शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

माता भूमि पुत्रो अहम् पृथिव्या

जब इस पंक्ति का अर्थ भी नहीं समझता था तब से मैं इस धरती का बेटा होने का फर्ज निभा रहा हूँ। आज विश्व पृथ्वी दिवस पर अचानक ही बचपन की वह तस्वीर आँखों के सामने जीवंत हो गई जब धान-गेंहू की बुआई और धान की रोपनी शुरू होने से पहले माँ पूजा की थाली में तमाम सामग्रियाँ रखकर सर पर रखे गमछे के ऊपर रख देती थीं और हम भी घर में सबसे छोटे होने का फर्ज निभाते हुए अपने उन खेतों की पूजा को निकल पड़ते थे जिसकी उपज ने आज हमे यहाँ तक पहुंचाया है। बचपन से ही पूजा-पाठ में गहरी रूचि होने के कारण यह मौका हर बार अपने ही जिम्मे आता था और हम भी जिम्मेदारी से इसका निर्वहन करते थे और कर भी रहे हैं। मुझे अब भी याद है जब पहली बार गावा लेने (बुआई से पहले खेत की पूजा) जा रहा था। इस पूजा के बारे में स्पष्ट निर्देश होता था कि एक बार पूजा की थाली सर पर रख ली गई तो फिर बोलना नहीं है। माँ ने थाली सर पर रख दी और हम भी घर की चौखट पार कर गए तभी याद आया कि अरे माँ से ये तो पूछे ही नहीं कि खेत माता से मांगना क्या है। क्योंकि उससे पहले जब पूजा पाठ समझने लगा था तब एक बार माँ से पूछा था कि पूजा करते समय भगवान् से क्या मांगते हैं तो उन्होंने भी ऐसे ही बता दिया था, 'बल-बुद्धि-विद्या'...आज भी ईश्वर के सामने हाथ जोड़कर आँख बंद करते ही माँ की बताई वही मांगे खुदबखुद मन में आ जाती हैं। खैर, खेत में पहुँचने तक अपना बालमन इसी उधेड़बुन में था कि ये मांगें तो मंदिरों के भगवान् के लिए है खेत के भगवान् से कुछ और माँगा जाता होगा। चूँकि बोलने का आदेश नहीं था इसलिए किसी से पूछ भी नहीं सकते थे। यही सोचते सोचते खेत में पहुँच गए...अब मन में बिना कोई मांग रखे प्रार्थना तो कर नहीं सकते थे...तभी नज़र खेत में हल चला रहे हमारे जाना (खेतों में काम करने वाले) सतन काका पर पड़ी सोचा कि एक बार ऐसे ही खेत माता को प्रणाम कर के सतन काका से पूछते हैं। धरती माता को भुलियाने के भाव से धीरे से गोड़ लाग के (प्रणाम कर के) दौड़ गए सतन काका के पास। पूछने पर उन्होंने बताया, 'धरती माता से कहीअ, 'हे अन्नपूर्णा माता नाया अन्न धरे (रखने) के दी पुरान अन्न खाए के दी'...आज भी जब गाँव जाने के समय खेतों में जाता हूँ तो सतन काका की बताई वह मासूम सी मांग याद आ जाती है...और अपनी पारिवारिक विरासत पर गर्व होता है कि हम उस विरासत से निकले हैं जहाँ इस वसुंधरा पर फसल बोन या रोपने से पहले नतमस्तक होकर दही हल्दी, चंदन, नैवेद और अक्षत से इसकी पूजा करते हैं...काश अपनी धरती से यह आत्मीयता और यह प्रेम कंक्रीट के जंगल खड़ा करने वाले समझ पाते...

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

कश्मीर में छात्रों की पिटाई और मुखर्जी जी के सपने

'अपने देश में मातृभूमि का नारा जहाँ निषेध लगे,
भारत माँ की जय कहने पर जहाँ अपनों को मारा है,
इस अखंड भूमि भारत में बोलो अब हम कैसे कहें
कि दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है...'

मेरी इन चार पंक्तियों से निकला प्रश्न आज भाजपा के 36 वे स्थापना दिवस पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते समय शायद अमित शाह या भाजपा के अन्य नेताओं के ध्यान में नहीं आया होगा क्योंकि हर मौके पर मुखर्जी जी को कश्मीर से जोड़कर 'जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है' के नारे लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी के आलाकमान को यह अहसास होता कि अगर आज श्यामा प्रसाद मुखर्जी होते तो भारत के अभिन्न अंग कश्मीर में भारत माता की जय के नारे लगाने पर छात्रों की हड्डी तोड़े जाने वाली घटना पर उनका रुख क्या होता, तो आज भाजपा मुख्यालय में गर्व के नारों के साथ साथ कुछ समय खुद पर शर्म करने के लिए भी निकाला गया होता क्योंकि मुखर्जी जी ने उसी कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के अपने सपने को पूरा होते देखने के लिए कांग्रेस के मंत्री पद को ठुकरा कर जनसंघ की स्थापना की थी और जीते जी 'एक निशान, एक प्रधान, एक विधान' के लिए लड़ते रहे। अपने हितार्थ ऐसी घटनाओं को असहिष्णुता करार देने वालों और इनकी तुलना आपातकाल से कर के टीवी स्क्रीन ब्लैक करने वालों से मैं नहीं पूछूँगा कि यह असहिष्णुता है या नहीं क्योंकि उनकी थुथुरलोजी वाला लॉजिक सबको पता है। पीडीपी के साथ मिलकर भाजपा के सरकार बनाने पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि सरकार में शामिल होकर ही रीति-निति में बदलाव किया जा सकता है लेकिन सवाल यह है कि केंद्र और कश्मीर में भी एक राष्ट्रवादी सरकार के रहते राष्ट्रवाद की धज्जियां कैसे उड़ सकती है और अपनी मातृभूमि, भारत माँ के जय के नारे लगाने वाले छात्रों पर लाठियां क्यों बरसाई गई?