ऐसे तो उससे पहले वाले साल हमने 'फोटो' पर पूजा किया था, हालांकि पंडाल तब
भी बना था, वह भी बाजाब्ता बांस का, चमकीली साड़ियों से सजा के। लेकिन उस
साल उमंग उत्साह और जिम्मेदारी कुछ ज्यादा इसलिए थी क्योंकि हम पहली बार
मूर्ति रख के पूजा करने जा रहे थे। किसी भी तरह जतन प्रयास कर के लगभग 600
रुपए इकट्ठा हुए थे। तब हमारे लिए यह एक बड़ी रकम थी, खजांची मैं ही था, वह
भी एक जिम्मेदार खजांची। इसलिए लगभग हर एक घण्टे में जब तक डिब्बा खोल के
पूरा पैसा गिन न लेता, चैन नहीं मिलता। हालांकि खजांची की वह जिम्मेदारी
बड़े प्रयासों के बाद मिली थी। तब का नियम यही कहता था कि जो पूजा पर बैठेगा
वह पैसा नहीं रखेगा। यानी जिम्मेदारी बराबर-बराबर। लेकिन इसके लिए सबके
बीच कई स्तरों पर समझौता हुआ, फिर जिम्मेदारियों का निर्धारण।
खैर, पैसे इकट्ठा होने से पहले ही मूर्ति का बयाना हो चुका था। कुल 225 रुपए की माँ सरस्वती की मूर्ति के लिए शायद हमने 35-45 रुपए का एडवांस दिया था। खुद्दारी और आत्मविश्वास की वैसी मिसाल खुद में दोबारा शायद ही कभी देखने को मिली। उस समय 225 रुपए की उस मूर्ति का वजन भी हम जैसों के लिए बहुत भारी था। लेकिन फिर भी हम बड़ों की सहायता ठुकरा कर, मेरी 20 नंबर वाली साइकिल पर मूर्ति लाने के विश्वास से सिकटा के लिए निकल पड़े। मूर्ति के कारीगर को पैसा भुगतान करने के बाद साइकल के 'किलियर' पर मूर्ति रख के आगे बढ़े। उस समय हम चार लोगों में सबसे 'बलवान' दिब्यप्रकाश जी स्टेयरिंग संभाले हुए थे। लेकिन कुछ ही दूर चलने के बाद अहसास हुआ कि साइकल पर मूर्ति ले जाने की यह कोशिश कलश स्थापना से पहले ही विसर्जन करा देगी। फिर सचिन जी किसी हृष्ट पुष्ट आदमी की खोज में निकले, जो किसी तरह से रेलवे लाइन पार करा दे। फिर गांव के एक अन्य आदमी की सहायता से माँ सरस्वती सकुशल रेलवे लाइन पार कर टांगा वाले के पास पहुंचीं। फिर उसके बाद टांगा पर मूर्ति रखकर हम घर पहूंचे। तब गांव में बिजली थी नहीं, तो बल्ब जलाने और स्पीकर बजाने के लिए हमने घर में टीवी चलाने वाली बैट्री के अलावा भाड़े की बैट्री की भी व्यवस्था की थी। इलेक्ट्रॉनिक विभाग बखूबी संभाला था नीरज जी ने। खुरमा और गाजर, कोन, बैर सहित मौसमी फलों वाले प्रसाद के साथ, सकुशल मूर्ति लाकर भव्य पंडाल में अच्छी तरह से पूजा संपन्न करने के हम जैसे 'छोटे बच्चों' के कारनामों की खूब प्रशंसा भी हुई। हालांकि विसर्जन के समय हमने बड़े लोगों का सहारा लिया था।
उसके अगले साल भी हमने मूर्ति लाकर पूजा की। लेकिन इस साल हमने साइकल वाला रिस्क नहीं लिया और माँ सरस्वती टायर (बॉलगाड़ी) से आईं। इस साल बजट कुछ ज्यादा था। आजकल जैसे अलग अलग चैनल अपने चुनाव पूर्व सर्वे पर चर्चा के लिए पहले से ही पार्टी प्रवक्ताओं और विशेषज्ञों को बुक कर लेते हैं, वैसा ही कुछ पूजा के समय पंडित जी लोगों की बुकिंग होती है। हमारे पुरोहित महाशय को पूजा के समय कोई और बुला ले गए, अपना पूजा करवाने। फिर हमें एक 'कामचलाऊ' पंडित जी का सहारा लेना पड़ा। हालांकि सुबह विसर्जन के समय हमारे पुरोहित जी पधारे और जाते हुए सब समेट गए, उस पंडित जी के लिए कुछ नहीं छोड़ा जो सुबह में पूजा कराए थे। अब भी जब कभी वे सुबह वाले पंडित जी मिलते हैं, तो कहते हैं- 'रे हमार दछिनवा (दक्षिणा) ना नु देहलs सन।' वैसे उस साल हमने लाउडस्पीकर का भी बंदोबस्त किया था और उस पर केवल और केवल भजन और आरती बजा, एक भी फ़िल्मी और तड़क-भड़क वाला गीत नहीं। शाम में हमने गांव की कीर्तन मंडली से कीर्तन भी कराया। मतलब कुल मिलाकर पूजा विशुद्ध रूप से सात्विक रही। वैसे, उस साल भी विसर्जन के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ा, हम पानी में नहीं उतरे।
उसके बाद सिकटा मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए भी एक साल स्कूल की पूजा में व्यवस्था और प्रबंधन संभालने का मौका मिला था। तब तो हम माँ सरस्वती की मूर्ति के लिए नरकटियागंज तक गए थे। वह मेरी पहली नरकटियागंज यात्रा थी, वह भी ट्रेन से। जाते हुए सबने कहा था, अरे टिकट क्या होगा 'अपना इलाका' है सब। बस, हम भी सवार हो गए ट्रेन में। नरकटियागंज स्टेशन पहुंचने से पहले ही सिग्नल पर किसी ने शोर मचा दिया, मजिस्ट्रेट चेकिंग हो रही है। फिर सब चलती ट्रेन से कूद कर फरार हुए। हालांकि उस डर का अहसास, उसके बाद बस में भी बिना टिकट यात्रा नहीं करने देता है। खैर, स्कूल की वह पूजा भी स्मरणीय रही। मन है, फिर से एक बार गांव के उस सरस्वती पूजा को जीने का, जिसमे ना कोई आडंबर था, ना बेहतर होने की होड़... माँ सरस्वती से मांग भी मासूमियत भरी। एक वो सरस्वती पूजा थी, जब माँ सरस्वती के सामने जमीन पर सर रखकर सोचा करते थे कि क्या मांगे माँ से, और एक आज है कि ऑफिस के लिए निकलने की जल्दी में बंद आंखे और जुड़े हाथ 'या कुन्देन्दुत सार हार धवला... के जाप और जय माँ सरस्वती' से आगे कुछ सोच ही नहीं पाए...
खैर, पैसे इकट्ठा होने से पहले ही मूर्ति का बयाना हो चुका था। कुल 225 रुपए की माँ सरस्वती की मूर्ति के लिए शायद हमने 35-45 रुपए का एडवांस दिया था। खुद्दारी और आत्मविश्वास की वैसी मिसाल खुद में दोबारा शायद ही कभी देखने को मिली। उस समय 225 रुपए की उस मूर्ति का वजन भी हम जैसों के लिए बहुत भारी था। लेकिन फिर भी हम बड़ों की सहायता ठुकरा कर, मेरी 20 नंबर वाली साइकिल पर मूर्ति लाने के विश्वास से सिकटा के लिए निकल पड़े। मूर्ति के कारीगर को पैसा भुगतान करने के बाद साइकल के 'किलियर' पर मूर्ति रख के आगे बढ़े। उस समय हम चार लोगों में सबसे 'बलवान' दिब्यप्रकाश जी स्टेयरिंग संभाले हुए थे। लेकिन कुछ ही दूर चलने के बाद अहसास हुआ कि साइकल पर मूर्ति ले जाने की यह कोशिश कलश स्थापना से पहले ही विसर्जन करा देगी। फिर सचिन जी किसी हृष्ट पुष्ट आदमी की खोज में निकले, जो किसी तरह से रेलवे लाइन पार करा दे। फिर गांव के एक अन्य आदमी की सहायता से माँ सरस्वती सकुशल रेलवे लाइन पार कर टांगा वाले के पास पहुंचीं। फिर उसके बाद टांगा पर मूर्ति रखकर हम घर पहूंचे। तब गांव में बिजली थी नहीं, तो बल्ब जलाने और स्पीकर बजाने के लिए हमने घर में टीवी चलाने वाली बैट्री के अलावा भाड़े की बैट्री की भी व्यवस्था की थी। इलेक्ट्रॉनिक विभाग बखूबी संभाला था नीरज जी ने। खुरमा और गाजर, कोन, बैर सहित मौसमी फलों वाले प्रसाद के साथ, सकुशल मूर्ति लाकर भव्य पंडाल में अच्छी तरह से पूजा संपन्न करने के हम जैसे 'छोटे बच्चों' के कारनामों की खूब प्रशंसा भी हुई। हालांकि विसर्जन के समय हमने बड़े लोगों का सहारा लिया था।
उसके अगले साल भी हमने मूर्ति लाकर पूजा की। लेकिन इस साल हमने साइकल वाला रिस्क नहीं लिया और माँ सरस्वती टायर (बॉलगाड़ी) से आईं। इस साल बजट कुछ ज्यादा था। आजकल जैसे अलग अलग चैनल अपने चुनाव पूर्व सर्वे पर चर्चा के लिए पहले से ही पार्टी प्रवक्ताओं और विशेषज्ञों को बुक कर लेते हैं, वैसा ही कुछ पूजा के समय पंडित जी लोगों की बुकिंग होती है। हमारे पुरोहित महाशय को पूजा के समय कोई और बुला ले गए, अपना पूजा करवाने। फिर हमें एक 'कामचलाऊ' पंडित जी का सहारा लेना पड़ा। हालांकि सुबह विसर्जन के समय हमारे पुरोहित जी पधारे और जाते हुए सब समेट गए, उस पंडित जी के लिए कुछ नहीं छोड़ा जो सुबह में पूजा कराए थे। अब भी जब कभी वे सुबह वाले पंडित जी मिलते हैं, तो कहते हैं- 'रे हमार दछिनवा (दक्षिणा) ना नु देहलs सन।' वैसे उस साल हमने लाउडस्पीकर का भी बंदोबस्त किया था और उस पर केवल और केवल भजन और आरती बजा, एक भी फ़िल्मी और तड़क-भड़क वाला गीत नहीं। शाम में हमने गांव की कीर्तन मंडली से कीर्तन भी कराया। मतलब कुल मिलाकर पूजा विशुद्ध रूप से सात्विक रही। वैसे, उस साल भी विसर्जन के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ा, हम पानी में नहीं उतरे।
उसके बाद सिकटा मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए भी एक साल स्कूल की पूजा में व्यवस्था और प्रबंधन संभालने का मौका मिला था। तब तो हम माँ सरस्वती की मूर्ति के लिए नरकटियागंज तक गए थे। वह मेरी पहली नरकटियागंज यात्रा थी, वह भी ट्रेन से। जाते हुए सबने कहा था, अरे टिकट क्या होगा 'अपना इलाका' है सब। बस, हम भी सवार हो गए ट्रेन में। नरकटियागंज स्टेशन पहुंचने से पहले ही सिग्नल पर किसी ने शोर मचा दिया, मजिस्ट्रेट चेकिंग हो रही है। फिर सब चलती ट्रेन से कूद कर फरार हुए। हालांकि उस डर का अहसास, उसके बाद बस में भी बिना टिकट यात्रा नहीं करने देता है। खैर, स्कूल की वह पूजा भी स्मरणीय रही। मन है, फिर से एक बार गांव के उस सरस्वती पूजा को जीने का, जिसमे ना कोई आडंबर था, ना बेहतर होने की होड़... माँ सरस्वती से मांग भी मासूमियत भरी। एक वो सरस्वती पूजा थी, जब माँ सरस्वती के सामने जमीन पर सर रखकर सोचा करते थे कि क्या मांगे माँ से, और एक आज है कि ऑफिस के लिए निकलने की जल्दी में बंद आंखे और जुड़े हाथ 'या कुन्देन्दुत सार हार धवला... के जाप और जय माँ सरस्वती' से आगे कुछ सोच ही नहीं पाए...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें