शनिवार, 16 दिसंबर 2017

भंवर में फंसी सियासी नैया के नए खेवैया

विरासत में मिली हर चीज हर किसी को अच्छी नहीं लगती खासकर राजनीति, वह भी तब, जब परिवार मूल रूप से सियासी हो और नई पीढ़ी आधुनिकता की गोद में चिपक कर बैठी हो। लेकिन राजनीति से दूराव की इस व्यक्तिगत मज़बूरी के बाद बावजूद अपने परिवार और पार्टी के लिए कोई निजी नापसंदगी को गौण कर दे और सियासत की बारीकियां सीखते हुए राजनेता बनने की राह पर चलने को तैयार हो जाए, तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। कुछ कड़वे अनुभव या प्रशंसक और सियासी नजरिए से शायद हमें कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सुखद लगे, लेकिन एक भारतीय के नाते इस सबसे पुरानी पार्टी को खत्म होते देखना दुखद है। बहरहाल, राजनीतिक और कूटनीतिक चालबाजी से दूर सीधे साधे राहुल गांधी पर बीते कुछ सालों में जिस तरह से सियासी रंग चढ़ा है वह इस भारतीय लोकतंत्र के लिए सुखद है, जहां विपक्ष की एक महती भूमिका होती है। इस सच को भले ही इस दुर्भाग्य के साथ स्वीकार करना पड़े कि राहुल गांधी परिवारवाद की देन हैं लेकिन स्वीकार तो करना पड़ेगा, क्योंकि इस हमाम में सब नंगे हैं। सियासत बदलने का दावा करने वाली भाजपा भी इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेर नहीं सकती क्योंकि न सिर्फ उसके अपने सहयोगी दल 'युवराजों' के हाथों में हैं, बल्कि खुद भाजपा में भी परिवारवाद फल-फूल रहा है। इस मुद्दे पर भाजपा का दोतरफा रवैया हाल की एक घटना से परिलक्षित होता है। 4 दिसम्बर को राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष पद के लिए नॉमिनेशन करने के बाद जब भाजपा का पूरा कुनबा कांग्रेस को कोस रहा था, उससे ठीक एक दिन पहले महबूबा मुफ्ती लगातार छठी बार पीडीपी की अध्यक्ष चुनी गईं और भाजपा के एक बड़े नेता ने बेहद सरगर्मी के साथ उन्हें बधाई दिया। वहां पर भाजपा के लिए वंशवाद का मुद्दा गौण हो गया। इस बात में कोई संदेह नहीं कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के पीछे का एकमात्र कारण यही है कि वे नेहरू-गांधी परिवार के वारिस हैं। लेकिन इस आधार पर हम उन्हें तब तक ख़ारिज नहीं कर सकते, जब तक हमारे सामने वंशवाद और परिवारवाद मुक्त पार्टी का विकल्प मौजूद नहीं होता।

11 दिसम्बर को जिस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के रिटर्निंग अफसर मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने यह ऐलान किया कि राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए हैं, उस वक्त राहुल गुजरात के बनासकांटा में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे। उस रैली में राहुल की बोलने की शैली और दर्शकों से खुद को जोड़ने का अंदाज यह साबित कर रहा था कि 2017 के राहुल गांधी 2014 के राहुल गांधी से ज्यादा प्रभावी और परिपक्व हैं। गुजरात के चुनावी भाषणों में राहुल के इन शब्दों ने स्वस्थ सियासी परंपरा का संकेत दिया है कि 'वे कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, लेकिन हम भाजपा मुक्त भारत के बारे में नहीं सोच सकते। हम चाहते हैं कि वे भी रहें और हम भी रहें। जनता तक वे अपनी बात पहुंचाएं और हम अपना पक्ष रखेंगे।' आज कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालने के बाद अपने पहले भाषण में भी राहुल गांधी ने इस आशय की बात कही। 
सकारात्मक सियासत के साथ-साथ बात चाहे सियासी पैंतरेबाजी की हो या चुनावी जुमलेबाजी की, राहुल गांधी हर मोर्चे पर मोदी के सामने खड़े हो रहे हैं। कांग्रेस के अंदरखाने राहुल के प्रभाव का एक उदाहरण हाल में देखने को मिला, जब प्रधानमंत्री के लिए मणिशंकर अय्यर द्वारा अपशब्द कहे जाने पर खुद राहुल गांधी ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के लिए राहुल गांधी का यह संदेश भी सकारात्मक सियासत का संकेत है कि कोई भी प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल न करे। राहुल गांधी इस मामले में भी बधाई के पात्र हैं कि उनमें अपनी आलोचना और मजाक सहने की क्षमता है। आज सोनिया गांधी ने अपने बेटे की इस क्षमता का बखान भी किया। वर्तमान राजनीति में जबकि बड़े तो बड़े छुटभैये नेता भी अपने विरोध के फेसबुक पोस्ट या ट्वीट पर सामने वाले को कानूनी कठघरे में खड़ा कर देते हैं, उस समय तमाम मजाक के मामले में सांता-बांता से तुलना को भी बर्दास्त करने की राहुल गांधी की क्षमता इस लोकतंत्र में सुखद लगती है। लेकिन उन्हें अब भी बहुत सी सियासी मर्यादाएं सीखनी हैं। जिस तरह ने उन्होंने एक विधेयक की कॉपी फाड़ी या जिस तरह से भरी संसद में ललित मोदी मुद्दे पर घिरी सुषमा स्वराज के अपनत्व को यह कहकर ठेस पहुंचाया कि 'कल सुषमा आंटी आईं और मुझसे कहा कि राहुल बेटे मुझसे नाराज क्यों हो'... अगर राजनीति में खुद को स्थापित करना है तो राहुल गांधी को इस ओछी सियासत से पार पाना होगा। कांग्रेस अब तक 17 अध्यक्ष देख चुकी है और उनमे से 6 नेहरू-गांधी परिवार से ही रहे, लेकिन किसी के भी समय कांग्रेस उतनी कमजोर नहीं हुई, जितनी आज है। कांग्रेस अब तक के अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है और राहुल गांधी को उस व्यक्ति से लोहा लेना है, जिसकी शख्सियत देश की एक बड़ी आबादी के नस-नस में रच-बस गई है। यह देखने वाली बात होगी कि क्या राहुल गांधी भारत के लिए मोदी का विकल्प बन पाते हैं... बहरहाल, उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की बहुत बहुत बधाई...


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