रविवार, 15 दिसंबर 2013

अबला की आबरू खतरे में आखिर कब तक-

आज निर्भया काण्ड के पुरे एक साल बीतने के बाद यह सवाल लाजिमी है कि क्या दरिंदो के दरिंदगी की शिकार उस बहन, उस बेटी के बलिदान से हमने कुछ सीख ली? हमेशा नेताओ के लिए नारे लगाने और झंडे थामने वाले हाथो का बिना किसी नेतृत्व के हजारो की संख्या में देश के सबसे बड़े दरवाजे पर दस्तक देना सार्थक हुआ? मानवता को शर्मसार करने वाली घटना पर उपजे गुस्से को दबाने के लिए बेरहमी से बरसाई गयी लाठियों ने क्या हमारे मानसपटल से उस राक्षस का वध किया जो औरत को पांव की जूती और भोग की वस्तु समझता है? 5.2 डी.से. वाले ठंढ दिन में भी अपने माँ-बहनों के आबरू की रक्षा के लिए कृतसंकल्पित युवक-युवतियों को ठंढी हवा के थपेड़ो के बीच भी नहीं डिगा सकने वाली वाटर कैनल की मार इस बात की सूचक थी कि शायद अब किसी अबला की आबरू से खिलवाड़ नहीं होगा| राजघाट से लेकर रायसीना हिल्स, कश्मीर से कन्याकुमारी और कोहिमा से कांडला तक उपजा जनाक्रोश यह बयां कर रहा था कि अब यह समाज मानवता पर पशुता को हावी होते नहीं देख सकता| आजाद भारत में पहली बार बिना नेतृत्व के राष्ट्रपति भवन तक पहुंची हजारो की भीड़ ने माननीयो को यह सन्देश भेजा कि अब यह समाज लचर व्यवस्था को बर्दास्त नहीं करेगा, और हमारी संसद को नया बलात्कार-विरोधी कानून बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा था| लेकिन इन कानूनो का क्या फायदा जब इन्हे बनाने वाले नेता ही अपने गंदे बयानो से महिलाओ को निचा दिखाएँ|


मध्यप्रदेश के एक पूर्व मंत्री 'विजयवर्गीय' ने कहा था कि ''महिलाएं मर्यादा नहीं लांघें। मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीता का हरण होता है। जब लक्ष्मण रेखा हर व्यक्ति की खींची हुई है। उस लक्ष्मण रेखा को कोई पार करेगा तो रावण सामने बैठा है। वह सीता का अपहरण कर लेगा।'' अरे मंत्री जी रावण की लंका में भी सीता सुरक्षित रह जाती है, लेकिन आप का प्रशासन उसे सुरक्षा दे पाने में नाकाम है, आज थाने में भी एक महिला सुरक्षित नहीं है| महिलाओ और पुरुषों के कंधे से कन्धा मिलाकर लड़ने के बाद भारत आजाद हुआ| हमें एक स्वतन्त्र भारत मिला खुलकर जीने को| लेकिन दुःख होता है जब तमाम सुरक्षा व्यवस्था से घिरी एक महिला मुख्यमंत्री महिलाओ की आजादी को ही बलात्कार का कारण मानती हैं| पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री 'ममता बनर्जी' ने आजादी को रेप की वजह बताया था। उन्होंने कहा था कि लड़के-लड़कियों को माता-पिता द्वारा दी गई आजादी से ही बलात्कार जैसी घटनाएं हो रही हैं। यहीं कारण है कि राजधानी में महिलाओं की सुरक्षा स्थिति में ज्यादा कुछ बदलाव नहीं आया है। दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के अनुसार, 30 नवंबर तक राष्ट्रीय राजधानी में बलात्कार के कुल 1493 मामले दर्ज किए गए, जो पिछले 1 जनवरी से 30 नवम्बर 2012 के बीच 611 थे|  उत्पीड़न के दर्ज मामले भी पांच गुना बढ़कर 3,237 हो गए। 5 दुष्कर्म के मामले (औसतन) रोजाना दर्ज होते हैं दिल्ली में जो पिछले 1 साल के मुकाबले बहुत ज्यादा है|

यह उस भारत की तस्वीर है जहाँ, 543 संसदीय क्षेत्रो, 4032 विधानसभा क्षेत्रो और 638596 गाँवो में 10 लाख से अधिक महिलाये नेतृत्वकारी भूमिका अदा कर रही है। जहाँ कुछ दिनों पहले तक एक महिला को देश का प्रथम नागरिक होने का गौरव प्राप्त था। एक महिला ही जिस देश के सतासिन दल की अध्यक्षा है। लोकतंत्र की धड़कन कहे जाने वाले लोकसभा के अध्यक्ष की कुर्सी भी एक महिला के हाथो में है| लोकतंत्र के रीढ़ विपक्ष की नेता भी एक महिला ही हैं, और जिस देश के 3 बड़े राज्यों की कमान महिलाएँ संभाल रही है। आखिर क्यों? आखिर क्यों इन सब के बावजूद 5 वर्ष की बालिका को हवस का शिकार बना कर दरिन्दगी की सभी हदें पार कर दीं जाती हैं| आखिर क्यों खुद को समाज का अगुवा और पथप्रदर्शक बताने वाले लोग भी इस जघन्य अपराध में सम्मिलित नजर आ रहे हैं|

इन सब घटनाओ से स्थाई निजात पाने के लिए हमें मानविय मूल्यों को समझना होगा, हमारी आने वाली नश्लों को संवेदनशील बनाना होगा और इन्सान को इन्सान के दुख-दर्द को समझने की संस्कृति पैदा करनी होगी। हमें 'मनसा वाचा कर्मणा' एक होकर 'यात्रा नर्यास्ता पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' का अर्थ समझना होगा| हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अपनी अदम्य साहस, अपनी जीजिविषा और फिर अपने बलिदान से हर किसी को मर्माहत करने वाली दामिनी सिंगापूर के अस्पताल में मौत के आगोस में सोते समय इसी बात से व्यथित होगी कि,
रहेगी अबला कि आबरू खतरे में आखिर कब तक?
रहेगी नर की जननी दहशत में आखिर कब तक?
रोज नजारा देख रहें हम यहाँ द्रौपदी दुशासन का,
करेंगे इन्तजार हम केशव का आखिर कब तक ?

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