मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

सेक्युलरिज्म: संविधान से समाज तक...

हमारे यहां एक कहावत कही जाती है कि 'अनपढ़ ठीक, मने कुपढ़ ना ठीक', मतलब कि जो कुछ भी नहीं पढ़ा हो, उसे हम कोई भी बात बेहतर तरीके से बता-समझा सकते हैं, लेकिन जिसकी पढ़ाई में ही खोट हो उसे समझाएं कुछ तो समझेगा कुछ और। हाल के दिनों में ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिले। जो 2 महीने पहले तक पद्मावती का नाम नहीं जानते थे, वे भी पद्मावती की इज्जत की रक्षा को रण में उतर गए, बिना जाने-समझे कि जो मुद्दा सामने है, उससे पद्मावती की अस्मिता खतरे में है भी या नहीं। कहने का मतलब यह है कि आदमी जिससे परिचित नहीं होता है, या जिसे जाना-समझा नहीं होता है, उसे 'धारणा' के जरिए समझता है, क्योंकि वो असलियत से कोसो दूर होता है। बाकी मामलों में तो इस कुपढ़ता से ज्यादा नुक़सान नहीं होता, लेकिन बात जब संविधान की होती है, तो यह हानिकारक प्रतीत होता है। राह चलते आम लोग या ट्रेन-बस में सफर कर रहे सियासी विशेषज्ञ टाइप दिखने वाले लोग जब संविधान को कोसें तो समझ में आता है, क्योंकि उनका कोसना संविधान की सार्थकता पर सवाल होता है, लेकिन जब केंद्र सरकार का कोई मंत्री ही संविधान बदलने की बात करने लगे, तो इसे क्या कहेंगे? 
मंत्री जी को 'सेक्युलरिज्म' से दिक्कत है।  दरअसल, सेक्युलरिज्म की आड़ में उन्हें दिक्कत एक 'धर्म विशेष' से है और उस दिक्कत की जो बुनियाद है, वो उनकी नजर में यह है कि वो 'धर्म विशेष' भारत विरोधी कार्य करता है, उस 'धर्म विशेष' के लोग दंगों में संलिप्त होते हैं, उस 'धर्म विशेष' के लोग धार्मिक मुद्दे पर विभाजनकारी षड्यंत्र करते हैं। शायद मंत्री जी इसी का हल तलाश रहे हैं, लेकिन उनकी हालत शायद मृग मरीचिका वाली हो गई है, समाधान पास में होते हुए भी वे सार्वजनिक मंचों से अपनी समस्या की 'बोली' लगा रहे हैं। मैंने इसीलिए लिखा है कि मोदी जी को अपने सभी मंत्रियों को संविधान पढ़ाना चाहिए, अगर इस मंत्री जी ने संविधान पढ़ी होती, तो पता होता कि धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास और भाषा आदि के नाम पर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वालों को सबक सिखाने के लिए संविधान में धारा-153(A) की व्यवस्था है, किसी धर्म विशेष के धार्मिक स्थानों को अपमानित करने के आरोपियों के लिए संविधान ने हमें धारा-295 दिया गया है, दंगों के आरोपियों के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने धारा-147 की व्यवस्था की है, यहां तक कि किसी की शांति में विध्न-बाधा उत्पन्न करने वालों को सबक सिखाने के लिए भी संविधान में दिए गए धारा-504 के तहत पुलिस मुकदमा दायर करती है। अब सोचने वाली बात यह है कि इतना सब होने के बावजूद मंत्री जी की समस्या का समाधान क्यों नहीं होता, जबकि वे स्वयं कानून बनाने वाले कुनबे में शामिल हैं और कानून को लागू कराने का अधिकार है उनके पास? इसका जवाब यही है कि दरअसल, यह सब मंत्री जी की समस्या है ही नहीं, इस समस्या का हल्ला मचाकर वे अपनी उस 'समस्या' को ही खत्म करना चाह रहे हैं। उनकी नज़र में समाधान यही होगा कि संविधान से 'सेक्युलरिज्म' को निकाल दिया जाए, लेकिन शायद संविधान के साथ-साथ मंत्री जी समाचार भी नहीं पढ़ते, अब तो नहीं ही पढ़ते हैं, तब भी नहीं पढ़े, जब पढ़ना ज़रूरी होता है और तब भी नहीं पढ़े जब उनकी सियासी सोच को बल देने वाले उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ लोग सरकार चला रहे थे। 
मतलब यह कि मंत्री जी ने उस समय भी समाचार नहीं पढ़ी थी, जब 1973 में 'केसवनंदा भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरल' मामले में सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की खंडपीठ ने बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा था कि संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है, लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है और कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के खिलाफ़ नहीं हो सकता है। पता नहीं, मंत्री जी यह जानते भी हैं या नहीं कि 'सेक्युलरिज्म' भारतीय संविधान की 'मूल भावना' है, जिस 'सेक्युलरिज्म' शब्द को 1976 में संशोधन कर संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया, वो उसी पंथनिरपेक्षता का परिचायक है, जिसका जिक्र संविधान में पहले से है। मंत्री जी की ही पार्टी के तत्कालीन गृह मंत्री गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने 1998 में संविधान की समीक्षा के लिए बनी कमेटी को लेकर उठे सवालों का जवाब देते हुए कहा था कि 'सेक्युलरिज़्म भारत की संस्कृति में है और इसे हटाया नहीं जा सकता।' हालांकि मंत्री जी की पार्टी में अभी आडवाणी जी अप्रासंगिक हो गए हैं, इसलिए एक और उदाहरण देते हैं। भाजपा के संकट मोचक कहे जाने वाले हमारे उप-राष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने जी ने तो अभी हाल ही में कहा था कि 'सेक्युलरिज़्म हमारे डीएनए में है।' तो क्या मंत्री जी भारतीय संविधान की मूल भावना, हमारी संस्कृति और हमारे डीएनए के बदलना चाहते हैं...? क्या मंत्री जी हमारे गांव से शहर जाते समय रास्ते में पड़ने वाले बरगद के पेड़ को गिरा देंगे, जहां हिन्दू-मुस्लिम सभी धूप-बरसात से बचने के लिए एकसाथ बैठते हैं? क्या मंत्री जी उस बरगद के नीचे वाले चापाकल को भी उखड़वा देंगे जो पानी पिलाने में हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं करता? क्या मंत्री जी उस चापाकल में जंजीर से बंधे उस ग्लास को भी फोड़ देंगे, जिससे पानी पीते हुए मैंने कभी नहीं सोचा कि मुझसे पहले शायद किसी मुस्लिम ने इससे पानी पी होगी? क्या मंत्री जी हमारी सामाजिकता से भी सेक्युलरिज्म को निकाल फेकेंगे, ताकि मेरे बच्चे मेरे गांव के अमीन चाचा को 'बाबा' नहीं बोल सकें...? 

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

भंवर में फंसी सियासी नैया के नए खेवैया

विरासत में मिली हर चीज हर किसी को अच्छी नहीं लगती खासकर राजनीति, वह भी तब, जब परिवार मूल रूप से सियासी हो और नई पीढ़ी आधुनिकता की गोद में चिपक कर बैठी हो। लेकिन राजनीति से दूराव की इस व्यक्तिगत मज़बूरी के बाद बावजूद अपने परिवार और पार्टी के लिए कोई निजी नापसंदगी को गौण कर दे और सियासत की बारीकियां सीखते हुए राजनेता बनने की राह पर चलने को तैयार हो जाए, तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। कुछ कड़वे अनुभव या प्रशंसक और सियासी नजरिए से शायद हमें कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सुखद लगे, लेकिन एक भारतीय के नाते इस सबसे पुरानी पार्टी को खत्म होते देखना दुखद है। बहरहाल, राजनीतिक और कूटनीतिक चालबाजी से दूर सीधे साधे राहुल गांधी पर बीते कुछ सालों में जिस तरह से सियासी रंग चढ़ा है वह इस भारतीय लोकतंत्र के लिए सुखद है, जहां विपक्ष की एक महती भूमिका होती है। इस सच को भले ही इस दुर्भाग्य के साथ स्वीकार करना पड़े कि राहुल गांधी परिवारवाद की देन हैं लेकिन स्वीकार तो करना पड़ेगा, क्योंकि इस हमाम में सब नंगे हैं। सियासत बदलने का दावा करने वाली भाजपा भी इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेर नहीं सकती क्योंकि न सिर्फ उसके अपने सहयोगी दल 'युवराजों' के हाथों में हैं, बल्कि खुद भाजपा में भी परिवारवाद फल-फूल रहा है। इस मुद्दे पर भाजपा का दोतरफा रवैया हाल की एक घटना से परिलक्षित होता है। 4 दिसम्बर को राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष पद के लिए नॉमिनेशन करने के बाद जब भाजपा का पूरा कुनबा कांग्रेस को कोस रहा था, उससे ठीक एक दिन पहले महबूबा मुफ्ती लगातार छठी बार पीडीपी की अध्यक्ष चुनी गईं और भाजपा के एक बड़े नेता ने बेहद सरगर्मी के साथ उन्हें बधाई दिया। वहां पर भाजपा के लिए वंशवाद का मुद्दा गौण हो गया। इस बात में कोई संदेह नहीं कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के पीछे का एकमात्र कारण यही है कि वे नेहरू-गांधी परिवार के वारिस हैं। लेकिन इस आधार पर हम उन्हें तब तक ख़ारिज नहीं कर सकते, जब तक हमारे सामने वंशवाद और परिवारवाद मुक्त पार्टी का विकल्प मौजूद नहीं होता।

11 दिसम्बर को जिस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के रिटर्निंग अफसर मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने यह ऐलान किया कि राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए हैं, उस वक्त राहुल गुजरात के बनासकांटा में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे। उस रैली में राहुल की बोलने की शैली और दर्शकों से खुद को जोड़ने का अंदाज यह साबित कर रहा था कि 2017 के राहुल गांधी 2014 के राहुल गांधी से ज्यादा प्रभावी और परिपक्व हैं। गुजरात के चुनावी भाषणों में राहुल के इन शब्दों ने स्वस्थ सियासी परंपरा का संकेत दिया है कि 'वे कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, लेकिन हम भाजपा मुक्त भारत के बारे में नहीं सोच सकते। हम चाहते हैं कि वे भी रहें और हम भी रहें। जनता तक वे अपनी बात पहुंचाएं और हम अपना पक्ष रखेंगे।' आज कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालने के बाद अपने पहले भाषण में भी राहुल गांधी ने इस आशय की बात कही। 
सकारात्मक सियासत के साथ-साथ बात चाहे सियासी पैंतरेबाजी की हो या चुनावी जुमलेबाजी की, राहुल गांधी हर मोर्चे पर मोदी के सामने खड़े हो रहे हैं। कांग्रेस के अंदरखाने राहुल के प्रभाव का एक उदाहरण हाल में देखने को मिला, जब प्रधानमंत्री के लिए मणिशंकर अय्यर द्वारा अपशब्द कहे जाने पर खुद राहुल गांधी ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के लिए राहुल गांधी का यह संदेश भी सकारात्मक सियासत का संकेत है कि कोई भी प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल न करे। राहुल गांधी इस मामले में भी बधाई के पात्र हैं कि उनमें अपनी आलोचना और मजाक सहने की क्षमता है। आज सोनिया गांधी ने अपने बेटे की इस क्षमता का बखान भी किया। वर्तमान राजनीति में जबकि बड़े तो बड़े छुटभैये नेता भी अपने विरोध के फेसबुक पोस्ट या ट्वीट पर सामने वाले को कानूनी कठघरे में खड़ा कर देते हैं, उस समय तमाम मजाक के मामले में सांता-बांता से तुलना को भी बर्दास्त करने की राहुल गांधी की क्षमता इस लोकतंत्र में सुखद लगती है। लेकिन उन्हें अब भी बहुत सी सियासी मर्यादाएं सीखनी हैं। जिस तरह ने उन्होंने एक विधेयक की कॉपी फाड़ी या जिस तरह से भरी संसद में ललित मोदी मुद्दे पर घिरी सुषमा स्वराज के अपनत्व को यह कहकर ठेस पहुंचाया कि 'कल सुषमा आंटी आईं और मुझसे कहा कि राहुल बेटे मुझसे नाराज क्यों हो'... अगर राजनीति में खुद को स्थापित करना है तो राहुल गांधी को इस ओछी सियासत से पार पाना होगा। कांग्रेस अब तक 17 अध्यक्ष देख चुकी है और उनमे से 6 नेहरू-गांधी परिवार से ही रहे, लेकिन किसी के भी समय कांग्रेस उतनी कमजोर नहीं हुई, जितनी आज है। कांग्रेस अब तक के अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है और राहुल गांधी को उस व्यक्ति से लोहा लेना है, जिसकी शख्सियत देश की एक बड़ी आबादी के नस-नस में रच-बस गई है। यह देखने वाली बात होगी कि क्या राहुल गांधी भारत के लिए मोदी का विकल्प बन पाते हैं... बहरहाल, उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की बहुत बहुत बधाई...


रविवार, 26 नवंबर 2017

26 नवम्बर: इतिहास की एक यादगार तारीख

एक तारीख मात्र से इतर 26 नवम्बर से अपना पहला 'ऐतिहासिक' परिचय सामान्य ज्ञान की कक्षा में हुआ, जहां मास्टर साहब ने बताया कि 26 नवम्बर को ही अपना संविधान लागू हुआ था... सामान्य ज्ञान मजबूत करने के क्रम में ही श्वेत क्रांति के जनक वर्गीस कुरियन के बारे में जानना हुआ और पता चला कि उनका जन्मदिन भी 26 नवम्बर ही है... वो 26 नवम्बर की ही घटना थी, जिसके बारे में अगले दिन ऑल इंडिया रेडियो ने खबर दी कि भारत की आर्थिक राजधानी आतंक की जद में आ गई है... 26 नवम्बर के इन्हीं परिचयों के साथ हम दिल्ली आ गए, यहां एक ऐसे शायर से सामना हुआ, जिनके शेर हमारे मातृत्व प्रेम की अभिव्यक्ति से मेल खाते थे, उन्हें और जानने की कोशिश ने बताया कि शायरी को महबूबा से माँ तक लाने वाले इस अजीम शायर मुनव्वर राणा का जन्मदिन 26 नवम्बर ही है... दिल्ली में पढ़ाई के क्रम में ही, सिस्टम को बदलने की मंशा वाले सियासी बदलाव के दौर से रूबरू होने का मौका मिला, जहां हमने 26 नवम्बर को ही, भ्रष्टाचार विरोध से निकले आंदोलन को 'आम आदमी पार्टी' के रूप में एक सियासी शक्ल लेते देखा... हालांकि देश और सिस्टम बदलने के नारे के साथ सत्ता तक पहुंची इस पार्टी की कार्यनीति भी वादों की बलिवेदी पर बदलने वाले इरादों की फेहरिस्त में शामिल होती दिखी, लेकिन इसी बीच 26 नवम्बर को ही बिहार में शराबबंदी की घोषणा के जरिए सियासत के एक ऐसे रूप से भी सामना हुआ, जिसने दिखाया कि सामाजिकता को बचाए-बनाए रखने के लिए सियासी फायदों को कुर्बानी देने का दौर अभी बचा हुआ है... तो अब तक के लिए हमारी नज़रों में 26 नवम्बर की ऐतिहासिकता इतनी ही है, आगे देखते हैं...

सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

पटाखा जलाइए, हिन्दू बचाइए, मर जाइए...

ऑफिस पहुंचकर अख़बार पलट रहा था, तो मेल टुडे की कवर स्टोरी पर नज़र पड़ी। ये रिपोर्ट वर्तमान की एक बड़ी समस्या की ओर इशारा करती है। खबर ये है कि दिल्ली में बढ़ रहे प्रदूषण के कारण दिल्ली पुलिस के खोजी कुत्तों की सूंघने की क्षमता खत्म होती जा रही है, ये उस पुलिस तंत्र के लिए बड़ी चिंता की बात है, जिसका आतंक को मात देने का एक बड़ा हथियार इन कुत्तों की सूंघने वाली क्षमता है। आप सोच सकते हैं कि ये खबर कितनी भयावह स्थिति की ओर इंगित करती है। खैर, अखबार के पन्ने पलट ही रहा था कि दिल्ली में पटाखों की बिक्री बैन करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की ख़बर मिली। प्रदूषण की भयावहता वाली खबर से उपजी चिंता की लकीरें इस खबर को सुनने के बाद कुछ कम हुईं। आप अगर दिल्ली में रहते हों, तो पता होगा कि दिवाली के अगले दिन सुबह सड़कों पर निकलने पर कैसा महसूस होता है। बिन बादल चारो तरफ कोहरा नज़र आता है और ये सिर्फ कोहरा नहीं होता, दिल्ली वासियों को धीरे-धीरे मौत की नींद सुलाने वाला कफ़न होता है। लोग समझते हैं, वे दमा के कारण मर रहे हैं, एलर्जी के कारण मर रहे हैं, हार्ट ब्लॉकेज के कारण मर रहे हैं। लेकिन नहीं, वे प्रदूषण के कारण मरते हैं और इस मौत को वो नहीं समझेंगे, जो हरियाली वाले लॉन से घिरे घर के एसी कमरे में बैठकर अपने आईटी सेल को आदेश देते हैं कि चढ़ा दो इस खबर पर मंदिर-मस्जिद का मुलम्मा, रंग दो इसे हिंदू-मुस्लिम के रंग में और फिर व्हाट्सएप फेसबुक के जरिए इसे हमारे-आपके दिमाग तक पहुंचाया जाता है कि अरे ये जज तो हिन्दू विरोधी है, इसे तो सिर्फ दिवाली में ही पटाखे बैन करने की चिंता होती है, ये तो मुस्लिम त्योहारों पर कुछ भी बैन करने की बात ही नहीं करता।
यही हुआ भी इस खबर के साथ। अभी मेरे मोबाइल में 20 से ज्यादा ऐसे मैसेज-फोटो हैं, जो दिल्ली में पटाखा बैन करने की खबर को हिन्दू विरोधी बता रहे हैं। अभी कुछ देर पहले फ़ेसबुक पर एक लड़के ने मुझे एक ऐसे ही मैसेज में टैग किया है। बेतिया में रहने वाले उस लड़के को शायद आभाष नहीं है कि दिल्ली किस तरह के मौत के आगोश में सांसे ले रही है। वैसे, दिल्ली में रहने वाले भी बहुत से लोग अपनी भावी दशा की चिंता से दूर इसे हिन्दू-मुस्लिम करते हुए लहालोट हुए जा रहे हैं। वैसे इस रेस में सिर्फ अनपढ़-कुपढ़ ही नहीं, बड़े-बड़े बुद्धिमान और विद्वतजन भी शामिल हैं, जिनकी सोच पर सियासत रूपी ओजोन ने पर्दा डाल दिया है। हमारे बेतिया के सांसद हैं, 'डॉ' संजय जायसवाल। 'डॉ' को इन्वर्टेड कॉमा में इसलिए लिखा क्योंकि डॉक्टर जमीन पर ईश्वरीय दूत समझा जाता है, उसपर लोगों की जिंदगी बचाने की नैतिक जिम्मेवारी होती है। हालांकि बतौर सांसद मैं इनके जनहित के कार्यों का मुरीद हूं, लेकिन एक जनप्रतिनिधि केवल सड़क-पुल बनवाने के लिए नहीं होता, उसे जनता के दुःख-दर्द की भी चिंता करनी होती है। इन्हें भी दिल्ली में प्रदूषण की भयावहता की चिंता होनी चाहिए। लेकिन इस मुद्दे पर इनका फेसबुक पोस्ट है- 'मैं 10 वर्षों से पटाखा नहीं उडाया हूं, पर माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशनुसार इस बार जरूर उड़ाऊंगा। दिल्ली में नए साल में ज़ितना चाहिए, उतना प्रदूषण फैलाइए, पर दीपावली में यह बैन है। आप सबों से भी अनुरोध है कि एक पटाखा जरूर जलाएं।' सांसद महोदय, पता नहीं लटीयन की दिल्ली के हरियाली से घिरे अपने फ्लैट से निकलकर बुराड़ी, किराड़ी, करावल नगर, पालम जैसे इलाकों में कितनी बार गए हैं, खबरों की खोज में हमें जाना पड़ता है और हम महसूस करते हैं, दिल्ली की आबोहवा में फैले जहर को। मैंने भी खूब पटाखे जलाए हैं, लेकिन सच कहता हूं, प्रदूषण के कारण होने वाली दिल्ली की दारुण दशा देखने के बाद एक भी पटाखा नहीं छोड़ा। सांसद संजय जी या कोई भी और, अगर आप नहीं मानते सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तो मत मानिए, लेकिन दूसरों को तो इसके लिए मत भड़काई कि वो भी करोड़ों की आबादी के लिए बनाए जा रहे जहर के घूंट में एक एक बूंद का इजाफा करे। अरे महाशय, मार दिए जाएंगे हम आप इन हिन्दू-मुस्लिम मुद्दों में पीसकर। हमारे यहां एक कहावत है, 'रहियें जीव त खइहें घीव...' अगर जिंदा रहे, तो फरिया लेंगे अभी तो मरने से बचने का उपाय सोचिए। अगर ये पूरा पढ़ने के बाद भी कुछ पल्ले नहीं पड़ा, तो ये आंकड़ा रटते जाइए, शायद सामान्य ज्ञान ही दुरस्त हो जाए- दिल्ली में प्रदूषण जनित रोगों के कारण हर दिन औसतन 80 लोग दम तोड़ देते हैं... और पूरे भारत में हर साल 12 लाख से ज्यादा लोगों की मौत दूषित हवा वाले सांस के कारण हो जाती है...

रविवार, 1 अक्तूबर 2017

हमारी आवाज़ में अमर हैं गांधी और शास्त्री

मुझे जंतर-मंतर जाना इसलिए भी अच्छा लगता है, क्योंकि वहां अपने हक़ की आवाज़ उठा रहे लोगों में मुझे गांधी का अहसास होता है। वर्तमान भारत में गांधी के जिंदा होने का सबसे बड़ा सबूत यही है कि सत्ता और व्यवस्था द्वारा सताए जाने के बाद भी लोग सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर दिल्ली पहुंचते हैं और संसद की कान कही जाने वाली जगह पर बैठकर गांधीगिरी के जरिए अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं। वो चाहे महाराष्ट्र का किसान आंदोलन हो या सीकर का या हरियाणा के रेवाड़ी में बालिका उच्च विद्यालय को इंटर कॉलेज करने की मांग, ये सभी गांधीगिरी के रास्ते पर चलकर ही सफ़ल हुए। वर्तमान भारत में सरकार और व्यवस्था के खिलाफ आम आदमी के पास सबसे बड़ा हथियार है, सूचना का अधिकार, इस अधिकार की आधारशिला गांधीगिरी के जरिए ही रखी गई थी। कमोबेस 6 दशक तक भारत में सियासी एकाधिकार स्थापित करने वाली कांग्रेस की ताबूत में कील ठोकने का काम भी गांधीवादी लोगों ने ही किया, 1975 में जेपी ने और 2011 में अन्ना ने। वो जेपी की गांधीगिरी ही थी, जिसने खुद को महारानी समझने वाली इंदिरा की सियासत को सड़कों पर ला दिया और 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 2011 का अन्ना का अनशन-आंदोलन नहीं होता, तो 2014 में केंद्र में ऐतिहासिक तख्तापलट न होता।
हमारे लिए यही सुकून की बात है कि भारत में गांधी और शास्त्री को जिंदा रखने के लिए हमें सरकारों की राह नहीं देखनी पड़ती। यहां हक़ की हर आवाज़ में गांधी हैं और संघर्ष से सफलता हासिल करने की हर कहानी में शास्त्री। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने लिए एक कोट नहीं खरीद सकने वाले शास्त्री हर उस भारतीय के जेहन में ज़िंदा हैं जो ईमानदारी और सादगी से जीवन व्यतीत करता है। मेरा तो मानना है कि गांधी और शास्त्री के जिक्र के बिना भारतीय इतिहास अधूरा ही नहीं रहेगा बल्कि अपना आरंभ भी नहीं कर सकेगा। ये दोनों महापुरुष भारतीय इतिहास की वो बुनियाद हैं, जिनपर वर्तमान और भविष्य का भारत विकास और सफलता की इमारत खड़ी कर रहा है। यह बात अलग है कि सियासी महत्वाकांक्षा और सत्तालोलुपता गांधी और शास्त्री को वर्तमान में 2 अक्टूबर, 30 जनवरी और 11 जनवरी तक समेटती जा रही है। आज सत्ता और सियासत की एक बड़ी आबादी के लिए गांधी जी और शास्त्री जी सिर्फ राजघाट और विजय घाट तक सीमित हैं और दुर्भाग्यवश यहां वे भी मत्था टेकते हैं जिनके कर्मों की वजह से देश गांधी और शास्त्री के रहने के लायक भी नहीं बचा। आज जबकि सार्वजिनक रूप से गोडसे गाथा का पाठ हो रहा है, शास्त्री जी की शहादत आज तक रहस्य बनी हुई है, इस समय इन्हें सत्ता और व्यवस्था की तरफ से दी जा रही श्रद्धांजलि क्या खोखली नहीं है... खैर, सत्ता और सियासत से अब ये आशा भी नहीं है कि वे गांधी और शास्त्री के सपनों का भारत बनाएंगे, ये जिम्मेवारी अब सीधे तौर पर आम भारतीयों के कंधों पर आ गई है और वे इसका निर्वहन भी कर रहे हैं... भारत को आज़ादी दिलाने वाले गांधी और उस आज़ादी को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करने वाले शास्त्री की इस जयंती पर आधुनिक भारत के इन दो निर्माताओं को शत-शत नमन...

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

जो जस करही वो तस फल चाखा...

इस देश में मुग़ल भी हुए, जिनके महलों की जगह आज खंडहरों ने ले ली है... वे अंग्रेज भी यहीं से अस्त हुए जिनका कभी सूरज नहीं डूबता था... आज़ादी के बाद से कमोबेश 6 दशक तक भारत पर शासन करने वाली कांग्रेस तो भारत को खैरात समझती थी, लेकिन आज हकीकत ये है कि गुजरात में उसके युवराज को सुनने के लिए भाड़े के लोग जुटाने पड़ रहे हैं... बहुत लंबा समय नहीं हुआ जब अजेय माने जाने वाले अटल जी के 'शाइनिंग इंडिया' की हवा निकल गई थी... अपने उरूज पर आप चाहे जो करें, लेकिन उस समय की गई गलती ही आपके कमजोर समय में आपको परास्त करने का कारण बनती है... लेकिन इसमें महत्वपूर्ण बात ये है कि आपको पता चले कि आप जो कर रहे हैं, वो गलत है... वर्तमान सरकार का सबसे दुर्बल पक्ष यही है कि इसके पास ऐसे लोगों की फौज है, जिनमें अंखमुंदे समर्थक ही अधिक हैं... अब देखिए न, सत्ताधारी पार्टी की मातृसंस्था आरएसएस का किसान संगठन तक खस्ताहाल कृषि व्यवस्था और गोते लगाती अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार की कार्यनीति पर सवाल उठा रहा है लेकिन सोशल मीडिया पर सरकार के समर्थकों की नज़र में देश दिन-दूनी, रात-चौगुनी प्रगति कर रहा है... गोरखपुर में बच्चों की मौत मामले की जांच में पता चल गया इसके पीछे का कारण स्वास्थ्य व्यवस्था की नाकामी है, ऑक्सीजन कम्पनी के यहां छापे पड़ गए, बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य निलंबित हो गए, लेकिन तब भी समर्थक आंख मूंद कर इसके लिए पिछली सरकार की खामियों पर दोष मढ़ते रहे... अभी बीएचयू मामले में तो दिख ही रहा है कि कैसे कमिश्नर की रिपोर्ट भी समर्थकों के पल्ले नहीं पड़ रही... रिपोर्ट में सीधे-सीधे विश्वविद्यालय प्रशासन को दोषी माना गया है, लेकिन सरकार समर्थकों की फौज आंदोलनकारी लड़कियों पर लांछन लगाने के बहाने ढूंढ रही है... अच्छा, रगड़ा-झगड़ा भी विपक्षी दलों से हो तो समझ में आता है, पहले एफटीआईआई पुणे, फिर हैदराबाद, जाधवपुर, जेएनयू, और अब बीएचयू, मतलब विपक्ष के निठल्ले होने के कारण सत्ता पक्ष ने लड़कों को अपना प्रतिद्वंदी बना लिया है... डीयू की एक लड़की की सीधी सी बात को सरकार अपनी शासनात्मक चुनौती समझ लेती है और फिर उसकी चारित्रिक कुंडली खंगाली जाने लगती है... एक बात समझ में नहीं आ रही, बीएचयू के वीसी महोदय कल से चैनल-चैनल घूमकर थुथुरलोजी बतिया रहे हैं, फिर भी सत्तापक्ष के सब नेता उनके बचाव में कसीदे पढ़ रहे हैं... माना कि अभी देश में आपके जैसा कोई धुरंधर नहीं है, आपकी सशक्त आवाज़ वैश्विक स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व कर रही है, इसका मतलब ये तो नहीं कि जो मन में आए वो करें... ये सवा सौ करोड़ लोगों का देश है श्रीमान, इसे चरवाही के पायना से नहीं हांका जा सकता है... और अगर ऐसा करने की कोशिश की जाती है, तो बैल मुड़ी घुमा के कोख में सिंघ घुसेड़ देता है, और किसी गांव वाले से पूछिए कि सिंघ का घाव कितना घातक होता है... इसलिए संभलकर...

रविवार, 24 सितंबर 2017

राजनीति तो होती रहेगी सरकार...

मध्य प्रदेश के मंदसौर में अपने हक़ की आवाज़ लिए सड़कों पर उतरे किसानों पर गोली चलवाने का आधार ये था कि ये विपक्ष की चाल है... महाराष्ट्र के किसानों की मांग भी तब तक खारिज की गई, जब तक उन्होंने सरकार को बातचीत के लिए मजबूर नहीं कर दिया... हाल के सीकर आंदोलन को भी सरकार इस मुद्दे पर 12 दिनों तक नजरअंदाज करती रही कि इसका नेतृत्व दो वामपंथी नेता कर रहे हैं... तमिलनाडु के किसान अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए जंतर मंतर पर डटे रहे, पीएमओ के सामने नंगे हो गए, लेकिन प्रधानमंत्री ने उनसे मिलने तक की जहमत नहीं उठाई और इस आंदोलन को विपक्षी षड्यंत्र करार दिया गया... ऑक्सीजन की कमी से गोरखपुर में हुई बच्चों की मौत के कारणों पर वर्तमान सरकार और व्यवस्था से ज्यादा पुरानी सरकार की गलतियों का मुलम्मा चढ़ा दिया गया... यहां तक कि हाल में लगातार हो रहे ट्रेन हादसों में भी सत्ताधारी पार्टी को कई बार विपक्षी साजिश नज़र आती है... गुजरात में सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ने के कारण विस्थापन से दूर मध्य प्रदेश के उन 192 गांवों में ग्रामीणों की दुर्दशा पर सरकार इसलिए आंखें मूंदे हुए है, क्योंकि उनका नेतृत्व मेधा पाटेकर कर रही हैं... बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाली सत्ताधारी पार्टी के दल की उस सरकार ने अपनी अस्मिता के सवाल को लेकर सड़कों पर उतरी बेटियों की मांग को सियासत से जोड़ दिया, जिसने मनचलों से बेटियों की रक्षा के लिए एंटी रोमियो स्क्वॉयड का गठन किया था... अदनी से एक गांव में जब कोई विधायक या सांसद आता है, तो लोग अपने मुद्दों और समस्याओं को लेकर सड़कों पर उतर जाते हैं, ताकि उस जनप्रतिनिधि तक बात पहुंचे, ठीक यही किया था काशी हिंदू विश्वविद्यालय की लड़कियों ने... बेटियों से जुड़ी हर समस्या को राष्ट्रीय मुद्दा बना देने वाले प्रधानमंत्री के दौरे को लेकर उन बेटियों में उम्मीद थी कि वे जब इनकी समस्या के बारे में सुनेंगे, तो जरूर उनसे मिलेंगे या इसके समाधान के लिए कोई ठोस कदम उठाएंगे, क्योंकि वे उस क्षेत्र के जनप्रतिनिधि भी हैं... लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा... भाई लोगों में इसके पीछे भी वामपंथियों का हाथ घोषित कर दिया... मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि इन्हें ऐसा क्यों लगता है कि कांग्रेसियों या वामपंथियों द्वारा विरोध किए जाने वाले सभी मुद्दे प्रायोजित होते हैं... अगर भाजपा शासित सरकारों में कुछ गड़बड़ी होती है, तो विपक्ष का विरोध लाजिमी है... इससे पहले कांग्रेसी या समाजवादी शासन में उनकी गलतियों पर भाजपा के विरोध को तो कभी भी प्रायोजित नहीं कहा गया... विपक्ष का काम ही है राजनीति करना, और इसके कारण मुख्य मुद्दे की गंभीरता पर पर्दा डालना या उसे खारिज करना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं है...

बुधवार, 30 अगस्त 2017

No Means No... चाहे वो बीबी ही क्यों न हो

'No, No Your Honour... ना सिर्फ एक शब्द नहीं, अपने आप में एक पूरा वाक्य है। इसे किसी तर्क, स्पष्टीकरण, एक्सप्लेनेशन या व्याख्या की जरूरत नहीं होती। ना का मतलब ना ही होता है। उसे बोलने वाली लड़की कोई परिचित हो, फ्रेंड हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो, या आपकी अपनी बीबी ही क्यों न हो, नो मिन्स नो... And When Someone Say So, Stop...'
ये शब्द याद हैं आपको। आपने पिंक फ़िल्म देखी हो तो शायद याद होगा। एक बूढ़े वकील द्वारा तीन लड़कियों के सम्मान-स्वाभिमान-स्वतंत्रता की सार्थकता को जीवंत बनाने वाली इस जिरह को पहली बार देखकर आंखों में आंसू आ गए थे। पूरी फिल्म में केवल कोर्ट रूम की वो जिरह मैंने सैकड़ों बार देखी है। आज सुबह-सुबह ये फिर से याद आ गया। अखबार खोला, तो पहले पन्ने पर ही खबर थी, 'केंद्र ने कहा, वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध बनाना ठीक नहीं।' पहली बार में लगा, कुछ गलत पढ़ लिया, केंद्र सरकार और वो भी महिलाहित के मुद्दों पर मुखर रहने वाली सरकार ऐसा कैसे कह सकती है। लेकिन पूरी खबर पढ़ी, तो यकीन हो गया कि ये बराबरी की बात करने वाली लोकतंत्रताकम शासन पद्धति की आवाज़ नहीं, बल्कि उस पुरुषवादी मानसिकता की सामंती सोच है, जो महिला में 'मैं' वाले अहसास को देखने की आदी नहीं और जो चाहती है कि महिला की पहचान मर्द के नाम की मोहताज बनी रहे। उसकी बीबी उसके लिए बस खिदमत की खादिम हो और पति के हुक्म की तमिल करना ही पत्नियों का फर्ज बना रहे। क्या सितम है कि आज़ादी के 7 दशक बाद जब हम स्वतंत्रता की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं, तब सरकार का वकील न्यायालय में खड़े होकर कहता है कि 'वैवाहिक दुष्कर्म के मामले में महिलाओं को अधिकार दे देने से इसका बेजा इस्तेमाल होगा।' काश... काश कोर्ट रुम में पिंक फ़िल्म के बुजुर्ग दीपक सहगल जैसा कोई वकील होता, जो उस सरकारी भोंपू की आंख में आंख डालकर कह सकता कि आज के दौर में जब अधिकार और हक विमर्श का विषय बन रहा है उस समय खुद पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आधी आबादी के विरोध को कोई बेजा नहीं बता सकता, चाहे वो सरकार ही क्यों न हो। काश पिंक फ़िल्म का न्याय आज की वास्तविकता बन पाता...।
सच में कभी-कभी रील, रियल से ज्यादा सुखद और सुकूनदेह लगता है। कभी-कभी लगता है, जो स्क्रीन पर चल रहा है, काश वो ही हमें आस-पास नज़र आता। लेकिन बहुधा ऐसा नहीं होता, लड़कियों के मामले में तो बिल्कुल नहीं। हमने फिल्मी स्क्रीन पर हजारों बार देखा है कि लड़कियां या औरतें खुद पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं, लेकिन आपने अपने आस-पास कितनी औरतों को मर्दों पर गरजते देखा है? पति में देवता देखने वाली कितनी पत्नियों को उनका पति देवी मानता है? हो ही नहीं सकता कि आपने रोजमर्रा के अपने काम-काज या आवागमन में कहीं किसी महिला के साथ हो रही छेड़खानी, या जबरदस्ती नहीं देखी हो, लेकिन याद कीजिए कि ऐसे कितने नजारे आपने देखे हैं कि उस लड़की ने पीछे मुड़कर लड़के को जोरदार थप्पड़ रसीद किया हो, या कितनी लड़कियां मुड़कर आंख तरेरने का भी साहस जुटा पाती हैं। हजारों में एक होती है, वर्णिका कुंडू, जिसमे पुरुषवादी मानसिकता के चरमोत्कर्ष को ललकारने की हिम्मत होती है। वरना गांवों और शहरों की भी बहुत सी लड़कियां खुद की और मां-बाप की इज्जत की परवाह करते हुए घुटती रहती हैं और देखती-सहती रहती हैं अपने स्वाभिमान और सम्मान को हर दिन कुचले जाते हुए। फिर भी हमारी सरकार को डर है कि वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध का दर्जा दे देने पर, महिलाएं पुरुषों के खिलाफ इसका इस्तेमाल करेगी। सरकार ने तो ये भी कहा है कि इससे विवाह संस्था की बुनियाद हिल जाएगी। माफ़ किजिएगा, लेकिन अगर ये विवाह संस्था जुल्म के बाद दर्द सहते हुए भी औरत को घुटघुटकर जीने के लिए बाध्य करती है, तो इसका हिल जाना ही सही है। सरकारी वकील ने ये भी कहा है कि वैवाहिक दुष्कर्म को धारा-375 के अधीन लाने का आधार ये नहीं हो सकता, कि विश्व के कई देशों में ये अपराध है। बताइए, क्या दोगला रवैया है, इसी सरकार के लिए तीन तलाक को खत्म करने का सबसे बड़ा आधार यही था कि विश्व के कई देशों में ये खत्म किया जा चुका है। समझ नहीं आता कि किसी का अधिकार, किसी की आज़ादी किसी इंसान के लिए नुकसानदेह कैसे हो सकती है? एक पति भी तो इंसान ही होता है न... लेकिन वो साथी या वो पति इंसान नहीं होता, जिसके लिए उसकी दोस्त या उसकी बीबी सिर्फ एक वस्तु हो... और ऐसी विकृत मानसिकता से जल्द-से-जल्द सिसकियां सुनने का हक छीन लेना चाहिए और उसे सिसकियां भरने की सजा दी ही जानी चाहिए...

रविवार, 27 अगस्त 2017

महारैली: 'नीतीश गरियाओ-तेजस्वी बढ़ाओ'

बिहार ही नहीं देश की राजनीति में भी ये साबित हो चुका है कि रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ वोटों में तब्दील नहीं होती। सोशल मीडिया में आज 'भाजपा भगाओ-देश बचाओ' रैली की बातों से ज्यादा उसमे आई भीड़ की चर्चा है। कारण है, फोटोशॉप। ये फोटोशॉप वाली तस्वीर कोई अदना सा कार्यकर्ता शेयर करता, तो समझा जा सकता था, लालू यादव और शरद यादव जैसे बड़े नेताओं ने भी इसे असली भीड़ बता दिया। जैसा कि होना था, संख्याबल के मामले में आज की रैली मजाक बनकर रह गई और इसमें फोटोशॉप के बड़े-बड़े धुरंधर भी शामिल हो गए और उन्होंने तो भीड़ को हवा में भी उड़ा दिया। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि रैली में लोग नहीं थे, लगभग आधा गांधी मैदान भीड़ से भरा दिखाई दे रहा था। वैसे भी, कहा जाता है कि जेपी के बाद आजतक किसी भी नेता में वो ताकत नहीं दिखी, जो गांधी मैदान को लोगों से पाट दे, मोदी में भी नहीं।

खैर, बात करते हैं रैली की। मुझे ये रैली 'भाजपा भगाओ-देश बचाओ' से ज्यादा  'नीतीश गरियाओ-तेजस्वी बढ़ाओ' प्रतीत हुई। पूरा लालू कुनबा चाहे वो खुद लालू यादव हों, राबड़ी देवी, तेजस्वी या तेजप्रताप, सबने मोदी-भाजपा से ज्यादा नीतीश को आड़े हाथों लिया। राबड़ी देवी का ठेठ अंदाज में नीतीश पर बरसना तो बिहार में लंबे समय तक चर्चा के केंद्र में रहेगा। लालू यादव ने तो यहां तक कह दिया कि 'जब नीतीश बीमार पड़े, तो समझो वो कोई खतरनाक काम कर रहा है।' नीतीश पर सबसे ज्यादा बरसे शरद यादव। उन्होंने तो ललकार कर कह दिया कि, 'तुमने यहां 11 करोड़ जनता के साथ छल करके गठबंधन तोड़ा, मैं आज यहां एलान करता हूँ कि पूरे भारत मे 125 करोड़ जनता के साथ वाला महागठबंधन बनेगा।' ममता बनर्जी ने कहा, 'नीतीश ने लालू का साथ छोड़ा है, लालू ने नहीं। आने वाले समय में बिहार की जनता भाजपा-नीतीश को छोड़ देगी।' इस रैली को नेता पुत्रों का सम्मेलन भी कहा जा सकता है। तेज तेजस्वी के अलावा यहां दो दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के दो पूर्व मुख्यमंत्री बेटे भी उपस्थित थे, हेमंत सोरेन और अखिलेश यादव। दोनों ने इस मंच का उपयोग नीतीश को गरियाने और तेजस्वी के राजतिलक को समर्थन देने के साथ साथ अपने प्रदेश की जनता को संदेश देने के लिए भी किया। अखिलेश यादव ने तो चाचा के रूप में नीतीश पर चुटकी लेते हुए उन्हें डीएनए वाला चाचा करार दिया। वहीं हेमंत सोरेन ने इसी बहाने झारखंड के आदिवासियों के साथ ज्यादती का मुद्दा उछाल दिया।

हालांकि इस रैली ने 2019 के लिए भाजपा की नींव को कमजोर करने के प्रयासों का आधार तो तैयार कर ही दिया। पिछले कई दिनों से सोनिया और राहुल के इसमें न शामिल होने को लेकर रैली की सार्थकता पर सवाल उठाया जा रहा था। लेकिन गुलाम नबी आज़ाद ने उनकी अनुपस्थिति का कारण स्पष्ट किया और सोनिया गांधी का रिकॉर्डेड मैसेज सुनाया गया, तो वहीं अशोक चौधरी ने रैली के लिए राहुल गांधी का संदेश सुनाया। यानि अभी तो स्पष्ट है कि राजद की इस रैली को समर्थन या भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने को लेकर कांग्रेस में कोई संशय वाली स्थिति नहीं है। सोनिया गांधी ने उस संदेश के सहारे ही पुरजोर तरीके से मोदी सरकार पर हमला बोला। वहीं राहुल का लिखित संदेश उनके सजीव भाषण से ज्यादा प्रभावी लगा। शरद यादव का आज का भाषण लंबे समय तक याद रखा जाएगा। आज ये स्पष्ट दिखा कि अगर 2019 में मोदी सरकार के सामने संकट की घड़ी उत्पन्न होती है, तो उसके सूत्रधार शरद यादव ही होंगे। गुलाम नबी आज़ाद भी आज बहुत दिनों बाद आक्रामक तेवर में नज़र आए और खुलकर महागठबंधन की वकालत की। बिहारी अंदाज में भाषण की शुरुआत करना ममता बनर्जी का लालू प्रेम दिखा गया। ममता के लहजे से स्पष्ट झलक रहा था कि वे पूरी तरह से एनडीए से दो-दो हाथ करने के मूड में हैं। वो चाहे तारिक अनवर हों, अली अनवर या फिर देवेगौड़ा जी के संदेशवाहक, सबने खुले दिल से लालू का समर्थन और भाजपा का विरोध किया। लालू के आदेश पर तेजप्रताप यादव का शंख फूंकना भी दिलचस्प था। तेजप्रताप ने खुद के सर पर पगड़ी बांधते हुए अपने छोटे भाई तेजस्वी को इस सियासी महाभारत का कृष्ण बता दिया। वैसे, ये देखने वाली बात होगी कि क्या तेजप्रताप के सर पर केवल दिखावटी पगड़ी ही रहेगी या फिर वे भी कृष्ण की भूमिका में आ सकते हैं, क्योंकि पिछले दिनों उड़ती हुई खबर आई थी कि तेजस्वी और तेजप्रताप जिस बिहार यात्रा पर साथ निकले थे, उसपर पहले केवल तेजस्वी जाने वाले थे। लेकिन लालू के घर में ही इसे लेकर मतभेद हो गया और अंत में दोनों को भेजा गया। वैसे तो आज लालू यादव ने पूरा प्रयास किया कि तेजस्वी के राजतिलक को देशव्यापी सियासी मंजूरी मिल जाय और वो मिल भी गई लेकिन लालू के लिए आगे की राह आसान नहीं, न तो 'तेजप्रताप वाले घर' में और न ही 'मोदी वाले इंडिया' में...

सोमवार, 14 अगस्त 2017

इस रात की 'सुबह' कब होगी...

वो आधी रात का समय था, जब अपने भाषण के दौरान नेहरू ने कहा था- 'मध्यरात्री घंटे के स्पर्श पर जब दुनिया सोती है, भारत जीवन और आजादी के लिए जागेगा। आज हमने अपने दुर्भाग्य को समाप्त कर दिया...।' लेकिन क्या सच में दुर्भाग्य समाप्त हो गया? क्या ये रात के बाद की सुबह की निशानी है कि जब लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जी राष्ट्र के नाम संबोधन कर रहे होंगे और हम भारत माता की जय के नारे लगा रहे होंगे, तब देश के सबसे बड़े सूबे में सैकड़ों माताएं अपनी सूनी हो चुकी कोख के लिए विलाप कर रही होंगी? पानी भरे घरों के छप्पर पर बैठकर, फिर से बारिश ना हो जाय इस डर से आसमान की ओर कातर दृष्टि से देख रहे करोड़ों लोगों की ज़िंदगी का अंधेरा क्या सच में उजाले में बदल गया है? आज ढाबो में बर्तन धो रही नन्ही हाथें, अपने मालिक की एक आवाज पर सरपट दौड़ने वाले नन्हे पैर, और हाथों में गुटखे का थैला लिए ट्रेनों-बसों में घूमते बच्चे क्या अब तक आज़ादी से रूबरू हो सके हैं? भर पेट भोजन ना मिल पाने के कारण हमारे देश में हर 5 मिनट में 1 आदमी दम तोड़ देता है, क्या उनके लिए वो दिन का उजाला भी रात का अंधेरा नहीं है, जब उनकी जठरागन जिंदगी पर हावी जो जाती है? एक दिन की जिंदगी जीने के लिए जब दहाई अंक का सबसे ज्यादा पैसा भी नाकाफी हो, उस दौर में देश की उस 70 फीसदी से ज्यादा आबादी के लिए स्वतंत्रता का मतलब क्या हो सकता है, जो 20 रुपए प्रतिदिन में गुजारा करती है? 86 फीसदी ग्रामीण और 82 फीसदी शहरी आबादी, जिसके पास आज भी मेडिकल बीमा नहीं है, उसके देहावसान के बाद उसके परिजनों की जिंदगी में उजाले वाली बल्ब क्या फ्यूज नहीं हो जाती होगी? उस 65 फीसदी युवा आबादी के जरिए सुराज की कल्पना क्या आधारविहीन नहीं है, जिसमे से हर साल 25,000 युवा पढ़ाई के दबाव या अन्य चुनौतियों के कारण आत्महत्या कर लेते हैं? क्या ये अंधेरे में हाथ मारना नहीं है कि 'स्कूल चले हम' का नारा देने के दशकों बाद भी और इस नारे को सार्थक करने पर सैकड़ों करोड़ रुपए बहाने के बाद भी देश में 10 करोड़ से ज्यादा बच्चों को स्कूल नसीब नहीं है?

'इलाही वो भी दिन होगा, कभी वो दिन भी देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा।'
इस शेर में गुलाम भारत की पीड़ा है, पर अफ़सोस कि इन शब्दों में आज भी उन 20 करोड़ भारतीयों का सपना है, जो खुले आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। इन सबके बावजूद, मैं न तो खुद हतोत्साहित हूं और न ही मेरी मंशा आपको हताश करने की है। आजादी के 70 सालों में हमने खूब तरक्की भी की है, पर अफसोस कि हमारे नीति नियंता उस तरक्की से आमजन को नहीं जोड़ पाए। हमने सबसे कम लागत की परमाणु ऊर्जा तो विकसित कर ली, लेकिन देश की एक बड़ी आबादी को इस लायक नहीं बना सके कि वो महीने भर की कमाई से खाना पकाने वाला एक रसोई गैस सिलेंडर भी खरीद सके। सामरिक शक्ति के मामले में हम दुनिया के अग्रणी देशों में हैं, आज सबसे ताकतवर चीन भी हमसे आंख मिलाने से पहले सौ बार सोचता है, लेकिन क्या हम स्वास्थ्य के मामले में खुद को मजबूत कर पाए हैं? हालत ये है कि देश में 61,011 लोगों पर एक अस्पताल, 1833 मरीजों पर एक बेड और 1700 मरीजों पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है। ये यूं ही नहीं है, परमाणु पनडुब्बी लांच करने से लेकर, चांद और मंगल पर मानव रहित मिशन भेजने के मामले में हम अमेरिका के समकक्ष हैं, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करने के मामले में उससे बहुत नीचे। स्वास्थ्य सेवाओं पर अमेरिका अपनी जीडीपी का 8.3 फीसदी खर्च करता है, जबकि हम अपनी जीडीपी का सिर्फ 1.4 प्रतिशत। कैसे ना होंगे 100 में 70 आदमी बीमार, और फिर इन पंक्तियों को कैसे झुठला सकते हैं कि
'100 में 70 आदमी फिलहाल जब नासाद है,
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश का आजाद है।'

आंकड़ों में दर्ज है कि भारत की मिड-डे मील योजना दुनिया का सबसे बड़ा भोजन कार्यक्रम है, लेकिन देश के 39 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और 40 प्रतिशत बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन मनाने से पहले ही चल बसते हैं,  केवल पिछले साल यानि 2016 में 2,96,279 बच्चे डायरिया और निमोनिया से मर गए... आखिर क्यों 70 साल का उजाला भी इनकी जिंदगी में सुबह की रौशनी नहीं ला पाया? आखिर इस रात की सुबह क्यों नहीं होती...? आप जब ये पढ़ रहे होंगे, तब शायद 14 की मध्य रात्रि नहीं, 15 का सुबह होगा... चारो तरफ देशभक्ति के गीत गूंज रहे होंगे, आसमान में तिरंगा लहरा रहा होगा, हम अपने शहीदों और उनकी कुर्बानीयों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे होंगे, चारों तरफ महात्मा गांधी जिंदाबाद, सरदार पटेल जिंदाबाद, सुभाष चन्द्र बोस जिंदाबाद के नारों से आकाश गुंजयमान हो रहा होगा... लेकिन सोचिएगा, क्या हम गांधी-नेहरू-पटेल-सुभाष बोस के सपनों के भारत में जी रहे हैं, सोचिएगा कि 'तंत्र' के मामले में नहीं, 'जन' के मामले में हम 14 अगस्त की मध्य रात्रि के बाद से कितना कदम आगे बढ़े हैं...? आखिर इस रात की सुबह क्यों नहीं होती...

रविवार, 13 अगस्त 2017

हादसों की राजनीति या राजनीति का हादसा

गोरखपुर की घटना अब पुरानी होने लगी है, इसलिए सरकार और भाजपा का बचाव दल सक्रिय हो रहा है, जो लाजिमी है। ऐसे तमाम प्रसंग सुनाए-बताए जा रहे हैं, जब कांग्रेस सरकार में ऐसी घटनाएं हुईं और मंत्रियों ने इस्तीफा नहीं दिया। हालांकि ऐसे प्रसंग सुनाने वाले भूल जा रहे हैं कि तब भाजपा ने उन मंत्रियों को दायित्व का बोध कराने और नैतिकता का पाठ पढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। हम भाजपा को पूर्णतः कठघरे में खड़ा नहीं कर रहे, ये हम समझ रहे हैं कि
'जाने लें चिलम जब चढ़े ले अंगारी'
लेकिन आप दिल पर हाथ रखकर बताइए, क्या आप प्रधानमंत्री मोदी जी से ये उम्मीद कर सकते थे कि वे ऐसी बड़ी घटना पर एक ट्वीट तक नहीं करेंगे? क्या आप सोच सकते थे कि खुद को लाल बहादुर शास्त्री का सियासी वारिस बताकर वोट मांगने वाले सिद्धार्थ नाथ सिंह खुद के और सरकार के बचाव में ऐसी गैरजिम्मेदाराना दलील देंगे? इस मामले में सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा करने वाला वर्तमान विपक्ष भी कौन सा दूध का धुला है। ये दलील देकर और सोचकर कि आपातकाल के बाद भी इंदिरा सत्ता में आई थीं, 2019 में मोदी को मात देने की रणनीति बना रही कांग्रेस शायद बेलछी कांड के समय इंदिरा गांधी का बिहार दौरा भूल चुकी है। अहमद पटेल की जीत के समय सुना था कि राहुल गांधी को वायरल फीवर है, शायद अब तक ठीक नहीं हुए। राहुल गांधी इंदिरा की विरासत को वैसे ही आगे बढ़ा रहे हैं, जैसे सिद्धार्थनाथ सिंह लालबहादुर शास्त्री की। सुकुमार राहुल जी पिछले कई दिनों से अपने ऑफिस के ट्विटर हैंडल के सहारे ही गोरखपुर घटना में सरकार को घेर रहे हैं। शायद राहुल गांधी को ये मालूम भी नहीं होगा- 'आपातकाल के बाद इंदिरा सियासी और कानूनी, हर रूप से विपक्ष के निशाने थीं। उसी दौरान 27 मई 1977 को बिहार में भागलपुर के बेलछी गांव में दबंगों ने कई दलितों के फूंक दिए, इस घटना में दर्जन भर से ज्यादा दलित जिंदा जला कर मार दिए गए थे। इस घटना की खबर सुनते ही इंदिरा गांधी बेलछी के लिए रवाना हो गईं। गांव में गाड़ी नहीं जा सकती थी, इसलिए हाथी की यात्रा करनी पड़ी। वहां भारी बारिश हुई थी और कीचड़ था, जब हाथी के जाने में भी मुश्किल हुई, तो इंदिरा को ट्रैक्टर की यात्रा करनी पड़ी, जब ट्रैक्टर भी नहीं जा सका, तो इंदिरा कीचड़ वाली सड़क पर पैदल चलकर पीड़ितों के घर पहुंचीं।' कहा जाता है कि इंदिरा की बेलछी यात्रा ने ही जनता पार्टी सरकार की उल्टी गिनती शुरू कर दी थी। आज की कांग्रेस को ये किस्सा कौन बताए। ख़ैर, गोरखपुर जैसी घटनाओं के समय कांग्रेस के कुकृत्य गिना रहे भाजपाई बंधुओं के लिए इंदिरा का एक और किस्सा- आज से तक़रीबन छत्तीस साल पहले अचानक अंधेरा हो जाने की वजह से क़ुतुबमीनार की सबसे ऊपरी मंज़िल पर भगदड़ मच गई थी, जिसमें करीब 45 लोग कुचल कर और दम घुटने की वजह से मर गए थे। मरने वालों में ज़्यादातर स्कूली बच्चे थे। इंदिरा गांधी घटनास्थल पर पहुंचीं। ज़मीन पर एक लाइन से रखी बच्चों की लाशें, कपड़े से ढकी हुई थीं। हवा की वजह से कई के चेहरे से कपड़ा हट गया, जिससे उनका कुचला हुआ चेहरा नज़र आ गया। वो मंजर देख इंदिरा की आंखों से आंसू टपक कर दामन में आ गिरे और उन के मुंह से बरजस्ता निकल गया-
'जिन को पामाल किया बाद-ए-सबा तूने आज,
यही गुंचे कभी खिलते तो गुलिस्तां बनते...'

शुक्रवार, 23 जून 2017

23 जून... 1953 से 2017...

वो भी 23 जून ही था जब कश्मीर को सच्चे अर्थों में अखंड भारत का हिस्सा बनाने के लिए संघर्षरत एक 'भारतीय' को सियासी षड्यंत्र के चंगुल में फंसकर शहादत को प्राप्त होना पड़ा था... और ये भी 23 जून ही है, जब एक भारतीय को 'कश्मीरियत-जम्हूरियत-इंसानियत' बचाने की कोशिश में जान से हाथ धोना पड़ा... परिस्थितियों से इतर अंतर सिर्फ इतना है कि वो 1953 था और ये 2017 है... 64 साल बीत गए, रावी में कितना पानी बह गया लेकिन आज भी हर दिन अपनी धारा में खून के छींटे देखती रावी सवाल करती महसूस की जा सकती है कि वो शख्स लौटा क्यों नहीं, जो मेरे बहाव को रक्त रहित करने के मंसूबे से आया था... क्या इसमें षड्यंत्र की बू नहीं आती कि देश के एक तत्कालीन बड़े नेता को राजधानी से कोसो दूर एक वीरान घर में कैद कर दिया जाय और जब उसकी तबियत खराब हो तो एम्बुलेंस की बजाय ऑटो से हॉस्पिटल पहुंचाया जाए, वो भी घण्टों देरी से और हॉस्पिटल पहुंचा कर भी इमरजेंसी वार्ड की जगह उसे प्रसूति वार्ड में भर्ती कराया जाय... 23 जून 1953 की वो घटना आज 23 जून 2017 को एक तरह से फिर दोहराई गई है... आज फिर कश्मीरियत को हिंदुस्तानियत से दूर रखने वाले अपने नापाक मंसूबों में कामयाब हुए हैं और फिर आज वैसी ही चुप्पी है जैसी 64 वर्षों पहले थी... वो 23 जून इस 23 जून को फिर से जिंदा नहीं हुआ होता, एक निर्दोष आज यूं बेमौत नहीं मरता, आज कश्मीरियत यूं नहीं कराहती अगर इस सवाल का जवाब मिल गया होता कि डॉ मुखर्जी क्यों मरे... जी हां, मैं बात कर रहा हूं श्यामा प्रसाद मुखर्जी की, जिन्होंने सपना देखा था 'एक निशान-एक प्रधान-एक विधान का' और उसी सपने को सच होते देखने की कोशिश में हमेशा के लिए सो गए... पर अफसोस उनके सपने को अपनी सियासी स्वार्थसिद्धि का साधन बनाने वालों ने ठीक से उनकी मौत का मातम भी नहीं मनाया... 'बदला' शब्द भले ही हमारी गांधीवादी अहिंसक मनोवृति की डिक्शनरी में नहीं है, लेकिन अगर हमारी निजता और हमारी संप्रभुता पर प्रहार होता है, तो ये जरूरी हो जाता है कि हम अपने सियासी शब्दकोष में कुछ संशोधन करें... जिस नेहरू ने कश्मीर जाकर भी वहां जेल में बंद डॉ मुखर्जी से मिलना उचित नहीं समझा और उनकी मृत्यु के बाद जांच की मांग को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि ये स्वाभाविक मौत थी और उसमे कोई रहस्य नहीं है, उस नेहरू की कांग्रेस से तो हम कोई उम्मीद ही नहीं कर सकते... लेकिन दुःख होता है, जब मुखर्जी द्वारा उनके खून से से सींचे हुए पौधे से निकली शाखा पर बैठे नेता आज अपनी धुन में बांसुरी बजा रहे हैं, किसी को उस मां की करुण वेदना याद भी नहीं कि 'मैं अपने प्रिय बेटे की मौत पर आंसू नहीं बहाऊंगी, मैं चाहती हूं कि लोग खुद निर्णय करें कि इस त्रासदी के पीछे क्या वास्तविक कारण थे और स्वतंत्र भारत की सरकार के द्वारा क्या भूमिका अदा की गई?' कश्मीर सियायत की असफलता पर विपक्षी प्रहार से बचने का भाजपा के पास सिर्फ एक कवच-कुंडल है, और वो है- 'जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है...' भाजपा नेता हर मौके पर ढोल-नगाड़े के साथ निर्लज्जता से इस नारे का उद्घोष करते हैं, लेकिन कोई ये जानने की जहमत नहीं उठाता कि भाजपाई शासनकाल में भाजपा ने अपने 'पितामह' के बलिदान के3 षड्यंत्रों से पर्दा हटाने के लिए क्या किया... क्या अदद एक जांच कमिटी भी गठित की... आज अपनी 64वीं पुण्यतिथि पर उसी कश्मीर में एक पुलिसवाले को भीड़ द्वारा मारते देखकर क्या डॉ मुखर्जी की आत्मा आंसू नहीं बहा रही होगी, जिस कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों जैसा देखने की कोशिश में उन्होंने जान गंवा दी... डॉ मुखर्जी की शहादत अगर जाया नहीं गई होती, तो आज मोहम्मद अयूब पंडित की जंदगी यूं खत्म नहीं होती...

मंगलवार, 20 जून 2017

सियासी कवच-कुंडल हैं, दलित-महिला-मुस्लिम

मेरे एक जानने वाले हैं, दलित हैं। पहले गंवई गुंडागर्दी करते थे, फिर प्रखंड स्तर के नामचीन बदमाश हुए, फिर विधायक की जीत के अहम 'कारण' बने, फिर फॉर्च्यूनर पर घूमने लगे। स्थानीय पंचायत में प्रधान का पद आरक्षित हुआ और उनकी पत्नी प्रधान बन गईं। नालायक बेटा बाप के 'पुण्य प्रताप' से ठेकेदार बन गया। दूसरा बेटा 'कॉलेज जाता था', कुछ आरक्षण और कुछ बाप के बाहुबल से स्टेट पीसीएस पास कर गया। बचपन में बगल वालों के घर से चोरी करने पर रड से दागा जाने वाला ये आदमी आज अरबों की संपत्ति का मालिक है और इन्हें अपनी कॉपी दिखाकर परीक्षा-दर-परीक्षा पास कराने वाले इन्हीं की जाति के दोस्त का बेटा आज इनके रहमोकरम पर पल रहा है और इनके ठेकेदार बेटे की ब्रेज़ा का ड्राइवर है। दोनों का घर पास में ही है, लेकिन 40 साल पहले जहां आस-पास दो घास-फूस की झोपड़ी थीं, उनमे से एक की हालत थोड़ी बेहतर हुई है और वहां इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत बना दो कमरे का घर है, जबकि दूसरे की जगह एक आलिशान बंगले ने ले ली है। हां, इस बीच स्थानीय स्तर से लेकर जिला, राज्य और दिल्ली तक कई दलित समर्थक और पिछड़ों गरीबों के मसीहा उन जिम्मेदार पदों पर बैठे, जिनका कर्तव्य था कि वे उस दलित की दशा भी सुधारें, जो पढ़ने में भी कुछ ठीक था और मेहनती भी। लेकिन बात उसे मनरेगा का झुनझुना थमाए जाने से आगे बढ़ी नहीं, जबकि पॉकेटमारी और चोरी चकारी से शुरुआत कर के रंगदारी, गुंडागर्दी और बाहुबल के सहारे सिस्टम का हिस्सा बन जाने वाला दलित अरबपति होते हुए भी आज भूमिहीन और भूखे पेट सोने वाले गरीबों को दी जाने वाली सरकारी योजनाओं का न सिर्फ लाभ ले रहा है, बल्कि उन्हें जरूरतमंद तक पहुंचने भी नहीं दे रहा।  
कहने का मतलब ये है कि भारतीय लोकतांत्रिक सिस्टम में सिस्टम उसी का है, जो सिस्टम के करीब है या उससे जुड़े लोगों की चमचागिरी करता है। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति छोड़िए, आप अपने आस-पास नजर दौड़ाइए और बताइए कि आपकी जाति के मुखिया, सरपंच, विधायक या सांसद बन जाने से आपको कितना फायदा हुआ। सिवाय मूंछों पर ताव देते हुए आपके ये परिचय देने के कि आपका भाई-भतीजा मुखिया, सरपंच, विधायक या सांसद है। इज्जत का थोथा गाल बजाना अन्न विहिन थाली-पतीली की खनक की आवाज को कम नहीं करता। जिस भावी दलित राष्ट्रपति के नाम सुनकर तमाम दलित लोग कुलांचे मार रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि ये दलित उनके गांव उनके शहर के सबसे धनाढ्य साहूकार और जमींदार से लाख गुना बेहतर जिंदगी जीता है। चप्पल विहीन पैरों में बेवाई लिए जिस गरीब के कानों में खरीदे हुए भोंपुओं के जरिए ये आवाज भरी जा रही है कि सरकार उनकी हमदर्द है और उनकी जाति के आदमी को देश के सबसे बड़े पद पर बैठाने वाली है, उस गरीब को पता होना चाहिए कि उसकी जाति का ये आदमी उनके सपनों के 'धनिक' से लाख गुना ज्यादा धनिक है और इसके खाली पैर खाली जमीन पर नहीं कालीन पर उतरते हैं। ये दलित, मुस्लिम, महिला सियासत की शब्दावली के वे शब्द हैं, जिनसे सरकारें अपनी बेहयाई और बेवफाई के कवच-कुंडल के लिए इस्तेमाल करती हैं। बने थे एक और दलित राष्ट्रपति लेकिन उससे दलितों को क्या फायदा हुआ, ये कि उनके कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के मामले बढ़ते हुए 1,40,138 तक पहुंच गए थे। इनका भी राष्ट्रपति बनना सुनिश्चित है, लेकिन ये सोचना हास्यास्पद है कि एक दलित के राष्ट्रपति बन जाने से दलितों के दिन बहुरेंगे। कोविंद जी को उनकी जातिगत पहचान से इतर एक राजनेता और एक अच्छे इंसान के रूप में प्रचारित कर रायसीना की पहाड़ियों  का सरताज बनाया जाता, तो शायद ज्यादा सही था, क्योंकि इससे पहले तो मैं भी नहीं जानता था कि वे दलित हैं, और जानता भी कैसे उन्होंने तो उस समय भी मुंह नहीं खोला था जब ऊना में निर्दोष दलितों की चमड़ी उधेड़ दी गई थी... खैर, खुश रहने को गालिब ख्याल अच्छा है, वैसे भी हम हैप्पीनेस इंडेक्स में 'पाकिस्तान' से पीछे हैं...

गुरुवार, 1 जून 2017

इतना भी 'खत्तम' नहीं है बिहार

पिछले 24 से 29 मई तक मास्टर्स सेकेंड सेमेस्टर की परीक्षा थी। लोधी रोड के सेंट जॉन कान्वेंट में जहां हमारा एग्जाम सेंटर था उसी में किसी और कॉलेज का भी सेंटर था। एक दिन एग्जाम देते हुए पीछे बैठे एक भाई साहब ने यूआरएल का फुलफॉर्म पूछा, मैंने बता दिया। एग्जाम दे के निकला और अपनी बाइक की ओर बढ़ा, तो देखा वही भाई साहब बाइक पे बैठकर बीड़ी का धुआं उड़ा रहे हैं। मैं बोला भैया उतरेंगे, बाइक ले जाना है, तो उनका जवाब था- सब्र रख भाई, इत्ती धूप में कित्थे जाना। मुझे जल्दी निकलना था इसलिए उनके इत्थे कित्थे को इग्नोर मारते हुए निकल गया। अगले दिन एग्जाम देने जाते हुए जवाहरलाल नेहरू मेट्रो स्टेशन के सामने वही भाई साहब हाथ हिलाते दिख गए। सेंटर पर पहुंचते पहुंचते उन्होंने अपनी सियासी बाहुबल वाली हैसियत और शैक्षिक औकात की पूरी रामकहानी सुना दी। उस दिन तो मुझे लगा था कि उन्हें केवल यूआरएल का फुलफॉर्म नहीं पता होगा लेकिन वे तो प्रौडीकल साइंस और संगीत वाले बिहार टॉपर्स से बड़े खिलाड़ी निकले। बीसीए की परीक्षा दे रहे भाई साहब को बीसीए का फुलफॉर्म भी पता नहीं था। मैंने पूछा लिखते क्या हैं कॉपी में, तो जवाब था, मेरे ताऊ का साला विधायक है, कौन फेल करेगा मैंनू। अपनी शेखी बघारते हुए ये भी बता दिया कि 6 महीने पहले ही जेल से निकले हैं, वो भी लड़की छेड़ने के जुर्म में गए थे, वो भी 24 घण्टे में बेल मिल गई। गौरतलब है कि भाई साहब पंजाब के पटियाला के रहने वाले थे।
2013 में दिल्ली में ग्रेजुएशन में एडमिशन हुआ। क्लास के कुछ ही दिन बीते थे, सर ने एक दिन ऐसे ही क, ख, ग, घ सुनाने को कहा। 20-25 बच्चों में से केवल 3 को पता था। ये छोड़िए, आजकल बड़े शहरों के बच्चों के लिए हिंदी कठिन हो गई है। दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, बैंगलोर कहीं के राह चलते 10 कॉलेजिया बच्चों से पास्ट इम्परफेक्ट का सेंटेंस स्ट्रक्चर पूछिए, देखिए कितनों को आता है। ये भी छोड़िए, शाम के समय दिल्ली के सेंट्रल पार्क की तरफ जाइए, वहां आने वाले 10 युवक-युवतियों से 19 का पहाड़ा पूछिए, देखिए कितनों को आता है। ये सब छोड़िए, ऐसे ही लोगों से लोकसभा अध्यक्ष का नाम पूछिए... और हां, जवाब बताने वाले के राज्य का नाम भी लिखते जाइए। मैं दावे के साथ कह सकता हूं, दिल्ली आकर पढ़ने वाला एक एवरेज बिहारी इन सबके जवाब में बाकियों को पीछे छोड़ देगा। मैं मानता हूं कि बिहार में शिक्षा का स्तर बहुत गिरा है। इसके लिए आप सरकार को गरियाने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन एक दो निकम्मे लोगों के कारण, भ्रष्ट अधिकारियों के कारण पूरे बिहार की प्रतिभा पर तो प्रश्न चिन्ह मत लगाइए। 60-70 प्रतिशत बिहारी हिस्सेदारी वाला मीडिया जिस तरह से चटकारे ले लेकर टीवी स्क्रीन पर पूरे बिहार और बिहारवासियों के अनपढ़ गंवार होने का रेखाचित्र बना रहा है, उसे चाहिए कि अन्य राज्यों के बोर्ड रिजल्ट का भी इसी तरह से पोस्टमार्टम करे। खुद को मल्लिका-ए-न्यूज़ समझने वाली एंकर मोहतरमा को चाहिए कि वे पंजाब, एमपी, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्यों के स्कूलों में माइक और कैमरा लेकर जाएं और बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों का भी टेस्ट लें। सोशल मीडिया पर अपने पोस्ट से बिहार को 'खत्तम' बताने वाले लोगों को ये भी बताना चाहिए कि झारखंड के 66 स्कूलों के सारे बच्चे बोर्ड एग्जाम में फेल हो गए हैं। सिर्फ बिहार के रिजल्ट से भारतीय शिक्षा जगत का चेहरा देखने वाले इन देश के कर्णधारों को चाहिए कि वे गूगल से हरियाणा के बोर्ड एग्जाम में चीटिंग की वो तस्वीर निकालकर फेसबुक पर अपलोड करें, जिसमे बाकायदा सीढ़ी लगाकर चीटिंग कराई जा रही थी। अरे भाइयों, फर्जीवाड़े का भंडाफोड़ जरूरी है, प्रशासन की कुंभकर्णी नींद तोड़नी चाहिए, सुशासन का नकाब उतारना भी जरूरी है, लेकिन एक घुन के साथ पूरे गेंहू को पीसना कहां का न्याय है...

बुधवार, 10 मई 2017

एक शायर जो हमारी आवाज़ में अमर है...

'पेड़ को काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा…’

वर्तमान समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे को बहुत पहले शायरी में समेट कर जिस शायर ने समाज को सबक सिखाने का काम किया था उसकी मुहब्बत की पंक्तियां आज भी राह चलते लोगों को गुनगुनाते हुए सुनी जा सकती है... सामने वाले के चेहरे की बनावटी हंसी को देखकर आज भी अनायास ही यह गीत होठों पर आ जाता है कि
'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो...'

मिले या बिछड़े हुए, बिछड़ते बिछड़ते मिले हुए या मिलते मिलते बिछड़ चुके किसी हमसफ़र की याद इस 20वी सदी में भी 19वी सदी के इस गीत को ही अपना अपना गंतव्य बनाती है कि,
'चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था,
सरे राह चलते-चलते...
वहीं थम के रह गई है, मेरी रात ढलते-ढलते...'

आज आजादी की पहली जंग की सालगिरह है...जी हां, आज ही के दिन 1857 में फिरंगियों से भारत की आजादी की आवाज बुलंद हुई थी, जिसकी परिणति ने हमें स्वतंत्रता की आबो हवा में सांस लेने की सौगात दी. लेकिन जिन कुर्बानियों की बदौलत हमने स्वतंत्रता पाई उनके लिए नतमस्तक कर देता है उसी गीतकार का यह गीतः 
'कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों,
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...’

जिस लिखनी से मातृभूमि के दीवानों का देशवासियों के लिए यह पैग़ाम निकला उसी लेखनी से उन दीवानों के दिल की आवाज भी निकली है, जिनकी सार्थकता को आज भी लोग जीते हैंः 
'कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों हैं?
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं?
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं?
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं?'

शायरी को दीवानों के दिल से निकला प्रश्न बनाने वाले इस शायर की इन पंक्तियों से भी आप शायद ही अनभिज्ञ होंगे कि,
'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं...'

प्रवास हर समय में समाज की एक पीड़ा रही है और शायर, कवि, गीतकार की तत्कालीन समय में सार्थकता यही है कि वह उस समय के दुःखों, तकलीफों को आवाज दे. दूर रहकर अपनी जमीन को याद करने वालों की ख्वाहिश ये पंक्तियां बखूबी समेटे हुए हैं कि,
'वो कभी धूप कभी छांव लगे,
मुझे क्या-क्या न मेरा गांव लगे,
किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दांव लगे'

वक्त के हंसी सितम से खुद को और 'उनको' बदलने के भाव को बयां करने वाले उस महान शायर को अब तक आप पहचान ही गए होंगे, फिर भी मैं बता देता हूं. समाज, सियासत और मोहब्बत, तीनों को अपनी लेखनी से बयां करने वाले मशहूर शायर 'कैफ़ी आज़मी' की आज पुण्यतिथि है. उसी कैफ़ी आज़मी की, जिन्होंने हिंदी सीने जगत को 'शबाना आज़मी' जैसी अदाकारा दी और जो अपनी ही इन पंक्तियों को चरितार्थ कर गए कि
'इंसां की ख्वाहिशों की कोई इन्तहां नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद'
आज ही के दिन यानी 10 मई को आज से 7 साल पहले यह मशहूर शायर, कवि, और गीतकार यह गुनगुनाते हुए हमसे रुखसत हो गया कि,
'ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं...'
लेकिन अब भी...
'जरा-सी आहट होती है तो दिल सोचता है
कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं...'

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

कश्मीर को बुखार नहीं जख्म की दवा चाहिए

किसी जख्म के कारण अगर बुखार हो जाता है, तो डॉक्टर बुखार की बजाय जख्म ठीक करने की दवा देता है। जख्म ठीक होने के बाद बुखार खुद-ब-खुद ठीक हो जाता है। अफसोस कि दिल्ली में रायसीना की पहाड़ियों पर बैठने वाले हर किसी ने कश्मीर को हमेशा से डायरेक्ट बुखार की दवा दी है। किसी ने जख्मों को पूरी तरह से ठीक करने की कोशिश नहीं की। एक ने की थी, और ईमानदार कोशिश की थी, यही कारण भी है कि आज कश्मीरी भले ही दिल्ली को गाली देते हैं, लेकिन उनके घरों में अटल जी की तस्वीरें देखी जा सकती हैं।
दिल्ली की सल्तनत पर जब मोदी काबिज हुए और उन्होंने इंसानियत-जम्हूरियत-कश्मीरियत की बात कह कर कश्मीर के मामले में अटल जी की विरासत आगे बढ़ाने की बात कही, तब कश्मीरियों को भी लगा था कि अब उन्हें संगीनों के साए से आजादी मिलेगी और वे भी खुली हवा में सांस लेने वाले आम हिंदुस्तानी की तरह महसूस कर पाएंगे। लेकिन जब मोदी जी भी बम-बन्दूकों और जोर-जबरदस्ती से कश्मीर सुलझाने की नीति पर आगे बढ़े, तो कश्मीर को लेकर मोदी नीति अटल नीति से कोसों दूर हो गई। कश्मीर को लेकर मोदी नीति कुछ ऐसी ही है, जैसे कोई डॉक्टर जख्मों को कुरेद कुरेद कर ताजा बनाए रखता है और मरीज को बुखार की दवा देते रहता है। दिल्ली को अब समझना होगा कि कश्मीर का जख्म अब दर्द की उस सीमा को पार कर चुका है, जिसे और कुरेद कर 'सबक' सिखाया जा सके।
जीप की बोनट पर बंधे कश्मीरी युवा वाली तस्वीर में भले ही आपको कश्मीर में भारतीय सेना की विजय नीति नजर आए, लेकिन इन सब रणनीतियों से भारत हर दिन कश्मीर में हार रहा है। आप अगर कहते हैं कि भारतीय सेना कश्मीर में मजबूर है, तो मैं ये नहीं मान सकता। सेना वहां ताकतवर है लेकिन हमारी रणनीति गलत है। हमारी सरकार के फैसलों के कारण वीर सैनिक वहां आए दिन शहीद हो रहे हैं। हमारे गांवों में भी ये घटना आम है कि पुलिस कहीं छपेमारी करने या किसी की धर-पकड़ करने जाती है, तो कई बार उन्हें स्थानीय लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है। कई बार पुलिस वालों पर गांव वाले हमले भी करते हैं, पुलिस वाले घायल भी हो जाते हैं। लेकिन वहां पुलिस की हिम्मत नहीं होती कि दहशत फैलाने के लिए वो अगले दिन किसी को अपने जीप की बोनट पर बांध कर गांव में घूमा सके। लेकिन पुलिस कश्मीर में ऐसा कर सकती है, फिर कैसे आप ये आशा करते हैं कि कश्मीरी युवा टूरिज्म को चुनेंगे। आप यहां कह सकते हैं कि कश्मीर बिहार नहीं है, लेकिन कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा तो कहते हैं न, तो फिर व्यवहार रूप में इसे क्यों नहीं उतारते।
मेरा मानना है कि दबाव की रणनीति से कश्मीरी युवाओं में भारत के प्रति नफरत और बढ़ता जा रहा है। मैं कतई ये नहीं कहता कि पत्थर चलाने वालों को बख्श दिया जाय, उन्हें कठोर से कठोर सजा दी जाय। लेकिन साथ ही उन कारणों की पड़ताल कर उनके समाधान की कोशिशें भी जारी रहे, जो उन्हें हाथों में पत्थर उठाने पर मजबूर कर रहे हैं। ईवीएम ले जाते सैनिकों को मारने वालों को सजा में किसी भी तरह की रियायत नहीं होनी चाहिए, लेकिन साथ ही उन्हें उन जैसा बनाने की कोशिश की जाय, जो उसी वीडियो में सैनिकों को वहां से सुरक्षित निकालते नजर आ रहे हैं।
आपको इसके पीछे की रणनीति समझनी होगी कि एक लंबी चुप्पी के बाद, चुनाव के दौरान ही अब्दुल्ला बाप बेटे ने पत्थरबाजों के समर्थन में बयान क्यों दिया। उन्होंने चुनावी फायदे के लिए ऐसा बयान दिया, ताकि पत्थर चलाने वाले भी उनके पक्ष में वोट कर सकें। गौर करने वाली बात है कि जिसे पुलिस जीप की बोनट पर बांधा गया, वो भी वोट देकर ही आ रहा था।
मेरा मानना है कि अजित डोभाल एक सफल सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दे सकते हैं, पड़ोसी देश से सामरिक संबंधों पर रणनीति बना सकते हैं, लेकिन उनसे यह आशा रखना कि वे भारत के भाल कश्मीर को इस लोकतंत्र का मणि बना सकते हैं, ये मूर्खता है। क्योंकि अब पत्थर चलाने वालों पर पैलेट की बौछार करके कश्मीर नहीं सुलझाया जा सकता।

बुधवार, 1 मार्च 2017

मतलबी मुद्दों में बकरा बनते हम-आप

अगर आप भारत के हित में तटस्थ हो कर देखें, तो रोहित सरदाना जो प्रश्न उठाते हैं उसपर भी खून खौलता है और रवीश कुमार जो सवाल करते हैं, उसपर भी। शाजिया इल्मी को जामिया में न बोलने देना उतना ही निंदनीय है, जितना सिद्धार्थ वरदराजन को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भाषण न देने देना। वैसे जानना यह भी जरूरी है कि जामिया पिछले तीन साल से प्रधानमंत्री जी को अपने दीक्षांत समारोह में बुला रहा है, लेकिन वे नहीं जा रहे। हालांकि दिलचस्प ये है कि राष्ट्रवाद और देशद्रोह के नवसृजित बहस में कुछ ही मोहरे हैं, जो कभी सरदाना के स्टूडियो में होते हैं, तो कभी रवीश के। आमिर खान की पत्नी को जब देश की असहिष्णुता से डर लगा था, तब आमिर रवीश के प्राइम टाइम मैटेरियल थे और सरदाना अपने स्टूडियो से उन्हें पाकिस्तान का रास्ता दिखा रहे थे। लेकिन अपनी फिल्म के म्यूजिक राइट्स ज़ी को बेचने और फिल्म में भारत माता की जय के नारे लगवाने के बाद आमिर ज़ी के स्टूडियो में सुधीर चौधरी के साथ सेल्फी-सेल्फी खेल रहे थे। अवार्ड वापसी के समय जब मुनव्वर राणा ने कहा कि मेरी कलम की स्याही नहीं सूखी है, 'मैं अवार्ड वापस करूं, मैं लिख कर इंकलाब लाऊंगा' तो वे अवार्ड वापसी गैंग को आइना दिखाने हेतु सरदाना के लिए माध्यम थे लेकिन जब एक चैनल पर एंकर के तिलस्म में फंस कर उन्होंने अवार्ड वापसी की घोषणा कर दी, तब से वे विलेन बन गए और आज भी सरदाना उनसे सवाल कर रहे थे कि उन्होंने सोनिया गांधी पर कविता क्यों लिखी। जावेद अख्तर ने जब सदन में तीन बार भारत माता की जय के नारे लगाए, तब वे सरदाना के लिए सच्चे देशभक्त थे लेकिन आज जब एक पूर्व सफल खिलाड़ी के अमर्यादित व्यंग्य पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने ऐसे खिलाड़ियों को ज़ाहिल करार दिया तो वे उसी सरदाना के लिए देशद्रोही हो गए... मीडिया में काम करने वाले हज़ारों लोग आज नौकरी के नाम पर ग़ुलामी कर रहे हैं। बीते दिनों दिल्ली के एक चैनल ने ही अपने एक पत्रकार को इसलिए निकाल दिया क्योंकि वह एक दिन ऑफिस नहीं आया और इसलिए नहीं आया क्योंकि उसके पास किराया देने तक के पैसे नहीं थे। मीडिया के लिए यह मुद्दा नहीं है। देश के विश्वविद्यालयों में आज शिक्षा का स्तर और शैक्षिक माहौल एक बड़ी चुनौती है, लेकिन इसके लिए कोई छात्र संगठन या नेता आवाज़ नहीं उठाता। राजनीति करने वाले छात्र नेताओं में से अधिकतर किसान परिवारों से आते हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी अपने परिवार, अपने खेतों के लिए सियासत के दरवाजे पर उस धमक के साथ दस्तक नहीं दी, जैसा वे राष्ट्रवाद और देशद्रोह के नाम पर करते हैं। पिछले साल राष्ट्रीय स्तर पर उभरे एक छात्र नेता कन्हैया कुमार के पिता ने स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव और मुफलिसी के कारण दम तोड़ दिया, लेकिन इन आधारभूत जन जरूरतों के लिए कन्हैया के नेतृत्व में अब तक कोई आंदोलन नहीं हुआ। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में योगी आदित्यनाथ के प्रस्तावित कार्यक्रम का सफल विरोध कर चर्चा में आई वहां की छात्र संघ अध्यक्ष अभी कानपुर पश्चिम से सपा उम्मीदवार हैं... कहने का मतलब है कि सब अपना मतलब साध रहे हैं और इनके इन मतलबी मुद्दों में उलझ कर हम सब बकरा बन रहे हैं...


मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

बदरंग सियासी चेहरा और स्वतंत्रता की सार्थकता

श्री श्री 1008 श्री देशभक्त महोदय जी, व्यवस्था के विरोध को देशद्रोह नहीं कहते हैं और ना ही अभिव्यक्ति की आजादी को राष्ट्रवाद का हनन। सोशल मीडिया पर ज्ञान बघारने से पहले राष्ट्रवाद-राष्ट्रद्रोही और देशभक्त-देशविरोधी की असली परिभाषा पढ़ लीजिए। एक लड़की के उन्मुक्त विचारों से आपकी संप्रभुता हिल गई, लेकिन इस व्यवस्था की उस पुलिस पर प्रश्न आपको राष्ट्रद्रोह लगता है, जो बस्तर के जंगलों में आदिवासी महिलाओं के स्तन से दूध निकाल कर चाय पीती है। थोड़ा सोचिए उनके बारे में क्या वे आजाद हैं? छपरा में सांप्रदायिक माहौल बिगड़ने के बाद एक घण्टे के लिए इंटरनेट बंद होता है, तो लोग जिला पदाधिकारी को घेर के गरियाने लगते हैं, लेकिन कश्मीर का युवा साल के 365 में से 300 दिन बिना इंटरनेट के संगीनों के साए में गुजारता है। हम फिर भी गर्व से इन दोनों को अखंड भारत का अभिन्न हिस्सा कहते हैं, लेकिन क्या हमारी सरकार और हमारी व्यवस्था ने इन्हें 'आजाद भारतीय' बनाने पर कभी ध्यान दिया है?
कल यूपी में रैली करते हुए मोदी जी ने भारत की उस दयनीय दशा की ओर ध्यान दिलाया, जहाँ लोग आज भी मवेशियों के गोबर को सुखाकर उसमें से अन्न का दाना निकालकर भोजन करते हैं। यह सच है कि भारत की ये दशा कांग्रेसियों के लिए शर्म से डूब मरने की स्थिति है, लेकिन प्रधानमंत्री जी जिस जमीन पर खड़े होकर कांग्रेस के कुकर्मों का पाठ कर रहे थे, उस जमीन पर दो दिन पहले तक गेंहू की हरी फसल लहलहा रही थी, जिसे रैली के लिए काट दिया गया और कई किसानों को पैसे भी नहीं मिले। शर्मिंदगी की हद देखिए कि एक तरफ जहां, किसान उन बर्बाद फसलों के लिए तो रहे थे वहीं स्थानीय भाजपा उम्मीदवार सीना तान के बोल रहे थे कि इस देश का किसान प्रधानमंत्री जी से बेहद मोहब्बत करता है और उनके लिए ख़ुशी ख़ुशी अपनी फसल कुर्बान का सकता है। वाह रे सियासत और वाह रे सियासतदां। बात भाजपा या मोदी विरोध की नहीं है, बात है उस व्यवस्था और उस सियासी मानसिकता के विरोध की जो लटीयन की दिल्ली को पूरे देश की हकीकत समझ लेता है और इस सोशल मीडिया के जमाने में जिसके भाड़े के टट्टू सवाल उठाने वाले को देशद्रोही करार देते हैं। मैं ना तो वामपंथ का पैरोकार हूँ और ना ही फर्जी राष्ट्रवादी गैंग का सदस्य, लेकिन मुद्दा आधारित राजनीति के सार्थक विरासत वाली भारतीय सियासत की धारणाओं में कैद होकर कठपुतली बनते देखना दुखद है। आजाद भारत में अभिव्यक्ति की आजादी और छात्र राजनीति का एक सार्थक इतिहास रहा है, लेकिन हाल के दिनों में इन दोनों की आड़ में जिस तरह से सियासी रोटियां सेंकी जा रही है, उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता।

मंगलवार, 31 जनवरी 2017

बचपन वाली सरस्वती पूजा

ऐसे तो उससे पहले वाले साल हमने 'फोटो' पर पूजा किया था, हालांकि पंडाल तब भी बना था, वह भी बाजाब्ता बांस का, चमकीली साड़ियों से सजा के। लेकिन उस साल उमंग उत्साह और जिम्मेदारी कुछ ज्यादा इसलिए थी क्योंकि हम पहली बार मूर्ति रख के पूजा करने जा रहे थे। किसी भी तरह जतन प्रयास कर के लगभग 600 रुपए इकट्ठा हुए थे। तब हमारे लिए यह एक बड़ी रकम थी, खजांची मैं ही था, वह भी एक जिम्मेदार खजांची। इसलिए लगभग हर एक घण्टे में जब तक डिब्बा खोल के पूरा पैसा गिन न लेता, चैन नहीं मिलता। हालांकि खजांची की वह जिम्मेदारी बड़े प्रयासों के बाद मिली थी। तब का नियम यही कहता था कि जो पूजा पर बैठेगा वह पैसा नहीं रखेगा। यानी जिम्मेदारी बराबर-बराबर। लेकिन इसके लिए सबके बीच कई स्तरों पर समझौता हुआ, फिर जिम्मेदारियों का निर्धारण।
खैर, पैसे इकट्ठा होने से पहले ही मूर्ति का बयाना हो चुका था। कुल 225 रुपए की माँ सरस्वती की मूर्ति के लिए शायद हमने 35-45 रुपए का एडवांस दिया था। खुद्दारी और आत्मविश्वास की वैसी मिसाल खुद में दोबारा शायद ही कभी देखने को मिली। उस समय 225 रुपए की उस मूर्ति का वजन भी हम जैसों के लिए बहुत भारी था। लेकिन फिर भी हम बड़ों की सहायता ठुकरा कर, मेरी 20 नंबर वाली साइकिल पर मूर्ति लाने के विश्वास से सिकटा के लिए निकल पड़े। मूर्ति के कारीगर को पैसा भुगतान करने के बाद साइकल के 'किलियर' पर मूर्ति रख के आगे बढ़े। उस समय हम चार लोगों में सबसे 'बलवान' दिब्यप्रकाश जी स्टेयरिंग संभाले हुए थे। लेकिन कुछ ही दूर चलने के बाद अहसास हुआ कि साइकल पर मूर्ति ले जाने की यह कोशिश कलश स्थापना से पहले ही विसर्जन करा देगी। फिर सचिन जी किसी हृष्ट पुष्ट आदमी की खोज में निकले, जो किसी तरह से रेलवे लाइन पार करा दे। फिर गांव के एक अन्य आदमी की सहायता से माँ सरस्वती सकुशल रेलवे लाइन पार कर टांगा वाले के पास पहुंचीं। फिर उसके बाद टांगा पर मूर्ति रखकर हम घर पहूंचे। तब गांव में बिजली थी नहीं, तो बल्ब जलाने और स्पीकर बजाने के लिए हमने घर में टीवी चलाने वाली बैट्री के अलावा भाड़े की बैट्री की भी व्यवस्था की थी। इलेक्ट्रॉनिक विभाग बखूबी संभाला था नीरज जी ने। खुरमा और गाजर, कोन, बैर सहित मौसमी फलों वाले प्रसाद के साथ, सकुशल मूर्ति लाकर भव्य पंडाल में अच्छी तरह से पूजा संपन्न करने के हम जैसे 'छोटे बच्चों' के कारनामों की खूब प्रशंसा भी हुई। हालांकि विसर्जन के समय हमने बड़े लोगों का सहारा लिया था।
उसके अगले साल भी हमने मूर्ति लाकर पूजा की। लेकिन इस साल हमने साइकल वाला रिस्क नहीं लिया और माँ सरस्वती टायर (बॉलगाड़ी) से आईं। इस साल बजट कुछ ज्यादा था। आजकल जैसे अलग अलग चैनल अपने चुनाव पूर्व सर्वे पर चर्चा के लिए पहले से ही पार्टी प्रवक्ताओं और विशेषज्ञों को बुक कर लेते हैं, वैसा ही कुछ पूजा के समय पंडित जी लोगों की बुकिंग होती है। हमारे पुरोहित महाशय को पूजा के समय कोई और बुला ले गए, अपना पूजा करवाने। फिर हमें एक 'कामचलाऊ' पंडित जी का सहारा लेना पड़ा। हालांकि सुबह विसर्जन के समय हमारे पुरोहित जी पधारे और जाते हुए सब समेट गए, उस पंडित जी के लिए कुछ नहीं छोड़ा जो सुबह में पूजा कराए थे। अब भी जब कभी वे सुबह वाले पंडित जी मिलते हैं, तो कहते हैं- 'रे हमार दछिनवा (दक्षिणा) ना नु देहलs सन।' वैसे उस साल हमने लाउडस्पीकर का भी बंदोबस्त किया था और उस पर केवल और केवल भजन और आरती बजा, एक भी फ़िल्मी और तड़क-भड़क वाला गीत नहीं। शाम में हमने गांव की कीर्तन मंडली से कीर्तन भी कराया। मतलब कुल मिलाकर पूजा विशुद्ध रूप से सात्विक रही। वैसे, उस साल भी विसर्जन के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ा, हम पानी में नहीं उतरे।
उसके बाद सिकटा मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए भी एक साल स्कूल की पूजा में व्यवस्था और प्रबंधन संभालने का मौका मिला था। तब तो हम माँ सरस्वती की मूर्ति के लिए नरकटियागंज तक गए थे। वह मेरी पहली नरकटियागंज यात्रा थी, वह भी ट्रेन से। जाते हुए सबने कहा था, अरे टिकट क्या होगा 'अपना इलाका' है सब। बस, हम भी सवार हो गए ट्रेन में। नरकटियागंज स्टेशन पहुंचने से पहले ही सिग्नल पर किसी ने शोर मचा दिया, मजिस्ट्रेट चेकिंग हो रही है। फिर सब चलती ट्रेन से कूद कर फरार हुए। हालांकि उस डर का अहसास, उसके बाद बस में भी बिना टिकट यात्रा नहीं करने देता है। खैर, स्कूल की वह पूजा भी स्मरणीय रही। मन है, फिर से एक बार गांव के उस सरस्वती पूजा को जीने का, जिसमे ना कोई आडंबर था, ना बेहतर होने की होड़... माँ सरस्वती से मांग भी मासूमियत भरी। एक वो सरस्वती पूजा थी, जब माँ सरस्वती के सामने जमीन पर सर रखकर सोचा करते थे कि क्या मांगे माँ से, और एक आज है कि ऑफिस के लिए निकलने की जल्दी में बंद आंखे और जुड़े हाथ 'या कुन्देन्दुत सार हार धवला... के जाप और जय माँ सरस्वती' से आगे कुछ सोच ही नहीं पाए...