शुक्रवार, 23 जून 2017

23 जून... 1953 से 2017...

वो भी 23 जून ही था जब कश्मीर को सच्चे अर्थों में अखंड भारत का हिस्सा बनाने के लिए संघर्षरत एक 'भारतीय' को सियासी षड्यंत्र के चंगुल में फंसकर शहादत को प्राप्त होना पड़ा था... और ये भी 23 जून ही है, जब एक भारतीय को 'कश्मीरियत-जम्हूरियत-इंसानियत' बचाने की कोशिश में जान से हाथ धोना पड़ा... परिस्थितियों से इतर अंतर सिर्फ इतना है कि वो 1953 था और ये 2017 है... 64 साल बीत गए, रावी में कितना पानी बह गया लेकिन आज भी हर दिन अपनी धारा में खून के छींटे देखती रावी सवाल करती महसूस की जा सकती है कि वो शख्स लौटा क्यों नहीं, जो मेरे बहाव को रक्त रहित करने के मंसूबे से आया था... क्या इसमें षड्यंत्र की बू नहीं आती कि देश के एक तत्कालीन बड़े नेता को राजधानी से कोसो दूर एक वीरान घर में कैद कर दिया जाय और जब उसकी तबियत खराब हो तो एम्बुलेंस की बजाय ऑटो से हॉस्पिटल पहुंचाया जाए, वो भी घण्टों देरी से और हॉस्पिटल पहुंचा कर भी इमरजेंसी वार्ड की जगह उसे प्रसूति वार्ड में भर्ती कराया जाय... 23 जून 1953 की वो घटना आज 23 जून 2017 को एक तरह से फिर दोहराई गई है... आज फिर कश्मीरियत को हिंदुस्तानियत से दूर रखने वाले अपने नापाक मंसूबों में कामयाब हुए हैं और फिर आज वैसी ही चुप्पी है जैसी 64 वर्षों पहले थी... वो 23 जून इस 23 जून को फिर से जिंदा नहीं हुआ होता, एक निर्दोष आज यूं बेमौत नहीं मरता, आज कश्मीरियत यूं नहीं कराहती अगर इस सवाल का जवाब मिल गया होता कि डॉ मुखर्जी क्यों मरे... जी हां, मैं बात कर रहा हूं श्यामा प्रसाद मुखर्जी की, जिन्होंने सपना देखा था 'एक निशान-एक प्रधान-एक विधान का' और उसी सपने को सच होते देखने की कोशिश में हमेशा के लिए सो गए... पर अफसोस उनके सपने को अपनी सियासी स्वार्थसिद्धि का साधन बनाने वालों ने ठीक से उनकी मौत का मातम भी नहीं मनाया... 'बदला' शब्द भले ही हमारी गांधीवादी अहिंसक मनोवृति की डिक्शनरी में नहीं है, लेकिन अगर हमारी निजता और हमारी संप्रभुता पर प्रहार होता है, तो ये जरूरी हो जाता है कि हम अपने सियासी शब्दकोष में कुछ संशोधन करें... जिस नेहरू ने कश्मीर जाकर भी वहां जेल में बंद डॉ मुखर्जी से मिलना उचित नहीं समझा और उनकी मृत्यु के बाद जांच की मांग को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि ये स्वाभाविक मौत थी और उसमे कोई रहस्य नहीं है, उस नेहरू की कांग्रेस से तो हम कोई उम्मीद ही नहीं कर सकते... लेकिन दुःख होता है, जब मुखर्जी द्वारा उनके खून से से सींचे हुए पौधे से निकली शाखा पर बैठे नेता आज अपनी धुन में बांसुरी बजा रहे हैं, किसी को उस मां की करुण वेदना याद भी नहीं कि 'मैं अपने प्रिय बेटे की मौत पर आंसू नहीं बहाऊंगी, मैं चाहती हूं कि लोग खुद निर्णय करें कि इस त्रासदी के पीछे क्या वास्तविक कारण थे और स्वतंत्र भारत की सरकार के द्वारा क्या भूमिका अदा की गई?' कश्मीर सियायत की असफलता पर विपक्षी प्रहार से बचने का भाजपा के पास सिर्फ एक कवच-कुंडल है, और वो है- 'जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है...' भाजपा नेता हर मौके पर ढोल-नगाड़े के साथ निर्लज्जता से इस नारे का उद्घोष करते हैं, लेकिन कोई ये जानने की जहमत नहीं उठाता कि भाजपाई शासनकाल में भाजपा ने अपने 'पितामह' के बलिदान के3 षड्यंत्रों से पर्दा हटाने के लिए क्या किया... क्या अदद एक जांच कमिटी भी गठित की... आज अपनी 64वीं पुण्यतिथि पर उसी कश्मीर में एक पुलिसवाले को भीड़ द्वारा मारते देखकर क्या डॉ मुखर्जी की आत्मा आंसू नहीं बहा रही होगी, जिस कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों जैसा देखने की कोशिश में उन्होंने जान गंवा दी... डॉ मुखर्जी की शहादत अगर जाया नहीं गई होती, तो आज मोहम्मद अयूब पंडित की जंदगी यूं खत्म नहीं होती...

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