मंगलवार, 20 जून 2017

सियासी कवच-कुंडल हैं, दलित-महिला-मुस्लिम

मेरे एक जानने वाले हैं, दलित हैं। पहले गंवई गुंडागर्दी करते थे, फिर प्रखंड स्तर के नामचीन बदमाश हुए, फिर विधायक की जीत के अहम 'कारण' बने, फिर फॉर्च्यूनर पर घूमने लगे। स्थानीय पंचायत में प्रधान का पद आरक्षित हुआ और उनकी पत्नी प्रधान बन गईं। नालायक बेटा बाप के 'पुण्य प्रताप' से ठेकेदार बन गया। दूसरा बेटा 'कॉलेज जाता था', कुछ आरक्षण और कुछ बाप के बाहुबल से स्टेट पीसीएस पास कर गया। बचपन में बगल वालों के घर से चोरी करने पर रड से दागा जाने वाला ये आदमी आज अरबों की संपत्ति का मालिक है और इन्हें अपनी कॉपी दिखाकर परीक्षा-दर-परीक्षा पास कराने वाले इन्हीं की जाति के दोस्त का बेटा आज इनके रहमोकरम पर पल रहा है और इनके ठेकेदार बेटे की ब्रेज़ा का ड्राइवर है। दोनों का घर पास में ही है, लेकिन 40 साल पहले जहां आस-पास दो घास-फूस की झोपड़ी थीं, उनमे से एक की हालत थोड़ी बेहतर हुई है और वहां इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत बना दो कमरे का घर है, जबकि दूसरे की जगह एक आलिशान बंगले ने ले ली है। हां, इस बीच स्थानीय स्तर से लेकर जिला, राज्य और दिल्ली तक कई दलित समर्थक और पिछड़ों गरीबों के मसीहा उन जिम्मेदार पदों पर बैठे, जिनका कर्तव्य था कि वे उस दलित की दशा भी सुधारें, जो पढ़ने में भी कुछ ठीक था और मेहनती भी। लेकिन बात उसे मनरेगा का झुनझुना थमाए जाने से आगे बढ़ी नहीं, जबकि पॉकेटमारी और चोरी चकारी से शुरुआत कर के रंगदारी, गुंडागर्दी और बाहुबल के सहारे सिस्टम का हिस्सा बन जाने वाला दलित अरबपति होते हुए भी आज भूमिहीन और भूखे पेट सोने वाले गरीबों को दी जाने वाली सरकारी योजनाओं का न सिर्फ लाभ ले रहा है, बल्कि उन्हें जरूरतमंद तक पहुंचने भी नहीं दे रहा।  
कहने का मतलब ये है कि भारतीय लोकतांत्रिक सिस्टम में सिस्टम उसी का है, जो सिस्टम के करीब है या उससे जुड़े लोगों की चमचागिरी करता है। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति छोड़िए, आप अपने आस-पास नजर दौड़ाइए और बताइए कि आपकी जाति के मुखिया, सरपंच, विधायक या सांसद बन जाने से आपको कितना फायदा हुआ। सिवाय मूंछों पर ताव देते हुए आपके ये परिचय देने के कि आपका भाई-भतीजा मुखिया, सरपंच, विधायक या सांसद है। इज्जत का थोथा गाल बजाना अन्न विहिन थाली-पतीली की खनक की आवाज को कम नहीं करता। जिस भावी दलित राष्ट्रपति के नाम सुनकर तमाम दलित लोग कुलांचे मार रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि ये दलित उनके गांव उनके शहर के सबसे धनाढ्य साहूकार और जमींदार से लाख गुना बेहतर जिंदगी जीता है। चप्पल विहीन पैरों में बेवाई लिए जिस गरीब के कानों में खरीदे हुए भोंपुओं के जरिए ये आवाज भरी जा रही है कि सरकार उनकी हमदर्द है और उनकी जाति के आदमी को देश के सबसे बड़े पद पर बैठाने वाली है, उस गरीब को पता होना चाहिए कि उसकी जाति का ये आदमी उनके सपनों के 'धनिक' से लाख गुना ज्यादा धनिक है और इसके खाली पैर खाली जमीन पर नहीं कालीन पर उतरते हैं। ये दलित, मुस्लिम, महिला सियासत की शब्दावली के वे शब्द हैं, जिनसे सरकारें अपनी बेहयाई और बेवफाई के कवच-कुंडल के लिए इस्तेमाल करती हैं। बने थे एक और दलित राष्ट्रपति लेकिन उससे दलितों को क्या फायदा हुआ, ये कि उनके कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के मामले बढ़ते हुए 1,40,138 तक पहुंच गए थे। इनका भी राष्ट्रपति बनना सुनिश्चित है, लेकिन ये सोचना हास्यास्पद है कि एक दलित के राष्ट्रपति बन जाने से दलितों के दिन बहुरेंगे। कोविंद जी को उनकी जातिगत पहचान से इतर एक राजनेता और एक अच्छे इंसान के रूप में प्रचारित कर रायसीना की पहाड़ियों  का सरताज बनाया जाता, तो शायद ज्यादा सही था, क्योंकि इससे पहले तो मैं भी नहीं जानता था कि वे दलित हैं, और जानता भी कैसे उन्होंने तो उस समय भी मुंह नहीं खोला था जब ऊना में निर्दोष दलितों की चमड़ी उधेड़ दी गई थी... खैर, खुश रहने को गालिब ख्याल अच्छा है, वैसे भी हम हैप्पीनेस इंडेक्स में 'पाकिस्तान' से पीछे हैं...

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