। परन्तु राजनीतिक स्वतंत्रता कितनी ही कीमती क्यों न हो, तो भी मिली हुई स्वतंत्रता में खुली आंखों से दिखने वाला लोगों का कल्याण न हो, तब तक हमें चैन न लेना चाहिए। अब हमारी समाज-व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें शोषण का बिल्कुल नाश हो जाये। सारा व्यवहार लोकतंत्र के ढंग पर ही चलना चाहिए।'' आज जरूरत इस बात की है कि पटरी पर लौटे बिहार के निरंतर विकास के लिए सतापक्ष और विपक्ष आपस में मिल कर जन कल्याणकारी योजना बनाये जिसका लाभ आम आदमी तक पहुँच सके| और बिहार महात्मा गाँधी के उस सपने को साकार करे जिसे आँखों में लेकर वे चम्पा की धरती से आजादी का बिगुल फूँकें थे|